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स्मृति-कलश

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3748
आईएसबीएन :81-216-0130-2

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मार्मिक एवं जीवंत संस्मृतियों का विशिष्ट संकलन....

Smriti Kalash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


शिवानी हिन्दी की सबसे लोकप्रिय लेखिका हैं। कहानी और उपन्यास लेखन में तो वह शिखर पर हैं ही, रेखाचित्र और संस्मरणों को भी कथा-संरचना के ढंग से लिखने के कारण सर्वोपरि हैं।

उन्हीं की मार्मिक एवं जीवंत संस्मृतियों का विशिष्ट संकलन है स्मृति-कलश। इसमें उनके गुरु, सहपाठी और अन्य अनेक आत्मीय जन हैं, जो अपने समय की प्रख्यात हस्तियों में गिने गए। इन व्यक्तियों के शब्द चित्र बेहद सरस और मुग्धकारी हैं।
‘स्मृति-कलश’ की एक-एक पंक्ति अपने आप में रोचकता के आवरण में ढकी श्रेष्ठता को समेटे हुए है।
हिन्दी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय लेखिका शिवानी की साहित्य-यात्रा में एक और नयी एवं महत्त्वपूर्ण कृति के योगदान का नाम ही है स्मृति-कलश।

‘स्मृति-कलश’ उनकी संस्मृतियों का रोचक, मार्मिक एवं ज्ञानवर्धक संकलन है। इसमें हैं शिवानी जी के अपने गुरु, सहपाठी और अन्य आत्मीय जन। इन सबसे उनका अंतरंग और घनिष्ठ सम्बन्ध रहा और ये या तो उस सम की ख्यातिनाम हस्तियां थीं, या फिर आगे चलकर अपने क्षेत्रों में शीर्ष पर पहुँचीं। ये व्यक्ति–चित्र बेहद सरस और भावभीने हैं।
शिवानी के लेखन का यहाँ भी वही अंदाज़ है—वही कथा-रस में डुबा देने और सहसा मोह लेने वाला उसकी अद्बुत लेखन क्षमता का एक और परिचय।

स्मृतियाँ


नीरद बाबू ने अपने एक सद्यः प्रकाशित निबंध में, एक रोचक प्रसंग उद्धृत किया है—‘एक बार शिकारी कुत्तों के दल को आता देख, कुटिल सियार ने अपनी सहमी बिरादरी से कहा, ‘‘डरो नहीं, इन शिकारी कुत्तों से बचने के लिए मेरे पास हमेशा, शत कौशल रहते हैं, निरापद, निश्चिंत बैठे रहो। मेरे रहते तुम्हें कोई चिंता नहीं।’ किंतु मुर्गा बोला, ‘‘भाइयो, मैं तो एक ही उपाय जानता हूँ। मेरे पास तो शत कौशल नहीं हैं, पर एक उपाय अवश्य है, चट से उड़कर पेड़ की डाल पर बैठ जाना।’
मैं भी अपने बंग बंधुओं से यही कहता हूँ, ‘‘तुम्हारे शत कौशल तुम्हें ही मुबारक हों। मैं तो अपनी स्वल्पबुद्धि प्राणी हूँ। एक ही उपाय जानता हूँ, वही मेरा एकमात्र कृतित्व है, लिखना।’

आज नीरद बाबू की यही पंक्ति दोहराने को जी चाहता है। मेरा भी एक ही कृति्व है, लिखना। न कभी शत कौशल सीखने की इच्छा रही, न सीखने की चेष्टा ही की। नाना आघात, भय, संघर्ष, डरावनी, धमकियां, आत्मी स्वजनों की प्रताड़ना, मान-अपमान, तिरस्कार, अवहेलना इन सब शिकारी कुत्तों से अब तक निरापद अपना अस्तित्व सेंतती आई हूँ। शत कौशल सीख कर नहीं, एक मात्र उपाय अपना कर, ऊंचे पेड़ की डाल पर बैठकर। उस एकांत में, उस डाल पर बैठने में जो अलौकिक अनुभूति प्राप्त होती है, यह वही जान सकता है, जो शत कौशलों की अवहेलना कर इस एकमात्र कौशल को अपना पाया है। विधाता ने भले ही लाख उठाया-पटका हो, वह सर्वशक्तिमान किसे नहीं पटकता ! पर इस डाल पर बैठने के सुख से कभी वंचित नहीं किया। यही मानती हूँ कि अंत तक विपत्ति की भनक पाते ही ऊंची डाल पर उचक कर बैठ सकूं। जब स्वयं राम झरोखे में बैठ कर सबका ब्यौरा ले सकते हैं, तो डाल पर बैठ, जग का ब्यौरा लेने का यह सुख, मुझे भी अंत तक देते रहें।

