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काली पूजन और चण्डी पाठ

आचार्य विनय सिंघल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3728
आईएसबीएन :81-288-1130-4

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काली पूजन पर आधारित पुस्तक....

Kali Pujan Aur Chandi Path

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

माँ काली एवं चंडी के गुणगान शब्दों से नहीं, भावों से किये जाते हैं। इनकी महिमा अनंत है, इन्हीं से सृष्टि है यानी सम्पूर्ण ब्रह्मांड की संचालिका ये ही हैं। इनके अनंत रूप हैं, मूलतः नौ रूपों में जानी जाती हैं। नाम असंख्य हैं, मूलतः 1008 नामों से जानी जाती हैं। आपदा से घिरे भक्तों को स्मरण मात्र से मुक्त कराने वाली देवी ये ही हैं।

कलियुग में मानव कल्याण हेतु देवी की आराधना ही सर्वोपरि है। तभी तो शारदीय नवरात्र में भारत के प्रत्येक गाँव-शहर में माँ की मूर्ति पूजा होती है तथा वर्ष भर स्त्री-पुरुष अपने-अपने घरों में माँ की पूजा अर्चना व आरती करते रहते हैं। ये ही माँ सरस्वती के रूप में विद्या की अधिष्ठात्री हैं तो लक्ष्मी के रूप में धन की अधिष्ठात्री देवी हैं। यूं कहें तो भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न कार्यों का संचालन करती हैं।
इनकी प्रार्थना अत्यंत शांतिदायी है-

जयन्ति मंगलकाली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।

दो शब्द

संपूर्ण विश्व को चलाने वाली कण-कण में व्याप्त महामाया की शक्ति अनादि व अनंत है। माँ जगदम्बा स्वयं ही संपूर्ण चराचर की अधिष्ठात्री भी हैं। माँ देवी के समस्त अवतारों की पूजा, अर्चना व उपासना करने से उपासना का तेज बढ़ता है एवं दुष्टों को दंड मिलता है। नवदुर्गाओं का आवाहन अर्थात् नवरात्रि में माँ भगवती श्री जगदम्बा की आराधना अत्यधिक फलप्रदायिनी होती है। हठयोगानुसार मानव शरीर के नौ छिद्रों को महामाया की नौ शक्तियाँ माना जाता है।
महादेवी की अष्टभुजाएं क्रमश: पंचमहाभूत व तीन महागुण है। महादेवी की महाशक्ति का प्रत्येक अवतार तन्त्रशास्त्र से संबंधित है, यह भी अपने आप में देवी की एक अद्भुत महिमा है।

शिवपुराणानुसार महादेव के दशम अवतारों में महाशक्ति माँ जगदम्बा प्रत्येक अवतार में उनके साथ अवतरित थीं। उन समस्त अवतारों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-
(1)    महादेव के महाकाल अवतार में देवी महाकाली के रूप में उनके साथ थीं।
(2)    महादेव के तारकेश्वर अवतार में भगवती तारा के रूप में उनके साथ थीं।
(3)    महादेव के भुवनेश अवतार में माँ भगवती भुवनेश्वरी के रूप में उनके साथ थीं।
(4)    महादेव के षोडश अवतार में देवी षोडशी के रूप में साथ थीं।
(5)    महादेव के भैरव अवतार में देवी जगदम्बा भैरवी के रूप में साथ थीं।
(6)    महादेव के छिन्नमस्तक अवतार के समय माँ भगवती छिन्नमस्ता रूप में उनके साथ थीं।
(7)    महादेव के ध्रूमवान अवतार के समय धूमावती के रूप में देवी उनके साथ थीं।
(8)    महादेव के बगलामुखी अवतार के समय देवी जगदम्बा बगलामुखी रूप में उनके साथ थीं।
(9)    महादेव के मातंग अवतार के समय देवी मातंगी के रूप में उनके साथ थीं।
(10)    महादेव के कमल अवतार के समय कमला के रूप में देवी उनके साथ थीं।

दस महाविद्या के नाम से प्रचलित महामाया माँ जगत् जननी जगदम्बा के ये दस रूप तांत्रिकों आदि उपासकों की आराधना का अभिन्न अंग हैं, इन महाविद्याओं द्वारा उपासक कई प्रकार की सिद्धियां व मनोवांछित फल की प्राप्ति करता है।
इस पुस्तक को आप तक इस रूप में पहुंचाने में कुमारी अंजली वत्स के सहयोग के लिए मैं उनका आभार व्यक्त करता हुआ धन्यवाद करता हूं।

