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श्मशान चंपा (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3759
आईएसबीएन :81-8361-072-2

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चंपा के अभिशप्त जीवन की वेदना की मार्मिक कहानी....

Shmashan

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


‘चंपा तुझ में तीन गुण, रूप, रंग अरू बास।
अवगुण तुझमें एक है, भ्रमर न आवत पास।।


एक थी चंपा। रूप, रंग और गुणों की मादक कस्तूरी गंध लिए चंपा। लेकिन पिता की मृत्यु, बिगड़ैल छोटी बहन की कलंक-गाथा और स्वयं उसके दुर्भाग्य ने उसे बुरी तरह झकझोर डाला।
बाहर से आत्मतुष्ट, संयमी और आत्मविश्वासी दीखने वाली डॉक्टर चंपा के अभिशप्त जीवन की वेदना की मार्मिक कहानी है। ‘श्मशान चंपा’। एक परम्पराप्रेमी और आज्ञाकारी बेटी जो सबको इलाज और निर्बाध सेवा दे सकती थी, पर अपने अभिशप्त एकाकी जीवन का सन्नाटा भंग नहीं कर पाती है। सुख के शिखर पर पहुँचाकर स्वयं नियति ही निर्ममता ने उसे बार-बार नीचे गिराती अनिश्चय की घाटियों में भटकने को भेजती रहती है।

श्मशान चंपा


तश्तरी में धरे पानी में तैर रहे बेले की सुगन्ध दवा की तीव्र सुगन्ध में डूबकर रह गई थी। भगवती की उदास दृष्टि, रिक्त कमरे की दीवारों से सरसराती, फिर अपने पीले हाथों पर उतर आई, इस रक्त-शून्य कंकाल के किस छिद्र में उसके प्राण अटककर रह गए थे ? असाध्य रोग की यन्त्रणा से दुर्वह तो उसकी स्मृतियों की यन्त्रणा थी, अकेली पड़ी रहती तो कभी यही यन्त्रणा असह्य हो उठती थी। कुछ ही देर पहले चंपा उसे कैप्सूल खिलाकर ड्यूटी पर चली गई थी। अस्पताल की बड़ी-सी गाड़ी उसे लेकर गई तो भगवती का दिल डूबने लगा। एक बार जी में आया, चीख कर उसे रोक दे—‘‘आज तू अस्पताल मत जा बेटी’’, तबीयत उसे स्वयं क्षुब्ध कर उठी थी। उसकी तबीयत क्या आज ही ऐसे घबड़ा रही थी ? जब भी चंपा ड्यूटी पर जाने लगती, उसे ही लगता था कि पुत्री के लौटने तक निश्चय ही उसे कुछ हो जाएगा। क्या पता यही उसे अंतिम बार देख रही हो ? इसी से उसे दुःखद संभावना उसे विचलित कर उठती थी। किन्तु छलनामयी मृत्यु तो उसे बिल्ली के क्रूर पंजों में दबी चुहिया की ही भाँति खिला-खिलाकर मार रही थी। आज जब वह उसे दवा खिलाने आई तो भगवती बड़ी देर तक उसकी ओर देखती रही थी।

‘‘क्या देख रही हो ऐसे ममी ?’’ हँसकर उसने पूछा तो भगवती ने यत्न से ही अपनी सिसकी को रोक लिया था। कैसा अपूर्व रूप था इस लड़की का ! न हाथ में चूड़ियाँ, न ललाट पर बिन्दी, बिना किनारे की सफेद लेस लगी साड़ी और दुबली कलाई पर मर्दाना घड़ी, यही तो उसका श्रृंगार था, फिर ही जब यहाँ अपनी पहली नौकरी का कार्यभार सँभालने आई तो स्टेशन पर लेने आए नारायण सेनगुप्त ने हाथ जोड़कर भगवती को ही नई डाक्टरनी समझ सम्बोधित किया था, ‘‘बड़ी कृपा की आपने, इतनी दूर हमारे इस शहर में तो बाहर की कोई डाक्टरनी आने को राज़ी ही नहीं होती थीं। एक दो आईं भी तो टिकी नहीं। पर आपको विश्वास दिलाता हूँ, हम आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे।’’

