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क्षमा करना जीजी

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 369
आईएसबीएन :81-263-0702-1

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जिजीविषा से भरी एक जुझारू नायिका पर केन्द्रित नरेन्द्र कोहली का सामाजिक उपन्यास

Kshama Karna Jiji - A Hindi Book by - Narendra Kohli क्षमा करना जीजी - नरेन्द्र कोहली

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘क्षमा करना जीजी’ यशस्वी कथाकार नरेन्द्र कोहली का नवीनतम उपन्यास है। यद्यपि यह उपन्यास एक परिवार के सम्बन्धों के भावुक वातावरण को लेकर रचा गया है, लेकिन इसकी मूल व्यथा पारिवारिक सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं है। लेखक ने पूर्व स्मृति के शिल्प में प्रायः वे सारे प्रसंग उठाये हैं जो निम्न मध्य वर्ग की नारी के जीवन में, विकास पथ के विघ्नों के रूप में उसके सामने आते हैं। परिवारजनों का स्नेह बंधन भी हो सकता है, बाधा भी और अन्ततः छोटे-छोटे स्वार्थों तथा असमर्थताओं के कारण वह स्नेह का पाखण्ड भी हो सकता है। इस उपन्यास की नायिका जिजीविषा से भरी एक जुझारू महिला है जो अपने सामर्थ्य, श्रम तथा साहस के बल पर जीवन का निर्माण करना चाहती है। वह वैसा कर पाती है या नहीं इसमें मतभेद हो सकता है, लेकिन वह अपने सम्मान की रक्षा में सफल होती है, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं।
पौराणिक और ऐतिहासिक कथा-भूमि से अलग, नरेन्द्र कोहली के इस सामाजिक उपन्यास को हिन्दी पाठक समाज द्वारा खूब सराहा गया है।

क्षमा करना जीजी

दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेवले स्टेशन पर बहुत गाड़ियाँ नहीं थीं; किन्तु स्टेशन इतना छोटा था कि दो गाड़ियाँ भी इकट्ठी आ जाएँ या आने वाली हो, तो भीड़ हो जाती थी।

विनीत को कुछ घबराहट इस बात की थी कि गाड़ी यहाँ दो ही मिनट रुकती है। उन्हीं दो मिनटों में जीजी को उतरना था, मुन्नी को उतरना था पता नहीं उनके पास सामान कितना था....
प्रभा को फाटक के निकट खड़ा रहने का संकेत कर, वह ‘पूछताछ’ की छिड़की की ओर बढ़ गया !

‘‘जी.टी. कितने बजे आ रही है ?’’ उसने खिड़की के सामने खड़े जमघट में धँसने का प्रयत्न करते हुए पूछा।
खिड़की के सम्मुख अनेक लोग खड़े थे; किन्तु सदा के समान पंक्ति में खड़े होने की बात किसी ने नहीं सोची थी। इसलिए जमघट-सा बन गया था और उसमें किसी की बारी का कोई प्रश्न ही नहीं था। सब लोग अपनी-अपनी जिज्ञासाएँ पूछताछ-बाबू की ओर उछालते जा रहे थे। वह एक साथ उछली हुई अनेक गेंदों के समान इन जिज्ञासाओं में से कभी किसी को थाम लेता, कभी किसी को। कभी गाड़ी का समय बता देता कभी किराया, कभी प्लेटफार्म-संख्या...जिस प्रश्न का उत्तर वह नहीं देना चाहता था, उसे मजे से टालता रहता, जैसे वह प्रश्न पूछा ही न गया हो !

संयोग ही था कि उसने विनीत की जिज्ञासा को जल्दी पहचान लिया और अपेक्षा से जल्दी ही उत्तर दिया, ‘‘राइट टाइम !’’
‘‘मुझे पहियों वाली एक कुर्सी चाहिए।’’ विनीत ने अवसर का लाक्ष उठाया, ‘‘एक रोगी को ले जाना है। कहाँ मिलेगी ?’’
‘‘असिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर के पास !’’
धन्यवाद कर, विनीत उस भीड़ से बाहर निकल आया।

अस्टिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर का कमरा खोजने के लिए वह तेजी से चल रहा था और प्रभा उसके पीछे-पीछे प्रायः भाग रही थी। ऊँची एड़ीवाले सैण्डल के साथ, इस प्रकार भागना, प्रभा के लिए तनिक भी सुविधाजनक नहीं था। वह मन-ही–मन खीज भी रही थी; किन्तु विनीत की यही प्रवृत्ति थी। विवाह के पश्चात् के इतने वर्षों में वह अभी तक उसे समझा नहीं पायी थी कि जब वह अपनी धुन में चलता है, तो वह उसके साथ-साथ भाग नहीं सकती !...और आज तो उसकी जल्दबाजी का कारण भी था।....गाड़ी समय से आ रही थी। उन्हें सारी व्यवस्था कर गाड़ी के आने तक तैयार रहना था। जीजी को वे प्रतीक्षा नहीं करवा सकते थे। वह उनके लिए कष्टकारक होगी वैसे भी कहीं आना-जाना हो, कोई आ रहा हो ...गाड़ी पकड़नी हो, अथवा किसी को स्टेशन पहुँचाना हो....तो विनीत पर जल्दबाजी, घबराहट, चिड़चिडाहट अथवा हताशा-किसी का भी दौरा पड़ सकता था।

असिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर के नाम की पट्टी पढ़कर विनीत उस कमरे में घुस गया। एक सज्जन अपनी कुरसी पर बैठे, मेज पर रखे अपने कागजों को उलट-पलट रहे थे; और तीन-चार लोग खड़े उनकी क्रीड़ा को बड़े श्रद्धा-भाव से निहार रहे थे।

कोने में दो-तीन पहियोंवाली कुर्सियां रखी थीं।.....विनीत का मन कुछ शान्त हुआ। ...एक अनाम-सी आशंका उसके मन में थी कि कुरसी न मिली तो ?....किन्तु कुरसी वहाँ थी !
 
‘‘सुनिए ! मुझ पहियोंवाली एक कुरसी चाहिए।’’ विनीत ने उस व्यक्ति की क्रीड़ा समाप्त होने की प्रतीक्षा नहीं की।
 ‘‘क्यों ?’’ उसने सिर उठाकर विनीत की ओर देखा।
‘‘जी.टी एक्सप्रेस में मेरी बहन आ रही हैं। वह अस्वस्थ हैं। वह चल नहीं पाएँगी।’’ उसने बताया !
‘‘यहाँ बाहर एक कुली होगा-दीनदयाल ! उसे बुला लाइए।’’
‘‘कुली क्या करेगा ?’’ विनीत ने चकित स्वर में पूछा।

‘‘वह कुरसी ले जाएगा। आपके रोगी को टैक्सी तक पहुँचाकर, कुरसी लौटा लाएगा।’’
‘‘मैं रोगी को स्वयं ले जाऊँगा।’’ विनीत ने अपनी खीझ को दबाने का प्रयत्न किया, ‘हमें कुली की आवश्यकता नहीं होगी।’’
‘‘पर हमें है।’’ असिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘लोग ले तो स्वयं जाते हैं किन्तु लौटाते नहीं हैं।
‘‘मैं जो कह रहा हूँ कि मैं लौटा जाऊँगा।’’
‘‘और मैं जो कह रहा हूँ कि कुरसी आप को नहीं दूँगा।’’
प्रभा ने विनीत की भुजा थाम ली, ‘‘बुला क्यों नहीं लाते दीनदयाल को।’’

गाड़ी के रुकने से पहले ही विनीत ने जीजाजी को देख लिया था। वे दरवाजे पर ही खड़े थे। संयोग से वह डब्बा दूर नहीं था। जब तक गाड़ी रुकी, वे लोग कुर्सी समेत उसके सामने पहुँच गये थे। जीजाजी ने हाथ हिलाया। तब विनीत ने जीजी को भी देखा। वे खड़ी हो चुकी थीं और सहारे से धीरे-धीरे दरवाजे की ओर आ रही थीं। ....उन्होंने भी विनीत को देख लिया था। उसे देखकर उनके होठों पर हल्की-सी एक मजबूर मुसकान उभरी और ऐनक के शीशों के पीछे, उनकी आँखें प्रसन्नता के भाव से कुछ विस्फारित-सी हुईं।....किन्तु इस सब के बावजूद उनके चेहरे, हाव-भाव तथा गति-विधि में, पीड़ा की जकड़न बड़ी स्पष्ट थी। उनकी आत्मा पर जैसे रोग, कष्ट और पराजय की छाया थी।....पर उनकी वह मुस्कान .....

जीजाजी के साथ मिलकर, विनीत ने जीजी को गाड़ी से उतारा। उन्हें पहियोंवाली कुरसी पर बैठाया। प्रभा ने मुन्नी को सँभाला और कुली की सहायता से सामान वगैरह भी उतरवा लिया।
‘‘कैसी हैं जीजी ?’’