-आचार्य विनय सिंघल

खंड क
श्रीमहाकाली की उत्पत्ति कथा


श्रीमार्कण्डेय पुराणानुसार एवं श्रीदुर्गा सप्तशती के आठवें अध्याय के अनुरूप काली माँ की उत्पत्ति जगत् जननी माँ अम्बा के ललाट से हुई थी एवं कथा, जो प्रचलित है, वह इस प्रकार से है-
शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों के आतंक का प्रकोप इस कदर बढ़ चुका था कि उन्होंने अपने बल, छल एवं महाबली असुरों द्वारा देवराज इन्द्र सहित अन्य समस्त देवतागणों को निष्कासित कर स्वयं उनके स्थान पर आकर उन्हें प्राणरक्षा हेतु भटकने के लिए छोड़ दिया।

दैत्यों द्वारा आतंकित देवों को ध्यान आया कि महिषासुर के इन्द्रपुरी पर अधिकार कर लेने के समय दुर्गा माँ ने ही हमारी सहायता की थी एवं यह वरदान दिया था कि जब-जब देवता कष्ट में होंगे वे आवाहन करने पर तुरन्त प्रकट हो जाएंगी एवं उनके समस्त कष्टों को हर लेंगी।

यह सब याद करने के पश्चात् देवी-देवताओं ने मिलकर माँ दुर्गा का आवाहन किया, उनके इस प्रकार आह्वान से देवी प्रकट हुई एवं शुम्भ-निशुम्भ के अति शक्तिशाली असुर चंड तथा मुंड दोनों का एक घमासान युद्ध में नाश कर दिया। चंड-मुंड के इस प्रकार मारे जाने एवं अपनी बहुत सारी सेना के संहार हो जाने पर दैत्यराज शुम्भ ने अत्यधिक क्रोधित हो कर अपनी संपूर्ण सेना को युद्ध में जाने की आज्ञा दी तथा कहा कि आज छियासी उदायुद्ध नामक दैत्य सेनापति एवं कम्बु दैत्य के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे युद्ध के लिए प्रस्थान करें। कोटिवीर्य कुल के पचास, धौम्र कुल के सौ असुर सेनापति मेरे आदेश पर सेना एवं कालक, दौर्हृद, मौर्य व कालकेय असुरों सहित युद्ध के लिए कूच करें। अत्यंत क्रूर दुष्टाचारी असुर राज शुंभ अपने साथ सहस्र असुरों वाली महासेना लेकर चल पड़ा।

उसकी भयानक दानवसेना को युद्धस्थल में आता देखकर देवी ने अपने धनुष से ऐसी टंकार दी कि उसकी आवाज से आकाश व समस्त पृथ्वी गूंज उठी। तदनन्तर देवी के सिंह ने भी दहाड़ना प्रारम्भ किया, फिर जगदम्बिका ने घंटे के स्वर से उस आवाज को दुगुना बढ़ा दिया। धनुष, सिंह एवं घंटे की ध्वनि से समस्त दिशाएं गूंज उठीं। भयंकर नाद को सुनकर असुर सेना ने देवी के सिंह को और माँ काली को चारों ओर से घेर लिया। तदनन्तर असुरों के संहार एवं देवगणों के कष्ट निवारण हेतु परमपिता ब्रह्मा जी, विष्णु, महेश, कार्तिकेय, इन्द्रादि देवों की शक्तियों ने रूप धारण कर लिए एवं समस्त देवों के शरीर से अनंत शक्तियां निकलकर अपने पराक्रम एवं बल के साथ माँ दुर्गा के पास पहुंची। सर्वप्रथम परमब्रह्म की हंस पर आसन्न अक्षसूत्र व कमंडलु से सुशोभित शक्ति अवतरित हुई, इन्हें ब्रह्माणी के नाम से पुकारा जाता है। शिवजी की शक्ति वृषभ को वाहन बनाकर त्रिशूलधारी, मस्तक पर चन्द्ररेखा एवं महानाग रूपी गंगा धारण किए प्रकट हुई। इन्हें माहेश्वरी कहा जाता है। कार्तिकेय की शक्ति कौमारी मयूर पर आरूढ़ हाथों में शक्ति धारण किए दैत्यों के संहार हेतु आई। भगवान विष्णु की शक्ति वैष्णवी का वाहन गरुड़ एवं हाथों में शंख, चक्र, शारंग, धनुष, गदा एवं खड्ग लिए वहां आई। यज्ञ वाराह की शक्ति वाराही वाराह कप धारण कर आई। नृसिंह भगवान की शक्ति नारसिंह उन्हीं के समान रूप धारण कर आई। उसकी मात्र गर्दन के बाल झटकने से आकाश के समस्त नक्षत्र, तारे, बिखरने लगते थे। इन्द्र की शक्ति ऐन्द्री युद्ध हेतु ऐरावत को वाहन बनाकर हाथों में वज्र धारण किए सहस्र नेत्रों सहित पधारी। जिसका जैसा रूप, वाहन, वेश वैसा ही स्वरूप धारण कर सबकी शक्तियां अवतरित हुईं।

