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महान व्यक्तित्व >> डॉ.केशवराव हेडगेवार

डॉ.केशवराव हेडगेवार

विनोद तिवारी

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :87
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3997
आईएसबीएन :81-8133-598-8

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना कर भारतवासियों में स्वाभिमान जाग्रत करने वाले एक ओजस्वी स्वतंत्रता सेनानी...

Dr.Kesavrao Hedgvar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉक्टर हेडगेवार-जिन्होंने अंग्रेजी निरीक्षकों का स्वागत ‘वंदे मातरम्’ के घोष के साथ कर अंग्रेजों के खिलाफ अपने विद्रोह का प्रदर्शन किया, जिन्होंने महसूस किया कि बाहरी गुलामी खत्म करने के साथ ही देशवासियों में भारतीय होने का गौरव भी जाग्रत करना होगा, इसीलिए जिन्होंने स्थापना की राष्ट्रीयस्वयं सेवक संघ की-एक ऐसे सशक्त आदर्शवादी संगठन की, जिसका उद्देश्य प्रत्येक भारतवासी में एक-दूसरे के लिए आदर तथा भारतमाता के प्रति भक्ति का दिव्य भाव भरना था। संघ की व्यवस्था, अनुशासन परिश्रमशीलता तथा भेदभाव विहीन दृष्टि की प्रशंसा महात्मा गांधी ने भी की थी।
हिंदुत्व के जागरण के लिए डॉक्टर हेडगेवार ने जिस परंपरा की शुरुआत की, उसे देश कभी नहीं भुला पाएगा।

डॉ. केशवराव हेडगेवार

लंबी गुलामी व्यक्ति को संवेदनाहीन बना देती है। हमारे देश भारत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। गुलामी ने भारतवासियों की बुद्धि को तो कुंठित किया ही, उन्हें अपने धर्म और कर्म से भी गिरा दिया। वे भूल गये अपने गौरवशाली आतीत को। वे नकारने लगे अपनी भूलों को। स्वयं को ‘हिंदू’ तथा ‘भारतीय’ कहने में भी उन्हें शर्म आती। विदेशी भाषा और वेशभूषा अपनाकर वे स्वयं को श्रेष्ठ समझते।

ऐसी परिस्थितियों में एक स्कूली बच्चे ने परम दुस्साहस भरा काम किया। उसने उस नारे के घोष से अंग्रेज इंसपेक्टर का स्कूल आगमन पर स्वागत किया, जिसकी अंग्रेज सरकार की ओर से सख्त मनाही थी। केशव नाम का यही बच्चा केशवराम हेडगेवार के नाम से उन लोगों के बीच पहचाना गया, जो ‘हिंदुत्व’ और ‘भारत’ की खो चुकी अस्मिता को पुनर्स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे। अपना स्वप्न साकार करने के लिए डॉ. हेडगेवार ने स्थापना की ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ की। इस आदर्श संगठन की प्रशंसा गांधी ने भी की थी।

खेल-खेल में आत्मानुशासन, मानवीय मूल्यों तथा सर्वधर्म समभाव की जो व्यवहारिक शिक्षा इस संघ में दी जाती है, उसका सानी आज भी कोई नहीं है।
डॉ. हेडगेवार द्वारा दी गई इस भेंट से देश कभी उऋण नहीं हो पाएगा।
साथियो, बलवान बनो। और ध्यान दो कि तुम तभी हिंदू कहलाने के योग्य हो, जब इस नाम को सुनते ही तुम्हारे रग-रग में बिजली का संचार हो जाए। प्रत्येक हिंदू पहली भेंट में ही आपका सगा-संबंधी बन जाए। उसका दुख-दर्द तुम्हारे हृदय को बेचैन कर डाले। उसके लिए तुम सब कुछ सहन कर सको। भले ही उसमें अनेक दोष दिखाई दें, लेकिन वह है तो आपका ही रक्त।

