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युगों-युगों के मसीहा

रामकृष्ण जाजू

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3662
आईएसबीएन :81-7182-321-1

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श्री शिरडी साई नाथ के ललित चरित्र पर आधारित

Yugon-Yugon ke masiha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आशीर्वचन

शिरडी के साई बाबा के अनन्य भक्त श्री रामकृष्ण जाजू के जीवन में कुछ वर्षों पूर्व एक परिवर्तन आया। वस्तुवादी जगत के शिखर पर पहुँचकर उन्होंने किन्हीं कारणों से महसूस किया है कि दृष्यमान जगत की हर वस्तु माया सृजित और क्षणभंगुर है। सदगुरु की आवाज का गुंजन अन्तर्मन में शुरू हो गया। वह साई भक्ति प्रवाह में बहने लगे।

इस धारा में बहते हुए उन्होंने कई रचनाओं का सृजन किया है। ‘‘युगों युगों के मसीहा’’ उनका नया अवदान है। यह एक मौलिक रचना है जो न केवल बाबा के जीवन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करती है अपितु उनकी व्यक्तिगत अनुभूति और प्रत्यक्ष ज्ञान को सहज अभिव्यक्ति देती है।

मुझे विश्वास है कि उनकी यह कृति साई भक्तों को प्रेरणा प्रदान करेगी; हृदय में भक्ति रस संचार करेगी।
श्री साई सदा प्रसन्न रहें और अपने भक्तों को कृपा प्रदान करते रहें-यही मेरी प्रार्थना है।

नई दिल्ली
21-9-99

चन्द्रभानु सतपथी

1.
प्रयोजन



आज सारा मानव संसार मानव निर्मित बारूद के ढेर पर बैठकर एक भयानक विस्फोट की अशुभ प्रतीक्षा में पूरी तरह से विचलित है। ‘‘वसुधैव कुटुंबकम्’’ केवल प्राणहीन शब्द बनकर चरमरा रहा है। तृतीय विश्वयुद्ध के बादल घने होते जा रहे हैं। नाटो ने यूगोस्लाविया में शांति के लिए युद्ध की भीषण शुरुआत कर दी है।

भारत एक मात्र राष्ट्र है, जिसकी धरती के विदेशी शासकों और स्वदेशी राजनेताओं की महत्वकांक्षा ने तीन टुकड़े किए, फिर भी उसने सारी वेदना को, पीड़ा को पीकर ‘अयोध्या’ बनाए रखने का कर्म कठिन निर्णय सदा के लिए लिया, शांति का मसीहा बनकर जीने की सौगंध खाकर।

किन्तु पड़ोस के कुछ बदमिजाज सनकी धर्मांध राजनेताओं को फिर से सीमा रेखाओं पर रक्तरंजित करने का पागलपन सूझा और उन्होंने चालाकी से एक हाथ दोस्ती का बढ़ाकर दूसरे हाथ से हमारे जवानों पर बिना किसी उत्तेजना के तोपें दागीं। हमारी शांति अबला नहीं। हम सूरमाओं की और जाबांजों की धरती पर पैदा हुए। हम पर बिना किसी वजह के पागलपन की मस्ती में सवार युद्ध थोपा गया है। हमारे जवान इसका मुँहतोड़ जवाब देकर शत्रु के दांत खट्टे कर रहे हैं और अपने शहीदी रक्त से मातृभूमि की रक्षा कर रहे हैं। सारा राष्ट्र युद्ध के इस माहौल में भी सीमा सुरक्षा रेखा को, साहस और शक्ति संचय होने के बावजूद, लांघने के बजाय, अपनी धरती पर कब्जा हासिल करने के लिए घुसपैठियों को और शत्रु को सबक सिखा रहा है। कैसी दुर्दशा है मानव जीवन की ? मानव पिछले 5000 वर्ष में केवल इतना भी नहीं सीख पाया कि युद्ध बुद्धिहीन, नेत्रहीन, कर्णहीन व विवेक शून्य होता है और वह तबाही कर क्रूर तांडव कर मानवता को घोर क्षति पहुँचाता है।