तद्पश्चात् समस्त शक्तियों से घिरे शिवजी ने देवी जगदम्बा से कहा-‘‘मेरी प्रसन्नता हेतु तुम इस समस्त दानवदलों का सर्वनाश करो।’’ तब देवी जगदम्बा के शरीर से भयानक उग्र रूप धारण किए चंडिका देवी शक्ति रूप में प्रकट हुईं। उनके स्वर में सैकड़ों गीदड़ियों की भांति आवाज़ आती थी। उस देवी ने महादेव जी से कहा-कि आप शुम्भ-निशुम्भ असुरों के पास मेरे दूत बन कर जाएं, इसी कारण इनका नाम शिवदूती भी विख्यात हुआ। तथा उनसे व उनकी दानव सेना से कहें कि ‘यदि वह जीवनदान चाहते हैं, तथा अपने प्राणों की रक्षा करना चाहते हैं तो तुरंत पाताल-लोक की ओर लौट जाएं एवं जिस देवता इन्द्र से त्रिलोकी साम्राज्य छीना है, वह उन्हें वापस कर दिया जाए एवं देवगणों को यज्ञ उपभोग करने दिया जाए। तथा यदि बल के घमंड में चूर तुम युद्ध के इच्छुक हो, तो आओ ! और मेरी शिवाओं एवं योगिनियों को अपने शरीर के रक्त पान से तृप्त करो।’

भगवान महादेव के मुख से समस्त शब्दों व वचनों को सुन कर असुरराज शुम्भ-निशुम्भ क्रोध से भर उठे वे देवी कात्यायनी की ओर युद्ध हेतु बढ़े। अत्यंत क्रोध में चूर उन्होंने देवी पर बाण, शक्ति, शूल, फरसा, ऋषि आदि अस्त्रों-शस्त्रों द्वारा प्रहार प्रारम्भ किया। देवी ने अपने धनुष से टंकार की एवं अपने बाणों द्वारा उनके समस्त अस्त्रों-शस्त्रों को काट डाला, जो उनकी ओर बढ़ रहे थे। माँ काली फिर उनके आगे-आगे शत्रुओं को अपने शूलादि के प्रहार द्वारा विदीर्ण करती हुई व खट्वांग से कुचलती हुई समस्त युद्धभूमि में विचरने लगी। ब्रह्माणी अपने कमंडलु के जल को छिड़ककर जहां भी जाती वहीं असुरों के बल व पराक्रम को क्षीण कर उन्हें नष्ट कर देती। माहेश्वरी त्रिशूल लेकर, वैष्णवी चक्र द्वारा, कौमारी शक्ति द्वारा असुरों पर टूट पड़ी एवं उनका संहार किया। ऐन्द्री के वज्रप्रहार से सहस्रों दानवदल रक्तधार बहाकर पृथ्वी की शैय्या पर सो गए। वाराही प्रहार करती अपनी थूथन से एवं दाड़ों से अनेक असुर की छाती फाड़ कर उन्हें नष्ट किया। और कितनों ने अपने प्राणों को उनके चक्र के द्वारा त्यागा। नारसिंह सिंहनाद करती हुई अपने विशाल नखों से अष्ट दिशाओं, आकाश, पाताल, शुजाती दैत्यों का संहार करने लगी। कितनों को शिवदूती के भीषण अट्टहास ने भयभीत कर पृथ्वी पर गिरा दिया एवं तब वह शिवदूती का ग्रास बनें।

