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युग प्रवर्तक महात्मा बुद्ध

अशोक कौशिक

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3683
आईएसबीएन :81-7182-790-x

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महात्मा बुद्ध के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Yug Pravartak Mahatma Budh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


’’’’सरस्वती, प्रयाग, गया, बाहुमती, सुन्दरिका आदि नदियों में पापकर्मी मूढ़ चाहे जितना स्नान करें, वे शुद्ध नहीं होंगे। ये नदियाँ पापकर्मी को शुद्ध नहीं कर सकतीं। शुद्ध मनुष्य के लिए तो सर्वत्र ही गया है। शुद्ध तथा शुचिकर्मा के व्रत सदा पूर्ण होते हैं। यदि तुम मिथ्या भाषण नहीं करते, बिना दिये लेते नहीं, श्रद्धावान् हो, मत्सर रहित हो, तो ‘गया’ जाने से क्या लाभ ? क्षुद्र जलाशय भी तुम्हारे लिए ‘गया’ है।


महात्मा बुद्ध

अतीत के पीछे मत दौड़ो। भविष्य की चिन्ता में मत पड़ो। अतीत नष्ट हो चुका है, भविष्य निकट भविष्य में नहीं आयेगा। वर्तमान धर्म को सब स्थान पर देखना चाहिये। कर्त्तव्य-पथ में अविलम्ब आज ही आरूढ़ होना चाहिये। कौन कह सकता है कब मृत्यु हो जाए। अतीत का अनुगमन करने से वेदना होती है, भविष्य की कल्पना से रोग उत्पन्न होगा। वर्तमान की चिन्ता करनेवाला प्रत्युत्पन्न धर्मों में अनुरक्त होता है।

महात्मा बुद्ध

प्राक्कथन


भारतवासियों के जीवन में महात्मा बुद्ध के उपदेशों का गहन प्रभाव रहा है, आज भी विद्यमान है। यह विषय अभी भी विवादस्पद ही बना हुआ है कि बौद्ध-धर्म हिन्दू धर्म का ही एक अंग है अथवा नहीं। अनेक विद्वान इसे हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग मानते हैं और अनेक इसको पृथक धर्म मानते हैं। आधुनिक बौद्ध, जो प्राचीन परंपरा से सर्वथा पृथक से दिखाई देते हैं, वे इसे हिन्दू धर्म से पृथक करने का प्रयत्न कर रहे हैं। जब कि प्रत्येक हिन्दू जब किसी शुभ कार्य करने के लिए तत्पर होता है तो उस समय संकल्प लेते हुए कहता है

.....‘जम्बूद्वीपे, भरत खण्डे, आर्यावर्ते देशे, बुद्धवतारे....’ अर्थात् वर्तमान कलिकाल को भी वह बुद्ध के अवतार का काल ही मानता है। क्योंकि चौबीस अवतारों में बुद्ध का स्थान है, कल्कि का स्थान सन्देहास्पद है।

बौद्ध-धर्म भारत-वर्ष तक सीमित नहीं रहा। वह संसार के प्रत्येक कोने में अपना स्थान बनाये हुए है। किन्तु भारतेतर देशों में बुद्ध को और उनके धर्म को हिन्दू धर्म से अलग करके नहीं देखा जाता। वे इसे हिन्दू धर्म का ही एक अंग मानते हैं। स्वयं गीतगोविन्दम के कवि ने उन्हें वेदों का उद्धारक मानते हुए लिखा है-


निन्दसि यज्ञविधेर अहह श्रुतिजातम्।
सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृत बुद्ध शरीर....जय जगदीश हरे।।


जयदेव का कहना है कि यज्ञों में पशुबलि को देखकर बुद्ध में दया उमड़ी और उन्होंने इसका विरेध करने के लिए धर्मचक्र चलाया। यहां पर हम यह बताना उपयुक्त समझते हैं कि किसी भी हिन्दू शास्त्र में, वेदों से आरम्भ काल अद्यतन शास्त्र-ग्रन्थों में कहीं यज्ञ में क्या किसी भी सामरोह में पशुबलि का प्रावधान नहीं है। विपरीत इसके शास्त्रों ने पशुबलि का प्रत्याख्यान किया है।

