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काल रात्रि

सुदर्शन नारंग

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3761
आईएसबीएन :81-214-0647-1

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शक्ति-स्रोत की खोज...

Kaal Ratri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘कालरात्रि’ की कहानी का कोई नायक नहीं न ही खलनायक। वहाँ कुछ पात्र अवश्य ही हैं। कहानी का एक पात्र, विशाल कहता है-मेरा मन रम सके, इसके लिए मैंने कई काम किये और फिर छोड़ दिये। बैंक की नौकरी। कारखाने की नौकरी। मैंने बहुत लोगों और पेशों को लात मारी है। अंत में मैंने तय किया कि मुझे निर्वाण की राह पर चलना है। मैं तथागत की राह पर चल पड़ा। ईसामसीह से सात शताब्दी पूर्व प्रदूषण की जब शुरुआत नहीं हुई थी तब भी आदमी बेचैन था। मकान और दुकान की झक्क छोड़ सनातन की खोज। ओशो की पहचान में लंबी यात्राएं...। स्मैक या हशीश ज़रिया मात्र होते हैं। डरने की कोई बात नहीं। इन्हें मैं छोड़ दूँगा।

विडंबना और सत्य। परख और तर्क। जीत या हार का प्रश्न नहीं है। हल खोज पाना कभी भी हमारा लक्ष्य नहीं रहा। कहाँ पहुँच पाते हैं यही देखना है।

अंततः हम सब को कालरात्रि की प्रतीक्षा रहती है। जीवन और उसकी उपलब्धियाँ कितनी भी मोहक क्यों न हों, अंत में सब क्षरित होकर रह जाता है। प्रकृति क्रम विहीन हो गयी है। अकाल मृत्यु के कई कारण उठ खड़े हुए हैं। ड्रग्स एवं एड्स इस शताब्दी के अंतिम चरण में होनेवाले कौतुक है। आदमी हैरान है। बम, तोप, बंदूक इन चीजों का कोई महत्त्व नहीं रहा गया। हिंसा के नये उपकरण, तनाव और फसाद के नये अन्वेषण। फिर भी हम पराजित नहीं हो सकते।
शक्ति-स्रोत की खोज है-कालरात्रि।

काल रात्रि

बीमारी और ऊब से सताये हुए रोगी भीड़ से बचना चाहते हैं। इसी बात का ध्यान रखकर शायद अस्पताल के लिए उस जगह का चुनाव किया गया था। लंबे रास्ते के दोनों ओर खेत और घने छायादार पेड़। हरी-भरी घास से लदी ढलान और फूलों से सजे हुए मैदान। रास्ते में छोटा-मोटा कोई गाँव भी पड़ जाता जिसकी दुकानों पर किसी किस्म की लिखावट या नाम पट्टियां नहीं होतीं। देशी शराब का ठेका-जैसी काली मोटी लिखावट अवश्य ही यहाँ-वहाँ दिखायी दे जाती। शराब की ऐसी दुकान देख मरीजों को अक्सर अपने पुराने दिन स्मरण हो आते जब वह हट्टे-कट्टे थे और मित्र मंडली में बोलत खोले मस्ती छाना करते थे।

अस्पताल का इलाका अपने आप में एक समूची सभ्यता थी। छावनी के पड़ोस का इलाका सूना पर कल्पना से कहीं बड़ा था। एक विभाग से दूसरे में चक्कर काटते हुए वहां आदमी का दम भी निकल सकता था। गनीमत यह थी कि मीलों फैले उस पड़ाव पर अधिकांश लोग फौजी थे। उनके संबंधी यदि आते भी तो उन्हें पैदल नहीं चलना पड़ता था। अस्पताल के प्रवेश-द्वार के बाद सड़क के दोनों ओर लंबे-चौड़े ढलानों में फूलों की क्यारियां थीं, जहां रंग-बिरंगे मोटे गुलाब और डेलिया खिले रहते थे।

