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बेटे को क्या बतलाओगे

रमाकांत श्रीवास्तव

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3806
आईएसबीएन :81-7119-445-1

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एक श्रेष्ठ उपन्यास

Bete Ko Kya Batlaoge a hindi book by Ramakant Srivastava - बेटे को क्या बतलाओगे - रमाकांत श्रीवास्तव

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेतबाधा

इन दिनों मैं डरा हुआ हूँ। परसों मेरे पड़ोसी वर्मा और उनकी पत्नी में झगड़ा हो गया ! झगड़े के कारण हैं उनके पुराने दोस्त बेलचंदन। यह न समझ बैठिए कि बेलचंदन ने कोई चुगली-वुगली कर दी थी या गुप्त चर्चा के योग्य कोई ऐसी-वैसी बात हुई थी। वर्मा दंपति तो दाल-भात रोटी और कुम्हड़े की सब्जी खानेवाले सीधे-सादे आदमी हैं। वे अर्ली टू बेड एंड अर्ली टू राइज की जीवन-पद्धति को अपनानेवाले ऐसे लोगों में हैं जो न स्वस्थ हैं, न धनवान और न ही बुद्धिमान। मेरे मित्र मुमताज भाई कहते हैं कि यही उनके सीधे और शरीफ होने का प्रमाण है। वे यह भी कहते हैं कि उनका सीधापन उनकी उस निरीहता से उत्पन्न है जो रात को देर तक जागकर और सुबह देर से उठकर भी मुसंडे बने रहने के साधनों के अभाव से पैदा होती है, नंगा नहावे तो निचोड़े क्या ? पति-पत्नी के जीवन में फिल्मी टाइप का कुछ भी नहीं है। ‘बबलू की अम्मा’ और ‘अजी सुनते हो’-क़िस्म की बातों में उनकी जिंदगी गुजरी है जिसकी शुरूआत सुहागरात में भी शायद हल्दी और मसाले के भाव कहने-सुनने से हुई थी।

कमाल यह है कि जिस बेलचंदन के कारण उनमें झगड़ा हो गया वे वहाँ सशरीर उपस्थित नहीं थे। उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि वर्मा के घर में क्या कुछ हो गया ! मैं सच कहूं, आप डरें या न डरें, पर मैं तो उस झगड़े के बाद से डरा हुआ हूँ। बेलचंदन की प्रेत जैसी अदृश्य उपस्थिति यदि वर्मा के परिवार को ग्रस सकती है तो मेरे घर को भी पंजे में जकड़ सकती है।
अपने भय की बात आपको बतलाना चाहूँ तो बेलचंदन पांडे और वर्मा के आपसी संबंधों की जानकारी देना जरूरी है। बात कहीं से भी शुरू करें पर आप इसके लिए बाध्य होंगे कि बेलचंदन को या तो भाग्यशाली कहें या कर्मठ, परिश्रमी और लगनशील कहें। उनकी तरक्की की यशोगाथा उन्हें बाहुबली सिद्ध कर सकती है। यह विशेषण उनकी भव्य मूँछों के कारण भी उन पर फिट बैठता है। हमारे प्रचलित नीतिवाक्य और हमारी बोधकथाएँ हमें यही समझाती रही हैं कि आदमी मेहनत और लगन से बड़ा बनता है। हां, ईश्वर की इच्छा और भाग्य वगैरह भी होता है। देखिए बेलचंदन की मूँछों की चर्चा रह ही गई ! आप घबराइए नहीं, उनका नख शिख वर्णन मैं नहीं करूँगा। यूँ भी नख से शिख तक उनमें इतना बदलाव हुआ है कि उनकी कोई स्थायी तसवीर नहीं बन पाती है। मूँछों की चर्चा तो इसलिए करना चाहता हूँ कि उनमें सबसे अधिक बदलाव आया है। तो जिन मूछों के कारण वे आज महाराणा प्रताप के भाई नहीं तो भतीजे-भांजे ज़रूर लगते हैं, वे हमेशा से वैसी नहीं थीं।