स्वामी विवेकानन्द

‘वंदे मातरम्’ का घोष
‘वंदे मातरम्’ कहने पर अंग्रेजी हुकूमत ने प्रतिबंध लगा दिया था। इससे केशव को हैरानी हुई। क्या कोई अपनी माँ को नमस्कार भी नहीं कर सकता ? क्या इसके लिए भी अनुमति लेनी होगी ? केशव ने निश्चय किया कि वे स्कूल का निरीक्षण करने वाले अंग्रेज अधिकारियों का स्वागत अपनी कक्षा में ‘वंदे मातरम्’ के घोष से ही करेंगे। ऐसा उन्होंने अपने सहपाठियों के साथ मिलकर किया भी। इस घटना से केशव की निर्भयता और संगठन शक्ति की क्षमता की स्पष्ट झलक मिलती है। ऐसा करके उस विरासत को उन्होंने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की, जिसने भारत माता की स्वतंत्रता के लिए अपना सरर्वस्व न्योछावर किया था।

देश के लिए सब न्योछावर

केशवराव ने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। लेकिन जब उन्हें नौकरी करने का प्रस्ताव मिला, तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया।
उनका कहना था कि आज हमारे देश की परस्थिति बड़ी नाजुक है। यह तभी सुधर सकती है, जब हमारे जैसे हजारों तरुण अपना सब कुछ न्योछावर करें। पढ़े-लिखे और समझदार युवकों का इंतजार गांव के लोग बेसब्री से कर रहे हैं। भारत माँ नौजवानों को पुकार रही है। भारत माता की पुकार पर ही मैंने अपना जीवन उसकी सेवा में लगाने का पक्का फैसला किया है। अब मेरा जीना-मरना भारत मां के चरणों में ही होगा।

परमेश्वर हमारा रखवाला है

‘संघे शक्तिः कलौ युगे’ अर्थात् इस कलियुग में संघ में ही शक्ति है। इसी विश्वास पर केशवराव हेडगेवार ने 17 अप्रैल, 1926 को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की। तब विजया दश्मी का शुभ पर्व था। शक्ति की आराधना के फलस्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने आसुरी संपदा के स्वामी लंकापति रावण को मारकर पृथ्वी का भार कम किया था। इस विजय पर्व का ही एक नाम है—विजया दशमी।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक का लक्ष्य है—हिंदू राष्ट्र का पुनरुत्थान, कथनी पर नहीं, करनी पर जोर और हिंदुओं में इस विश्वास को दृढ़ करना कि ‘मैं अकेला नहीं हूं, परमेश्वर हमारा रखवाला है।

जब भारत संघमय बनेगा....

9 जून, 1940 को प्रातः कुर्सी पर बैठ-बैठे हेडगेवार ने जब स्वयं सेवकों को निहारा तो उनकी बीमारी मानो कुछ समय के लिए उड़ गई। प्रसन्न मन से उन्होंने स्वयं सेवकों से कहा था—‘‘मैं कभी स्वयं सेवक था, ऐसा कहने की बारी कभी न आने दीजिए। संपूर्ण देश के हिंदू भाइयों को संगठित करना है। जब भारत संघमय बनेगा, तब कोई भी देश उसे टेढ़ी नजर से नहीं देख पाएगा। तब सभी समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएंगी।’’
इसके बाद 21 जून, 1940 को डॉ. केशवराव महाज्योति में सदा-सदा के लिए विलीन हो गए।

डॉ. केशवराव हेडगेवार

एक अप्रैल !
यह दिन महाराष्ट्र में गुढ़ी पाड़वा दिवस के रूप में मनाया जाता है। गुढ़ी पाड़वा का अर्थ है—ध्वजारोहण करना। इस दिन सभी लोग अपने घरों पर झंडा फहराते हैं एवं द्वारों पर तोरणादि बांधकर उल्लास प्रदर्शित करते हैं। यह दिन बड़ा शुभ माना जाता है।
जन्म
इसी शुभ दिन अर्थात एक अप्रैल, 1889 को महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पंडित बलिराम पंत हेडगेवार के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। शुभ दिवस और पुत्र जन्म से परिवार में दोहरा हर्ष छा गया।