अस्पताल अक्सर एक ऐसा अनिष्टकारी स्थान समझा जाता है, जहां पर डाक्टर और नर्स अपने-अपने काम पर स्वचालित और क्रूर तरीके से लगे जान पड़ते हैं। पर जम्मू के पश्चिम में स्थापित किये गये मिलिट्री के उस अस्पताल के वातावरण में तरतीब मैत्री और सफाई झलकती थी। वह एक बहुत बडा़ अस्पताल था, जिसमें झोंपड़ीनुमा छत के वार्ड फूलों की लंबी-चौड़ी क्यारियों से अलग हो रहे थे।
सरहद पर कोई लड़ाई भी नहीं चल रही थी। पर पहाड़ की तलहटी में बने उस अस्पताल में शांतिकाल जैसी कोई बात न थी। वार्ड हर समय भरे रहते। सीमा पार छोटी-मोटी मुठभेड़ और घात लगा आक्रमण की घटनाएँ और घायल फौजी जवान अफसर और उनके नाते रिश्तेवाले लोग।

शल्य चिकित्सा विभाग में दिन में कई-कई ऑपरेशन करने पड़ते। इस विभाग में कई प्रतिष्ठित फौजी सर्जन थे। अस्पताल के कमांडिंग आफिसर कर्नल डॉक्टर सूरत सिंह की यही कोशिश थी कि कोई फौजी अफसर या जवान सही उपचार से वंचित न रहने पाये। शल्य चिकित्सा विभाग की देखरेख मेजर डाक्टर बलवन्त के जिम्मे थी। ऑपरेशन थियेटर में घुसने के बाद डाक्टर बलवन्त के अंदर जैसे कोई दैविक शक्ति भर उठती। भूख-प्यास की परवाह किये बगैर घंटों वह काम में जुटा रहता। दो माह पहले हेलीकाप्टर दुर्घटना में वायुसेना के उस अफसर को जब अस्पताल में लाया गया था तो किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि वह दोबारा कभी उड़ान भर पायेगा। डॉक्टर बलवन्त की उंगलियों का चमत्कार था कि उस अफसर की न केवल जान बच गयी बल्कि वह अपनी यूनिट में सक्रिय सेवा के लिए वापस लौट रहा था। अगली सुबह उस अफसर को पुनः हवाई उड़ान भरनी थी। विदाई संदेश के काम को डाक्टर बलवन्त ने कभी औपचारिक काम नहीं माना। उसके उत्साह और प्रेरणादयाक वाक्य मरीजों को वर्षों तक उत्साहित किये रहते उन्मादित भी। इस कार्य को बलवन्त ने हमेशा तरजीह दी थी। वास्तव में बलवन्त अस्पताल के काम के हर पहलू को तरजीह देता था। यह उसकी आदत थी। अपने सहयोगियों के काम में नुक्स निकालना या बिला वजह प्रशंसा करना उसकी आदत में नहीं था। हर कोई योग्यता से कार्य करे यह उसकी अपेक्षा थी। अपने सहयोगियों से अक्सर वह कहते हुए सुना जाता-जो लोग युद्ध में हिस्सा लेते हैं, सरहदों पर लड़ते हैं, महत्त्वपूर्ण हैं। पर यहां अस्पताल में इलाज करने वाले लोग किसी भी तरह कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। वायुसेना के उस अफसर के जीप में बैठ जाने पर उसने भारी आवाज में कहा था-गुडबाई।’

फिर कुछ सोचते हुए कहा था-‘अपने पुराने मरीजों से दोबारा सामना होने की मुझे कभी इच्छा नहीं होती-हां, कभी वह याद करना चाहें तो खजुराहो की मूर्तियों वाले पोस्टकार्ड से उसे सख्त गुरेज है।’