तदपि पशुबलि प्रचलित तो थी। आज भी कहीं-कहीं देखी जा सकती है। किन्तु यह शास्त्र का विधान नहीं है। रहा प्रश्न मांस भक्षण का, वह तो स्वयं बुद्ध ने वर्जित नहीं किया है। उन्होंने कहा है-
‘‘भिक्षुओं ! जगत में ऐसे भी मनुष्य हैं जो भिक्षुओं को अपना मांस तक प्रदान कर देते हैं। किन्तु भिक्षु को मनुष्य का मांस नहीं खाना चाहिये। इसके अतिरिक्त हाथी, अश्व, श्वान, सर्प, सिंह, बाघ, चीता, भालू लकड़बग्धा का भी मांस नहीं खाना चाहिये।’’

गौतम ने उस मांस भक्षण का विरोध किया है जो सामने मारा गया हो, जिसके विषय में बताया गया हो कि यह मांस है। उनका कहना है कि जिसके विषय में सुना न गया हो, जिसे देखा न हो और जो मांस मांगा न गया हो वैसा मांस खाने में कोई दोष नहीं है।
अब रही बात राजकुमार सिद्धार्थ के काल में समाज में प्रचलित गल्प और कुरीतियों की। यह कहा जाता हैं कि उनका उच्छेद करने के लिये राजकुमार सिद्धार्थ ने राजपाट त्यागा था। किन्तु बौद्ध साहित्य इसकी साक्षी नहीं देता। बौद्ध साहित्य में बुद्ध को केन्द्र बिन्दु बनाकर वह सब लिखा गया है जिसके उन्मूलन और उच्छेदन के लिये गौतम ने गृह त्याग किया था। यहाँ तक कि सिद्धार्थ अर्थात् बुद्ध के योगबल की इतनी कथायें प्रचलित है जिनका कि कोई अन्त नहीं है। जितना गल्प बौद्ध साहित्य में भरा पड़ा है उतना तो 108 पुराणों को मिलाकर भी संग्रह किया जाये तो वह बहुत कम होगा। हिन्दुत्व के पतन में जहाँ पौंगापन्थियों का हाथ रहा है वहां बौद्धों का भी कम हाथ नहीं रहा।

पालि और प्राकृत तथा संस्कृत साहित्य न भी पढ़ा जाये, तो भी आज कल हिन्दी से बौद्ध साहित्य का पर्याप्त अनुवाद हो चुका है, पाठक उनमें से कोई एक दो पुस्तकें पढ़ लें, अथवा जातक कथाओं को ही पढ़ लें, उन्हें हमारे कथन की सत्यता का आभास नहीं अपितु पूर्णतया साक्षी प्राप्त हो जायेगी।

जिस व्याधि, जरा और मरण से मुक्त होने के लिये बुद्ध ने ग्रह त्याग किया, प्राचीन धर्मग्रन्थों को नकारा, उनकी अलोचना की, परम्पराओं का उच्छेद किया, क्या स्वयं बुद्ध उस व्याधि, जरा और मरण से मुक्त हो पाये ? वे आजीवन व्याधिग्रस्त रहे और जीवन के अन्तिम आठ-दस वर्ष तो वे अतिसार से पीड़ित रहे और उसी से उनकी मृत्यु हुई। वार्धक्य भी उन्होंने भोगा। आनन्द की सहायता बिना उनको चलना तक कठिन होता था। अस्सी वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई। रही मृत्यु की बात, चुन्द कर्मकार के यहां मांस भोजन करने के उपरान्त उनका अतिसार बढ़ा और प्राणन्तक रोग बन गया है, इस प्रकार वे मृत्यु से पार नहीं पा सके।
बुद्ध का जीवन बड़ा विस्तृत है। हमने मुख्य-मुख्य घटनाओं और व्यक्तियों का ही इस जीवनी में वर्णन और चित्रण किया है। किन्तु इसके लिये भी विशाल बौद्ध साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन करना पड़ा। इस जीवनी में जो कुछ भी दिया गया है उसका साक्ष्य बौद्ध ग्रन्थों में प्राप्त है, इसमें हमने अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ा है। हाँ, यत्र-तत्र टिप्पणी अवश्य की है। वह लेखकीय कर्तव्य था, उसका हमने पालन किया है।
डायमण्ड पॉकेट बुक्स के संचालक श्री नरेन्द्र अपने पाठकों को भारत की महान विभूतियों से परिचित कराने के लिये कृतसंकल्प हैं, उसी क्रम में यह जीवनी भी है। जैसा कि हमने कहा है, इसमें जो कुछ भी दिया गया है वह बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर ही दिया गया है। अत: यदि किसी को कहीं कोई अतिशयोक्ति अथवा अयुक्ति का अनुभव हो तो इसमें जीवनी लेखक का दोष न माना जाये। अनेक स्थानों पर तो हमने उन ग्रन्थों का नाम भी दे दिया है, जहाँ से उन घटनाओं का साक्ष्य हमें प्राप्त हुआ है।

