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नयी सोच की कहानियाँ

दयानन्द वर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3676
आईएसबीएन :81-89182-68-4

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उर्दू के प्रख्यात कहानीकार सआदत हसन ‘मंटो’ ने मन की गुत्थियों और सामाजिक-विसंगतियों पर अनेक कहानियां लिखी थीं।

Nayi Soch Ki Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

उर्दू के प्रख्यात कहानीकार सआदत हसन ‘मंटो’ ने मन की गुत्थियों और सामाजिक-विसंगतियों पर अनेक कहानियां लिखी थीं। उसकी कहानियों में अनोखे प्रकार का व्यंग्य है जो होंठों पर मुस्कान नहीं बिखेरता, बल्कि मन में करुणा जगाता है।
सन् 1947 में भारत-विभाजन की त्रासदी पर मंटो की एक पुस्तक ‘स्याह हाशिए’ प्रकाशित हुई थी। उस पुस्तक में उस समय की चुटीली घटनाओं को छोटी-छोटी कहानियों का रूप दिया गया था। उन कहानियों को देश-विभाजन की तात्कालिक प्रतिक्रिया समझ कर भुला दिया गया था किंतु मेरे मन-मस्तिष्क पर वे आज भी अंकित हैं। उसी पुस्तक की एक कहानी यहां देना चाहता हूं। उसे बयान करने में लेखक ने किन शब्दों का प्रयोग किया था, वे शब्द मुझे याद नहीं है किंतु उसका भाव यहां प्रस्तुत कर रहा हूं:-

लाहौर में दंगे, फसाद हो रहे थे। लूटमार का दौर जारी था। जो हिंदू और सिख देश छोड़ कर भाग गये थे या जो मर गये थे, उनके घरों और दुकानों का सामान दंगाई लूट रहे थे।
एक मज़दूर को उन दुकानों और घरों के सामान में से सबसे बहुमूल्य वस्तु आटे की एक बोरी दिखायी दी। उसे पीठ पर लाद कर वह अपने बसेरे की ओर की दौड़ा। रास्ते में एक पुलिस वाले ने उसे रोका और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा। पुलिस वाले ने बोरी अपने घर उतरवाई। मजदूर क्षण-भर चुप रहा, फिर उसने मजदूरी के लिए हाथ पसार दिये।
कहानी यहां खत्म हो जाती है। श्रमिक को मज़दूरी मिली या नहीं, लेखक इस प्रश्न का उत्तर पाठक पर छोड़ देता है।
इस प्रकार की घटनाएं हमारे आस-पास घटित होती रहती हैं। हमारे मित्रों और परिचित जनों द्वारा कुछ घटनाओं का विवरण हम तक पहुंचता है। उनमें से अधिकतर भुला दी जाती हैं। कुछ हमारे अचेतन मन में रच-बस जाती हैं। लंबे समय तक अचेतन मन में बसी हुई घटनाओं का रूप बदल जाता है। उनमें से कुछेक कहानी का रूप ले लेती हैं। कुछ किसी विचार को जन्म देकर भुला दी जाती हैं।

इस पुस्तक की कुछ कहानियों का आधार मेरे आसपास की तथा मेरे मित्रों व परिचित जनों के परिवेश में हुई घटनाएँ हैं। कुछेक का आधार मेरे विचार हैं। निराकार विचार को कहानी का रूप देने के लिए कुछ पात्रों की सृष्टि की गयी है।
इस पुस्तक की कुछ कहानियां कहानी के परंपरागत चौखटे में फिट होने के योग्य नहीं हैं। फिर भी मैंने उन्हें इस पुस्तक में संकलित किया है, क्योंकि मैंने अतीत में देखा है कि उदारमना साहित्यकारों तथा सहृदय आलोचकों ने परंपरा से बाहर की अनेक रचनाओं को नये शीर्षकों के अंतर्गत स्वीकार किया है। यथा अकविता, अकहानी, नयी कहानी, लांग-शॉर्ट स्टोरी आदि। इससे विचार अभिव्यक्ति की नयी धाराएं लुप्त होने से बची रही हैं।
मैंने इस संकलन का नाम ‘नयी सोच की कहानियां’ रखा है। यह नाम इस संकलन के लिए ठीक है या नहीं, इसका निर्णय आप करें।