काफी पहले जब वे हायर सेकेंडरी स्कूल में क्लर्क थे, तब उनकी कुल जमा तीन चीज़ें चर्चा का विषय हुआ करती थीं। पहली, उनकी हिटलर जैसी मक्खी मूँछें, जो पता नहीं किसकी प्रेरणा से उन्होंने रख ली थीं। उनकी मूँछें तो हिटलर की तरह थीं लेकिन मूँछों के ऊपर के भाव हिटलर जैसे ना होकर बाबूनुमा थे। चर्चा के लायक उनकी दूसरी चीज़ थी उनकी तयशुदा वेशभूषा। वे हमेशा सफेद पैंट और आसमानी रंग की पूरी बाँहों की कमीज पहना करते थे। मौसम के बदलाव के साथ उस पर स्वेटर, कोट, मफलर शोभायमान होते। उनके कोट या स्वेटर के विषय में तो जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी, पर उनका मफलर शादी के तुरंत बाद उनकी पत्नी ने अपनी कलात्मकता से उन्हें प्रभावित करने के लिए बुन दिया था। लगता है कि बेलचंदन प्रभावित हुए भी थे क्योंकि वह गुलाबी मफलर उनके व्यक्तित्व का अंग कुछ इस तरह बन गया था कि जब तक वे उसे लपेट ना लेते उनके सहकर्मियों को विश्वास ही नहीं होता था कि ठंड का मौसम आ गया है। तीसरी चीज़ थी-उनका घेलता क़िस्म का सीधा-सादा स्वभाव-खास तौर पर उनकी कोमल वाणी। उनका वैष्णवी चरित्र बुजुर्गों की दृष्टि में प्रशंसनीय था, पर उनके साथी कभी-कभी मज़ाक में कह बैठते ‘‘इसकी बीवी तो तेज़ी के लिए तरस जाती होगी।’’

क़रीब बारह बरस पहले बेलचंदन की दोस्ती पांडे से हो गई। आपको लग रहा होगा कि वर्मा दंपति कहाँ गायब हो गए जिनसे बात शुरू हुई थी। पर पांडे की चर्चा किए बिना पृष्ठभूमि तैयार नहीं होती, अतः उनकी चर्चा कर ही डालें। तो, पांडे उन दिनों सस्पेंडेड रेंजर हुआ करते थे। वे धाकड़ आदमी कहलाते थे। लोग उनसे बड़ी अच्छी तरह मिलते थे पर उनके पीठ फेरते ही कहते-‘साला हमेशा खुड़पेंच करता रहता है तभी तो सस्पेंड हुआ।’ पांडे की मूँछें झाड़ जैसी थीं। वे बात करते तो ऐंठकर एकदम बुंदेलखंडी शैली में। इसकी और उसकी दैया-मैया करते रहते। हमेशा सिगरेट का सुट्टा मारते रहते और खुलेआम अपनी रिश्वतखोरी के किस्से सुनाते रहते। अपने विभाग के अफसरों की छूट गाली बकते और शान से कहते-‘‘हमारा सस्पेंशन तो हमारी तो छुट्टी है। तुम्हीं बताओ, गुरु घूस खानेवाले को कोई क्या उखाड़ सकता है ? हमारे लिए तो कई लोगों की नींद हराम होगी और साले खुदई चिंता करके हमें बचाएँगे।’’

वे उन दिनों भी मोटरसाइकिल पर घूमते और काजू- किशमिश खाते जबकि उन दिनों उन्हें काजू-किशमिश फोकट में नहीं मिलते थे। कुछ लोग इसे उनकी हद दर्ज़े की बेशरमी कहते हैं और कुछ लोग उसे गट्स मानते थे। उन्हीं दिनों उन्होंने अपने यहाँ सत्यनारायण की कथा करवाई जो इतने बड़े पैमाने पर हुए कि यादगार बन गई। लगता था कि किसी समारोह का उद्घघाटन हो रहा है। केले के स्तंभों और वंदनवारों की बहार थी। प्रसाद क्या था-खासा नाश्ता था। प्लेटों में पंजीरी और पंचामृत तो था ही, शानदार मिठाइयाँ भी थीं। पांडे हाथ जोड़कर शहद जैसी बोली में लोगों से कहते-‘‘गरीब की कुटिया का प्रसाद पाइए। हें....हें....हें..... बस थोड़ा-सा ही है।’’

