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सुलगा हुआ राग

मनोज मेहता

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3830
आईएसबीएन :81-7119-867-8

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मनोज मेहता की कवितायें..

Sulga Hua Rag

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस संग्रह की कविताओं में समकालीन भारतीय समय और विडम्बनाओं से भरे उसके व्यापक यथार्थ की गहरी समझ है और उसी के साथ है उस यथार्थ की संश्लिष्ट संरचना से प्रसंगों, वस्तुओं, पात्रों और उनकी अन्तर्क्रियाओं को अचूक कौशल के साथ उठाकर अपना काव्य लोक रचने की अनूठी सृजनशीलता को विस्मयकारी ढंग से कविता के सामान्य चलने वाले अतिपरिचित इलाकों के पार जाकर हमारे लिए गांव कस्बों के मामूली मनुष्यों की एक विशाल दुनिया खोलती है। यह वह दुनिया है जहाँ ‘ढुलमुल गँवारू झोपड़ों में’ और ढोल, मदाल, बाँसुरी के सुरों में हमारा देश बसता है।’

मनोज मेहता के काव्य सामर्थ्य का एक गौरतलब पहलू यह भी है कि लोकजीवन से उनकी संलग्नता उन्हें अपनी भाषा के अन्य बहुतेरे कवियों की तरह अतिशय रोमानीपन की ओर नहीं ढकेलती। ‘सुलगा हुआ राग’ में जहाँ मनोज उपलब्ध जीवन को उत्सवित करते हैं वहाँ भी उनका काव्य विवेक अपनी वस्तुपरकता को खोकर असन्तुलित नहीं होता और न ही वह अतिरिक्त ऐश्वर्य अर्जित करने के लिए शिल्प की कलावादी तिकड़मों का सहारा लेता है। यह एक ऐसा काव्य विवेक है जो आवयविक अनुभवों को लेकर बेहद सादगी और धीरज के साथ अपने आशयों को स्पष्ट करता है और भीषण संकटों के मौजूदा दौर में अपने जीवन प्रसंगों की मानवीय आन्तरिकता को भाषा के आइने में कुछ यों ले आता है कि वह बार-बार अपनी अनोखी आकस्मिकता के नयेपन से हमें एक दुर्लभ सौन्दर्यबोध की जमीन पर नये आविष्कार की तरह बाँध लेती है-मानों हमारे भीतर पहले कुतूहल और फिर सरोकारों का खूब समृद्ध ताना-बाना निर्मित करती हुई।

‘सुलगा हुआ राग’ की अन्तर्वस्तु में सहज और आयासहीन जनोन्मुख प्रतिबद्धता है, आख्यान है और निरन्तर गूँजती एक लय है जिसमें क्रियाओं की ध्वनियों की आवाजा ही और हलचलें शामिल हैं, पर इस सबके बावजूद कुछ भी स्फीत नहीं होता। यहाँ शामिल कविताओं में मनोज मेहता के अनुभव प्रान्तरों की ऐसी अन्तर्यात्रा के साक्ष्य हैं जिनमें हमारे सामूहिक मन की बेचैन दीप्तियाँ तो हैं ही, उसकी अपराजेय जिजीविषा का गान भी है।
‘सिलगा हुआ राग’ के एक से दूसरे छोर तक मनोज मेहता ने चाहें जितने भी स्वरों का संयोजन किया हो, यहां न कहीं किसी विवादी स्वर का खलल है और न ही कोई मुद्रा का दोष।

‘सुलगा हुआ राग’ में यह सब संभव हो पाया है तो इसलिए कि इसकी निर्मित में एक विनम्र किन्तु दृढ़ प्राणवत्ता बसी है।

मूर्ति


जिधर से खुरचों
मिट्टी ही मिट्टी है
अपने समय से
खोदकर अलग की हुई

यह मिट्टी है
अपने समय में
सबसे ज्यादा रूदी गयी
सबसे ज्यादा तपी हुई
इसमें बसी है
एक खास किस्म की गंध
हल के फाल की चमक से
चुँधियाई इस मिट्टी में
मिल जायेगा
अपने वक्त का
सबसे ऊर्जावान बीज का जीवाश्म
सबसे स्वीकृत विचारों का सूत्र
तमके हुए खुरों का
सबसे गहरा निशान
बहे हुए पसीने की बूँद
हरियाली का सबसे बड़ा कारण
लहलहाते फसलों का संगीत
और अनिर्दिष्ट आग से
सुलगा हुआ राग
यह मिट्टी
उस मूर्ति की है
जिसे अपने समय में
खोद कर ढाला गया था
खास इसी वक्त के लिए


बहुरूपिया



वह जाता है
गरीबों के पास सेठ बन कर
चोर के पास सिपाही
और सिपाही के पास थानेदार बनकर
बीमार के पास वैद्य
और जानवर के पास आदमी बनकर
वह किसी के पास नहीं जाता उसकी तरह

वह आता है
एक चेहरे पर कई चेहरे पोते
चेहरों में कोई फर्क किए बगैर  
शक्ल की रोज नयी परिभाषा बदलता
बहुरूपिया होता है
बच्चों के पास जादू की पिटारी
पोटली में बँधा चॉकलेट
और बूढ़ों के पास
अनुभवों का गट्ठर

टूटी हुई सड़क पर
वह बन जाता है पुल
और झुलसे हुए गाँव में
पहुँच जाता है
हरियाली की तरह
अपने करतबों से करता है
सबकों रोमांचित
तब फटी-फटी आँखों से
उसे देखते हैं सब
जब जुलूस में
वह भक् से जलता है मशाल की तरह

नदी में नाव बनने से पहले
सबके लिए हो जाता है एक किताब
जिस पर अपना नाम लिखते हुए
डरते हैं सब, हो जाते हैं पसीने से तरबतर

पर बहुरूपिया
उस पसीने पर, घबराहट पर
सवालिया निशान लगता हुआ
निकल जायेगा आगे

वह बदलता फिरेगा
मुहल्ला, गाँव, शहर
पर कभी नहीं बदलेंगे
उसके करतबों के मिजाज

वह घर-घर जायेगा
अपनों की तरह
सास के पास बहू की तरह
पिता के पास बेटे की तरह
वह बन जाएगा चौकीदार के पास लाठी
हलवाहे के पास खैनी की डिबिया
पर हर रोज
भूखे लोगों के पास
सूखी रोटी की तरह
वह जरूर जायेगा
पहाड़ के पास बारूद बनकर
और जंगल में घुस जायेगा
आधी रात को आग बनकर

बहुरूपिया
जिसके पास न कोई नाम होता है
न पता न परिचय

सब कहते हैं
अपना चेहरा वह छुपाता है
पर नहीं
वह हर बिगड़े चेहरे को
करता है दुरूस्त
 
बहुरूपिया कभी थकता नहीं
कभी खत्म नहीं होता

पीढ़ियाँ बदलती हैं
सदियाँ बदलती हैं
पर कभी नहीं बदलता है
बहुरूपिया
हजार-हजार रूपों में बँटकर
वह रहता है एक-सा जिन्दा
कुछ जरूरी शब्दों के साथ
 




 

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