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अकबर महान

धरमपाल बारिया

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3982
आईएसबीएन :81-8133-613-5

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मुगल सल्तनत के सबसे ज्यादा चर्चित बादशाह की जीवन गाथा...

Akbar Mahan a hindi book by Dharampal Bariya - अकबर महान - धरमपाल बारिया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मुग़ल बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम के बीच की दूरियां कम करने के लिए ‘दीन-ए-इलाही’ नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर वक़्त खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जजिया ही नहीं समाप्त किया ,बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। उसकी कार्य-शैली, साहस, वीरता, सूझबूझ कूटनीति और उदारता ने उसे ‘अकबर महान’ बना दिया। वह इंसाफ़ पसंद; कला, संगीत और साहित्य का प्रेमी तथा आध्यात्मिक विचारधारा वाला सम्राट था। पूरे पचास वर्ष भारत पर शासन करनेवाला बादशाह अकबर मुगल बादशाहों में सबसे अधिक क्यों चर्चित रहा, उसने अपने शासन काल में कौन-कौन से कार्य किए और उसे किन परिस्थितियों से जूझना पड़ा-ये सब जानने के लिए पढ़े,सरल भाषा-शैली में लिखी प्रस्तुत पुस्तक ।

अकबर महान

अकबर का मन बालपन से पढ़ाई-लिखाई में न था। इतिहासकार अबुल फजल के अनुसार, ‘‘उसका पवित्र हृदय और पवित्र आत्मा कभी भी बाह्यज्ञान की ओर उन्मुख न हुई।’’ लेकिन प्रशासनिक कार्यों से संबंधित उसकी सूझ-बूझ ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि एक दिन वह सुलझा हुआ प्रशासक बनेगा। और इतिहास गवाह है इस बात का कि बड़े होकर अकबर ने इस बात को सिद्ध भी कर दिखाया। तभी तो उसके नाम के साथ जुड़ा-‘महान’ यह विशेषण !

अपने व्यक्तिगत अनुभवों से तो अकबर ने बहुत कुछ सीखा ही, अपने पूर्वजों से जुड़े इतिहास से भी उसने काफी सीख ली। राजपूतों की निष्ठा और वीरता अकबर से छिपी न थी। अपनी सेना के ईरानी और तुर्कों के आपसी संघर्षों की वजह से अकबर के लिए यह संभव नहीं था कि वह अपनी सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा को पूरा कर सके। इसीलिए उसने राजपूताना से मैत्री की नीति अपनाई। राजपूत कन्याओं से विवाह करना उसकी ऐसी ही सशक्त नीति की बानगी थी।
कुछ इतिहासकारों ने अकबर की महानता पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। उसका मानना है कि यदि अकबर महान था, तो महाराणा प्रताप जैसे भारत के सपूतों को किस श्रेणी में रखा जाए। क्या वे महान नहीं थे। इस संदर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मानवधर्म और राज्यधर्म को एक साथ जोड़कर देखना ठीक नहीं है अर्थात् मानवीय मूल्यों को एक शासक की महत्वाकांक्षा से अलग करके देखना चाहिए। इतिहास ऐसी कई घटनाओं से भरा पड़ा है, जिसमें दो शत्रु आपस में एक-दूसरे की प्रशंसा करते नहीं थकते, जबकि युद्धभूमि में वे एक-दूसरे की जान के प्यासे होते हैं।

अकबर और महाराणा के बीच हुआ ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस युद्ध में मुगल सम्राट और महाराणा आमने-सामने थे। इतिहास के जानकारों का ऐसा मानना है कि अकबर की युद्ध में स्वयं उपस्थित मुगल सेना की विजय का महत्वपूर्ण कारण बनी। जबकि महाराणा का स्वयं युद्ध में आना चित्तौड़ की हार की वजह। हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की उपस्थिति को ये इतिहासकार उसकी सफल युद्धनीति भी मानते हैं। वह जानता था कि उसकी सेना को कब किसकी जरूरत थी।

शासक और कुशल सेनापति होने के साथ ही अकबर के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पहलू था उसका जिज्ञासु होना। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डु जैरिक के अनुसार, ‘‘वह न पढ़ सकता था, न लिख सकता था-मगर अपने राज्य में होने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना की उसे जानकारी रहती थी।’’