आशा है इस जीवनी के पढ़ने से पाठकों को बुद्ध के विषय में उन अनेक बातों का ज्ञान लेगा, जिसके विषय में उनके मन में अभी तक भ्रान्ति थी। तदपि यदि कहीं कोई भूल हो गई है तो उसके सुधार के लिये लेखक सदा तत्पर है।

अशोक कौशिक


1
प्रारम्भिक जीवन

जन्म और बाल्यकाल


सनातनधर्मी हिन्दू जब किसी मांगलिक कार्य को आरंभ करता है तो उससे पूर्व वह कार्यारम्भ के लिये संकल्प लेता है और उस संकल्प में देश, काल, तिथि आदि का उच्चारण करते हुए कहता है- ‘जम्बूद्वीपे भरत खण्ड आर्यवर्ते बौद्वावतारे’ आदि-आदि। द्वीपों में जम्बूद्वीप को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। उसी भारत खण्ड के जम्बूद्वीप में मध्यप्रदेश की राजधानी कपिलवस्तु थी। उस मध्यप्रदेश में दिनों इक्ष्वाकु वंशीय राजाओं का राज्य था। उसी इक्ष्वाकु कुल में एक राजा हुए हैं- शुद्धोदन। वे मध्यप्रदेश के राजा थे। शुक्लोदन, अमृतोदन, धौतोदन तथा शुक्रोदन उनके चार अन्य भाई थे।

राजा शुद्धोदन इक्ष्वाकुवंश की परंपरा के अनुसार प्रजाहितकारी थे। उनका प्रथम विवाह देवी महामाया के साथ सम्पन्न हुआ था। देवी की एक मात्र सन्तान सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद उनका देहावसान हो गया था और उसके कुछ समय बाद महाराज शुद्धोदन ने महाप्रजापति गौतमी के साथ विवाह किया था। उन्हें देवी महामाया की सगी बहन बताया गया है। महाप्रजापति गौतमी की सन्तान नन्द और रूपनन्दा थी। इसी प्रकार शुक्लोदन के पुत्र का नाम देवदत्त और आनन्द था। अमृतोदन के पुत्रों का नाम महानाम तथा अनुरुद्ध था। धौतोदन निस्सन्तान थे। राजा शुद्धोधन की दो बहनें भी थीं, जिनका नाम अमिता तथा प्रमिता था।

आषाढ़ मास में, जो वर्तमान सौरमास परम्परा के अनुसार लगभग मध्य जून से मध्य जुलाई तक का होता है, वर्षा आरम्भ हो जाती है। प्यासी धरती अपनी पिपासा तृप्त कर हरीतिमा का विस्तार करने लग जाती है। नगर-नागरिकों में उल्लास समा जाता है। ऐसे अवसरों पर उस युग में उत्सवों का आयोजन किया जाता था। ऐसे ही एक ही उत्सव में कपिलवस्तु नगर में उल्लास छाया हुआ था।
     

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