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दादा-दादी की अनमोल कहानियां

संदीप गुप्ता

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3976
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है दादा-दादी की अनमोल कहानियों का संकलन...

Dada Dadi Ki Anmol Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हमारे देश में कथा-कहानियों की स्मृद्ध श्रृंखला के पीछे हमारा सामाजिक ताना-बाना तथा संयुक्त परिवारों का प्रचलन मुख्य कारण रहा है। हर पीढ़ी में बच्चे अपने घर के बड़े-बुजुर्गों, विशेषकर दादा-दादी के सान्निध्य में रहते और बढ़ते आए हैं। दादा या दादी द्वारा घर के नन्हें-मुन्नों व उनकी मित्रमंडली को कहानी-किस्से सुनाने का यह सिलसिला शाम ढलते ही शुरू हो जाता है। बच्चे इसमें कुछ इस कदर डूब जाते हैं कि खाने-पीने की सुध भी नहीं रहती-ऐसा चुम्बकीय आकर्षण होता है इन कहानियों में। बाद में इन्हीं कहानियों में कुफल या सुफल का समावेश हो गया, ताकि बच्चे मनोरंजन के साथ-साथ कुछ प्रेरणा भी ग्रहण कर सकें। दादा-दादी के मुख से निकलने वाली अधिकांश कहानियां हमारे प्राचीन भारतीय साहित्य का ही परिवर्तित स्वरूप हैं। धीरे-धीरे इसमें विश्व-प्रसिद्ध कथाओं का भी समावेश हो गया। बच्चों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा देकर उनका आत्मिक व मानसिक विकास करने वाली ऐसी ही चुनिंदा कहानियों को पेश किया है हमने दादा-दादी की कहानियों के इस खजाने के रूप में।

जाको राखे साइयां


बस अपनी मंजिल की ओर बढ़ी जा रही थी। रास्ते में कुछ देर के लिए रुकी तो ड्राइवर ने यात्रियों से कहा, ‘‘जो लोग चाय-नाश्ता करना चाहें यहीं कर सकते हैं। अगला पड़ाव दो घंटे बाद आएगा।’
कुछ यात्री उतर गये, कुछ बस में ही बैठे रहे तभी उन्होंने देखा कि एक कुत्ता खरगोश के पीछे दौड़ रहा है। खरगोश तेजी से कूदकर एक झाड़ी में छिप गया। तभी बस का चालक उठा और झाड़ियों के पास जाकर एक ही झटके में खरगोश को पकड़ लिया। वह बस में से एक बड़ा चाकू ले आया।
‘कुत्ते से तो बच गया, मुझसे कैसे बचेगा।’ चालक बोला।
‘पर आप इसे मार क्यों रहे हैं ?’ एक यात्री बोला।
‘मैं इसे भूनकर खाऊँगा। बड़े दिनों बाद खरगोश का मांस खाने को मिलेगा।’
अभी चालक ने अपना बड़ा-सा चाकू खरगोश की गर्दन पर चलाने के लिए उठाया है था कि चाकू उसके हाथ से छूट कर उसके पैर पर गिर पड़ा। भारी चाकू के गिरते ही चालक का पैर बुरी तरह कट गया। वहाँ नजदीक कोई अस्पताल भी नहीं था। खून अधिक निकल जाने के कारण उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। कुछ ही देर में चालक के प्राण निकल गए।
तभी तो कहा गया है, ‘जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय।’
जीव हत्या से बढ़कर पाप कोई दूसरा नहीं। प्राण सभी को प्यारे होते हैं, तभी वह खरगोश कुत्ते से बचने को झाड़ी में जा छिपा था, लेकिन बस का ड्राइवर उसके प्राणों का प्यासा हो गया। ईश्वर की लीला अपरंपार है, इसलिए अहित सोचने वाले का अहित पहले होता है, जैसे बस ड्राइवर का हुआ।

भगवान


प्राचीनकाल की बात है...पृथ्वी पर भयंकर बीमारियों, भूकम्प, आंधी-तूफान तथा खूंखार जानवरों का आतंक था।
परेशान लोगों ने ईश्वर की आराधना की। उन्होंने भगवान से दिव्य पुरुष की मांग की, जो उन्हें इन सब प्रकोपों से मुक्ति दिला सके। अन्ततः भगवान को उन पर तरस आ गया और उन्होंने एक दिव्य-पुरुष पृथ्वी पर भेज दिया।
लोगों ने उस दिव्य-पुरुष को सिर-आँखों पर बैठा लिया। सभी उस पर बड़ी-बड़ी फूलों की माला चढ़ाने लगे। वह दिव्य-पुरुष लोगों की इस हरकत से बहुत परेशान हो रहा था। वह बार-बार लोगों से कहता भी, ‘रहने दो, इन सबकी क्या जरूरत है।’ किंतु लोग नहीं माने अंततः वह दिव्य पुरुष उन फूल मालाओं के बोझ तले दबकर मर गया।
लोग फिर भगवान से प्रार्थना करने लगे। इस बार भी भगवान ने एक और दिव्य-पुरुष पृथ्वी पर भेज दिया। उसका भी यही हश्र हुआ।