‘‘अच्छी हूँ !’’ जीजी प्रसन्न दिखने का प्रयत्न कर रही थीं।
‘‘चलो भाई !’’ विनीत ने दीनदयाल से कहा और सामनेवाले कुली को भी साथ आने का इशारा किया।
दीनदयाल चल तो पड़ा; किधर जा रहा था वह ? प्लेटफार्म की विपरीत दिशा में जाने का क्या अर्थ ? उधर तो प्लेटफार्म समाप्त होकर, रेल की पटरियाँ आरम्भ हो जाती हैं।
‘‘किधर जा रहे हो भाई तुम ?’’ विनीत झल्लाया।
दीनदयाल ने उससे भी अधिक झल्लाहट प्रकट की, ‘‘साहब ! जब आपको कुछ मालूम नहीं है तो क्यों व्यर्थ में टाँग अड़ाते हैं ?’’

‘‘क्या मतलब ?’’
उधर से बाहर निकलिएगा, तो यह पहियोंवाली कुरसी, सीढ़ियाँ कैसे उतरेगी ?’’
‘‘ओह  ! यह तो मैंने सोचा ही नहीं !’’ विनीत ने जैसे अपने आप से कहा।
‘‘सोचना चाहिए न ! नहीं तो दूसरे पर भरोसा करना चाहिए।’’ दीनदयाल बोलता चला गया, ‘‘सामान की ट्राली इधर से ही जाती है। इधर सलोप बना हुआ है। हम बाहर टैक्सी स्टैण्ड के पास निकलेंगे।’’

‘‘चलो भाई, चलो !’’ विनीत ने घड़ी देखी, संध्या के सात बज रहे थे। लगभग अँधेरा हो चुका था और हवा काफी ठण्डी और तीखी लग रही थी।
वैसे तो दिल्ली में दिसम्बर का महीना प्रायः ही बहुत ठण्डा होता है; किन्तु इस बार ठण्ड कुछ जल्दी आरम्भ हो गयी थी। पता नहीं जीजी के पास पर्याप्त ऊनी कपड़े थे भी या नहीं ! वे मुम्बई से आ रही थीं, जहाँ ठण्ड कभी होती ही नहीं....और जमशेदपुर में भी दिल्ली जैसी ठण्ड तो नहीं होती।.... जीजी के कन्धों पर जो शॉल थी। यह शायद विवाह के समय उनके दहेज का एक अंग थी।....बहुत गरम तो नहीं ही थी।

वृद्ध भी हो चुकी थी, यद्यपि जीर्ण-क्षीर्ण नहीं लगती थी ...
टैक्सी में बैठने तक, जीजी से कोई बात नहीं हो सकी ! पर साथ-साथ चलते हुए विनीत देख रहा था कि वे संतुष्ट थी। उनके चेहरे पर आश्वस्ति का एक भाव था, जैसे किसी आयोजन की पूर्ण और उपयुक्त व्यवस्था देखकर, गृहस्वामी सन्तुष्ट हो जाता है !

‘‘यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ जीजी ?’’
‘‘ऐसा तो कोई कष्ट नहीं हुआ; किन्तु ये चौबीस घण्टे कैसे कटे, यह तो मैं ही जानता हूँ।’’ उत्तर जीजाजी ने दिया, ‘‘भगवान की दया है कि यहां तक निर्विघ्न पहुँच गये, नहीं तो चलती गाड़ी में क्या करता मैं !’’
‘‘विमान-यात्रा डाक्टरों ने मना कर दी थी; और गाड़ी की यात्रा से मना कर रहे थे।’’ जीजी बहुत धीरे से बोली।
‘‘मैं यात्रा के लिए मना नहीं कर रहा था।’’ जीजाजी  के स्वर में खीझ थी, ‘‘मैं दिल्ली आने के पक्ष में नहीं था....’’

विनीत जानता था, जीजाजी दिल्ली आने के पक्ष में नहीं थे। जब जीजी के दिल्ली आने की बात उठी थी, तो वह परामर्श के लिए कमला के पास गया था। कमला आयुर्वैज्ञानिक संस्थान में अच्छे, बड़े प्रशासनिक पद पर थी। उनके परिवार की पुरानी मित्र थी और उसे ठीक-ठीक परामर्श दे सकती थी। उसने भी यही कहा था, ‘‘निर्मला को जमशेदपुर जाने दो। टिस्को के अस्पताल में उनका एक पैसा खर्च नहीं होगा और देख-भाल भी अच्छी होगी। यहाँ हमारे संस्थान में यदि जनरल वार्ड में भर्ती करा दिया तो कोई उसे पूछेगा भी नहीं। उसकी उपेक्षा और पीड़ा देखकर तुम लोग रोओगे; किन्तु कुछ कर नहीं सकोगे। यदि स्पेशल वार्ड अथवा केबिन लोगे, तो पाँचों भाई बिक जाओगे, किन्तु बिल नहीं पाओगे।’’
जीजी यह बात नहीं जानतीं; और विनीत उन्हें बताना भी नहीं चाहता....
‘‘और मैं जमशेदपुर जाना नहीं चाहती!’’ जीजी ने बलपूर्वक कहा।

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