‘‘डाक्टरनी मैं नहीं हूँ, मेरी पुत्री चंपा आपके अस्पताल का चार्ज लेगी।’’ हँसकर भगवती ने कहा, तो सेनगुप्त उसकी ओर अविश्वास से देखते ही रह गए थे। यह लड़की क्या उनके उस विराट अस्पताल का भार सँभाल पाएगी ? एक-एक दिन में कभी सात-आठ लेबर केसेज़ निबटाने पड़ते थे पिछली डॉक्टरनी को, इससे वहाँ कोई टिकती ही नहीं थी और फिर क्या उस सुन्दरी डॉक्टरनी का मन उसे रूखे शहर में लग सकता था ? किन्तु चंपा को तो ऐसे ही जनशून्य एकान्त की कामना थी। उसे वह अपना छोटा-सा बँगला बेहद प्यारा लगा था। छोटे-से अहाते में धरे क्रोटन के गमले, लॉन में बिछी मखमली दूब और एक-दूसरे के गुँथे खड़े दो ताड़ के वृक्षों की सुदीर्घ छाया ! पास में ही दूसरा बँगला था डॉक्टर मिनती घोष का। वही उसकी सहायिका डॉक्टरनी थी। बड़ी-बड़ी आंखें, बड़े-बड़े जूते और विकसित देहयष्टि, उस रोबदार डॉक्टरनी के सम्मुख चंपा और भी बच्ची लगती थी।

जिस दिन चंपा ने चार्ज लिया, उसी दिन बेचारी लड़की को अस्पताल की विचित्र ड्यूटी ने चूसकर रख दिया था। न खाने का समय, न सोने का। फिर तो उसकी वह ड्यूटी भगवती के नित्य का सिर-दर्द बन गई। कभी वह सुबह दो टोस्ट और काली कॉफी पीकर निकल जाती और आधी रात को लौटती। भगवती टोकती, तो हँसकर उसके उपालम्भ को वह उड़ाकर रख देती, ‘‘क्या करती, ममी, एक के बाद एक, दो सिजेरियन निबटाने पड़े, मिनी भी तो मेरे साथ भूखी-प्यासी असिस्ट कर रही थी। अब तुम्हीं बताओ, मरीज़ छोड़कर हम खाने कैसे आ जातीं ?’’ पता नहीं क्या देखकर लड़की ने इतनी दूर इस रूखी नौकरी पर रीझकर चली आई थी। न ढंग का अस्पताल, न अपनी भाषा समझने वाली बिरादरी। जिधर देखो, उधर ही काले-काले लौहवर्णी संथाल चेहरे। कभी-कभी तो गोरा चेहरा देखने को भगवती तरस जाती थी। चंपा की असिस्टेंट मिनी का आनन्दी स्वभाव भगवती को मुग्ध कर गया था। देखने में एकदम साधारण थी वह, फिर शरीर के बेतुकी गढ़न से उसे और भी साधारण बना दिया था। अपने मांसल जिस्म से नाटे कद की वह डाक्टरनी हर वक्त हाँफती रहती थी। ऊँचे जूड़े की गरिमा उस एलोकेशी के माथे पर शेषनाग के फन–सी ही घेरे रहती है।

आँखें बड़ी होने पर न जाने कैसे फटी-फटी लगती थीं। फड़कते अधर एक पल को भी स्थिर नहीं रहते। अपनी टूटी-फूटी हिन्दी से वह पहले ही दिन भगवती से अपनी आशंकाओं का समाधान करा ले गई थी, ‘ओ माँ लखनऊ से यहाँ क्यों आया, माँ जी ? आपका लेरकी तो एकदम बच्चा है। हम पहिले दिन देखा तो लगा, कहीं देखा है। फिर समझा, देखा है पिक्चर में। बझलेन, एकदम सुचित्रा सेन...’’