वायुसेना का वह अफसर मुसकराया था। जीप स्टार्ट हो चुकी तो मेजर डाक्टर बलवन्त ने बढ़कर वायुसेना के उस अफसर से हाथ मिलाया और मुड़ लिया था। धूल उड़ाती जीप अस्पताल के बाहर जाने वाली सड़क पार कर रही थी।
लंबा कद और गठा हुआ शरीर। बलबन्त ने टोपी को कोने से खींचकर थोड़ा नीचे किया और मुड़ लिया था। वार्ड की बगल में बने जीप स्टैंड में अपनी जीप के शेड की ओर मुड़ उसने आँखें सामने गड़ा दीं। शेड के बाहर दीवार पर उसका नाम रोगन से लिखा था-मैजर डॉक्टर बलवन्त सिंह’। वार्ड की दीवार पर उसके द्वारा लिखाई उक्ति-हमें अपने काम पर गर्व है-उसे कभी पुरानी पड़ती नहीं लगी। नीले-सफेद रंग की मारुति जीप जिसे खाकी पोतने का आदेश कर्नल सूरत सिंह ने कभी नहीं दिया, सेना की संपत्ति थी। अस्पताल के एक वार्ड से दूसरे तक की दूरी या फिर कमांडिंग आफिसर सूरत सिंह से मंत्रणा के लिए प्रशासनिक खंड जाने के लिए भी बलवन्त जीप का इस्तेमाल करता। इस तरह दिन भर के तनाव एवं काम की थकान को भगाने में जीप की सवारी बलवन्त के लिए बहुत बड़ी राहत थी। जीप में बैठते हुए बलवन्त ने पीछे का दृश्य दिखाने वाले शीशे को घुमा कर ठीक किया और प्रशासनिक खंड की ओर बढ़ा।

‘‘ओह डॉक्टर ! यह रिपोर्ट आज कैसे पूरी कर ली तुमने ?’’ कर्नल सूरत सिंह ने फाइल को देखते हुए कहा, ‘‘अगले हफ्ते ही इस पर बात करेंगे।’’
‘‘यस सर !’’ बलवन्त ने हल्की सी मुसकान के साथ कहा। कर्नल सूरत सिंह के प्रति बलवन्त सम्मान की भावना रखता था। एक आवश्यक दूरी के बावजूद दोनों में मैत्री का भाव था। और सूरत सिंह हमेशा ही हल्का फुल्का मजाक या छेड़खानी करता रहता।
‘‘मेजर ! तुम गये काम से।’’ सूरत सिंह ने गंभीरता का आवरण ओढ़ते हुए कहा।
‘‘यस्स सर।’’
‘‘मैं क्या गलत कह रहा हूं।’’
‘‘यस्स सर।’’ बलवन्त ने जान-बूझकर कहा।
दोनों ठहाका लगा कर हंस दिये।

‘‘कभी-कभार छुट्टी लिया करो। बच्चों को पहलगांव और निशात बाग दिखाओ...’’
कर्नल सूरतसिंह ने कई मोर्चों पर काम किया था। बंगला देश और पाकिस्तान की लड़ाइयों के समय फील्ड अस्पताल स्थापित करने और जंगल में किसी स्थायी अस्पताल जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने का उसका कौशल चमत्कार के नाम से जाना जाता था। घर पर अपनी पत्नी से अक्सर वह बलवन्त की चर्चा करता पूरे स्टाफ में एक ऐसा डाक्टर है, जो भूत की तरह काम करता है। जिसे कभी छुट्टी नहीं चाहिए और हर समय यही मान कर चलता है कि जंग जारी है और हमें आपात स्थिति मान कर काम करना है। चाल-ढाल से जो प्रोफेसनल है और अनुशासन के दायरे से बाहर कुछ कहना या करना जिसे अनैतिक लगता है। आजकल ऐसे लोग कहां मिलते हैं।
‘‘मेरा सुझाव तुम्हें कैसा लगा ?’’ कर्नल ने दोबारा पूछा।
‘‘अर्थात् ?’’ बलवन्त ने मंद मुसकान के साथ पूछा।
‘‘बच्चों को पहलगांव और निशान्त बाग दिखाने का।’’ कर्नल ने कहा।
‘‘छुट्टी मनाने की सबसे बढ़िया जगह, घर है...सर।’’