डब्लू-21, ग्रेटर कैलाश, पार्ट-1
नयी दिल्ली-110048

-दयानंद वर्मा


मेला-हाट में एक आदिवासी


देश के आदिवासी क्षेत्र में मेला लगा। मेले में दूर-दूर से व्यापारियों ने आकर दुकानें सजायीं। एक आदिवासी भी मेला देखने पहुंच गया।
आदिवासी के तन पर, लिबास के नाम पर एक मैला सा कपड़ा था जिसे उसने लुंगी की तरह कमर पर बांधा हुआ था। वह दुकानों में सजी हुई वस्तुओं को चकित भाव से देख रहा था।
एक दुकान पर उसने लंबे-चौड़े रंग-बिरंगे डिब्बों जैसे कुछ बक्से देखे। एक बॉक्स की तरफ संकेत कर उसने दुकानदार से पूछा, ‘यह क्या है ?’
‘‘यह अटैची केस है।’’ विक्रेता ने जवाब दिया।
‘‘किस काम में आता है?’’

‘‘इसमें कपड़े रखे जाते हैं।’’
यह सुनकर आदिवासी ने अपनी लुंगी की गांठ को और कस कर बांधा और कहने लगा। ‘‘कपड़े इसमें रख के लोग नंगे घूमते हैं क्या ?’’
इतने में एक स्त्री आयी। उसने मोल-भाव करके एक अटैची केस खरीद लिया।
आदिवासी आगे बढ़ा। अगली दुकान पर ‘‘जनरल स्टोर’’ का बोर्ड लगा हुआ था। दुकान पर टंगे हुए एक तख्ते पर उसने लोहे तथा पीतल के गोल तथा चौकोने यंत्र देखे। उसने विक्रेता से पूछा,‘‘ये क्या है ?’’
‘‘ताले हैं।’’ विक्रेता ने जवाब दिया।

‘‘किस काम में आते हैं ?’’
‘‘लोग इसे घर के दरवाजे पर लगाते हैं।’’ विक्रेता ने जवाब दिया।
‘‘क्यों लगाते हैं ?’’
‘‘घर के सामान को चोरों से बचाने के लिए।’’
‘‘कितने पैसों का है ?’’
‘‘पचास रुपये का।’’

आदिवासी आगे बढ़ने लगा, विक्रेता ने कहा, ‘‘तुम पच्चीस में ले लो।’’
आदिवासी ने रुककर कहा, ‘‘यह ताला अगर मैं खरीद लूं, तो मेरे पास सबसे मूल्यवान वस्तु यह ताला होगा। यह तो घर से बाहर लटका रहेगा। इसे चोरों से कौन बचाएगा ? ’’
यह कहकर आदिवासी बढ़ने लगा था कि एक व्यक्ति आया। उसने दो ताले खरीद लिये।
आदिवासी आगे बढ़ा। अगली दुकान पर शीशे की जारों (Jars) में रंग बिरंगे अचार-मुरब्बे सजे हुए थे। एक जार की तरफ इशारा करके आदिवासी ने गद्दीधारी से पूछा, ‘‘उसमें क्या है ?’’
‘‘उसमें है पत्थर-हज़म-अचार।’’

‘‘पत्थर-हज़म का क्या मतलब ?’’
‘‘मतलब यह कि लक्कड़, पत्थर जो भी खा लो, यह अचार सब को हज़म कर देगा।’’
‘‘क्या शहर वालों को आटा, चावल नहीं मिलता जो लक्कड़ पत्थर खाते हैं ?’’
‘‘यह एक मुहावरा है। इसका मतलब है अगर भूख से ज्यादा खा लो तो भी इस अचार के खाने से वह हज़म हो जाता है।’’
‘‘लोग भूख से ज्यादा खाते ही क्यों हैं, जिसे हज़म करने के लिए यह फ़ालतू चीज़ खानी पड़े।’’
इतने में भारी भरकम शरीर वाले एक लालाजी आए। उन्होंने दो-तीन रंगों के अचार खरीद लिये।
आदिवासी ने अपने गांव में जाकर साथियों से कहा, ‘‘शहर वाले एकदम पागल हैं। जिन वस्तुओं के बगैर हमारा काम मजे़ से चल रहा है, उन पर अनाप-शनाप पैसे लुटाते रहते हैं।’’