दीन-ए-इलाही के संबंध में अकबर द्वारा कहे गए ये शब्द संकेत करते हैं कि उसने धार्मिक आस्थाओं के समन्वय को प्रशासन के साथ किस प्रकार जोड़ने का प्रयास किया, ‘‘हमें आपसी मतभेदों को मिटाना है, लेकिन इस ढंग से कि वह एक भी हो और अलग-अलग भी। प्रत्येक धर्म की अच्छाइयों को लेना चाहिए। इससे शांति कायम होगी तथा राज्य भी नहीं बिखरेगा।’’

सम्राट अकबर

मुगले आजम अकबर के विषय में कहा जाता है कि वह भारत का महान मुगल शासक था, जिसने अत्यधिक संघर्षों के चलते मात्र तेरह वर्ष की आयु में गद्दी संभाली थी। उसे हिंदुओं का हिमायती और निष्पक्ष शासक कहा जाता है। कुछ इतिहासकारों ने उसकी त्रुटियों को उजागर किया है तो कुछ ने आश्चर्यजनक रूप से उसे महिमामंडित किया है।
सत्य के लिए तर्क-कुतर्क करना हमारा उद्देश्य नहीं है क्योंकि हमारा विचार है कि हर महान व्यक्ति में कुछ कमियां भी होती हैं, अथवा उनका क्रिया-कलाप लोगों को पसंद नहीं आता, इसलिए उनकी उस कमी को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है। कोई भी व्यक्ति, वह राजा हो या रंक, उसमें कुछ खूबियां अवश्य होती हैं, अतः उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना भी न्यायसंगत न होगा। इतिहासकारों का किसी भी व्यक्ति-विशेष को आंकने का अपना नजरिया है, हमारा भी। हम बच्चों के ज्ञानवर्धन के लिए उन्हें ‘मुगल सम्राट अकबर’ के जीवन-चरित्र से अपने नजरिए से अवगत करा रहे हैं।

पूर्वज एवं जन्म

सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पोता और नासिरुद्दीन हुमायूं का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की नसों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था।
बाबर के शासनकाल के बाद हुमायूं दस वर्ष तक भी शासन नहीं कर पाया और उसे अफगान के शेरशाह सूरी से पराजित होकर भागना पड़ा। अपने परिवार और सहयोगियों के साथ वह सिन्ध की ओर गया, जहां उसने सिंधु नदी के तट पर भक्कर के पास रोहरी नामक स्थान पर पांव जमाने चाहे। रोहरी से कुछ दूर पतर नामक स्थान था, जहां उसके भाई हिन्दाल का शिविर था। कुछ दिन के लिए हुमायूं वहां भी रुका। वहीं मीर बाबा दोस्त उर्फ अली अकबर जामी नामक एक ईरानी की चौदह वर्षीय सुंदर कन्या हमीदाबानों उसके मन को भा गई जिससे उसने विवाह करने की इच्छा जाहिर की।
अतः हिन्दाल की मां दिलावर बेगम के प्रयास से 14 अगस्त, 1541 को हुमायूं और हमीदाबानो का विवाह हो गया।

कुछ दिन बाद अपने साथियों एवं गर्भवती पत्नी हमीदा को लेकर हुमायूं 23 अगस्त, 1542 को अमरकोट के राजा बीरसाल के राज्य में पहुंचा।
हालांकि हुमायूं अपना राजपाट गवां चुका था, मगर फिर भी राजपूतों की विशेषता के अनुसार बीरसाल ने उसका समुचित आतिथ्य किया।
अमरकोट में ही 15 अक्टूबर, 1542 को हमीदा बेगम ने अकबर को जन्म दिया।

उस समय हुमायूं राजा बीरसाल के सैनिकों के साथ अमरकोट से पचास किलोमीटर दूर एक अभियान पर था। जब उसे पुत्र-जन्म का समाचार मिला तो वह इस स्थिति में नहीं था कि अपने साथियों को इनाम दे सके या किसी समारोह का आयोजन कर सके। अतः उसने अपने प्रमुख सहयोगियों को कस्तूरी बांटी और कहा- ‘‘अपने बेटे के जन्म की खुशी में देने के लिए मेरे पास बस यही है। मुझे विश्वास है कि जैसे कस्तूरी की सुगंध इस कमरे में फैल रही है, वैसे ही उसकी कीर्ति भी सारी दुनिया में फैलेगी। उसका इकबाल बुलन्द होगा।’’
हुमायूं की ओर से बेटे का नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर रखा गया।