बलिराम जी के मित्रों एवं भाई-बंधुओं ने उन्हें दिल खोलकर बधाइयां दीं।
लोग बालक को बड़ा पराक्रमी एवं भाग्यशाली मान रहे थे। दरअसल गुढ़ी-पाड़वा दिवस का इतिहास ही पराक्रम एवं विजय से परिपूर्ण रहा है। हजारों वर्ष पूर्व आज ही के दिन लंका विजय के बाद भगवान राम ने अयोध्या में प्रवेश किया था और इसी दिन राजा शालिवाहन ने मिट्टी के घुड़सवारों में प्राण फूंककर उनके द्वारा आक्रमणकारी शकों को मार भगाया था। शक एक प्राचीन अनार्य जाति से सम्बन्धित थे, जो शक द्वीप में रहते थे और जिनकी गिनती मलेच्छों में की जाती थी।

बलिराम हेडगेवार की पत्नी का नाम रेवतीबाई था, जो एक सहृदय महिला थीं। माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा।
केशव का बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन होता रहा। उनके दो बड़े भाई थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम था। उनके पिता बहुत विद्वान थे। उन्होंने अग्निहोत्र का व्रत लिया था। वे वेदों का पठन-पाठन करते थे। इसके अलावा वे पंडिताई भी करते थे। इसी से उनके परिवार का भरण-पोषण हो जाता था।

केशव के सबसे बड़े भाई महादेव शास्त्र विद्वता में बहुत आगे थे। महादेव कुश्ती और शारीरिक शक्ति के लिए बहुत मशहूर थे। वे रोज अखाड़े में जाकर व्यायाम करते थे। इसके अलावा वे मुहल्ले के बच्चों को एकत्र करके उन्हें कुश्ती के दांव-पेच सिखाते रहते थे। महादेव, भारतीय संस्कृति और विचारों का बड़ी सख्ती से पालन करते थे।
एक बार वे अपने मकान की दूसरी मंजिल पर खड़े थे। नीचे सड़क पर कुछ गुंडे महिलाओं के साथ छेड़छाड़ कर रहे थे। उस दृश्य को देखकर महादेव का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। वे वहीं से नीचे कूद पड़े और गुंडों को ललकारा। उन्होंने एक-एक करके गुंडों की जमकर पिटाई की। गुंडे किसी तरह अपनी जान बचाकर भागने में सफल रहे।

महादेव का अपने क्षेत्र में बहुत दबदबा था। वे जब अखाड़े की ओर जाते, तो लोग उन्हें देखकर डर जाते थे।
समय ने करवट बदली। अब केशव बड़े हो गए थे। महादेव छोटे भाई केशव को बहुत प्यार करते थे। वे उसे अपने साथ अखाड़े में ले जाने लगे और व्यायाम करना सिखाने लगे।
केशव पर अपने बड़े भाई के अनुशासन का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। भाई के संस्कारों ने केशव के दिल में अन्याय विरोधी भावनाओं को जन्म दिया। वे न्याय के पक्षपाती थे। घर के अगल-बगल में केशव की उम्र के कई बच्चे थे। उनसे केशव बहुत अच्छा व्यवहार करते थे। जब कभी उनका पाला शरारती बच्चों से पड़ता, तो वे उन्हें पीट-पीटकर ठीक कर दिया करते थे। बड़े भाई महादेव की तरह वे निडर भी थे।

