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बोधिसत्व की बीवी

कृष्ण बलदेव वैद

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3789
आईएसबीएन :81-214-0419-3

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‘वैद की कथा’ मन की तीव्र गति को कुछ वस्तुवर्णनात्मक संदर्भों या दृश्यों से जोड़ती कथा है।

Boddhisattva Ki Biwi-A Hindi Book by Krishna Baldev Vaid - बोधिसत्व की बीवी - कृष्ण बलदेव वैद

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘वैद की कथा मन की तीव्र गति को कुछ वस्तुवर्णनात्मक संदर्भों या दृश्यों से जोड़ती कथा है। वह गोपन इच्छाओं को उघारने की कथा भी है। वह उम्र की ढलान की ज़बान है जो एकांत और अंधेरे में अपनी सदा कुछ सिर्फ़ इसलिए कहना चाहती है, क्योंकि एकांत ही एकमात्र उपस्थिति है।...निजी तौर पर मैं वैद को बूढे़ अनुभवों का करुण गायक मानता हूँ।’’


प्रभात त्रिपाठी


‘‘वैद जी की सदा से बड़ी खूबी यही है कि उनकी कहानियां मामूलियत के अनुभवों को आत्मालाप के एस्थेटिक्स में बांधती हैं। मामूली अनुभवों के अर्थ के प्रति उनकी ममता आत्मालाप की तकनीक से जुड़ कर एक गैरमामूली अनुभव में बदल जाती है।...वैद की कहानियां प्रतीकात्मक रूपों का ऐसा मायालोक रचती हैं जिसमें माया और लीला का आतंक, उनका उल्लास, सांस्कृतिक स्मृति के प्रति सजगता के बोझ को त्यागता हुआ नैरेटर के आत्म के साथ सहज ही रच बस जाता है-और उम्मीद करें कि पाठक के आत्म के साथ भी।’’


पुरुषोत्तम आग्रवाल


‘‘कृष्ण बलदेव वैद की कहानियों की एक सदा से बड़ी विशेषता है, भाव के स्तर पर उनका एक दूसरे से जुड़ा या उसमें गुंथा होना।’’


कविता


‘‘हिंदी में शायद ही किसी और लेखक ने अपने पात्रों के माध्यम से अपने ही खिलाफ इतना लंबा आरोपनामा दर्ज करवाया होगा या शायद ही कोई दूसरा लेखक होगा जिसने अपनी ही कृतियों में अपना इतना ज्यादा मूल्यांकन किया होगा।’’

शम्पा शाह


बोधिसत्त्व की बीवी


कहते हैं गुजरे जमाने में एक शांत से शहर में एक समृद्ध सौदागर रहा करता था। उसके दो बेटे थे। बड़ा बेटा बहुत नेक, शांत और परोपकारी था इतना कि लोग कहते फिरते, यह तो बोधिसत्त्व है। पता नहीं उस पापी सौदागर के घर कैसे पैदा हो गया ! छोटा बेटा भी खास बुरा नहीं था। लेकिन अपने बड़े भाई से भिन्न था। इतना कि लोग कहते फिरते। यह उस बोधिसत्त्व का भाई हो ही नहीं सकता। असल में छोटा अशांत और स्वार्थी क़िस्म का नौजवान था। लोग हैरान होते कि दोनों को एक ही माँ ने दूध पिलाया, एक ही बाप ने डाटा पीटा लेकिन कुदरत का यह खेल देखो कि एक इतना शांत, दूसरा इतना अशांत, एक को हर समय दूसरों का भला करने की धुन, दूसरे को अपना उल्लू सीध करने की। लोगों का तो ख़ैर काम ही दूसरों के बारे में तरह-तरह की बातें बनाना, तरह-तरह के अनुमान लगाना और कुदरत के खेल पर हैरान होना या हैरान होने का नाटक करना है इसलिए हम लोगों की बातों के भंवर में न पड़े और अपनी कहानी को आगे बढ़ायें।
तो हुआ यह कि सौदागर की बीवी कुछ दिन बीमार रहकर परलोक सिधार गयी और सौदागर कहीं से दूसरी बीवी ब्याहकर ले आया वह उसकी पहली बीवी से काफी छोटी थी- उम्र में, और कद में नहीं-और ज्यादा आकर्षक थी- सूरत में स्वभाव में नहीं। लोग एक दूसरे से कहते फिरते, मर्द का कोई भरोसा नहीं, सौदागर मर्द का तो खास तौर पर, अगर उस बेचारी के बजाय यह हरामखोर मर गया होता तो वह बेचारी इसके साथ सती हो गयी होती, और अगर सती न हुई होती तो भी इतनी जल्दी किसी दूसरे मर्द को, अपने मृत मर्द से काफ़ी कम उम्र के दूसरे मर्द को तो कभी भी कहीं से ब्याह कर न ले आती।