विभाग के सारे लोगों को उन्होंने आग्रह के साथ बुलवाया था। परिचितों में जितने ब्राह्मण थे, उनको साग्रह भोजन भी करवाया जबकि प्रसाद ही कमज़ोर हाज़मावालों के लिए कब्ज़ पैदा करने को काफ़ी था।
किसी ने हँसकर कहा-‘‘भाई पांडेजी, मान गए। प्रसाद तो ए-वन है। मेवे ही मेवे दिख रहे हैं।’’
पांडे ने हाथ जोड़ और मूँछों के नीचे ओठ टेढ़े करके मुस्कराए और कहा-‘‘विश्वास करिए भाई साहब। ये मेवे फोकट के नहीं है, हमने खरीदे हैं। अब ऐसा है साब, सस्पेंडेड आदमी हूँ, जो कुछ थोड़ा बहुत बन पड़ा कर दिया। और फिर ऐसा है कि हम भला क्या करते, सब उसकी कृपा से हुआ है जिसके लिए इंतज़ाम किया गया।’’

कथा निपटाकर गद्गदाम मुद्रा में विराजे पंडितजी ने भड़ाभड़ दो-तीन श्लोक उनके समर्थन में प्रस्तुत कर दिए थे। उन्होंने मत व्यक्त किया था कि जब अभी भी ऐसे लोग, जो हैं सो विद्यमान हैं जो संकट के समय भी धर्म-कर्म को नहीं भूलते तो हमारा देश रसातल में नहीं जाएगा। उन्होंने यह घोषणा भी कर दी कि दुर्जनों का षड्यंत्र कभी सफल नहीं होगा और पांडेजी का राजयोग, जो है सो दुश्मनों के पराभव का कारण बनेगा। इसके बाद पांडेजी को बेशरम कहने की हिम्मत लोगों को नहीं होती थी क्योंकि ऐसा करने पर सत्यनारायण की कथा के सारे पात्र सामने आकर लोगों को आँखें तरेरकर धमकाने लगते थे।

मुमताज भाई कहते हैं कि यह सब तो एक गठबंधन है जो बहुत पुराने जमाने से चला आ रहा है। समय के अनुसार इसके रूप ज़रूर बदलते रहे हैं। कई बार मुझे लगता तो है कि मुमताज भाई की बातों में दम है, पर मैं या तो जल्दी के कारण या अधिक गहराई से सोचने की तकलीफ़ से बचने के लिए उनकी बात बस, सुन लेता हूँ। दिमाग से बेलचंदन जैसे घोंचू की दोस्ती कैसे हो गई ? कहाँ पांडे और कहाँ बेलचंदन ! यदि दोनों की मित्रता का तात्विक विवेचन किया जाए तो कुछ लोगों की राय बनती है कि यह हमारे देश की समन्वयवादी संस्कृति का कमाल है।

प्रिय पाठकगण, यहाँ मैं भारतीय संस्कृति पर मुग्ध होने के लिए आपकी आज्ञा चाहूँगा। जिन दिनों हमारा देश सोने की चिड़िया कहलाता था, तब भी इस महान आदर्श का पालन होता था और इस बात की गुंजाइश रखी जाती थी कि सुदामा जैसे परम दरिद्र और कृष्ण जैसे वैभवशाली के बीच सच्ची मित्रता हो सके। अच्छा है कि मुमताज भाई आसपास नहीं हैं वरना टीप जोड़ देते कि इस महान आदर्श की रक्षा के लिए गरीबी को सुरक्षित रखना जरूरी है। आख़िर किसी महान जीवन मूल्य के लिए कुछ कीमत तो चुकानी ही होती है। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार बेलचंदन-पांडे मैत्री योग का ‘धन्य हो धन्य हो’ क़िस्म का एक ठोस कारण और भी था। दोनों ही गुरुवार को व्रत रखते थे और शाम को राम-मंदिर जाते थे। वास्तव में उनकी भेंट वहीं हुई थी। प्राचीन काल से ही प्यार-नफ़रत और दोस्ती दुश्मनी की महत्त्वपूर्ण कहानियों में देवस्थल अपनी मूमिका अदा करते आ रहे हैं, सो इस कहानी में भी वह है।