और फिर बड़ी देर तक, वह कुर्सी पर हिल-हिलकर हँसती रही थी। कैसा विचित्र आकार था उसके शरीर का ! ‘‘एकदम बेलन-सी लगती है री तेरी असिस्टेंट,’’ भगवती ने चंपा से कहा, तो वह एक क्षण को हँसकर फिर गम्भीर हो गई थी।
‘‘देखने में जैसी भी हो, ममी, बहुत काम की लड़की है। उस बेचारी को भी उसका दुर्भाग्य ही यहाँ खींच लाया है। पति फैक्टरी के ऊँचे पद पर थे। गत वर्ष नक्सलपंथियों ने उन्हें अकारण ही गोली से उड़ा दिया, इसी से हमारी तरह सब-बेच बाचकर यहाँ आ गई है।’’ एक लम्बी साँस खींचकर भगवती चुप रह गई थी। उसने क्या स्वयं हृदय पर पत्थर धरकर अपनी गृहस्थी मिट्टी में मोल नहीं लुटा दी थी ? वैसे सामान्य-सी चेष्टा करने पर चंपा, लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में ही छोटी-मोटी नौकरी जुटा सकती थी। उसका मृदु स्वभाव, दिव्य सौन्दर्य स्वयं ही उसकी योग्यता के प्रमाण-पत्र बन सकते थे, किन्तु जान-बूझकर ही वह अपनी प्रतिभा ताक पर धर रुग्णा जननी का हाथ पकड़ इस अनजान परिवेश में चली आई थी।

पिता की मृत्यु, छोटी बहन के कलंक और स्वयं अपने दुर्भाग्य ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया था। कहते हैं कि विपत्ति कभी अकेली नहीं आती। विपत्ति का मेघखंड पहले उस परिवार पर गृहस्वामी का सस्पेंशन बनकर मँडराया था। प्रदेश की जैसी अवस्था थी, उसमें कभी भी एक मंत्रिमंडल की गोदी में बिठाए गए लाड़ले अफसर को उसके अपदस्थ होते ही दूसरा मन्त्रिमंडल किसी क्रूर विमाता ही की-सी निर्ममता से गोदी से नीचे ढकेल देता था। ऐसा ही धरणीधर के साथ भी हुआ था। उनकी कीर्ति, रोब और सुख्याति देखते-ही-देखते न जाने किस शून्य में विलीन होकर रह गई।

उन्होंने कब और कैसे सरकारी गाड़ियों का दुरुपयोग किया था, कब अपने अधीनस्थ अधिकारियों से अपनी भव्य कोठी के निर्माण हेतु ट्रक भर-भरकर सीमेन्ट मँगवाया था और भी न जाने कितने की अक्षम्य अपराधों का गधाटोप पहनाकर उन्हें विभाग के एक तिरस्कृत कोने में खड़ा कर सस्पेंशन का आर्डर थमा दिया गया था। जिस अट्टालिका का निर्माण उन्होंने न जाने कहाँ-कहाँ से नक्शे के तिनके बीन-बीनकर बड़ी लगन से करवाया था, वही उनका शत्रु बन बैठी। उसी को लेकर, उन पर कीचड़ उछाला जाने लगा। एक ईमानदार अफसर के पास इस भव्य भवन के लिए इतना धन कहाँ से आया ? और फिर कैसे उन्होंने मिट्टी के मोल उस अलभ्य ज़मीन का मुरब्बा खरीद लिया था ? उस रहस्य का अनावरण करने में जब एक साथ ही कई और उच्च-पदस्थ अफसरों की चादरें भी खिंच-खिंचकर खुलने लगीं तो चटपट विभाग ने उनकी फाइल भी दाखिल दफ्तर कर दी थी। लगता, भ्रष्टाचार किसी महामारी की भाँति पूरे प्रदेश को अपने मुँह में ले चुका है।

वास्तव में धरणीधर की दर्शनीय अट्टालिका की दिव्य छटा इहलौकिक नहीं लगती थी। लगता था, उसकी सृष्टि व्यावहारिक प्रयोजन के लिए नहीं की गई है। एक सोपान पर पग धरते ही निर्माण-कर्ताओं का स्थापत्य-चातुर्य, सूक्ष्म सौन्दर्यबोध आँखों को बाँध लेता था। दूर से देखने पर ‘धरणी भवन’ एक विशाल नेपाली मन्दिर-सा ही लगता था। चीनी पैगोडा-सी बहुमंजिली ढालू छत चार नक्काशीदार टोढ़ों पर यत्न से टिकाई गई थी। बरसाती को पार कर बड़े गोल कमरे में प्रवेश करते ही अतिथियों को लगता, वे किसी श्रेष्ठ ऐतिहासिक व्यवहार में पहुँच गए हैं।

