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चाणक्य सूत्र

भवान सिंह राणा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3629
आईएसबीएन :81-7182-896-5

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प्रस्तुत है चाणक्य सूत्र

Chadykya Sutra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राजनीतिक शिक्षा का यह दायित्व है कि वह मानव समाज को राज्य-संस्थानपन, संचालन, राष्ट्र-संरक्षण-तीनों काम सिखाए। चाणक्य का साहित्य इन तीनों कामों को सिखाने वाला अनुपम ज्ञान-भंडार है। उनके इस ज्ञान-भंडार को चाणक्य सूत्र के नाम से जाना जाता है।
प्रस्तुत पुस्तिका, चाणक्य सूत्र एक स्वच्छ-दर्पण है जिसमें शांति, न्याय, सुशिक्षा और सर्वतोमुखी प्रगति की झाँकिया दिखाई देंगी।

चाणक्य : एक संक्षिप्त परिचय


एक समय था मौर्यकाल और चंद्रगुप्त मौर्य शासक थे। उस समय चाणक्य विशाल मगध राज्य के महामात्य और सम्राट चन्द्रगुप्त के राजनीतिक गुरु थे। उनके इस गुण के कारण आज भी कुशल राजनीति विशारद को चाणक्य की संज्ञा दी जाती है। चाणक्य ने संगठित, संपूर्ण आर्यावर्त का स्वप्न देखा था और इसमें उन्होंने सफल प्रयास किया था।
चाणक्य अनोखे, अद्भुत, निराले और ऐसे कुशल राजनीतिज्ञ थे कि उन्होंने मगध देश के नंद राजाओं की राजसत्ता का सर्वनाश करके ‘मौर्य राज्य’ की स्थापना की थी।

चाणक्य का जन्म का नाम विष्णुगुप्त था परन्तु कुशाग्र बुद्धि होने के कारण वह ‘चाणक्य’ कहलाए। कुटिल राजनीति विशारद होने के कारण इन्हें कौटिल्य नाम से भी संबोधित किया गया। आप चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री, गुरु, हितैषी तथा राज्य के संस्थापक थे। चंद्रगुप्त मौर्य को राजा-पद पर प्रतिष्ठित करने का कार्य इन्हीं के बुद्धि-कौशल का परिणाम था।

चाणक्य के जन्म-स्थान के बारे में इतिहास मौन है। परंतु उनकी शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई थी। चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य का समय एक ही है-325 ई. पू. मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त का समय था, यही समय चाणक्य का भी है। चाणक्य का निवास-स्थान शहर के बाहर पर्णकुटी थी जिसे देखकर चीन के ऐतिहासिक यात्री फाह्यान ने कहा था-‘‘इतने विशाल देश का प्रधानमंत्री ऐसी कुटिया में रहता है।’’ तब उत्तर था चाणक्य का-‘‘जहाँ का प्रधानमंत्री साधारण कुटिया में रहता है वहां के निवासी भव्य भवनों में निवास किया करते हैं और जिस देश का प्रधानमंत्री राज प्रासादों में रहता है वहां की सामान्य जनता झोंपड़ियों में रहती है।’’

आह ! वह देश महान् क्यों न होगा जिसका प्रधानमंत्री इतना ईमानदार, जागरूक, चरित्र का धनी व कर्तव्यपरायण हो।
2500 ई. पू. चणक के पुत्र विष्णुगुप्त ने भारतीय राजनयिकों को राजनीति की शिक्षा देने के लिए अर्थशास्त्र, लघु चाणक्य, वृद्ध चाणक्य, चाणक्य, नीति शास्त्र आदि ग्रंथों के साथ व्याख्यायमान सूत्रों का निर्माण किया था।
चाणक्य के अनुसार आदर्श राज्य-संस्था वही है जिसकी योजनाएँ प्रजा को उसके भूमि, धन-धान्यादि पाते रहने के मूलाधिकार से वंचित कर देने वाली न हों, उसे लम्बी-चौड़ी योजनाओं के नाम से कर-भार से आक्रांत न कर डालें। राष्ट्रोद्वारक योजनाएँ राजकीय व्ययों में से बचत करके ही चलाई जानी चाहिए। राजा का ग्राह्म भाग देकर बचे प्रजा के टुकड़ों के भरोसे पर लम्बी-चौड़ी योजना छेड़ बैठना प्रजा का उत्पीड़न है।