इस तरह लोग बार-बार प्रार्थना करते और भगवान हर बार एक दिव्य-पुरुष भेज देते।
इस बार जब लोग भगवान से दिव्य पुरुष की मांग कर रहे थे तो भगवान ने उनके पास एक पत्थर की मूर्ति भेज दी। लोगों ने उसका भी भरपूर स्वागत किया। उस पर भी खूब फूल-मालाएं चढ़ाईं। लेकिन उसे कुछ न हुआ...वह जस-का-तस रहा।
तब भगवान ने मन-ही-मन कहा, ‘इसबार तुम लोग जितनी मर्जी फूल-मालाएं चढ़ा लो यह दिव्य-पुरुष नहीं मरेगा।’
बार-बार एक ही घटना की पुनरावृत्ति होने पर यह सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है...क्या कारण है इसके पीछे। लोग ईश्वर के भेजे दिव्य-पुरुष को फूलों के बोझ तले दम तोड़ने को विवश कर देते थे, जबकि अपनी ओर से वे उसका सत्कार कर रहे थे। कुछ करने से पहले भला-बुरा सोच लेना चाहिए।

राजा का कर्तव्य


राजा प्रतापराय अपनी प्रजा के प्रति बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ था। एक बार प्रजा ने अपने राजा के यश और कल्याण की वृद्धि के लिए यज्ञ करने का विचार किया। राजा ने यज्ञ की अनुमति दे दी, साथ ही इस यज्ञ के लिए हर संभव मदद की पेशकश की । किंतु प्रजा प्रतिनिधियों ने यह कह कर मानने से इनकार कर दिया कि यह यज्ञ राजा के कल्याण हेतु प्रजा की तरफ से होगा। अतः इसका सारा खर्चा भी प्रजा वहन करेगी, साथ ही प्रतिनिधियों ने राजा से यज्ञ में उपस्थित होने को कहा। राजा ने उनकी बात को स्वीकार कर लिया।

नियत समय पर यज्ञ शुरू हो गया। 21 दिन का यज्ञ था। प्रतिदिन राजा स्वयं यज्ञ में उपस्थित होता और अपने हाथों से आहुतियां देता। यज्ञ को बीस दिन हो चुके थे। प्रजा को बस इन्तजार था तो इक्कीसवें दिन का। इस दिन राजा को इक्कीस आहुतियां देनी थीं। इसके बाद राजा प्रतापराय का यश पूरी दुनिया में फैल जाना था।

इक्कीसवें दिन प्रातः यज्ञ की सारी तैयारियाँ हो गईं। राजा का इंतजार हो रहा था। जब काफी देर तक राजा वहाँ नहीं पहुँचा तो कुछ लोग महल में चले गए। वहाँ पता चला कि राजा वहाँ नहीं है, वह सुबह-सवेरे ही सैनिकों के साथ कहीं चला गया था।

प्रजा को जब यह खबर मिली तो वह उदास हो गई। यज्ञ भी पूर्ण नहीं हो पाया। चार दिन बाद जब राजा लौटा तो लोग उससे मिलने महल में गए। राजा ने उनसे कहा, ‘मुझे अफसोस है कि आप लोगों का यज्ञ पूरा नहीं हो पाया, किंतु मेरा जाना जरूरी था। पड़ोसी राज्य ने हम पर आक्रमण कर दिया था और वे लोग नगर की सीमा तक आ गए थे। हम लोगों ने दुश्मनों को मार भगाया।’
प्रजा खुश हुई और राजा को बधाई देते हुए, ‘महाराज यदि एक दिन आप और रुक जाते तो यशस्वी राजा बन जाते।’
राजा ने कहा, ‘यदि मैं एक दिन और रुक जाता तो हम लोग पड़ोसी राज्य के गुलाम हो जाते। आज भले ही मैं यशस्वी नहीं हूँ, लेकिन स्वतन्त्र तो हूँ। मैं राजा हूँ और प्रजा के प्रति मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उन्हें स्वतंत्र वातावरण दूँ।’

राजा का सर्वप्रथम धर्म है प्रजा की रक्षा करना। इसी से उसके यश-कीर्ति का अनुमान लगता है। यज्ञ करने से राजा यशस्वी होता है या नहीं, यह तो ऊपरवाला जाने। लेकिन उस समय का यही तकाजा था कि सीमा पर पहुँचे शत्रु को मुँहतोड़ जवाब दिया जाता, जैसा उस समझदार राजा ने दिया भी।