क्रोध में भरी देवी द्वारा किए गए इस महाविनाश को देख भयभीत सेना भाग खड़ी हुई। तभी अपनी सेना को मातृगणों से भागते देख रणभूमि में आया दैत्यराज महाअसुर रक्तबीज। उसके शरीर से रक्त की बूँदें जहां-जहां गिरती थीं वहीं पर उसी के समान पराक्रमी शक्तिशाली रक्तबीज खड़ा हो जाता। हाथ में गदा लिए रक्तबीज ने ऐन्द्री पर प्रहार किया। ऐन्द्री के वज्र प्रहार से घायल रक्तबीज का रक्त बहते ही जहां भी गिरा उतने ही रक्तबीज वहां उत्पन्न हो उठे। सभी एक समान बलशाली व वीर्यवान थे। वे सभी मिलकर समस्त मातृगणों से युद्ध करने लगे। जब-जब उनपर प्रहार होता, उतने ही रक्तबीज और खड़े होते। देखते ही देखते पूरी पृथ्वी असंख्य रक्तबीजों से भर गई। क्रोध में आकर वैष्णवी ने चक्र द्वारा उन पर प्रहार किया व उस रक्त से और दानव उत्पन्न हो गए। इतने दानवों को देखकर कौमारी अपनी शक्ति से, वाराही ने खड्ग द्वारा, माहेश्वरी ने त्रिशूल द्वारा उनका संहार करना प्रारम्भ किया।

क्रोध में उमड़ता रक्तबीज भी माताओं पर पृथक्-पृथक् प्रहार करने लगा। अनेक बार शक्ति आदि के प्रहार से घायल होने पर रक्तबीज के शरीर से रक्त की धारा बहने लगी। उस धारा से तो सहस्रों रक्तबीज निश्चित ही धरा पर उठ खड़े हुए। एक से दो, दो से चार, चार से आठ करते-करते सम्पूर्ण पृथ्वी पर रक्तबीज व्याप्त हो गए। देवताओं का भय इतने असुरों को देख और बढ़ गया। देवताओं को इस प्रकार निराश देखकर देवी का क्रोध अपार हो गया। क्रोध के कारण अपने मुख को और व्यापक करो तथा मेरे प्रहार से रक्तबीज के शरीर से बहने वाले रक्त को और उससे उत्पन्न होने वाले तमाम महादैत्यों का सेवन करो। इस प्रकार दैत्यों का भक्षण करती तुम पूर्ण रणभूमि में विचरण करो। ऐसा करने पर रक्तबीज का समस्त रक्त क्षीण हो जाएगा तथा वह स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। परंतु तुम रक्त को धरा पर गिरने मत देना। तब काली ने रौद्र रूप में प्रकट होकर रक्तबीज के समस्त रक्त को हाथ में लिए खप्पर में समेट कर पीती रही एवं जो भी दानव रक्त से उनकी जिह्वा पर उत्पन्न होते गए उनको खाती गई। जब चंडिका ने अनेक दानवों को एक साथ नष्ट करना प्रारंभ कर दिया तो काली ने क्रोध उन्मुक्त होकर अपनी जिह्वा समस्त रणभूमि पर फैला दी, जिससे सारा रक्त उनके मुखमें गिरता रहा एवं उससे उत्पन्न होते दानवों का वह सेवन करती रही। इस प्रकार रक्तबीज के शरीर से बहने वाले रक्त का पान काली करती रही। तभी रक्तबीज ने गदा से चण्डिका पर प्रहार किया परंतु इस प्रहार ने चण्डिका पर लेशमात्र भी वेदना नहीं पहुंचाई। तदनन्तर देवी ने काली द्वारा रक्त पी लेने के पश्चात् वज्र, बाण, खड्ग एवं मुष्टि आदि द्वारा रक्तबीज का वध कर डाला। इस प्रकार अस्त्रों-शस्त्रों के प्रहार से रक्तहीन होकर रक्तबीज भूमि पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही देवी-देवता अत्यंत प्रसन्न हुए एवं मातृ-शक्तियां एवं योगनियां व शिवाएं असुरों का रक्तपान कर मद में लीन हुई नृत्य करने लगीं।