चाणक्य का साहित्य समाज में शांति, न्याय, सुशिक्षा, सर्वतोमुखी प्रगति सिखाने वाला ज्ञान-भंडार है, राजनीतिक शिक्षा का यह दायित्व है कि वह मानव समाज को राज्य-संस्थापन, संचालन, राष्ट्र-संरक्षण –तीनों काम सिखाए।
दुर्भाग्य है भारत का कि चाणक्य के ज्ञान की उपेक्षा करके देशी-विदेशी शत्रुओं को आक्रमण करने का निमंत्रण देकर अपने को शत्रुओं का निरुपाय आखेट बनाने वाली आसुरी शिक्षा को अपना लिया है। नैतिक-शिक्षा, धर्म-शिक्षा का लोप हो गया है। चरित्र-निर्माण को बहिष्कृत कर दिया है। मात्र लिपिक (क्लर्क) पैदा करने वाली, सिद्धांतहीन, पेट-पालन की शिक्षा रह गई है। समाज धीरे-धीरे आसुरी रूप लेता जा रहा है। अर्थ दास सम्मान या आत्मगौरव की उपेक्षा करता है। स्वाभिमान का जनाजा निकाला जा रहा है।

आज के स्वार्थपूरित अज्ञानांधाकर में डूबे शुद्ध स्वार्थी राजनीतिक दुर्दशा में मात्र चाणक्य का ज्ञानामृत ही भारत का पथ-प्रदर्शक बनने की क्षमता रखता है। वही हमें राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक मुक्ति-मार्ग दिखा सकता है। आज की सदोष राष्ट्रीय परिस्थिति इस वर्तमान कुशिक्षा के कारण है। राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रहित तथा मनु के आदर्श आज लोप हो चुके हैं। अहंकारी विद्या का ही बोलबाला है। सांस्कृतिक स्वरूप ध्वंस हो चुका है। निष्काम सेवा-भाव का दिवाला निकल गया है। प्रभुतालोभी नेतापन की मदिरा ने बौरा दिया है। ऐसे में चाणक्य की राजनीतिक चिंतन-धारा को समाविष्ट करके ही भारत का उद्धार हो सकता है।

चाणक्य द्वारा प्रस्तुत ये सूत्र वास्तव में राज्य-व्यवस्था के सन्दर्भ में व्यक्ति जीवन के अत्यन्त गूढ़ पक्ष को उद्घाटित करते हैं। इनमें मनुष्य के नैतिक चरित्र विकास के समस्त स्तर सूत्र-बद्ध हैं। इनको जान-समझकर व्यक्ति न केवल अपने आचरण-व्यवहार को समाजोपयोगी बना सकता है बल्कि स्वस्थ व आदर्श नागरिक बनकर देश और संस्कृति के विकास में समुचित योगदान कर सकता है। जीवन-मूल्यों का यह खजाना सीधे सरल शब्दों में आपके समक्ष प्रस्तुत है।

-डॉ. भवान सिंह राणा


चाणक्य सूत्र


१. सुखस्य मूलं धर्म:।


सुख का मूल धर्म है।

राजनीतिक एवं अपने कार्यों का ज्ञान होना ही राजा या सरकार का धर्म है। इसी धर्म से देश सुखी रह सकता है, इसलिए इस धर्म को देश के सुख का मूल (जड़) कहा गया है।

२. धर्मस्थ मूलमर्थ:।


धर्म का मूल अर्थ है।
यह धर्म तभी बना रह सकता है, जब देश की आर्थिक स्थिति सही हो। अत: राजनीति को सही प्रकार से चलाने के लिए देश में धन-सम्पत्ति का होना आवश्यक है।

३. अर्थस्य मूलं राज्यम्।


अर्थ का मूल राज्य है।
राज्य में स्थिरता बनी रहें, दंगे-फसाद, युद्ध, भ्रष्टाचार आदि न हों। तभी कोई राज्य या देश धन-सम्पत्ति वाला बनता है। अर्थात् यदि देश में सुन्दर व्यवस्था रहेगी, तो देश स्वयं खुशहाल हो जाएगा।