कलात्मक गढ़न के चैत्यगवाक्ष, उनके द्वारों की भित्ति, स्तम्भों में उत्कीर्ण मूर्तियों की छटा वास्तव में दर्शनीय थी। प्रत्येक कलाकृति में एक प्रकार की ऐतिहासिक सूक्ष्म प्रतीकात्मकता और संकेतिकता पारखी आँखों को बरबस बाँध लेती थी। एक कोने में, धरणीधर के किसी अरण्यपाल मित्र की कृपा से उपलब्ध, एक वृत्ताकार पथरीले आसन पर खड़ी एक भग्न मूर्ति देखने वालों को सबसे पहले आकर्षित करती थी। उस नारी-मूर्ति का मुखमण्डल शान्त एवं गम्भीर था। उसके दक्षिण हस्त में श्रृंगार और वाम हस्त में एक खंडित मंजूषा थी। उसके उन्नत वक्ष एवं सुडौल पृष्ठभाग को पीछे धरे टेबल लैम्प का धूमिल प्रकाश बड़ी कौशल से छन-छनकर आलोकित कर उठता था।

उस मूर्ति को लेकर भगवती की कई बार पति से चख-चख भी हो उठी थी, ‘‘जब से यह मेरी खंडित मूर्ति आयी है, तब से ही बुरे ग्रह हमारे पीछे लग गए हैं। मैं इसे किसी दिन जाकर गोमती में बहा आऊँगी।’’ किन्तु आज तक वह उसे जल समाधि नहीं दे पाई थी। चंपा के नये बंगले के ड्राइंग रूम के कोने में अब भी वह मूर्ति उसी धृष्टता से मुस्कराती खड़ी थी।
‘‘कभी ध्यान से देखा है तुमने चंपा !’’ धरणीधर ने एक दिन हँसकर कहा था, ‘‘इस मूर्ति की शक्ल तुमसे मिलती है !’’
सचमुच ही इस मूर्ति की सुतवाँ नाक, रसीली–बोझिल पलकों से ढकी कर्णचुम्बी आंखों और नुकीली चिबुक की गढ़न का चंपा के चेहरे से आश्चर्यजनक साम्य था। उस मूर्ति की भाँति, शान्ति गम्भीर थी चंपा। दोनों बहनों में तो, एक का नक्शा भी दूसरे से मेल नहीं खाता था। जुही का कद छोटा था। चंपा थी लम्बी। जुही का शरीर भरा-भरा था, नाक सामान्य-सी ऊपर को उठी थी, जिसे विदेशी कहते हैं ‘जब नोज’।

चंपा की नाक की गढ़न एकदम यूनानी थी। जूही के उजले, दूधे के धुले रंग के सामने चंपा का रंग भी कभी-कभी बेहद दबा, थका, हारा-सा लगने लगता था, फिर भी चंपा चंपा थी, जुही जुही। वह भी मेडिकल कॉलेज में पढ़ती थी, पर क्या मजाल जो कभी उसका कोई सहपाठी उसके घर झाँकने भी आया हो। उधर जुही के तरुण मित्र भगवती के नित्य का सिरदर्द बनकर रह गए थे। बड़े-बड़े बाल, लम्बे गलमुच्छे और नीले-पीले कुर्ते वाले तनवीर बेग को देखकर तो भगवती का खून खौल उठता था।

‘‘मैंने उसे राखी बाँधी थी, ममी, देखिए कितनी सुंदर साड़ी लाया है मेरे लिए।’’ कोटाजरी का आँचल सिर पर डालकर मुस्कुराती जुही उसके सम्मुख खड़ी हुई तो भगवती का चेहरा न जाने कैसा हो गया था। इन राखीबन्द बिना रिश्ते के धर्म-भाइयों से वह बेहद घबड़ाती थी। माँ का चेहरा देखकर चतुरा जुही ने गिरगिट-सा रंग बदल लिया था, ‘‘क्यों घबड़ा रही हो, ममी मैं तनवीर से कह दिया है, मैं यह साड़ी लूँगी तो ममी मुझे काटकर फेंक देंगी। अभी जा रही हूँ लौटाने वह तो तुम्हें दिखाने के लिए ले आई थी।’’ साड़ी तो जुही लौटा आई, किन्तु भगवती फिर भी आश्वस्त नहीं हो पाई थी। चंपा इधर मेडिकल कॉलेज में ही रहती थी। इसी से जुही की गतिविधि पर नियन्त्रण रखना उसके लिए एक प्रकार से असम्भव हो चला था। जैसे भी हो, दोनों पुत्रियों के कन्यादान से मुक्ति पाना चाहती थी भगवती।




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