श्रीमहाकाली साधना के प्रयोग से लाभ


महाकाली साधना करने वाले जातक को निम्न लाभ स्वत: प्राप्त होते हैं-
(1)    जिस प्रकार अग्नि के संपर्क में आने के पश्चात् पतंगा भस्म हो जाता है, उसी प्रकार काली देवी के संपर्क में आने के उपरांत साधक के समस्त राग, द्वेष, विघ्न आदि भस्म हो जाते हैं।
(2)    श्री महाकाली स्तोत्र एवं मंत्र को धारण करने वाले धारक की वाणी में विशिष्ट ओजस्व व्याप्त हो जाने के कारणवश गद्य-पद्यादि पर उसका पूर्व आधिपत्य हो जाता है।
(3)    महाकाली साधक के व्यक्तित्व में विशिष्ट तेजस्विता व्याप्त होने के कारण उसके प्रतिद्वंद्वी उसे देखते ही पराजित हो जाते हैं।
(4)    काली साधना से सहज ही सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती है।
(5)    काली का स्नेह अपने साधकों पर सदैव ही अपार रहता है। तथा काली देवी कल्याणमयी भी है।
(6)    जो जातक इस साधना को संपूर्ण श्रद्धा व भक्तिभाव पूर्वक करता है वह निश्चित ही चारों वर्गों में स्वामित्व की प्राप्ति करता है व माँ का सामीप्य भी प्राप्त करता है।
(7)    साधक को माँ काली असीम आशीष के अतिरिक्त, श्री सुख-सम्पन्नता, वैभव व श्रेष्ठता का भी वरदान प्रदान करती है। साधक का घर कुबेरसंज्ञत अक्षय भंडार बन जाता है।
(8)    काली का उपासक समस्त रोगादि विकारों से अल्पायु आदि से मुक्त हो कर स्वस्थ दीर्घायु जीवन व्यतीत करता है।
(9)    काली अपने उपासक को चारों दुर्लभ पुरुषार्थ, महापाप को नष्ट करने की शक्ति, सनातन धर्मी व समस्त भोग प्रदान करती है।

समस्त सिद्धियों की प्राप्ति हेतु सर्वप्रथम गुरु द्वारा दीक्षा अवश्य प्राप्त करें, चूंकि अनंतकाल से गुरु ही सही दिशा दिखाता है एवं शास्त्रों में भी गुरु का एक विशेष स्थान है।

श्रीमहाकाली पाठ-पूजन विधि


सबसे पहले गणपति का ध्यान करते हुए समस्त देवी-देवताओं को नमस्कार करें।
1.    श्री मन्महागणाधिपतये नम:।।
अर्थात्-बुद्धि के देवता श्री गणेश को हमारा नमस्कार है।
2.    लक्ष्मीनारायणाभ्यां नम:।।
अर्थात्-सृष्टि के अस्तित्व व अनुभवकर्ता श्री लक्ष्मी व नारायण को हमारा शत-शत नमस्कार है।
3.    उमामहेश्वरा्भ्यां नम:।।
अर्थात्-श्री महादेव व माँ पार्वती को हमारा नमस्कार है।
4.    वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नम:।।
अर्थात्-वाणी और उत्पत्ति के कारक माँ सरस्वती व परम ब्रह्म तुम्हें सादर नमस्कार है।
5.    शचीपुरन्दराभ्यां नम:।।
अर्थात्-देवराज इन्द्र व उनकी भार्या शची देवी को हमारा नमस्कार है।
6.    मातृपितृ चरणकमलेभ्यो नम:।।
अर्थात्-माता और पिता को हमारा सादर नमस्कार है।
7.    इष्टदेवताभ्यो नम:।।
अर्थात्-मेरे इष्ट देवता को मेरा सादर नमस्कार है।
8.    कुलदेवताभ्यो नम:।।
अर्थात्-हमारे कुल (खानदान) के देवता तुम्हें नमस्कार है।
9.    ग्रामदेवताभ्यो नम:।।
अर्थात्-जिस गहर (ग्राम) से मेरा संबंध है उस स्थान के देवता तुम्हें नमस्कार है।
10.    वास्तुदेवताभ्यो नम:।।
अर्थात हे वास्तु पुरुष देवता तुम्हें नस्कार है।
11.    स्थानदेवताभ्यो नम:।
   अर्थात्-इस स्थान के देवता को सादर नमस्कार है।
12.    सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:।।
    अर्थात्-समस्त देवताओं को नेरा नमस्कार है।
13.    सर्वेभ्यो ब्राह्यणेभ्यो नमः।।
अर्थात् उन सभी को जिन्हें ब्रह्म का ज्ञान है, मेरा सादर नमस्कार है।