जम्बू के पश्चिम में पहाड़ों की तलहटी में स्थित यह अस्पताल अपने आप में एक दुनिया है। पहाड़ों के बीच से गुजरती घुमावदार सड़क के किसी मोड़ पर खड़े हो देखने पर नीचे एक अच्छी खासी छावनी दिखायी पड़ती है। हवाई पट्टी अल्मुनियम की दूधिया छत की अर्द्धवृत्ताकार बैरकें, हैंगर्ज पर टंगे हवाई जहाज, जवानों के रहने की बैरकें, आफिसर्ज क्लब और छोटे आकार के साफ-सुथरे बंगले। नीचे घाटी में खड़े हो देखने पर पृष्ठभूमि में हर तरफ दूरी का भ्रम पैदा करते रहस्यमय मटमैले पहाड़ चुनौती देते मिलते हैं। वहां और भी बहुत कुछ था। क्रिकेट खेलने लायक मैदान सिनेमा हाल, लायब्रेरी सुपरबाजार दो बैंक पेट्रोल पंप, छोटा-सा गुरुद्वारा और काली मंदिर। छावनी की कांटेदार तार के बाहर उत्तमपुर नाम का छोटा-सा पहाड़ी स्टेशन पहले से ही था। चाय की दुकानें हलवाई और दवाइयों का स्टोर और बस का अड्डा। छावनी से बाहर परिवार सहित घूमने निकलने की गलती यदाकदा डाक्टर बलवन्त कर ही बैठता। अजीब-सी बदहवासी उसे घेरे रहती। बेचैनी कब बौखलाहट में बदल जायेगी और बिला वजह वह बच्चों या पत्नी पर बरस पड़ेगा कह पाना कठिन रहता। छावनी के मुख्य द्वार के अंदर दाखिल हो सभी राहत महसूस करते।

छावनी की कैंटीन में हर चीज बाजार भाव से सस्ती है। वहां पर हर कोई जानता है कि सब्जी राशन की खरीदारी डाक्टर बलवन्त स्वयं करता है, उसकी पत्नी तारा नहीं। छावनी के बाहर की दुकानों पर भी डाक्टर बलवन्त मोल-तोल करने के लिए मशहूर है। फौज की नौकरी की बदौलत मद्रास, बंगलौर, कलकत्ता या अमृतसर में खाना बनाने के अलग-अलग नुस्खों में भी वह माहिर हो चुका था। छुट्टी के दिन उन नुस्खों पर अमल करने के कारण स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में उसकी अभ्यस्तता पूरी छावनी में चर्चा का विषय थी। अक्सर साथी अफसर बलवन्त से पूछ बैठते कि खाना बनाने में इतनी रुचि वह क्यों रखता है, तो उसका उत्तर होता-मेरे से अच्छा खाना कोई बना ही नहीं सकता।’’ असल कारण यह था कि बलवन्त खाने-पीने का शौकीन था और उसकी पत्नी तारा बीमार रहने के कारण न तो अच्छा खाना पचा पाती और न ही बना पाती।

बलवन्त की पत्नी नैनतारा पंजाब में पैदा हुई थी-वेरका में, जो अमृतसर का एक इलाका था। मेजर डाक्टर बलवन्त से उसकी मुलाकात रिवाड़ी में हुई थी, जहां वह अपनी नानी के यहां छुट्टियों में जाया करती थी। बलवन्त उन दिनों पूना मेडिकल कालेज में था। जैसा कि इस देश में हर उस लड़के-लड़की के साथ होता है, जो मिल सकने के संयोग को मुहब्बत समझ लेते हैं और फिर लंबे-लंबे पत्रों के माध्यम से स्वयं को भुलावे में डाले रहते हैं-उन दोनों के साथ भी यही हुआ था। असल में तारा को सोचने का मौका ही नहीं मिला था कि एक-दूसरे के लिए बने होने के मतलब ही क्या होता है। पाकिस्तान के साथ इस देश की तीसरी जंग जिसके युद्ध विराम की घोषणा तो हो गयी थी पर लागू होने का समय बारह घंटे बाद रखा गया था। युद्ध विराम लागू होने के कोई दो घंटे पहले पाकिस्तानी हवाई जहाजों के एक दस्ते ने ‘छियाठा’ जहां पर कि पंजाब की महत्त्वपूर्ण कपड़ा मिल स्थित है, आखिरी बम गिराये थे। तारा का पिता जो वहां की कपड़ा मिल में फोरमैन था, बम क्षतिग्रस्त मिल की पुरानी छत के नीचे दब कर मर गया था।