सच्चा ब्राह्मण


रामनाथ कर्मकांडी ब्राह्मण था। पूजा-पाठ और भक्ति में उसका पूर्ण विश्वास था। लेकिन वह बहुत ही गरीब था। जहां वह रहता था वह ब्राह्मणों का ही गांव था। लेकिन वे सभी ढोंग और पाखंड में विश्वास रखते थे। उनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना था।

कई बार उन ढोंगी ब्राह्मणों ने रामनाथ को भी सलाह दी थी कि वह भी लोगों को बेवकूफ बनाकर खूब पैसा कमाए, लेकिन इस काम के लिए उसका मन नहीं मानता था। एक बार रामनाथ की पत्नी ने उससे कहा, ‘आप दरबार में जाकर राजा से मदद मांगें।’

पत्नी की सलाह पर रामनाथ अगले दिन प्रातः राजा से मिलने महल की ओर चल दिया। वहां तक पहुंचने में एक दिन का समय लगता था। वह चलता रहा, चलते-चलते जब थक गया तो कुछ देर आराम करने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसे भूख भी लग रही थी। उसने रोटी की पोटली खोली तो उसमें पूजा का सामान भी था। उसे याद आया कि उसने तो आज पूजा ही नहीं की। वह पूजा करने लगा। उसके बाद उसने रोटी की पोटली खोली और जिस पेड़ के नीचे बैठा था, एक रोटी उसकी जड़ में रख कर बोला, ‘हे वृक्ष ! कृपया मेरी तरफ से यह रोटी स्वीकार करें।’
तभी वहां आवाज गूंजी, ‘हे ब्राह्मण आपने यहां पधारकर हमारा उद्धार कर दिया। हम तो वर्षों से आपकी है प्रतीक्षा कर रहे थे।’
रामनाथ हैरान रह गया। उसने देखा कि वृक्ष पर दो मैना बैठी थीं।’
मैना बोलीं, ‘जिस वृक्ष के नीचे आप बैठे हैं वह ऋषि तुंगभद्र हैं और हम दोनों स्वर्ग की अप्सराएं। कृपा करके आपके पास जो जल है, उसकी कुछ बूंदें इस वृक्ष और हम दोनों पर छिड़क दें तो हम सब अपने वास्तविक रूप में आ जाएंगे।

रामनाथ ने तुरंत उस वृक्ष पर और दोनों मैनाओं पर जल छिड़क दिया। वे सब अपने वास्तविक रूप में आ गए। ऋषि तुंगभद्र ने रामनाथ को धन्यवाद दिया और उसे दो थैली स्वर्ण-मुद्राएं दीं। इसके बाद वे तीनों वहां से अदृश्य हो गए। उनके जाते ही वहां एक सुंदर-सा मकान बन गया और फिर से एक आवाज गूंजी, ‘रामनाथ ! यह मकान तुम्हारा है।’
रामनाथ अपने गांव लौट आया। वहां उसने देखा कि गांव के सभी मकान टूटे पड़े हैं। वह अपने घर की तरफ दौड़ा। लेकिन उसका मकान सही-सलामत था। उसने अपनी पत्नी को सारी बात बताई। उसकी पत्नी बोली, ‘लगता है गांव के सभी ढोंगी पंडितों को भगवान ने श्राप दे दिया है।’
इसके बाद रामनाथ अपनी पत्नी के साथ नए मकान में आकर सुख से रहने लगा।

सच्ची श्रद्धा व भक्ति का फल एक-न-एक दिन अवश्य ही मिलता है। रामनाथ छल-कपट से धन कमाने को ठीक नहीं मानता था, उसकी ईमानदारी में शक्ति थी। इसी शक्ति ने ऋषि व अप्सराओं को मुक्ति दी और रामनाथ को भी वैभव मिल गया।

किस्मत का खेल


चमनलाल सारा दिन धूप में इधर-उधर घूम-फिरकर टूटा-फूटा सामान और कबाड़ जमा करता, फिर शाम को उसे बड़े कबाड़ी की दुकान पर बेचकर पेट भरने लायक कमा लेता था। एक दिन वह एक घर से पुराना सामान खरीद रहा था। घर के मालिक ने उसे एक पुराना पानदान भी दिया, जो उसने मोल-भाव करके एक रुपये में खरीद लिया।
कुछ आगे बढ़ने पर एक और घर ने उसे कुछ कबाड़ बेचा, लेकिन घर के मालिक को वह पानदान पसंद आ गया और उसने पांच रुपये में उसे खरीद लिया। लेकिन जब काफी कोशिश के बाद भी वह पानदान उससे नहीं खुला तो अगले दिन उसने उसे चमनलाल को वापस करके अपने पांच रुपये ले लिए।