एक स्वाभिमानी महिला


रमिंद्र और वंदना के ब्याह को चार वर्ष हो गये किंतु उनकी कोई संतान न हुई। सगे संबंधियों और पास-पड़ोस वालों में से ये आवाजें उठने लगीं कि वंदना बांझ है।
वंदना को चिंता हुई कि कहीं संतान की प्राप्ति के लिए रमिंद्र पर दूसरे विवाह का दबाव न पड़े। इस चिंता से ग्रसित होकर उसने रमिंद्र का मन टटोलने का यत्न किया किंतु रमिंद्र ने उसे आश्वस्त किया कि तुम्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है। मैं अपना और तुम्हारा मेडीकल-चैकअप कराऊंगा। दोनों में से जिस किसी में कोई कमी होगी, उसे हम चिकित्सा द्वारा दूर करेंगे। अन्यथा किसी बच्चे को गोद ले लेंगे।
रमिंद्र की बात से वंदना तो आश्वस्त हो गयी किंतु परिवार के अन्य शुभ-चिंतकों का विश्वास गंडे, तावीज़ों और टोने-टोटकों पर था। इसका रमिंद्र ने विरोध किया।

वंदना की एक शुभचिंतक महिला रमिंद्र को बिना बताए वंदना को ‘भृगु संहिता’ के किसी वाचक के पास ले गयी। वाचक ने वंदना को नि:संतान होने का कारण यह बताया कि पिछले जन्म में रमिंद्र और वंदना पति-पत्नी थे। उनकी किसी भूल से गाय के एक बछड़े की हत्या हो गयी थी। गाय के शाप के कारण वे दोनों नि:संतान हैं।
उस शाप का प्रायश्चित भी ‘भृगु संहिता’ के वाचक ने बता दिया कि आटे का एक बछड़ा बनाकर उसमें सवा ग्यारह ग्राम सोना भरा जाए और वह आटे का बछड़ा किसी ब्राह्मण को दान में दिया जाए तो उस पाप से मुक्ति मिलेगी और संतान की प्राप्ति होगी। वाचक ने महिला को बता दिया कि वह ब्राह्मण है और यह दान स्वीकार करने का पात्र है।
यह सुनकर रमिंद्र ने वंदना से कहा, मुझे गाय के शाप से मुक्त होने के उपाय से दूर रखो। हां, मेरे मन में इससे अच्छा एक और उपाय है, वह यह कि किसी अनाथबालक या बालिका को पढ़ा-लिखा कर उसे उसके पांव पर खड़ा किया जाए। मेरे विचार में यह पुण्य का काम है। वंदना ने रमिंद्र के उपाय को स्वीकार कर लिया और इस उद्देश्य से वे दोनों निकट के एक अनाथालय में पहुंचे।

रमिंद्र ने अनाथालय के व्यवस्थापक से कहा-‘‘हम किसी ऐसे बच्चे को ऊंचा उठाने के लिए सहायता देना चाहते हैं, जिसमें शिक्षा पाने की ललक हो किंतु धन की कमी के कारण वह उच्च शिक्षा से वंचित हो। क्या इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आप हमें कुछ अनाथ बच्चों से मिला सकते हैं ?’’
अनाथालय के व्यवस्थापक ने रमिंद्र से कहा, ‘‘मैं कुछ योग्य बच्चों को बुलाता हूं। आप अपना यह उद्देश्य बच्चों को न बताएं, मुझे अपने ढंग से उनसे बात करने दें।’’