केशव अपने बड़े भाई महादेव का बहुत सम्मान करते थे, लेकिन उनके विचार और सिद्धांत अपने भाई से अलग थे। इसीलिए उनके विचारों में टकराव हो जाता था।
एक बार होली के दिन महादेव ने केशव से कहा—‘‘आज अपने घर कुछ पुरोहित आने वाले हैं। हमें उनका आतिथ्य भांग से करना है। इसलिए तुम जाकर भांग घोंट लो।’’

भांग घोटना केशव के सिद्धांत के खिलाफ था, इसलिए उन्होंने मना करते हुए कहा—‘‘क्षमा करें भइया। मैं भांग नहीं घोंट सकता।’’
यह सुनकर महादेव को गुस्सा आ गया। उन्होंने केशव को डांटा, मगर केशव पर उनके डांटने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे अपनी बात पर अड़े रहे। अब महादेव ने उनकी पिटाई कर दी। पिटने के बाद भी केशव अपनी बात पर अड़े रहे। उसके बाद महादेव ने उन्हें घर से निकाल दिया। तब भी केशव टस से मस नहीं हुए। फिर महादेव ने उन्हें जलती लकड़ी से पीटा। केशव मार की पीड़ा को अंदर ही अंदर पी गए, मगर अपने सिद्धांत से नहीं डिगे।

शिक्षा

कुछ दिनों बाद पाठशाला में केशव का दाखिला करा दिया गया। शाम को पाठशाला से आकर वे वैदिक मंत्रों, रामरक्षा स्तोत्र और कई प्रकार के अन्य मंत्रों का जप करते। वे बचपन से ही अंग्रेजों की क्रूरता और अत्याचार की बातें सुनते आ रहे थे। जब उन्हें पता चला कि भारत मां अंग्रेजों की गुलाम हैं, तो उनका हृदय भावुक होकर रो पड़ा। उनके दिमाग में देशप्रेम की तरंगें उठने लगीं।
उसी दिन से उनके दिल में अंग्रेजों के प्रति नफरत की आग धधकने लगी। उनके देशप्रेम को देखकर लोग दातों तले उंगली दबाने लगे।

एक बार उनके स्कूल में महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की सातवीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी। इस अवसर पर स्कूल के बच्चों में मिठाइयां बांटी गईं। पर केशव को जो मिठाई मिली उसने वह खाने के बजाय कूड़े में फेंक दी और कहा—‘‘विदेशी राजा या रानी के राज्यारोहण का उत्सव मनाना हमारे लिए शर्म की बात है। हम ऐसे उत्सव नहीं मनाएंगे।’’

केशव अपने दोनों बड़ें भाइयों की तरह धुन के पक्के थे। तीनों भाई मेहनती भी बहुत थे। एक बार उनके घर में यह योजना बनी कि घर आंगन में कुआं खोदा जाए। तीनों भाई कुएं की खुदाई करने में जुट गए। उन्होंने एक ही रात में कुआं खोदकर तैयार कर दिया और उसका गंदा पानी भी बाहर निकाल दिया। सुबह जब उनके पिता ने कुआं खुदा देखा तो उन्हें अपने बेटों पर बड़ा गर्व हुआ।

सन् 1902 की बात है। भारत के कई शहरों में प्लेग की बीमारी फैली हुई थी। इस बीमारी से नागपुर के लोग भी नहीं बच पाये। वहां बहुत-से लोगों को अपनी जिन्दगी से हाथ धोना पड़ा। ऐसे में कोई अपने रिश्तेदारों के यहां उनका हाल पूछने भी नहीं जाता था, लेकिन केशव के माता-पिता सामान्य रूप से लोगों के घर जा-जाकर उनका हाल पूछते थे। छुआछूत के चलते उन्हें भी प्लेग का शिकार होना पड़ा और उनकी मृत्यु हो गई।

माता-पिता की मृत्यु के बाद घर की जिम्मेदारी महादेव पर आ गई। वह केशव पर कठोर अनुशासन चलाने लगे। इसके चलते केशव अपना अधिकांश समय घर से बाहर बिताने लगे। घर की स्थिति बिगड़ जाने से उन्हें भूखा रहना पड़ता था। उनके कपड़े भी फट गए थे, लेकिन उन्होंने अपना हौसला बनाए रखा।