४. राज्यमूलमिन्द्रियजम:।


राज्य का मूल इन्द्रिजय है।

राज्य में यह स्थिरता तभी हो सकती है, जब वहाँ का राजा या शासन को चलाने वाले लोगों की इन्द्रिय उनके वश में हों। ये लोग अच्छे चाल-चलनवाले होंगे तो देश में स्थिरता अपने आप आ जाएगी।

५. इन्द्रियजयस्य मूलं विनय:।


इन्द्रिय जय का मूल विनय है।

राज कैसे चलाया जाता है, इसका ज्ञान होने पर राजा सत्य को पहचान लेता है। सत्य को जान लेने पर उसका स्वभाव विनम्र, उदार हो जाता है, उसमें किसी प्रकार की बुराई नहीं रहती; वह सबसे अच्छा व्यवहार करता है। इसी को विनय कहा जाता है। विनयशील होने पर ही राजा अपनी इन्द्रियों को वश में कर सकता है।

६. विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा।


वृद्धों की सेवा ही विनय का मूल है।

वृद्ध (बूढ़े) दो प्रकार के होते हैं; ज्ञान वृद्ध (जो ज्ञान में बड़ो हों) और आयु वृद्ध (जो उम्र में बड़े हों)। यहाँ वृद्ध का अर्थ ज्ञान-वृद्ध अर्थात् ज्ञानी पुरुष है। ज्ञानी पुरुषों की संगति में रहकर ही विनय नामक गुण आता है।

७. वृद्धसेवया विज्ञानत्।


वृद्ध-सेवा से सत्य ज्ञान प्राप्त होता है।

ज्ञानी पुरुषों का सत्-संगति करने से ही मनुष्य को कर्त्तव्य का ज्ञान होता है अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यह ज्ञान होता है। इसी को सच्चा ज्ञान कहा जाता है।

८. विज्ञानेनात्मानं सम्पादयेत्।


विज्ञान (सत्य ज्ञान) से राजा अपने को योग्य बनाए।

राजा ज्ञानी पुरुषों की संगति में रहकर प्राप्त किए ज्ञान से अपने को योग्य बनाए। तभी वह राज्य के शासन को चला पाएगा। राजा का यही कर्त्तव्य है।

९. सम्पादिताम्मा जितात्मा भवति।


अपने कर्त्तव्यों को जानने वाला राजा ही जितात्मा होता है।
इस प्रकार जो राजा अपने कर्त्तव्यों को अच्छी तरह से जान जाता है, वही अपनी इन्द्रियों को वश में रख सकता है।

१०. जितात्मा सर्वार्थे: संयुज्येत।


जितात्मा सभी सम्पत्तियाँ प्राप्त करता है।
जो राजा अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है, उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। उसे सारी धन-सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं।

११. अर्थसम्पत् प्रकृतिसम्पदं करोति।


राजा के सम्पन्न होने पर प्रजा भी सम्पन्न हो जाती है।
राजा या सरकार की व्यवस्था सुन्दर होने से राजा या देश को सम्पन्नता प्राप्त होती है। देश के सम्पन्न होने पर देश की जनता अपने आप सम्पन्न हो जाती है।

१२. प्रकृतिसम्पदा ह्यनायकमपि राज्यं नीयते।


प्रजा के सम्पन्न होने पर नेताहीन राज्य भी चलता है।
यदि कभी एकाएक राजा की मृत्यु हो जाए या बीमार पड़ जाए और कोई भी शासन चलाने वाला न रहे, तो जनता के सम्पन्न होने पर ऐसे राज्य को कोई खतरा नहीं रहता। जनता कोई व्यवस्था कर लेती है और राज्य के कार्य चलते रहते हैं। ऐसी हालत में यदि जनता दु:खी होती है, तो वह राज्य समाप्त हो जाता है।