जैसाकि कथा के दिन पंडितजी ने घोषित किया था-पांडे के शत्रुओं का पराभव हुआ और ईश्वर की कृपा तथा अँगूठी के पुखराज के प्रभाव से वे फिर बहाल हो गए। अपने तबादले के पहले उन्होंने फिर सुपर-पूजा करवाई जिसमें प्रयुक्त पंचामृत और पंजीरी विशुद्ध विभागीय स्तर के थे, पर आप यह तो मानेंगे कि पूजा पाठ में ये बातें नहीं देखी जातीं, श्रद्धाभाव देखा जाता है। आठेक बरस इधर-उधर घूमकर अपने और पुरखों के पुण्यों के फलस्वरूप वे अपने शहर में वापस लौट आए। मध्युगीन नायिका के नेत्रों की तरह अमिय-हलाहल मद-भरी उनकी जीवन-पद्धति वैसी ही तूफ़ानी थी।
पांडे जब बेलचंदन के विषय में बात करते हैं तो उनकी आँखों में वही प्यार और ममता उमड़ती है जो कलाकार की आँखों में अपनी रचना के विषय में चर्चा करते समय उमड़ती है। सिगरेट का सुट्टा मारते हुए दो-एक प्यारी गालियाँ बककर वे कहते हैं-‘‘साला बिलकुल ही लामकलेड़ी था पहले-बाई गाड। कुछ दुनियादारी नहीं जानता था, बस भिनभिनाता रहता था। भात और लाल भाजी रपोंटता था और बीवी की सेवा करता था। अरे भैया, इस बम-भोले को हमने कैसे आदमी बनाया है यह हमीं जानते हैं।’’

बेलचंदन के आदमी बनने का क़िस्सा संक्षेप में इस प्रकार है। जिन दिनों पांडे सस्पेंड थे, उन्हीं दिनों उन्होंने मूँछों पर ताव देते हुए एक आरा मशीन खरीदी और लकड़ी का टाल खोल दिया। टाल उनकी पत्नी के नाम पर था और उन्होंने अपने दोस्त बेलचंदन को उनका पार्टनर बनाया।

यह सब कागज पर नहीं था, आपसी मामला था पर उन्होंने बेलचंदन को बराबर की भागीदारी दी क्योंकि सुबह शाम वे ही टॉल पर बैठते थे। बेलचंदन शुरू में तो घबराए और उन्होंने बहुत ना-नुकर की लेकिन पांडे ने दोस्ती का वास्ता दिया और पूछा-‘‘क्या अपने मुसीबतज़दा दोस्त की मदद नहीं करोगे ?’’ इस ब्रह्मास्त्र से बेलचंदन परास्त हो गए। पांडे सस्पेंड थे ही, सो उनका अधिकांश समय टॉल पर ही कटता और वे बेलचंदन को व्यवसाय के गुर सिखाते। कानूनी बाधा थी ही नहीं यदि होती तो पांडे जैसे प्रतापी और धैर्यवान पुरुष उसकी क्या चिंता करते ? जब पांडे बहाल होकर स्थानांतरित हुए तब तक धंधा चल निकला था, इसलिए विचार से पहले तो बेलचंदन की हवा खिसकती-सी लगी लेकिन हिम्मत दिलाए जाने पर वे राजी हो गए और उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पांडे आते-जाते बने रहते और कारोबार फलता फूलता रहा।

कुछ लोगों का मानना है कि पांडे ने बेलचंदन को उल्लू बनाया था। अपना धंधा चलाने के लिए उन्हें गधे की तरह खटनेवाला एक आदमी चाहिए था, पर कुछ लोग इस घटना को मित्रता और त्याग की कहानी मानते हैं। वे प्यार और दोस्ती को अपरिभाषित क़िस्म की चीज़ें मानकर उनमें रहस्यों की खासी गुंजाइश मानते हैं जो भी हो, पर यदि पांडे बेलचंदन को अपनी रचना समझते हैं तो इसमें दोनों तरह के लोगों को ना तो एतराज है और ना ही संदेह।
बेलचंदन आदमी बन गए यानी उन्होंने इतनी हैसियत पा ली है कि मोटरसाइकिल में फर्राटा मारते हुए घूमते हैं। आजकल आप उनसे बात कीजिए तो बातों के दौरान वे ज़रूर कहेंगे-‘‘सोचता हूँ, जीप ले लूँ। हिंदुस्तान में साली धूप और धूल से छुटकारा नहीं मिलेगा। मोटरसाइकिल पर कितना दौड़ेंगे आप ?’’