जीवन इतना विकट व सारहीन हो गया है कि हर व्यक्ति को जीवन के अंतिम पड़ाव पर आकर एक विषद मनोव्यवस्था से गुजरकर आत्म विश्लेषण करना पड़ा रहा है, और उसकी संज्ञा जिंदा है और ईमान सजग है तो वह पाता है कि उसका जीवन व्यर्थ हो गया। क्यों ? किसने किया यह ? कौन जिम्मेदार है इसके लिए समाज, राजनीति का दुष्चक्र, अंतर्राष्ट्रीय दबाव, तनाव या हर व्यक्ति की मूल्यहीनता अपने स्वयं, परिवार व राष्ट्र के जीवन प्रति।
स्थिति भयानक व पेचीदा है। समाज अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ साधना की प्रतिस्पर्धा के सिवाय कोई आदर्श नहीं दे पा रहा है। समाज स्वार्थ से स्वस्थ नहीं रह सकता है।

कहाँ हैं हमारे वे पूर्वज जिन्होंने हमें एक दिव्य संस्कृति दी ? कहां हैं वे महामहिम मनीषी जिन्होंने सारा जीवन भारतीय संस्कृति के लिए बलिदान कर दिया ? कहां है वह जाज्वल्य, चैतन्य और त्यागमूर्ति लक्ष्मण जिनका भोग से कोई रिश्ता नहीं था। वे श्री राम के लिए त्याग करके भी प्रसन्न थे। कहां है वह सबूरी उर्मिला की जो चौदह वर्ष अयोध्या में एक पांव पर खड़ी होकर लक्ष्मण की प्रतीक्षा कर रही थी ? कहां हैं वे भरत जिन्होंने मानवता को सेवा त्याग के नये आयाम दिये। राज्य को धरोहर मानकर सेवा और त्याग का ऐसा जीवन जिया कि सारे ऋषि मुनि तक नतमस्तक थे—जो हमारी संस्कृति के शिल्पक थे। साहस सुमित्रा का देखो कि पति की मृत्यु की अटल संभावना को दरवाजे पर खड़ी देखकर भी उसने लक्ष्मण को राम के साथ वन में जाने के लिए प्रोत्साहित किया। कहाँ हैं वे माता सीता जिन्होंने जीवन में अप्रत्याशित बलिदान दिया ? भारत को फिर से ऐसे नर नारी चाहिए- तो ही भारत बच सकता है।

हमारी इतनी विशाल यशोगाथा के बावजूद हम इतने निष्ठुर, मदांध बुद्धिहीन कैसे हो गए हैं—इसका क्या कारण है ?
इसका कारण है। रावण ने मरते वक्त राम को धोखा दिया। असली रावण आज भी जिन्दा है—मरा था वह नकली रावण, और अब उसके दस ही आनन नहीं हैं—लाखों करोड़ों शीश और आनन हैं। यही दुर्गति हुई भगवान श्रीकृष्ण की। महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ। अठारह करोड़ सेना मारी गई किन्तु शकुनी का शव नकली था। शकुनी अब भी पासे फेंक रहे हैं—केवल हस्तिनापुर में नहीं किन्तु विश्व के हर कोने-कोने में। और पितामह भीष्म, गुरु द्रोण आज पहले से ज्यादा विवश व मजबूर हैं क्योंकि वे अब भी जीवन मूल्यों का विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं। आज फिर देश को पड़ोसी के थोपे युद्ध से गुजरना पड़ा रहा है। आज सारा राष्ट्र ही द्रुपदसुता की व्यथा को भुगत रहा है। अब भरत भी आंग्ल विद्या विभूषित हैं और हार्डवर्ड से पढ़ाई करके लौटे हैं। वे पादुकाएं रखकर राज्य को धरोहर के रूप में चलाने को तैयार नहीं हैं। धरोहर तो चबा जाने की चीज है, वे राज्य को हड़पना चाहते हैं ! उन पर भी पश्चिम की विचारधारा हावी हो गई है।

हम रावण और शकुनी की संस्कृति से जीवन यापन कर रहे हैं। अब हमें हमारे नेतृत्व से राह मिलने की उम्मीद नहीं। जनसाधारण की उन्नति क्या कभी राजनीति से संभव है ? और अब कितने नीचे जायेंगे हम ? We have already hit the bottom  अब केवल ऊपर उठने का ही पर्याय बचा है—यह कैसे हो ?