कुछ समय अमरकोट में रहने के बाद 8 दिसम्बर, 1542 को हमीदा बानो बेगम अपने नवजात बच्चे को लेकर जून नामक स्थान पर हुमायूं के शिविर पर पहुंची, जहां जीजी अनगा नामक एक महिला को अकबर की धाय नियुक्त किया गया। जीजी अनगा शम्सुद्दीन की पत्नी थी, जिसने कभी हुमायूं की जीवन रक्षा की थी।
कंदहार नामक स्थान पर हुमायूं के एक भाई कामरान का आधिपत्य था। उसकी ओर से वहां का काम-काज उसका ही एक भाई अस्करी देखता था। हुमायूं ने कंदहार को जीतने का मन बनाया और उस ओर बढ़ने लगा, मगर अस्करी को इसकी भनक लग गई। वह मुकाबले के लिए तैयार हो गया। तब हुमायूं ने कंदहार का इरादा छोड़ दिया और मुश्तंग की ओर रवाना हो गया। उसे पता चला कि अस्करी अभी भी उसके पीछे है, तब वह सीस्तान की ओर चल दिया जहां से ईरान के रास्ते मक्का पहुंचा जा सके।

आगे की य़ात्रा चूंकि बहुत कठिन थी, इसलिए उसने अपने एक वर्ष के पुत्र अकबर को अपने अनुचरों के साथ वहीं छोड़ दिया और हमीदाबेगम और अपने साथियों के साथ सफर पर रवाना हो गया। यह घटना 15 अक्टूबर, 1543 की है। इस सफर में हुमायूं के साथ कुल 41 लोग थे, जिनमें दो महिलाएं थीं।
सन् 1545 के शुरू में हुमायूं ने ईरान के शाह की सहायता से कंदहार पर आक्रमण की योजना बनाई और उसने एक शक्तिशाली सेना लेकर कंदहार को घेर लिया। तब 3 सितम्बर, 1545 को अस्करी ने कंदहार का किला हुमायूं को सौंप दिया।

यहां से हुमायूं काबुल की ओर रवाना हुआ, जहां उसके भाई कामरान का शासन था। इस समय हुमायूं का पुत्र कामरान के पास ही था, जिसे हुमायूं के अनुचरों से छीनकर अस्करी ने ही काबूल पहुंचाया था।
हुमायूं जैसे ही काबुल के निकट पहुंचा, कामरान वहां से भाग खड़ा हुआ और 18 नवम्बर, 1545 को काबुल पर भी हुमायूं का अधिकार हो गया। दो वर्ष से अधिक अन्तराल के बाद हुमायूं को अपने पुत्र अकबर से मिलने का संयोग प्राप्त हुआ।
काबुल में अपनी सत्ता स्थापित हो जाने पर हुमायूं ने कंदहार से हमीदा बानो बेगम को बुलवा लिया। जब हमीदा बानो बेगम काबुल पहुंची तो परिवार वालों ने नन्हें अकबर की परीक्षा ली कि देखें दो वर्षों के अन्तराल के बाद वह अपनी मां को पहचानता भी है या नहीं, उन्होंने हमीदा बानो बेगम को परिवार की अन्य स्त्रियों के बीच बैठा दिया और फिर नन्हें अकबर को सामने लाया गया। तब सबलोग देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि इतनी महिलाओं की मौजूदगी में भी नन्हा अकबर सीधा अपनी मां की गोद में जाकर बैठ गया। इस विशिष्ट बुद्धिमत्ता को देखकर सभी चमत्कृत से रह गए।

सारे परिवार के लिए यह अत्यंत हर्ष और आनंद का विषय था, क्योंकि पांच वर्षों के घुमक्कड़ जीवन के बाद सब एक ही स्थान पर एकत्रित हुए थे। काबुल में ही कुछ समय के बाद बालक अकबर का खतना सम्पन्न हुआ।
कुछ महीने बिल्कुल शांति से गुजरे। उसके बाद हुमायूं ने अपने परिवार को छोड़कर बदख्शां की ओर रवाना हुआ, जहां जाकर वह बीमार पड़ गया। उसकी अनुपस्थिति और आशक्तता का पता चलते ही कामरान ने पुनः काबुल पर कब्जा कर लिया। हुमायूं को पता चला तो स्वस्थ होने पर उसने फिर से काबुल की ओर रुख किया और नवम्बर, 1547 में उसने काबुल को पुनः घेर लिया। इस समय बालक अकबर और अन्य परिजन कामरान के आधीन थे।
हुमायूं ने किले पर तोपें बरसवा दीं।