पांडे का सीधा मतलब यह है कि बेलचंदन पहले आदमी नहीं थे। एक बार मुमताज भाई से इस बाबत बात हुई तो उन्होंने कहा-‘‘दरअसल पांडे पुराने बेलचंदन जैसे लोगों को आदमी नहीं समझते। और पांडे ही क्यों, खुद वैसे तमाम लोग क्या वाकई अपने को आदमी समझते हैं ?’’ यानी कि वे महसूस करें कि आदमी के लिए ज़रूरी सब कुछ उन्हें हासिल हो और एक ख़ुशहाल ज़िंदगी भोगना उनका हक है। देखिए, यदि आप भी इसी वर्ग के आदमी है तो आपको नाराज़ करना मेरा मकसद नहीं है। मैं तो पांडे और मुमताज भाई की कही गई बातों को आपके सामने रख रहा हूँ वरना तो...मैं या आप या और भी सभी अपने-अपने बच्चों को यही बतलाते हैं कि मेहनत, लगन और ईमानदारी से काम करो तो बड़े आदमी बनकर माँ-बाप का नाम रौशन करोगे।

बेलचंदन ने जब अपना मकान बनवाया तो उसका नाम अपनी माँ के नाम पर ‘कमला निवास’ रखा यानी उन्होंने बाप का नाम ना सही, माँ का नाम रौशन किया। यदि नौकरी छोड़कर वे मेहनत ना करते तो यह सब नहीं कर पाते। बाबूगीरी छोड़े उन्हें कई बरस बीत गए। आज यदि उनके अतीत की चर्चा चल पड़ती है तो वे ऐसा मुँह बनाते हैं जैसे बेलचंदन ने कभी सपने में ना सोचा होगा कि पांडे द्वारा खोले गए लकड़ी के टाल पर बैंठेगे और धीरे-धीरे स्वयं ठेकेदार हो जाएँगे यानी आदमी बन जाएँगे।

यहाँ आकर बेलचंदन की मूँछों की चर्चा फिर ज़रूरी हो गई। वे उनके आदमी बनने के दिन थे जब उनकी मूँछों का आकार बदलता गया था। उनके शरीर की रंगत और सजावट ही नहीं बदली बल्कि उन्हीं दिनों उनकी आवाज और भाषा में भी ग़जब की तबदीली आई। यूँ लगा कि जैसे घोंघे के भीतर से तितली निकल आई है जिसका घोंघे से कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। अब तो बेलचंदन स्टैंडर्ड की गालियाँ बक लेते हैं और पिछले दिनों तो उन्होंने एक आदमी पर हाथ भी छोड़ दिया। उन्होंने उसे धमकी देते हुए कहा था-‘‘स्साले, टिर्र-पिर्र किया तो ज़मीन में गाड़ कर रख दूँगा।’’ उनकी चाल-ढाल में आया आत्मविश्वास उन्हें वर्षों से जानेवालों को चमत्कृत कर देता है। वे सिगरेट का सुट्टा अपने गुरु पांडे की तर्ज़ पर मारते हैं।

तरक्की करता हुआ आदमी दूसरों के लिए उदाहरण होता है और प्रेरणास्त्रोत भी। वैसे भी हमारा शहर इतना बड़ा नहीं है कि एक-दूसरे से अपरिचित बने रहना यहाँ जरूरी समझा जाता हो। बड़े-बूढ़े बेलचंदन का उदाहरण देते हुए कहते-‘‘देखो, यह है भाग्य। रामजी ने इसे इसकी भक्ति का फल दिया है।’’ औरतें अपने पतियों और बच्चों को नसीहतें देते समय बेलचंदन की कर्मठता की तारीफ़ करतीं।

वर्मा के यहाँ हुए झगड़े का ज़िक्र जब मैंने मुमताज भाई से किया तो उन्होंने कहा-‘‘बेलचंदन की तरक्की का संबंध केवल उनके परिवार के सदस्यों, अधिकारियों और जंगल के पेड़ों से नहीं है। उनकी तरक्की ने जिन औरतों-बच्चों के मन में सपने जगाए हैं, यदि उनसे उनका संबंध ना मानें तो कहने के लिए कुछ नहीं रह जाता। आख़िर, बेलचंदन किसी पौराणिक कथा के पात्र तो हैं नहीं कि उनका क़िस्सा सुनाकर कह दिया जाए कि जैसे उनके दिन फिरे वैसे ही सबके दिन फिरें।’’
उस झगडे की बात तब तक साफ नहीं होगी जब तक बेलचंदन के साथ उनके संबंधों की चर्चा ना की जाए।