हमें आवश्यकता है महाउत्सर्गमय जीवनयापन करने वाले आध्यात्मिक सद्गुरु की, जो जीवन को फिर से ढाले। ऐसे सद्गुरु की प्राप्ति देश की उर्ध्वगति के बिना असंभव है। हमारी धरती ऋषियों, मुनियों, पीरों, दरवेशों, नाथों, सिद्धों और संतों और सद्गुरुओं की जननी है। हमारी माटी में खुशबू है। हजारों वर्षों से कई आघात सहन करके भी वह जीवित चैतन्य है—वहीं हमें राह मिलेगी।
अधर्म कभी सुख दे नहीं सकता। धर्म कभी भेदभाव रख नहीं सकता। जहां भेदभाव है वहां धर्म नहीं, धर्म का छिलका है। कर्मकांड धर्म नहीं है, रूढ़िवादिता धर्म नहीं है—धर्म है संत सद्गुरु के चरण।

दुःख से दहकते हृदय को शीतल करने का सामर्थ्य केवल सद्गुरु के पास-ही है। वैसे सद्गुरु सर्वसमर्थ हैं—किंतु एक बात में वे एकदम असहाय, दुर्बल व शक्तिहीन हैं। वे कभी, किसी का भी अकल्याण नहीं कर सकते।
इस मामले में आदमी शक्तिशाली और मदांध है। उसे सुरा, सुंदरी और सुवर्ण के लिए कोई भी पाप परावृत नहीं कर सकता— वह हर वक्त दूसरों का दुःख देखकर दुखी होता है। प्रभु भी सदैव अच्छों की ही परीक्षा लेते हैं। बुरे आदमी परीक्षा के लायक ही नहीं होते हैं। सर्वथा निर्दोष आदमी को मर्मांतक पीड़ा से गुजरना पड़ता है। यह कौन सी रहस्यमय शक्ति है जो विश्व का संचालन कर रही है, हम उसे देखने में असमर्थ हैं किन्तु प्रतिपल अनुभव करते ही हैं। इस शक्ति का नाम सद्गुरुशक्ति है।

भोगवाद राक्षसी सभ्यता है—खाओ, पिओ और मौज उड़ाओ की संस्कृति ने देश को दिवालिया बना दिया है।
शहीदों के रक्त से देश बनता है, जब हर कोई कुर्बानी देना चाहता है—मातृभूमि के लिए सारे स्वार्थ छोड़ता है—देश की माटी के लिए त्याग बनता है और त्याग की चिर सनातन संस्कृति से जीवनयापन करता है। व्यक्ति का सुख तुच्छ है—राष्ट्र का सुख ही सबकुछ है। राष्ट्र बचेगा तो हम बचेंगे। राष्ट्र ही मिट गया तो हम वैसे ही मिट जायेंगे। कर्तव्य ही राष्ट्र का धर्म है। सादगी और कठोर परिश्रम से राष्ट्र बन सकता है।

हमारी संस्कृति के उच्चतम गुणों का पालन हमें फिर से आलोकित कर सकता है। इन सारे गुणों का समन्वय, लक्ष्मण की श्रद्धा व त्याग, भरत की सबूरी, प्रतीक्षा अनुशासित त्यागमय जीवन, उर्मिला की एक पांव पर खड़े होकर चौदह वर्ष की सबूरी, माँ सुमित्रा का साहस, हनुमान की सेवा और राम की शुद्धता सरलता और भगवान शंकर का वैराग्य श्री बाबा साईनाथ में था। उनका जीवन ही उनका महाग्रंथ था। ऐसे सद्गुरु ही देश को बचा सकते हैं। मैं किसी धर्म की वकालत नहीं कर रहा हूं। धर्म कोई हो या न हो आध्यात्मिकता तो नितांत आवश्यक है।

सद्गुरु केवल एक व्यक्ति ही नहीं है। सद्गुरु आदर्श है। चिर सुंदर, चिर सत्य है। सद्गुरु ही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है। सद्गुरु ही राम है, रहीम, कृष्ण, करीम है। सद्गुरु प्रभु की परमोच्च अवस्था है। नैतिक बल बढ़ाने में सद्गुरु से बड़ा कोई सहारा नहीं मिल सकता। इसीलिए बाबा निःस्वार्थ त्याग के गरिमामय सिंहासन पर सिरडी में सुशोभित हैं। निजी आवश्यकताओं के मामले में बाबा शंकर, महावीर और बुद्ध से भी दस कदम आगे थे। वैराग्य का ऐसा ज्वलंत रूप और कहीं देखने को नहीं मिलेगा। बाबा की निजी आवश्यकताएं शून्य थीं। साई ऋषि संस्कृति के सर्वोच्च शिखर पर बैठे हैं। हम भारतीय अपनी संस्कृति पर केवल अभिमान ही करते हैं उसे जीते नहीं हैं। इसीलिए राष्ट्र घोर दुर्दशा से गुजर रहा है। आज देश के नेताओं से समर्पण चाहिए, भाषण नहीं। अगर भारत को अपने बीते स्वर्ण काल में वापस जाना है तो हर आदमी को संत संस्कृति से जुड़ना होगा। अपने पुराने चिरपरिचित जीवनमूल्यों को फिर से जीना होगा।
मेरी भावना है भारत को एक मिली-जुली सरकार से भी ज्यादा आवश्यकता है एक मिले-जुले अवतार की, जिसमें साई का आध्यात्म हो जो सर्व धर्मसमन्वय की महानतम् विभूति थे, विवेकानंद का त्याग, ओज, देशभक्ति व जन संपर्क हो और महात्मा गांधी की कर्तव्य निष्ठा और जीवन शैली हो और सरदार पटेल का दुर्दम्य अनुशासित शासन हो, तब ही राष्ट्र फिर से बनता है।
हे प्रभु जागिए अपने भारत को सम्हालिए।