शाम को बड़े कबाड़ी ने भी वह पानदान न खुलने के कारण उससे नहीं खरीदा। अगले दिन रविवार था। रविवार को बाजार के चौक पर चमनलाल पुराना सामान बेचता था। वहां उससे कोई ग्राहक पांच रुपये देकर वह पानदान ले गया। लेकिन अगले रविवार को वह ग्राहक वह पानदान उसे वापिस कर गया क्योंकि वह उससे भी नहीं खुला।
बार-बार पानदान उसी के पास पहुंच जाने के कारण चमनलाल को बहुत गुस्सा आया और उसने उसे जोर से जमीन पर पटककर मारा। अबकी पानदान खुल गया। पानदान के खुलते ही चमनलाल की आंखें खुली-की-खुली रह गईं। उसमें से कई छोटे-छोटे बहुमूल्य हीरे छिटककर जमीन पर बिखर गए थे।

अगले दिन प्रातः वह उसी घर में गया जहां से उसने पानदान खरीदा था। पता चला कि वे लोग मकान बेचकर किसी दूसरे शहर में चले गये हैं। चमनलाल ने उनका पता लगाने की कोशिश भी की लेकिन नाकामयाब रहा। बाद में चमनलाल उन हीरों को बेचकर संपन्न व्यापारी बन गया और सेठ चमनलाल कहलाने लगा।

समय से पहले भाग्य से ज्यादा किसी को नहीं मिलता। यही चमनलाल के साथ हुआ। वह तो किसी तरह उस पानदान से छुटकारा पाना चाह रहा था, जो बार-बार लौटकर उसी के पास आ जाता था। किस्मत बार-बार उसके दरवाजे पर दस्तक दे रही था, तभी तो वह पानदान उसे कबाड़ी से सेठ बना गया।

वकील की ईमानदारी


श्रीधर एक प्रसिद्ध डॉक्टर था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। श्रीधर ने जीवन-बीमा करा रखा था। बीमे की राशि लगभग दस हजार रुपये डॉक्टर की पत्नी रूपाली को मिल गई। रूपाली ने वह राशि डॉक्टर के एक वकील मित्र राजगोपाल को जमा करने के लिए दे दी। राजगोपाल ने वह राशि रूपाली के नाम से पंद्रह वर्ष के लिए एक प्रतिष्ठित कंपनी में जमा करा दी।

इस बात को सात साल बीत गए। अचानक रूपाली को रुपयों की जरूरत पड़ी। उसने राजगोपाल से अपने दस हजार रुपये मांगे। वकील राजगोपाल तो उन पैसों को भूल ही चुके थे उन्होंने अपने पुराने कागजात देखे। लेकिन उन्हें कहीं भी दस हजार रुपये जमा नहीं मिले। वह काफी परेशान हो गए। अगर वह रूपाली को झूठा बताते तो लोग उन पर एक विधवा के रुपये हड़प कर लेने का इल्जाम लगा सकते थे। अतः काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने स्वयं अपनी जेब से दस हजार रुपये रूपाली को दिए।

उधर कंपनी की पंद्रह वर्ष की मियाद पूरी हो जाने के बाद रूपाली के नाम जमा कराए दस हजार रुपये पचास हजार में तब्दील हो गए थे। कंपनी ने रूपाली को पत्र लिखकर सूचित किया। रूपाली को जब पत्र मिला तो वह बहुत हैरान हुई। वह कंपनी के अधिकारियों से जाकर मिली और उन्हें बताया कि उसने तो रुपये जमा ही नहीं कराए। तब रूपाली राजगोपाल से मिली और पूछताछ की। तब कहीं जाकर राजगोपाल को याद आया कि उसी ने वह रुपये रूपाली के नाम से उस कंपनी में जमा कराए थे।

कंपनी से रूपाली को पचास हजार रुपये मिल गए। रूपाली ने वह रुपये राजगोपाल को देने चाहे, क्योंकि वह तो अपने दस हजार रुपये ले चुकी थी। लेकिन वकील ने अपने दस हजार रुपये ही लिए।

सच में वह बल होता है कि एक दिन सामने आकर ही रहता है। रूपाली भी सच्ची थी और राजगोपाल भी। यह सच यदि छिपा रहता तो रूपाली के प्रति राजगोपाल के मन में संदेह का नाग जरूर फन उठाता। लेकिन राजगोपाल सच्चा होने के साथ ईमानदार भी था, इसीलिए उसने अपने 10 हजार रुपये ही वापस लिए।


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