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दिगंत

त्रिलोचन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3819
आईएसबीएन :81-267-1243-0

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कवि त्रिलोचन के कुछ सॉनेट

Digant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दिगंत में कवि त्रिलोचन के कुछ सॉनेट संकलित हैं। हिन्दी में सानेट तो प्रसाद, पन्त, निराला आदि अन्य कवियों ने भी लिखे हैं, लेकिन त्रिलोचन ने सॉनेट के रूप में विविध प्रकार के नये प्रयोग कर सॉनेट को हिन्दी कविता में मानो अपना लिया है। जीवन के अनेक प्रसंगों की मार्मिक और व्यंग्यपूर्ण अभिव्यंजना इन कविताओं में हुई है।
त्रिलोचन के सॉनेटों की भावभूमि छायावाद नहीं है, और न प्रयोगवादी ही, यद्यपि भाषा, लय और विन्यास सर्वथा नवीन और चमत्कारपूर्ण हैं। जीवन के वैषम्यों की गहरी चेतना होने के कारण ही त्रिलोचन का दृषटिकोण आशावादी है और उन्होंने अपनी अनुभूतियों को नई भाषा में ढालकर तीखी अभिव्यक्ति दी है जो सीधे ह्रदय पर चोट करती है।

नेपथ्य से


जगत शंखधर के दिगंत का प्रकाशन ही नहीं संकलित रचनाओं का चयन और अनुक्रम भी किया था। यही नहीं उन्होंने रचनाओं के शीर्षक भी दिए या मुझसे दिलवाए। कई जगह उनके परामर्श से मैं ने रचनाओं में संशोधन किए, कई जगह उन्हीं के सुझाए संशोधन मैंने रखे हैं। जगत में शंखधर ने मुझसे कहा कि तुम्हारी रचनाओं की राशि को पूरा पूरा पढ़ना और उसमें से चुनाव करना मेरे लिए सम्भव नहीं; अच्छा हो, तुम्हीं दो ढाई सौ रचनाएँ चुन कर मुझे दे दो। मैं उन्हीं में से यथेष्ट चयन कर लूँगा। मैं ने दो ढाई सौ रचनाएँ अनुलिपि कर उन्हें दे दीं। इन्हीं रचनाओं में से अंतिम चुनाव दिगंत नाम से प्रकाशित हुआ।

त्रिलोचन

सॉनेट का पथ


इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
        सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
        यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
        ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
        नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
    स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
    वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।

    सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,
    जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।

अक्टूबर ’ 51

प्यार


जब भौंरे ने आकर पहले पहले गाया
        कली मौन थी। नहीं जानती थी वह भाषा
        इस दुनिया की, कैसी होती है अभिलाषा
इस से भी अनजान पड़ी थी। तो भी आया

जीवन का यह अतिथि, ज्ञान का सहज सलोना
        शिशु, जिस को दुनिया में प्यार कहा जाता है,
        स्वाभिमान-मानवता का पाया जाता है
जिस से नाता। उस में कुछ ऐसा है टोना

जिस से यह सारी दुनिया फिर राई रत्ती
        और दिखाई देने लगती है। क्या जाने
        कौन राग छाती से लगता है अकुलाने,
इंद्रधनुष सी लहराती है पत्ती पत्ती।

        बिना बुलाए जो आता है प्यार वही है।
        प्राणों की धारा उस में चुपचाप बही है।

फरवरी ’50

दुनिया का सपना


तुम, जो मुझ से दूर, कहीं हो, सोच रहा हूँ,
        और सोचना ही यह, जीवन है इस पल का,
        अब जो कुछ है, वह कल के प्याले से छलका,
गतप्राय है। किसी लहर में मौन बहा हूँ,

अपना बस क्या। जीवन है दुनिया का सपना,
        जब तक आँखों में है तब तक ज्योति बना है।
        अलग हुआ तो आँसू है या तिमिर घना है।
बने ठीकरा तो भी मिट्टी को है तपना।

कल छू दी जो धूल आज वह फूल हो गई,
        चमत्कार जिन हाथों में चुपचाप बसा है,
        ऐसा हो ही जाता है। यह सत्य कसा है
सोना, जिस पर जमे मैल की पर्त खो गई।
   
    पथ का वह रजकण हूँ जिस पर छाप पगों की
    यहाँ वहाँ है; मूक कहानी सहज डगों की।

फरवरी ‘50

इतना तो बल दो


यदि मैं तुम्हें बुलाऊँ तो तुम भले न आओ
        मेरे पास, परंतु मुझे इतना तो बल दो
        समझ सकूँ यह, कहीं अकेले दो ही पल को
मुझको जब तब लख लेती हो। नीरव गाओ

प्राणों के वे गीत जिन्हें में दुहराता हूँ।
        संध्या के गंभीर क्षणों में शुक्र अकेला
        बुझती लाली पर हँसता है निशि का मेला
इस की किरणों में छाया-कम्पित पाता हूँ,

एकाकीपन हो तो जैसा इस तारे का
        पाया जाता है वैसा हो। बास अनोखी
किसी फूल से उठती है, मादकता चोखी
भर जाती है, नीरव डंठल बेचारे का

        पता किसे है, नामहीन किस जगह पड़ा है,
        आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है।

फरवरी ’50

प्राणों का गान


दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,
        खोला मन का मौन, गान प्राणों का गाया,
        एक दूसरे की स्वतन्त्र लहरों को पाया
अपनी अपनी सत्ता में, जैसे पर तोले

दो कपोत दाएँ, बाएँ स्थित उड़ते उड़ते
        चले जा रहे दूर, क्षितिज के पार, हवा पर,
        उसी तरह हम प्राणों के प्रवाह पर स्वर भर
लिख देते अपनी कांक्षाएँ। मुड़ते मुड़ते