वे बड़ी मेहनत और लगन से अपनी पढ़ाई करते रहे। उनकी बुद्धि बचपन से ही बहुत तेज थी। अब गीता के श्लोक उनकी जुबान पर रहते थे। यदि कहीं सत्संग होता, तो वे अपने भाइयों के साथ सत्संग में जाते थे। वे रामायण और महाभारत की कथाओं को बड़े ध्यान से सुनते थे। शिवाजी की कथा जब उन्हें कोई सुनाता, तो वे शिवाजी के विचारों में ही खो जाते थे।
एक बार केशव के घर एक अतिथि का आगमन हुआ। अतिथि बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्होंने सुबह स्नान किया और रामायण का पाठ करने बैठ गए। पाठ समाप्त होने के बाद उन्होंने रामायण को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उस पर पुष्प भी चढ़ाए।

तभी केशव ने उनसे पूछा—‘‘क्या आप रामायण के अनुसार अपने जीवन में व्यवहार करते हैं ?’’
‘‘आध्यात्म रामायण से मात्र पाठ किया जाता है। पाठ करने से ही मनुष्य का उद्धार होता है।’’ अतिथि ने कुपित होकर उत्तर दिया।
‘‘जी नहीं। मनुष्य को चरित्र संपन्न होना आवश्यक है। मनुष्य का उद्धार सिर्फ सद्गुणों के विकास से होता है।’’ केशव ने कहा।
यह सुनकर अतिथि महोदय मन ही मन खीझकर रह गए।

एक बार केशव किसी से शिवाजी की कहानी सुन रहे थे। कहानी सुनते-सुनते वे इतने तल्लीन हो गए कि शिवाजी के काल खंड में जा पहुंचे। कथा के सभी प्रसंग उनकी आंखों के सामने चलचित्र की तरह नाचने लगे। वे शांत होकर बैठ गए और शिवाजी की वीरता को याद करने लगे। केशव कल्पनाओं में खो गए। कभी वे शिवाजी का सैनिक बन जाते, तो कभी किसी किले पर आक्रमण करते, कभी किसी किले पर जाकर भगवाध्वज लहराने लगते।
नागपुर में सीताबर्डी नामक एक छोटा-सा किला है। उन दिनों वहां अंग्रेजों का यूनियन जैक लहराता हुआ दिखाई पड़ता था। केशव ने जब यूनियन जैक को देखा, तो उन्हें बहुत पीड़ा पहुंची।

वे अपने मित्रों से उस किले को जीतने की बात करने लगे। एक मित्र ने उन्हें सुझाव दिया कि किसी तरह से किले के अंदर पहुंचा जाए, तभी वहां भगवाध्वज फहराना संभव है। उसी समय केशव के दूसरे मित्र ने कहा—‘‘हमें सुरंग खोदकर मार्ग बनाना चाहिए ताकि हम इस मार्ग से किले के अंदर पहुंच सकें।

सुरंग खोदने के लिए जगह की तलाश की गई। केशव अपने मित्रों को लेकर गुरु जी के मकान पर जा पहुंचे। मकान में कोई नहीं था। गुरु जी अपने परिवार को लेकर गांव गए हुए थे। केशव ने इसी मकान से सुरंग खोदकर किले तक पहुंचने का रास्ता बनाना चाहा।
अगले दिन उनके सभी मित्र सुरंग खोदने के औजार लेकर वहां आए और खुदाई करने में जुट गए।

कुछ घंटों के बाद उन्होंने गुरु जी के घर में एक बड़ा-सा गड्ढा बना दिया। अचानक शाम को गुरु जी अपने घर लौटे तो वे उन बच्चों के कार्यों को देखकर दंग रह गए।

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