लोग और भी बहुत कुछ कहते फिरते, एक दूसरे से भी और अपने आप से भी, लेकिन हमें अपनी कहानी को आगे बढ़ाना है लोगों की बातों को नहीं।
तो हुआ यह कि दूसरी बीवी के आते ही सौदागर ने दोनों बेटों से कहा अब तुम दोनों फूटों यहाँ से, मैं अब तुम्हारा बोझ क्यों उठाऊं, मैं अपनी नयी बीवी के इशारों पर तिगनी का नाच नाचना चाहता हूँ, उसे ऐश कराना चाहता हूँ, खुद ऐश करना चाहता हूं, और दो प्यारे-प्यारे बेटे और पैदा करना चाहता हूँ, अब तुम फूटो यहाँ से। अब जरूरी नहीं कि उस सौदागर ने हूबहू यही कहा हो लेकिन इतना तै है कि उसकी बात का भाव लगभग यही था। कहना न होगा कि उस ज़माने के बाप अपने बेटों से डरते नहीं थे।

बाप की बात सुन छोटा तो छटपटाया पर बड़ा शांत रहा, छोटे ने तो बाप से कुछ जिरह भी की लोकलाज और मर्यादा की दुहाई भी दी, लेकिन बड़े ने मुंह तक नहीं खोला और न ही अपनी सूरत पर शिकायत का कोई साया उतरने दिया। छोटे ने जब देखा कि उसकी किसी भी दलील से उसके बाप का दिल पिघल नहीं रहा तो वह पाँव पटकता हुआ वहां से चल दिया। बाद में उसका किसी को कुछ पता नहीं चला, इसलिए वह अब इस कहानी में नहीं लौटेगा। उधर बड़े ने बाप के चरण छुए, विमाता को प्रणाम किया, और अपनी बीवी से कहा, चलो, हम जंगल का रुख़ करें।
(क्षमा करें हम पहले यह बताना तो भूल ही गये कि बड़े की शादी हो चुकी थी। उसकी बीवी के बारे में हम नहीं। हमारी कहानी बतायेगी)।

पूछा जा सकता है कि बड़े बेटे ने जंगल का रुख़ क्यों किया, किसी दूसरे शहर का क्यों नहीं ? जवाब दिया जा सकता है कि उस ज़माने में जंगल शहरों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हुआ करते थे। और फिर बोधिसत्त्व क़िस्म के लोगों को तो जंगल ही भाते थे, शहर नहीं। जवाब और भी कई दिये जा सकते हैं लेकिन हमारा काम जवाब देना नहीं, कहानी को आगे बढ़ाना है। हाँ, हम इतना ज़रूर बता देना चाहते हैं कि बड़े बेटे की बीवी ने, दबी ज़ुबान से ही सही, अपने पति के दिशाचयन का विरोध जरूर किया था, क्योंकि उसे जंगल में भटकने का चाव हरगिज नहीं था, और अगर उसकी चलती तो वह ज़रूर चहल पहलदार शहर का ही रुख करती।