राजनीति नहीं किंतु देशभक्ति को राष्ट्र निर्माण का आधार बनाना होगा और हमारी चिरंतन गुरु शिष्य परंपरा को फिर से नया होश व जोश भरकर देशभर में हर जगह ले जाना होगा। इस कार्य में साई भक्तों की अहम भूमिका है। सर्वधर्मसमन्वय के प्रतिभाशाली दूत बनकर काम करें और देशभक्ति व अध्यात्म के आधार पर नये राष्ट्र के निर्माण के लिए अपना योगदान दें और इसीलिए मैं ‘‘युगों-युगों के मसीहा’’ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
मैं लिखना तो शुरू करता हूँ देवनागरी में पर जब तक प्रकरण पूरा होने को आता है मेरी लिपि गुरुमुखी बन जाती है। उसे पढ़कर उसे ठीक करना और पाणिनी के व्याकरण का संपुट लगाना उतना ही विकट काम है जितना कि मूल लेखन। मैं अपने मित्र व साईभक्त श्री शंकरलाल जी गुप्ता के प्रयासों की दाद देता हूँ। उनके अथक परिश्रम व मदद के बिना इस पुस्तक का लेखन असंभव था। मैं हृदय की गहराई से उनका आभारी रहूँगा।

इस कार्य को पूर्ण करने में मुझे आदरणीय गुरु माँ से बहुत प्रोत्साहन मिला। मैं उनका ऋणी हूँ। आज का संसार भयावह समस्याओं की जननी है। इस व्यथा से, बेढंगे बोझ से, प्रपंच की समस्त जिम्मेदारियों से मुझे पूर्णतः व सर्वथैव मुक्ति देने में मेरे पुत्र का व परिवार के अन्य सदस्यों का उदार व स्नेहसिक्त योगदान रहा अन्यथा मैं इस किताब के लेखन के लिए सतत् दो वर्ष वाचन, व अभ्यास नहीं कर पाता। इस पांडुलिपि की हर सुधरी हुई प्रति की अनेक बार फोटो कापियां उताई गईं। मुखुपृष्ठ का रंगीन डिजाइन बनाने में, कापियां कई बार ली गईं। इस कार्य को श्री बाबा की भक्ति मानकर मेरी मानस पुत्री नीलम ने सहर्ष किया। इस पारिवारिक स्नेह से भारित हूँ।

पांडुलिपि को सुंदर बनाने में कु. सिम्मी कपूर व राम लखन जी ने बहुत परिश्रम किए। मैं उनका ऋणी हूँ। मैं विशेष रूप से आभारी हूँ साई कृपा संस्थान के शोधकार्य विभाग और सुश्री कल्पना भाकुनी का, जिनके कारण मुझे इस लेखन कार्य को पूरा करने के लिए बहुमूल्य सामग्री प्राप्त हुई। सुश्री कल्पना जी के ऋण से मुक्त नहीं होना चाहता क्योंकि इस राह पर लगाने में उसका य़ोगदान है। वह ऋण मुझे सदा ही अगले प्रयासों की प्रेरणा देता है। व साहित्यकारों का भी मुझ पर न चुका सकने वाला ऋण है। मैंने कई लेखकों के शब्द व विचार लिए हैं, मैं उन सबको धन्यवाद देता हूँ। किसी भी कृति की पूर्णता में असंख्य लोगों की सहायता होती है, मैं उन सभी का आभारी हूँ।



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