पथ के मोड़ों पर, संतुलित पदों से चलते
        और प्राणियों के प्रवेग की मौन परीक्षा
        करते हैं इस लब्ध योग की सहज समीक्षा।
शक्ति बढ़ा देती है, नए स्वप्न हैं पलते।

        विपुला पृथ्वी और सौर-मंडल यह सारा
        आप्लावित है; दो लहरों की जीवन-धारा।

फरवरी ’50

गाओ


मेरे उर के तार बजा कर जब जी चाहा
        तुम ने गाया गीत। मौन मैं सुनने वाला
        कृपापात्र हूँ सदा तुम्हारा, चुनने वाला
स्वर-सुमनों का। भीड़ भरा है, जो चौराहा

दुनिया का, उस में केवल अस्फुट कोलाहल
        सुन पड़ता है। किस को है अवकाश, तुम्हारा
        गान सुने, बदले अपने जीवन की धारा
अमृत-स्रोत की ओर। आह, भीषण हालाहल

समा गया है साँस साँस में घृणा-द्वेष का।
        देख रहा हूँ व्यक्ति-समाज-राष्ट्र की घातें
        एक दूसरे पर कठोरता, थोथी बातें
संधि-शांति की। विजय है दल दंभ-त्वेष का।

        गाओ, मन के तारों पर, जी भर कर गाओ
        जहाँ मरण का सन्नाटा है जीवन लाओ।

फरवरी ’50

पश्यंती


करता हूँ आक्रमण धर्म के दृढ़ दुर्गों पर,
        कवि हूँ, नया मनुष्य मुझे यदि अपनाएगा
उन गानों में अपने विजय-गान पाएगा
जिन को मैं ने गाया। वैसे मुर्ग़ों पर

निर्भर नहीं सवेरा होना, लेकिन इतना
        झूठ नहीं है, जहाँ कहीं वह बड़े सवेरे
        ऊँचे स्वर से बोला करता है, मुँह फेर
कोई पड़ा नहीं रह सकता है फिर कितना

उस में बल है। निर्मल स्वर की धारा
        उस की अपनी है, जिस की अजस्त्र कल-कल में
        स्वप्न डूब जाते हैं जीवन के लघु पल में—
तम से लड़ता है इस पश्यंती के द्वारा।

        धर्म-विनिर्मित अंधकार से लड़ते लड़ते
        आगामी मनुष्य, तुम तक मेरे स्वर बढ़ते।

अप्रैल ’51

बिल्ली के बच्चे


मेरे मन का सूनापन कुछ हर लेते हैं
        ये बिल्ली के बच्चे, इनका हूँ आभारी।
        मेरा कमरा लगा सुरक्षित, यह लाचारी
थी, इन की माँ लाई। सब अपना देते हैं

प्यार हृदय का, वह मैं इन पर वार रहा हूँ।
        मन की अप्रिय निर्जनता-शून्यता झाड़ कर
        दुलराता हूँ इन्हें। हृदय का स्नेह गाड़ कर
नहीं रखा जाता है। भार उतार रहा हूँ

मन का। स्नेह लुटाने से दूना बढ़ता है।
        यह हिसाब की बात नहीं है, इस जीवन का
        मूक सत्य है। इसीलिए जो भी कंचन का
करते हैं सम्मान उन्हीं के सिर पर चढ़ता है

        मिट्टी का अपमान। कहाँ कब छूटा पीछा,
        प्यार करो तो प्यार करो क्या आगा-पीछा।

मई ’51

स्पष्टीकरण


मित्रों, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था
        तब मैं हारा थका नहीं था, लेकिन मेरा
        तन भूखा था मन भूखा था। तुम ने टेरा,
उत्तर मैं ने दिया नहीं तुम को : घोड़ा था

तेज़ तुम्हारा, तुम्हें ले उड़ा। मैं पैदल था,
        विश्वासी था ‘‘सौरज धीरज तेहि रथ चाका।’’
        जिस से विजयश्री मिलती है और पताका
ऊँचे फहराती है। मुझ में जितना बल था
       
अपनी राह चला। आँखों में रहे निराला,
        मानदंड मानव के तन के मन के, तो भी
        पीस परिस्थितियों ने डाला। सोचा, जो भी
हो, करुणा के मंचित स्वर का शीतल पाला

        मन को हरा नहीं करता है। पहले खाना
        मिला करे तो कठिन नहीं है बात बनाना।

अगस्त ’51

सिपाही और तमाशबीन


घायल हो कर गिरा सिपाही और कराहा।
        एक तमाशबीन दौड़ा आया। फिर बोला,
        ‘‘योद्धा होकर तुम कराहते हो, यह चोला
एक सिपाही का है जिस को सभी सराहा

करते हैं, जिस की अभिलाषा करते हैं, जो
        दुर्लभ है, तुम आज निराशावादी-जैसा
        निन्द्य आचरण करते हो।’’ कहना सुन ऐसा
उधर सिपाही ने देखा जिस ओर खड़ा हो

उपदेशक बोला था। उन ओठों को चाटा
 सूख गए थे जो, स्वर निकला, ‘‘प्यास !’’ खड़ा ही
    सुनने वाला रहा। सिपाही पड़ा पड़ा ही
करवट हुआ, रक्त अपना पी कुछ दुख काटा—
   
        ‘‘जाओ चले, मूर्ख दुनिया में बहुत पड़े हैं।
        उन्हें सिखाओ हम तो अपनी जगह अड़े हैं।’’

सितम्बर ’51



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