खून से लथपथ पिता की लाश को जिस समय घर लाया गया तारा की मां रो-कुरला कर बेहोश हुई जा रही थी। तारा को ऐसी कंपकंपी छूटी थी, जिसे बाद में पूरे जीवन वह नहीं भूल पायी। उस भूचाल की पुनरावृत्ति उसके जीवन में बार-बार होती रही थी। क्षतिग्रस्त लाश का वह दृश्य कभी भी सोते-जागते उसकी आंखों के सामने आ जाता और उसकी हिम्मत जवाब दे जाती। उस दुःस्वप्न से बचने के लिए वह कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थी। लड़की की परवरिश में मां ने कोई कमी नहीं छोड़ी थी। पैसे-धेले की कोई कमी नहीं थी। मील से मिला मुआवजा, सरकारी सहायता और मां की नौकरी। अठारह वर्ष की आयु में तारा ताड़ की तरह लंबी और पंजाब की धरती की तरह खूबसूरत निकली थी। अपनी मां की तरह ही उसके लंबे घने काले बाल और तीखी नाक थी। रिवाड़ी, जहां बलवन्त छुट्टी में घर आया था और तारा अपने नाना के यहां गयी थी-मुलाकात हुई और तीन दिन के अंदर बिना किसी तामझाम के विवाह हो गया था। बलवन्त उन दिनों लेफ्टीनेंट का ओहदा पा चुका था। विवाह के दो माह के भीतर ही तारा की मां चल बसी थी, इस बात के प्रमाणस्वरूप कि दामाद में उसकी बेटी को संभालने की पूर्ण क्षमता थी।

कई वर्ष तक उनके बच्चे नहीं हुए। हालांकि बलवन्त की जबरदस्त इच्छा थी कि उनके ढेर सारे बच्चे हों। उसने प्रयत्न भी किया था। तारा भी बलवन्त को खुश देखना चाहती थी। अपनी अक्षमता का बचाव वह यह कहकर करती-टिक कर एक जगह हम रहे ही कब हैं। कभी आन्ध्र तो कभी उड़ीसा। इतनी जगह और प्रांतों के जिंदगी में पहले कभी मैंने नाम भी नहीं सुने थे। मुझे एक घर चाहिए, जिसकी दीवारों में मैंने सुरक्षित रह सकूं। त्रिवेन्द्रम, बड़ोदरा, शिलांग...यह किन जगहों के नाम हैं ? मैंने कभी जो सुने ही नहीं थे। कहां-कहां बदली होनी है तुम्हारी ! फौजी के पल्ले पड़ मैं तो तबाह हो गयी।’
कैप्टन के ओहदे पर पहुंचने के साथ ही बलवन्त को जो सबसे बड़ा तोहफा मिला, वह था-इलाहाबाद के आर्मी अस्पताल में पोस्टिंग जहां वह पत्नी समेत घर के एहसास के साथ रह सकता था।