यह कहकर व्यवस्थापक ने अपने कार्यालय में चार बच्चों को बुलाया। रमिंद्र और वंदना की ओर इशारा करके उसने उन बच्चों से कहा, ‘‘ये लोग कुछ योग्य बच्चों को पुरस्कार देना चाहते हैं। ये जो प्रश्न करें, तुम उनका उत्तर दो।’’
रमिंद्र ने उन बच्चों से सामान्य-ज्ञान संबंधी कुछ प्रश्न किये। साथ ही उनकी पारिवारिक स्थिति भी पूछी तो उसे पता लगा कि उन बच्चों के पिता तो दिवंगत हैं किंतु माताएं जीवित हैं और वे अच्छी खासी प्रापर्टी की मालिक हैं।
बच्चों को विदा करने के उपरांत रमिंद्र ने व्यवस्थापक से कहा, ‘‘ये बच्चे न तो अनाथ हैं, ना ही निर्धन। आपने इन्हें अनाथालय में कैसे भर्ती कर लिया ?’’

व्यवस्थाप ने कहा, ‘‘इस अनाथालय को नगर निगम से सहायता मिलती है। निगम के नियम के अनुसार वे बच्चे तो अनाथ हैं ही जिनके माता-पिता, दोनों का निधन हो चुका है, इसके अतिरिक्त निगम उन्हें भी अनाथ मानता है, जिनके पिता दिवंगत हों किंतु माता जीवित हों। माता की आर्थिक स्थिति क्या है, इस विषय पर कोई विचार नहीं किया जाता। हां, अनाथालय में प्रवेश करते समय आवेदनकर्ता को निगम के किसी पार्षद का प्रमाण-पत्र लाना पड़ता है।’’
इतने में चाय आ गयी। चाय पान के दौरान व्यवस्थापक ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि हमारे अनाथालय में कुछ बच्चे अनुचित लाभ ले रहे हैं, किंतु पार्षद के प्रमाण-पत्र के कारण मैं उनका प्रवेश रोक नहीं सकता किंतु यह अवश्य चाहता हूं कि वास्तविक पात्र इस अनाथालय में प्रवेश लें।’’

व्यवस्थापक ने अपना अनुभव बताया कि मैंने घरों में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली एक स्त्री से बात की थी। उसका बेटा नगर-निगम के स्कूल में पढ़ता है और मां के साथ एक झुग्गी में रहता है। मैंने उस स्त्री से कहा कि बेटे का खर्च तुम क्यों उठाती हो। किसी पार्षद का प्रमाण-पत्र तुम्हारे बेटे के लिए मैं दिलवा दूंगा। उसे इस अनाथालय में खाना पीना, रहना, कपड़ा लत्ता सब मिलेगा और पढ़ाई का खर्च भी तुम पर नहीं पड़ेगा।

‘उसने मेरे सुझाव को एकदम अस्वीकार करके कहा, ‘‘मेरे हाथ पांव चलते हैं। मैं झाड़ू-पोंछा करके अपने बच्चे को पाल सकती हूं। मैं उसे यह आभा नहीं देना चाहती कि वह अनाथ है और दूसरों की दया पर पला है।’’
व्यवस्थापक ने यह विवरण देने के बाद अपना मत प्रकट किया कि एक तरफ अच्छी हैसीयत की माताएं अपने बच्चों को अनाथालय में प्रवेश दिला रही हैं, दूसरी ओर एक निर्धन महिला का स्वाभिमान अपने बच्चे को अनाथालय में प्रवेश दिलाने से रोक रहा है।
व्यवस्थापक से यह विवरण सुन कर रमिंद्र और वंदना ने कहा, ‘‘उस स्वाभिमानी मां से हमें मिलाइए। उसी का बच्चा वास्तव में हमारी सहायता का पात्र है।’’

धौंस


सुनील को बचपन से ही पर्यटन का शौक था। कभी वह अकेला निकल जाता, कभी पत्नी के साथ और कभी अन्य मित्रों के साथ किंतु बीस वर्ष पुरानी हिमाचल प्रदेश की एक यात्रा उसके मन मस्तिष्क पर अब भी अमिट है। उसके अमिट होने का कारण और विवरण यहां प्रस्तुत है:

उस यात्रा में सुनील और उसकी पत्नी पूनम के साथ श्री तथा श्रीमती मल्होत्रा भी उनके सहयात्री थे। यात्रा का कार्यक्रम यों बना कि दिल्ली से कालका तक ट्रेन, उसके बाद की यात्रा दो चरणों में पूरी होनी थी। यात्रा के पहले चरण में कालका से टैक्सी लेकर ‘चैल’ और ‘वाईल्ड-फ्लावर हाल’ में एक रात गुज़ारते हुए तीसरे दिन शिमला पहुंचना था। वहां टैक्सी छोड़ देनी थी। शिमला में तीन दिन गुज़ारने थे। यात्रा के दूसरे चरण में शिमला से अन्य टैक्सी लेकर मंडी, कुल्लू होते हुए मनाली पहुंचना था।

श्री मल्होत्रा हिसाब-किताब में पक्के थे, इसलिए टैक्सी ड्राइवर को भुगतान करने का काम सुनील ने मल्होत्रा जी पर डाल दिया। कालका में ट्रेन से उतर कर मल्होत्रा जी ने एक टैक्सी ड्राइवर से प्रति किलोमीटर किराया तय किया। यात्रा के दौरान प्रति दिन का कम से कम दो सौ किलोमीटर टैक्सी-भाड़ा देना निश्चित हुआ। प्रतिदिन दो सौ से अधिक किलोमीटर पर माईलेज के हिसाब से अतिरिक्त देना था।
तीसरे दिन ‘वाईल्ड फ्लावर हाल’ से प्रात: आठ बजे टैक्सी चल कर दस बजे शिमला पहुंची। कुल यात्रा चार सौ किलोमीटर से कम की थी, मल्होत्रा जी ने चार सौ किलोमीटर की पेमेंट ड्राइवर को देनी चाही। ड्राइवर ने तीसरे दिन के दो सौ किलोमीटर के पैसे भी मांगे।

मल्होत्रा जी ने कहा, ‘‘तीसरे दिन तुम शिमला पहुंच गये। आज के दो सौ किलोमीटर के क्यों दे ?’’
ड्राइवर ने कहा, ‘‘टैक्सी स्टैंड का नियम है कि यदि टैक्सी आठ बजे से पहले मंजिल तक पहुंच जाती है तो तीसरा दिन गिनती में नहीं आता। अब दस बजे हैं। इसलिए तीसरे दिन का न्यूनतम माइलेज आपको देना पड़ेगा।’’
मल्होत्रा जी ने उस नियम को स्वीकार करने से इनकार किया और अपने हिसाब से दो दिन का 400 किलोमीटर का पेमैंट करना चाहा जबकि टैक्सी दो सौ किलोमीटर से भी कम चली थी किंतु ड्राइवर अपने नियम पर अड़ा रहा।
सुनील ने मल्होत्रा से कहा, ‘‘हम यहां झगडने की बजाय टैक्सी स्टैंड पर चल कर पूछ लेते हैं। अगर ऐसा नियम है तो मान लेते हैं।’’

मल्होत्रा जी ने कहा, ‘‘यहां का एस.पी. मेरा निकट का संबंधी है। अगर ड्राइवर झगड़ा करेगा, उसे बंद करा दूंगा।’’
एस.पी. के नाम से ड्राइवर अपनी ज़िद से हट गया और मल्होत्रा जी द्वारा दिये गये पैसे लेकर चला गया।

होटल के कमरों में अपना सामान सेट करते समय पूनम को ध्यान आया कि उसकी पशमीने की शाल टैक्सी में रह गयी है।
पूनम को आशंका हुई कि ड्राइवर रुष्ट होकर गया है इसलिए उसकी बहुमूल्य शाल उसे कभी न मिलेगी।
मल्होत्रा ने पूनम को आश्वस्त किया कि शाल एक घंटे के भीतर आपके कमरे में पहुंचेगी।


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