ॐ भूर्भुव: स्व:।
तत् सवितुर्वरेण्यम्।। भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोयदयात्।।

अर्थात्-वह जो असीम परिकल्पना के पार हैं, जिनकी देह सकल, कुशाग्र व कारणात्मक है, हम उस ज्ञान के प्रकाश का ध्यान करते हैं जो समस्त देवों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किए हुए है। हे प्रभु ! हमारे ध्यान में व चिन्तन में तुम सदैव व्याप्त हो।
ॐ भू:        अर्थात्    सकल देवी को नमन
ॐ भुव:        अर्थात्    कुशाग्र देवी को नमन
ॐ स्व:        अर्थात्    कारणात्मक देवी को नमन
ॐ मह:        अर्थात्    जिसे अस्तित्व सा स्वामीत्व प्राप्त है उसे नमस्कार है।
ॐ जन:        अर्थात्    ज्ञान की देवी को नमस्कार
ॐ तप:        अर्थात्    प्रकाश की देवी को नमस्कार
ॐ सत्यम्’     अर्थात्    सत्य की देवी को नमस्कार

एते गन्धपुष्पे पुष्प अर्पण करते समय निम्न मंत्रों का उच्चारण करें-
ॐ गं गणपतये नम:।
अर्थात्- इन पुष्पों व विशिष्ट गंधो को समर्पित करते हुए गणों के ईश अर्थात् श्री गणेश को ज्ञान का प्रकाश है व बहुसंयोजक हैं, उन्हें हमारा नमस्कार है।
ॐ आदित्यादिनवग्रहेभ्यो नम:।।
अर्थात् इन सुगंधित पुष्पों को समर्पित करते हुए सूर्य सहित नवग्रहों को नमस्कार है।

ॐ शिवादिपंचदेवताभ्यो नम:।।
अर्थात् इन सुगंधित पुष्पों को समर्पित करते हुए महादेव सहित पंच देवताओं क्रमश: शिव, शक्ति, विष्णु, गणेश व सूर्य को नमस्कार है।
ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नम:।।
अर्थात् इन सुगंधित पुष्पों को समर्पित करते हुए देवराज इन्द्र सहित दसों दिशाओं के रक्षकों को नमस्कार है।
ॐ मत्स्यादिदशावतारेभ्यो नम:।।
अर्थात् इन सुगंधित पुष्पों को समर्पित करते हुए उन परम विष्णु को नमस्कार है, जिन्होंने मत्स्य सहित दस अवतार धारण किए थे।

ॐ प्रजापतये नम:।।
अर्थात्- इन सुगंधित पुष्पों द्वारा सृष्टि के रचयिता को नमस्कार है।
ॐ नमो नारायणाय नम:।।
अर्थात्-इन सुगंधित पुष्पों द्वारा संपूर्ण ज्ञान की चेतना को नमस्कार है।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:।।
अर्थात् इन सुगंधित पुष्पों द्वारा समस्त देवों को नमस्कार है।
ॐ श्री गुरुवे नम:।।
अर्थात् इन सुगंधित पुष्पों द्वारा गुरु को नमस्कार है।

ॐ ब्रह्माणेभ्यो नम:।।
अर्थात् इन सुगंधित पुष्पों द्वारा ज्ञानके समस्त परिचितों (ब्राह्मणों) को सादर नमस्कार है।
निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की मध्यमा में या कलाई पर घास को बांधें-
ॐ कुशासने स्थितो ब्रह्मा कुशे चैव जनार्दन:।
कुशे ह्याकाशवद् विष्णु: कुशासन नमोऽस्तुते।।
अर्थात्-इस कुश (घास) में परम ब्रह्म का प्रकाश स्थित है तथा इसी में निवास करते हैं श्री जनार्दन भी। इसी कुश के प्रकाश में स्वयं परम विष्णु का प्रकाश भी विद्यमान है, अत: मैं इस कुश के आसन को नमस्कार करता हूं।

आचमन करते समय निम्न मंत्रों का उच्चारण करें-
ॐ केशवाय नम:।
अर्थात् विष्णुरूप केशव को नमस्कार है।
ॐ माधवाय नम:।।
अर्थात् श्री विष्णु रूप माधव को नमस्कार है।
ॐ गोविन्दाय नम:।।
अर्थात् श्री विष्णु रूप गोविन्दा प्रभु को नमस्कार है।
ॐ विष्णु: ॐ विष्णु:  विष्णु;।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके नम:।




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