इलाहाबाद में बसने के दो माह बाद ही तारा की भविष्यवाणी सच हो गयी। उसने गर्भ धारण किया और बच्ची आ गयी। नाम रखा गया आस्था। वक्त अच्छा चल रहा है-सोच कर उन्होंने दोबारा कोशिश की और दो साल के अंदर ही दूसरी बार तारा मां बन गयी। इस बार जो लड़की आयी, उसका नाम रखा गया कृति। तब शेर पर सवार करने वाली मां दुर्गा ने जिसकी उपासना से बलवन्त के सभी काम बनते या बिगड़ते थे, उसका तबादला लक्षद्वीप में नये स्थापित किये जाने वाले अस्पताल में कर दिया। दोनों बच्चियों के साथ तारा रिवाड़ी रहने चली गयी। छोटी-छोटी बच्चियों को लक्षद्वीप में लाना बलवन्त को गवारा नहीं था। हालांकि परिवार के लिए उसका मन तरसता पर वह जानता था कि फौजियों का आधे से ज्यादा जीवन परिवार से दूर कटता है। बीच-बीच में छुट्टी आने के फलस्वरूप तीसरी लड़की पैदा हो गयी, जिसका नाम रखा गया सपना। पर बलवन्त को पुत्र चाहिए था। घर से दूर और लड़कियों की भरमार के कारण स्वयं को उसने शराब में डुबो दिया। खीज उसके स्वभाव का स्थायी हिस्सा बन गयी।

लक्षद्वीप में पांच साल के बाद फिर उसे परिवार साथ रखने की सुविधा वाला स्टेशन मिला-कोचीन। मिया-बीबी के साथ रहने का जो परिणाम होता है उसके फलस्वरूप तारा फिर मां बनी। इस बार बलवन्त के मन की मुराद पूरी हुई और बालक ने जन्म लिया जिसका नाम रखा गया-हरीश। हरीश के पैदा होने के साथ ही बलवन्त ने शराब छोड़ने की कसम ली, जिस पर वह अमल नहीं कर सका।
इस सबके बीच तारा का जीवन के प्रति उत्साह पूरी तरह बुझ गया था। न मां, न बाप। न ही कोई भाई बहन। ऊपरी तामझाम के बावजूद पति का ज्यादातर बाहर रहना। बच्चों की परवरिश में रात-दिन का जागना और....। पदोन्नति के साथ बलवन्त मेजर कहलाने लगा था और इससे आगे बढ़ना शायद उसके कर्मक्षेत्र में नहीं था। रख-रखाव, शराब और दावतें। तारा का हाथ हमेशा तंग बना रहता।

उत्साह भरा और रस के न रहने का कोई कारण नहीं होता। जीवन की सच्चाइयों से साक्षात्कार के कारण तारा के लिए बूढ़े होने की प्रक्रिया समय से पहले शुरू हो गयी। बाहरी दिखावा, आडंबर और बड़े अफसर की पत्नी होने के गौरव को छोड़ तारा हताश-सी रहने लगी थी। बच्चों के प्रति भी उसने विरक्ति का भाव धारण कर लिया था। उसका वास्ता शुरू से ही दहशत और अभाव से रहा था। बलवन्त के हजारों मील दूर अस्पतालों में नौकरी बजाने, शराब पीने या उच्च आकांक्षाओं के समाप्त हो जाने की स्थितियों से उसने समझौता कर लिया था। आस्था, कृति और सपना के बारे में सोचते हुए अक्सर वह कहती-अपनी लड़कियों को वह फौजियों को नहीं देगी।’ अपने जीवन के छिद्रों को पाटते हुए सोचती लड़कियां ऐसे घरों में ब्याहेगी जहां नौकरी में तबादले न हों। उसे लगता, सबसे अच्छा जीवन उद्योगपति या व्यापारी लोगों की पत्नियों का होता है। जब कभी बलवन्त की पोस्टिंग ऐसे किसी नगर में होती, जहां परिवार के साथ रह सके तो तारा के आलस्य को और भी हवा मिल जाती। मौका मिलते ही बलवन्त रसोई  में घुस जाता और तारा चख-चख कर स्वाद, बतलाती रहती कि क्या ठीक बना है और क्या आगे से ठीक बनाया जा सकता है।