उसी कृपा से इस जीवन की वैविध्यपूर्ण भीड़ में जिन महिमामय कंधों से कभी कंधे छिले हैं, जिनसे कुछ सीखा है, पाया है, उन विलक्षण व्यक्तियों की सामान्य-सी रेखाएं भी अंकित कर पाई तो, मेरा प्रयास सफल होगा। आश्रम के गुरुजन, स्वयं युगपुरुष गुरुदेव, माणिक दा, सुशीला, अरुंधती, गिरधारी जैसे मित्र, डॉ. ऐरेन्सन मिस साइक्स, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बलराज साहनी, गोसाईं जी, क्षितिजमोहन बाबू, प्रो अधिकारी, क्षितीश दा, शांति दा, डाक्टर बाबी जैसे गुरुजन, जिनमें से सौभाग्य से अभी भी कुछ जीवित हैं, सब की स्मृतियों में इस अकिंचन लेखनी को गतिशील बनाया है। मैं उन सबके प्रति कृतज्ञता पूर्वक आभार व्यक्त करती हूँ।

स्वयं भूमिका लिखना, या किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति से भूमिका उगलवाना (क्योंकि स्वेच्छा से कभी कोई किसी की पुस्तक की भूमिका नहीं लिखता) मुझे कभी अच्छा नहीं लगता, किंतु आज इस भूमिका के माध्यम से इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि इन संस्मरणों को लिपिबद्ध करने में मुझे अत्यंत आनन्द आया। लेखनी ऐसी स्वच्छन्द गति से चलती रही, जैसे प्लैनचेट पर क़लम स्वयमेव चलती है। लग रहा था अतीत मुझे बार-बार उन्हीं स्नेही गुरुजनों, बंधु-बांधवों के बीच खींचे जा रहा है और मैं खिंचती चली जा रही हूँ।

इन मधुर स्मृतियों को यदि अपने पाठकों में भी बांट सकी, तो मुझे ऐसा ही लगेगा कि किसी दुर्गम प्राचीन देवालय की तीर्थयात्रा सम्पन्न कर उसकी पवित्र देवभूमि का प्रसाद बांट रही हूँ।
अंत में इतना ही कहना चाहूंगी कि लिखा मैंने बहुत है, अर्थोपार्जन भी प्रचुर किया है, किंतु इस कृतित्व को कभी व्यापार नहीं बनाया। पुरस्कार, यश, ख्याति की कामनी से कभी क़लम नहीं थामी। पुरस्कार सनद मिले भी तो वाग्देवी की कृपा से बिन मांगे मोती ही झोली में पड़े, झोली कभी फैलाई नहीं —

दरिद्रान् भव कौंतेय
मा प्रयच्छेदश्वरे धनम्।  

यही पंक्ति मेरी प्रेरणा बनी रही और सदा रहेगी। इतना अवश्य जान गई हूँ कि लेखनी यदि ईमानदारी से चलती रहती है, स्वयं नीचता की परिधि नहीं लांघती, तो भले रुष्ट इष्ट मित्रों की प्रताड़ना आहत कर, कोई कभी अनिष्ट नहीं कर पाता। यदि स्वयं ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य से अछूते रहे, तो कोई पीठ में छुरा भोंक भी दे, तो वह वार कभी घातक नहीं हो पाता, अपितु आत्मा को और उज्ज्वल करता है और लेखनी को निश्चित रूप से अधिक गतिशील बनाता है।

शिवानी

गुरुर्ब्रह्मा


जब कभी गुरुदेव की छत्रछाया में बीते दुर्लभ नौ वर्षों के संस्मरण संजोने बैठती हूं, तो लगता है स्मृतियों के गहन अरण्य में स्वयं ही खो गई हूं। स्मृतियां भी क्या एक आध हैं ? कहां से आरंभ करूं, वहां से जब ‘पुनश्च’ में बैठे गुरुदेव की भव्य मूर्ति के पहली बार दर्शन किए थे ? या अल्मोड़ा की कंकर वाली कोठी के पिछवाड़े बरामदे में बैठे उनके उस स्निग्ध से, जब उन्हें प्रणाम करने झुकी और उठने लगी तो उनकी लिखने वाली मेज से सिर टकरा गया।
‘आहा लगेछे तो ?’ (चोट लगी ना ?) बड़े स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ धरा था ? क्या उस स्पर्श को लेखनी में बाँधने की चेष्टा करूं ? या जोड़ासाकों में मेरी जिह्वा चम्मच से दबा, मेरे टांसिलों का परीक्षण कर होमियोपैथी की दवा देते उनकी ‘बाबा मोशाय’ छवि से ?

मैं तब पाठ-भवन की छात्रा बन कर आश्रम गई थी। मेरे पिता ही हम दोनों बहनों को उनसे मिलाने ‘उत्तरायण’ ले गए थे। वह भव् छवि क्या मैं कभी भूल सकती हूँ ? काला रेशमी चोग़ा, कंठ में लटका काली रेशमी डोर में बंधा चश्मा, दुग्ध धवल दाढ़ी और उसी मेल खाती देहकांति। उसी दिन उन्होंने अपनी दुलारी पौत्री नंदिनी को बुला कर कहा, ‘‘यह लड़की तेरी ही कक्षा में है पूपे, इसका ध्यान रखना। इसे अभी बांग्ला नहीं आती, तू सिखाएगी समझी ?’ किंतु मेरे तो भाग्य में संभवतः केंद्र में बृहस्पति था।

 

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