तो हुआ यह कि जंगल में भटकते-भटकते वह दोनों आखिर एक विशाल रेगिस्तान में जा पहुँचे जहाँ क़हर बरसाते सूरज से सर छिपाने के लिए कोई पेड़ नहीं था, आग उगलती रेत से राहत पाने के लिए घास नहीं थी, प्यास बुझाने के लिए पानी की बूँद तक नहीं थी। सूरज की किरणें लाल लोहे की सलाखों जैसी महसूस होती थीं। खाने का सामान खत्म हो गया था, पानी की छागलें ख़त्म हो गयी थीं। पूरे सात दिन वे दोनों रेगिस्तान में भूखे प्यासे भटकते रहे। बड़ा बेटा अपने तन के टुकड़े खिला खिला कर और अपने खून के घूट पिला-पिला कर अपनी बीवी की भूख और प्यास बुझाता रहा, मानना पड़ेगा कि उसके शहर के लोग यूँ ही उसे बोधिसत्व नहीं कहते थे। हैरान होना पड़ेगा कि पता नहीं वह बेचारा खुद कैसे जिंदा रहा, शायद अपनी सात्त्विकता के बल पर ही। आखिर आठवें दिन वे दोनों गिरते-पड़ते एक पहाड़ी चारागाह तक जा पहुँचे जहां चारों तरफ़ हरी-2 घास फैली हुई, थी, निर्मल जल की धाराएं बह रही थीं। फलदार पेड़ झूम रहे थे। और सारा वातावरण चुलबुली चहचहाटों से गूँज रहा था। बोधिसत्त्व ने अपनी बीवी को खूब पानी पिलाया और खूब फल खिलाएं, और जब वह तरोताजा हो कर एक पहाड़ी तले लेट कोई पहाड़ी धुन गुनगुनाने लगी तो नहाने के लिए नीचे बहते दरिया की तरफ उतर गया। उसकी बीवी को भी नहाने की ख्वाहिश या जरूरत महसूस तो होनी चाहिए थी लेकिन नहीं हुई, क्यों नहीं हुई, हम नहीं जानते। हम इतना जरूर जानते हैं कि जब बोधिसत्त्व दरिया की तरफ उतर रहा था तो उसकी बीवी सोच रही थी, काश इस बुद्धू को नहाने धोने का इतना वहम न होता ! इस बात से अगर कई नहीं तो कुछ अन्दाजे तो लगाये जा सकते है- बोधिसत्त्व और उसकी बीवी की आपसी दूरियों के बारे में भी, और बीवी की अपनी प्राथमिकताओं के बारे में भी।

अब हुआ यह कि नहाते-2 बड़े बेटे को हाथ-पैर कटा एक आदमी दरिया की तेज़ धारा में बहता चला जाता नज़र आ गया। उसे उस बेचारे अपाहिज पर इतना तरश आया कि वह अपनी थकावट को भूल गया, भूल गया उसकी जवान बीवी ऊपर पेड़ तले लेटी उसका इंतजार कर रही थी, भूल गया कि उसे तैरने में कोई ख़ास महारत नहीं थी, भूल गया कि अपना बहुत खून और मास अपनी बीवी को पिला खिला देने के बाद वह बहुत कमजोर हो गया था– संक्षेप में यही कि सब कुछ भूल कर वह भला आदमी उस अपाहिज की जान बचाने में जुट गया। और आखिर वह उसे बचा कर दरिया से बाहर ले आया। उसे दरिया के किनारे लिटा कर उसने उससे पूछा, ‘‘तुम्हारा यह बुरा हाल किसने किया ?’’ अपाहिज बोला, ‘‘मेरे दुश्मनों ने मेरे हाथ पैर काट कर उन पापियों ने मुझे दरिया में फेंक दिया, लेकिन तुमने अपनी जान पर खेल कर मेरी जान बचा ली मैं तुम्हारा अहसान कैसे चुका सकूँगा, कभी नहीं चुका पाऊँगा। तुम आदमी नहीं बोधिसत्त्व हो !’’

और फिर बोधिसत्व उसे अपनी पीठ पर बिठा कर ऊपर ले गया। वहाँ जहाँ उसकी बीवी लेटी हुई थी। बोधिसत्त्व की बीवी उन्हें आता देख उठ कर बैठ गयी। बोधिसत्त्व ने अपाहिज को अपनी पीठ से उतार कर ज़मीन पर लिटा दिया। अपाहिज कृतज्ञ भाव से कभी बोधिसत्त्व को देखता कभी उसकी बीवी को। जब जब उसकी नज़र बोधिसत्त्व की बीवी पर पड़ती तो उसे आभास होता जैसे उस मनमोहिनी के होंठों पर बहुत ही मद्धिम सी मुस्कराहट कंपकंपा रही हो और वह खुद कंपकंपा उठता। बोधिसत्त्व इस बीच कुछ जड़ी बूँटियां चुन लाया था। उन्हें पीस पूस कर उसने मरहम तैयार कर ली थी। अब उसने अपाहिज के जख्मों पर उस जंगली मरहम का लेप लगाना शुरू कर दिया। उसकी बीवी सब कुछ यूं देखती रही जैसे उसका पति उसके लिए कोई नया खिलौना तैयार कर रहा हो। हो सकता है कि उसकी मद्घिम मुस्कराहट उसके इसी भाव में से फूट रही हो, जो हो सो हो, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि जब बोधिसत्त्व ने अपनी बीवी की ओढ़नी को फाड़ फूड़ कर बहुत सी पट्टियाँ बना कर उस अपाहिज के जख्मों पर लपेट दिया तो वह अपाहिज उसकी बीवी को एक सजे भिखारी और नटख़रे सा नजर आने लगा, एक साथ।
मरहम पट्टी के बाद बोधिसत्त्व ने अपाहिज को खूब खिलाया-पिलाया। उसकी बीवी सब देख रही थी और सोच रही थी हो न हो यह बुद्धू उस अपाहिज को अपना मांस खिलाने और खून पिलाने से भी बाज़ नहीं आयेगा। इस खयाल के आते ही उसकी मुस्कराहट का रंग कुछ गहरा हो गया, जिसे उसके पति ने तो क्या देखा होगा, अपाहिज ने ज़रूर देख लिया होगा। वरना वह उस समय इतना मुग्ध नज़र न आता।