वर्मा और बेलचंदन के परिवार वर्षों से एक-दूसरे को जानते हैं। जब बेलचंदन का अपना मकान नहीं बना था तब दोनों अलग-बगल ही रहते थे। आप यूँ समझें कि हमारे घर के बगल में वर्मा रहते हैं और उनकी बगल में बेलचंदन रहते थे। जब हम इस मकान में किरायेदार होकर आए थे तो मुहल्ले से जानकारी मिली थी कि दोनों की दाँत-काटी रोटी थी। श्रीमती वर्मा और श्रीमती बेलचंदन में बहिनापा था। दोनों परिवार इतने करीब थे कि बीमारी-हारी, पूज- सिनेमा जैसी परिस्थितियों में साथ रहा करते थे। श्रीमती वर्मा को धर्मेद्र और श्रीमती बेलचंदन को राजेश खन्ना पंसद थे। इससे दोनों में झगड़ा नहीं होता था बल्कि जिसकी पसंद के हीरो की फिल्म लगती, वही दोनों का टिकट कटाती, बाकी सब सोल्जर पेमेंट पर चलता। कभी-कभार यदि कोई परिवार कहीं बाहर चला जाता तो दूसरे परिवार के सदस्य परेशान हो जाते। वे बेसहारा और रुआँसे-रुआँसे लगते। जब बाहर से वे लौटते तो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी लाई हुई छोटी-मोटी चीज़ें भी एक दूसरे को दिखलाते। वे उनकी ख़ुशी और मैत्री के सुखद क्षण होते थे। एक-दूसरे के बच्चों के लिए लाए हुए रिबन, बुंदे या प्लास्टिक के खिलौने उनके दिलों में लहराते आत्मीता के समुद्र में ज्वार पैदा कर देते।

वर्मा अपने आपको बेलचंदन के मुकाबले अधिक चलता पुर्जा और व्यावहारिक मानते थे। पांडे की तरह वे बेलचंदन को लामकलेड़ी तो नहीं मानते थे पर वे उन्हें उल्लूपन की तरह झुका हुआ सीधा-सादा आदमी समझते थे, इसलिए उनके प्रति जिम्मेदारी का एक भाव भी उनके मन में रहा करता था। जब बेलचंदन ने पांडे के साथ पार्टनरशिप में काम शुरू किया था तो वर्मा ने उन्हें रोकने की कोशिश की थी। उन्हें लगा था कि उनका भोला-भाला दोस्त एक डामर क़िस्म के आदमी के बहकावे में आ गया है। ऐसा उनके अन्य परिचितों ने भी कहा था कि आपके इस चुग़द दोस्त को पांडे चौरस्ते पर नीलाम कर देगा, इसे रोको ! भारतीय संस्कृति की समन्वयशीलता के सामने उनकी कुछ नहीं चली। पर जब पांडे के कुशल निर्देशन में बेलचंदन अपने कारोबार में जमने लगे तो वर्मा परिवार ही सबसे ज़्यादा ख़ुश हुआ। बेलचंदन भी अपनी सफलता यदि किसी पर ज़ाहिर करते तो वर्मा परिवार पर ही करते। उनकी तरक्की की चर्चा वर्मा परिवार इस उत्साह से करता जैसे वह उनकी अपनी ही तरक्की हो। उन्हें मित्र की सफलता की ख़ुशी के साथ ही उन्नति करते हुए सफल आदमी की घनिष्टता का अतिरिक्त सुख भी मिल रहा था। बेलचंदन की मेहनत, लगन, उनका भाग्य और मित्रता की चाशनी की मिठास उनकी जुबान पर होती। बेलचंदन की सफलताओं के विशेष अवसरों पर होनेवाली तथा बेलचंदन, वर्मा और पंडितजी मधुर-मधुर मुस्कुराते। पवित्र वातावरण को सद्भावना सुगंधित हवा में तैरती और लगता कि आसमान से पुष्प-वृष्टि होने ही वाली है।

पर जाने कब और कैसे क्या शुरू हुआ कि वर्मा परिवार को उस चाशनी की मिठास में कमी महसूस होने लगी। दिन और तारीख की जानकारी तो संभव नहीं पर ऐसा समय भी आया कि वर्मा उनके घर बैठने जाते और बेलचंदन सिगरेट का सुट्टा मारते हुए पांडे के साथ निकल जाते। हाँ, घर से निकलते हुए कह जाते-‘‘भाई साहब को नाश्ता-वाश्ता करवाओ और हाँ, भाभीजी को स्टीरियो पर वो नया कैसेट सुनवाओ।’’
वर्मा मुस्कुराकर सिमट जाते और संकोच से कहते हाँ, हाँ,....मैं बैठा हूँ ना। आप लोग काम पर निकलिए।’’



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