 लड़कियों ने भी पिता की पाक विद्या का लाभ उठाते हुए रसोईघर का रुख करना नहीं सीखा। बलवन्त को इससे कभी उलझन नहीं हुई। उसने देखा कि लड़कियां रसोई में जाकर खाना कम बना पातीं, गंद ज्यादा डाल देतीं। तारा नहीं चाहती थी कि उसकी लड़कियों को कपड़े धोने पड़े, बर्तन घिसने पड़ें, या दाल-भात बनाना पड़े। इस बात में तारा बहुत सतर्कता बरतती कि लड़कियां बन-ठन कर रहें। सार्वजनिक स्थानों या सेना के समारोह में पहने जाने वाले वस्त्रों की तैयारी पर वह दिल खोल खर्च करती। वर्दी के अलावा किसी प्रकार की सज-धज में बलवन्त की रुचि न थी। पर तारा के पास घर पर पहनने के एक से एक बढ़िया गाउन रहते। बलवन्त के पड़ोसी कैप्टन वर्मा के घर हर समय तारा और उसकी लड़कियों के कपड़ों को लेकर किस्से चलते रहते।

अब जब कि मेजर बलवन्त पचास पार कर चुका था और तारा भी दो-तीन साल में आधी सदी छूने को थी। दोनों ने एक-दूसरे की आदतों और घर के माहौल से समझौता कर लिया था। उस तालमेल में दोनों की कुर्बानियां थीं। पर बच्चे ? बलवन्त के घर पर रहने पर तारा। किसी-न-किसी बात को लेकर कभी भी उसे फटकार दे सकती थी। और बलवन्त के चेहरे पर पिटे हुए आदम का भाव रहने के बावजूद लगता तारा की बातें उसके सिर परसे निकल रही हैं। अक्सर झल्ला कर वह कहती, ‘बोलते क्यों नहीं जवाब दो ? बलवन्त ने महात्मा गांधी की उक्ति बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो को सिद्ध कर लिया था। तारा की बातों का क्रम हमेशा एक रहता। बच्चों के बारे में सोचा है कभी ? उनकी पढ़ाई की चिन्ता कौन करता है ? तारा की खीझ से दूरी प्राप्त करने का बलवन्त का एक तरीका रसोईघर में पहुँच मन पसंद कोई चीज बनाने में जुट जाना था। और दूसरा उपाय टी.वी. खोल आवाज को इतना ऊंचा कर देना था, जहां तारा का स्वर दूरदर्शन के स्वर को मात देने में असमर्थ होकर रह जाता।

जहां तक लगाव का प्रश्न था-अस्पताल के काम के बाद अगर उसे किसी में रुचि थी तो वह उसकी बड़ी बेटी आस्था थी। जहां तक दूसरे बच्चों का प्रश्न था सबके सब तारा या उसकी मां के कद काठी पर गये थे। एक आस्था थी, जिसने बलवन्त का लंबा कद, तीखी नाक, लाल सुर्ख चेहरा और भीड़ में अलग दिखने वाला व्यक्तित्व विरासत में पाया था। ठेठ हरियाणवी हंसी और बेबाक आचरण। काली मोटी आंखें।