उसके बाद लगातार कई दिनों तक बोधिसत्त्व उस अपाहिज की देखभाल करता रहा और उसकी बीवी उन दोनों के पास बैठी या लेटी सब कुछ देखती रही और बहुत कुछ सोचती रही। कभी कभी कोई पहाड़ी धुन उसके मुंह से फूट निकलती और अपाहिज के चारों ठूंठ अनायास यूं हिलना हुमकना शुरू कर देते जैसे नाच रहे हों।

कभी-कभी बोधिसत्त्व की बीवी अपनी धुन को बीच में ही तोड़ कर मन ही मन तड़पना शुरू कर देती, यह सोचकर कि उसके पति को अपनी या उसकी कोई परवाह ही नहीं, कि वह सब कुछ भूल कर उस अजनबी अपाहिज की सेवा टहल में ही जा डूबा है, कि इतने दिनों की भटकन और जानमारी के बाद उन्हें फल और पानी नसीब हुए हैं, यह सुन्दर एकांत नसीब हुआ है, और यह मूर्ख उसके साथ मौजमस्ती मारने के बजाय इस अपाहिज को यूँ संवार और निखार रहा है जैसे वह अपाहिज न हो किसी देवता की प्रतिमा हो। इधर वह यह सब सोच रही होती, उधर व लुढ़का पड़ा अपाहिज उसे ऐसे देख रहा होता जैसे उसकी खुफ़िया तड़प को भी देख रहा हो। और बोधिसत्त्व बेचारा उन दोनों के मनोविकारों से बेखबर उन दोनों कि खिदमत में ही मग्न रहता और जब अवकाश मिलता कुछ ही दूरी पर फैले खड़े एक बूढे़ बरगद के नीचे किसी निर्लिप्त तपस्वी की तरह बैठा रहता। उसकी बीवी की निगाह अब जब कभी अपाहिज पर पड़ती वह ऐसे मुस्करा रहा होता जैसे अनाथ अपाहिज न हो, किसी पौराणिक कथा का नायक हो। बोधिसत्त्व की बीवी की निगाह अपाहिज की मुस्कराहट से सुलग उठती। तब वह भूल जाती कि उसका पति, जिसे लोग बोधिसत्त्व कहते या मानते थे, कुछ ही दूरी पर खड़े फैले उस बूढ़े बरगद के नीचे आंखें मूंदे बैठा था। तब उसके मन में अनेक मस्तियां आतीं और उड़ जातीं और उसे वैसे ही महसूस होता जैसे किसी ऐसी नायिका को होता होगा। जिसके हाथों में अनेक तोते आयें और उड़ जायें।

अब हुआ यह कि बोधिसत्त्व अपनी बीवी और उस अपाहिज के साथ उस सुंदर स्थान में बस गया। वह फल फूल तोड़ कर लाता और उन्हें अपनी बीवी के सामने यूं रख देता जैसे कोई पुजारी किसी देवी की मूर्ति के सामने। उसकी आंखें कभी उसकी बीवी की आँखों में न झांकती, उसके हाथ कभी उसकी देह का स्पर्श न करते, उसके मन में कभी यह विचार न कसमसाता कि उसकी बीवी को उसकी आराधना और फलों फूलों के अलावा किसी और भाव या चीज का चाव भी हो सकता है। उधर उसकी बीवी बराबर इस प्रतीक्षा में कसी रहती कि उसका पति जिसे लोग बोधिसत्त्व कहते थे। और एक समृद्ध सौदागर का बड़ा बेटा था, कभी तो अपना कवच उतारेगा, कभी तो उसे आंखों से देखेगा जिन आंखों से कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी को देखता है। लेकिन बोधिसत्त्व को उसकी प्रतीक्षा की कोई ख़बर नहीं थी।

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