उधर तोपों की मार से बचने के लिए कामरान ने एक बड़ा ही दुष्टतापूर्ण काम किया, उसने नन्हें अकबर को किले की दीवार पर बैठा दिया ताकि हुमायूं तोपें चलानी बंद कर दे। हुमायूं ने फौरन ही गोलाबारी बंद करने का आदेश दिया।
मौका पाकर कामरान बदख्शां की ओर भाग गया और काबुल पर हुमायू का कब्जा हो गया।

इस प्रकार हुमायूं के अगले कुछ वर्ष और अस्थिरता में गुजरे। बल्ख में उसकी पराजय हुई और एक बार फिर काबुल उसके हाथ से निकला, मगर फिर उसने उस पर कब्जा कर लिया।

शिक्षा-दीक्षा

अकबर आठवां वर्ष पूरा कर रहा था। जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में गुजरे थे जिसके कारण अकबर की शिक्षा-दीक्षा की उचित व्यवस्था नहीं हो पाई थी। अतः अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया। 20 नवम्बर, 1547 को उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक समारोह का आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के गायब हो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया।

मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया।
मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में कामयाब न हुआ। दरअसल, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी, और कुत्ते पालने में अधिक थी।

पढ़ाई के प्रति अकबर की इस विमुखता को देखकर हुमायूं को बड़ी निराशा हुई। उसने अकबर को एक पत्र लिखकर एक नेक सलाह दी-
‘‘बेकार मत बैठो, यह खेल का समय नहीं है। यह कला के अध्ययन और कार्य करने का समय है।’’
पर हुमायूं की इस सलाह का अकबर पर कोई असर न हुआ। अध्ययन के प्रति उसकी अरुचि बनी रही। अकबर की शिक्षा के प्रति इस विमुखता का उल्लेख अबुल फजल नामक इतिहासकार ने बड़े ही गूढ़ शब्दों में किया है- ‘‘उसका पवित्र हृदय और पवित्र आत्मा कभी भी बाह्य ज्ञान की ओर उन्मुख न हुई।’’
मगर इसमें कोई भी शक नहीं कि उसकी बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी और इतिहास गवाह है कि सूझबूझ की भी उसमें कोई कमी नहीं थी।

पहला प्रशासनिक कार्य

कामरान के पराजित हो जाने के बाद हुमायूं के क्षेत्रों में कुछ राजनीतिक स्थिरता आ गई थी, अतः अकबर की अध्ययन में कोई खास रुचि न देखकर हुमायूं ने उसे प्रशासनिक कार्यों का प्रशिक्षण देने का विचार बनाया और सर्वप्रथम उसे चर्ख नामक ग्राम का कार्यभार सौंपा, जो काबुल के दक्षिण-पूर्व में था।

कुछ दिनों बाद एक युद्ध में हिन्दाल की मौत हो गई। उसका प्रदेश गजनी 1551 के अन्त में अकबर को सौंपा गया। यह पहला महत्वपूर्ण प्रशासनिक कार्यभार था। अतका खां और कुछ दूसरे अधिकारियों के साथ अकबर गजनी जा पहुंचा। वहां अकबर छः महीने रहा। उसने वहां के निवासियों की समस्याएं सुनीं और प्रशासनिक समस्याओं की भी जानकारियां प्राप्त की। उसके बाद उसे काबुल बुला लिया गया।

एक वर्ष बाद हुमायूं ने अफगानों के विरुद्ध मोर्चा लिया और उसमें अकबर को भी अपने साथ लेकर गया। इसी अभियान के दौरान एक गक्खर सरदार ने हुमायूं को सूचना दी कि कामरान ने उसके प्रदेश में शरण ले रखी है। तब दोनों (पिता-पुत्र) वहां पहुंचे और कामरान को बंदी बना लिया।

उसकी विद्रोही हरकतों के फलस्वरूप उसे अंधा करके मक्का जाने दिया गया। इसके बाद अकबर को काबुल भेज दिया गया। सन् 1554 में हुमायूं ने मुनीर खां को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।

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