उसकी जितनी भी तस्वीरे खिंचतीं हर एक को देखकर बलवन्त को अपना मां की छवि का ध्यान हो आता, जब वह जवान थी। आस्था की तस्वीर देखते ही रिवाड़ी के अपने घर की दीवार पर टंगी मां की तस्वीर की झांकी उसकी आंखों के सामने नाच उठती। तारा हर समय शिकायत करती रहती कि बलवन्त ने बड़ी लड़की को सिर पर चढ़ा रखा है। अठारह पार करने के बावजूद कभी भी वह मचल कर बलवन्त की गोद में जा बैठती और फिर जो चीज वह मांगती जैसे भी बनता लाकर देने तक बलवन्त को चैन न पड़ता। सहेलियों और दोस्तों के साथ जब चाहा जम्मू या श्रीनगर जाने की छूट भी घर भर में उसी को प्राप्त थी। बलवन्त के लिए आस्था एक मात्र वह टुकड़ा थी, जो उसे अपने घर, मां-बाप और रिवाड़ी से जोड़ता था।
तारा को शिकायत थी कि बलवन्त ने बड़ी बेटी को बिगाड़कर रख दिया है। राह चलते कोई कपडा़ उसे जच जाता, तो बिना जरूरत उठा लाता। यह आस्था के लिए है। बलवन्त के खरीदे हुए कपड़े या चीजें आस्था को कम ही पसंद आते। उसके द्वारा नकारी गयी चीजें दूसरे भाई-बहनों के काम आ जातीं। बलवन्त और तारा की झड़पों का एक बड़ा कारण आस्था बन गयी थी। अक्सर जब बलवन्त घर लौटता तो तारा उसे एक-न-एक शिकायत लिये तैयार मिलती। और वह शिकायत आस्था के बारे में ही होती। उस रात वह बेसब्री से बलवन्त की प्रतीक्षा कर रही थी, उबल पड़ने के लिए।
‘‘मुझे तुमसे एक जरूरी बात करनी है’’, तारा ने कहा था। बलवन्त अपने कुर्सियों पर फेंके गये कपड़े और चाय-काफी के बाद यहां-वहां छोड़े गये प्याले उठा ही रहा था। यह उसकी दिनचर्या का अंग बन चुका था। घर पहुंचते ही छोटी-मोटी बेतरतीबी को ठीक करना।

‘‘मेरी बात तुमने सुनी नहीं लगती।’’ तारा ने दोबारा कहा।
सुबह नाश्ते के समय जिस डोंगे में खीर मेज पर आयी थी, वह अब भी वहीं रखा था। डोंगे को उठाते हुए बलवन्त रसोई की ओर बढ़ने को हुआ था।
‘‘डोंगा कहीं भागा नहीं जा रहा। मैंने कहा था मुझे तुमसे जरूरी बात करनी है।’’
‘‘बोलो, मैंने मना कब किया है।’’

‘‘बात ऐसी नहीं है जो इस तरह सबके सामने की जा सके।’’ तारा ने बैठक की तरफ देखा, जहां कृति, सपना और हरीश टी.वी. पर नजरें गड़ाये मां बाप की चिंताओं से निस्पृह बैठे फिल्म देख रहे थे।
‘‘मैंने कई बार कहा है टी.वी. घंटे से ज्यादा नहीं खुलना चाहिए। पर यह बच्चे हैं कि सारा दिन चिपके रहते हैं। होमवर्क की तरफ भी ध्यान जाता है इनका कभी ?’’ बलवन्त ने आक्रामक मुद्रा अपनाने का प्रयत्न किया था।
टी.वी. बंद करते ही वह एक-दूसरे का सिर फोड़ने को तैयार हो जाते हैं। बलवन्त के हाथ से डोंगा छीन कर मेज पर पटकते हुए वह बच्चों के सोने के कमरे की तरफ चल दी थी। बलवन्त भी पीछे-पीछे कमरे में आ लिया था। पलंग के पास नीचे बैठ तारा ने कपड़ों का ढेर बाहर करते हुए उनमें से डैनम की जींस निकाल बाहर की थी, जिसे पिछले दिनों ही बलवन्त आस्था के लिए लाया था। इधर-उधर पलट टांगों के बीच के घेरे को लक्ष्य बना बलवन्त के चेहरे के सामने कर दिया। घेरे के उस हिस्से पर मटमैले रंग के धब्बे थे, जो अबरक की तरह चमक रहे थे।

‘‘बुरा न लगे तो देखो ?’’ तारा ने खीजते हुए कहा था।
‘‘किसकी है यह जींस ?’’ बलवन्त ने पराजित मुद्रा में पूछा था।
‘‘तुम्हें भला पता है ?’’
‘‘इसमें खास बात क्या है ?’’




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