१३. प्रकृतिकोप: सर्वकोपेभ्यो गरीयान्।


प्रजा का कोप सभी कोपों से भयंकर होता है।
देश की जनता ही उसकी सबसे बडी शक्ति होती है, अत: सरकार को चाहिए कि वह जनता को सदा सुखी रखें। यदि सरकार उसे दु:खी रखेगी तो वह (जनता) सरकार के खिलाफ बगावत कर देगी। तब सरकार को कोई भी नहीं बचा सकेगा। इसीलिए कहा गया है कि जनता का गुस्सा सबसे भयंकर होता है।

१४. अविनीतस्वामिलाभादस्वामिलाभ: श्रेयान्।


अविनीत राजा के होने से राजा न होना अच्छा है।
निकम्मे व्यक्ति के राजा बन जाने पर जनता दु:खी हो जाती है। अत: ऐसे राजा के होने से राजा के न होने पर भी योग्य जनता राज्य को चला लेती है।

१५. सम्पद्यात्मानमविच्छेत् सहायवान्।


राजा स्वयं योग्य बनकर योग्य सहायकों की सहायता से शासन चलाए।
ऊपर बताये गए अनुसार पहले स्वयं योग्य बने, फिर अपने ही जैसे योग्य मन्त्रियों के साथ मिलकर राज्य को चलाए।

१६. नासहायस्य मन्त्रनिश्चय:।


सहायकों के बिना राजा निर्णय नहीं कर पाता।
राजा बुद्धिमान लोगों को अपना मन्त्री बनाए और उनसे अच्छी तरह सलाह करके किसी निर्णय (नतीजे) पर पहुँचे।

१७. नैकं चक्रं परिभ्रमयति।


एक ही पहिया रथ को नहीं चला पाता।
जैसे एक ही पहिये से रथ नहीं चल पाता, उसी प्रकार राजा अकेला ही राज्य का शासन नहीं चला सकता। इसके लिए मन्त्रियों की भी आवश्यकता होती है। राजा और मन्त्री राज्य की गाड़ी को चलाने के लिए दो पहियों के समान हैं।

१८. सहाय: समसुखदु:ख:।


सुख और दु:ख में बराबर साथ देने वाला मन्त्री ही सच्चा सहायक होता है।
जो मन्त्री राजा को सुख में भी सदा सहायता करता है, वही सच्चा सहायक कहा जाता है। दु:ख के समय घबरा जाने वाले या साथ छोड़ देने वाले को सच्चा सहायक (मददगार) नहीं कहा जा सकता।

१९. मानी प्रतिमानिनमात्मनि द्वितीयं मन्त्रमुत्पादयेत्।


मानी राजा जटिल समस्याओं में प्रतिमानी विचारों द्वारा निष्कर्ष पर पहुँचे।
किसी कठिन समस्या के आने पर राजा पहले अपने मन में ही उसके पक्ष और विपक्ष में विचार करे; शान्त होकर अच्छे-बुरे परिणामों के बारे में सोचे।

२०. अविनीतं स्नेहमात्रेण न मन्त्रे कुर्वीत।


अविनीत को स्नेह मात्र से मन्त्रणा में न रखे।
ऊपर बताया गया विनय नामक गुण जिस व्यक्ति में न हो, वह व्यक्ति चाहे कितना ही प्रिय हो, उसे राज-काज की गोपनीय बातों में शामिल न किया जाए। स्नेह (प्रेम) अपनी जगह है, राजनीति अपनी जगह है, इसलिए किसी अविनीत से भले ही प्रेम हो, किन्तु उसे राजनीति की गुप्त बातें नहीं बतानी चाहिए।

२१. श्रुतवन्तमुपधाशुद्धं मन्त्रिणं कुर्वीत।


राजा श्रुतवान तथा उपधाशुद्ध को ही मंत्री बनाए।
जिसे तर्कशास्त्र, दण्डनीति तथा वार्ता का ज्ञान हो, अर्थात् जो राजनीति का पूरा जानकार हो, ऐसे व्यक्ति को पहले छिपे तौर पर अनेक प्रकार से लालच देकर परीक्षा लेनी चाहिए। इस परीक्षा में खरा उतरने पर ही उसे मन्त्री बनाना चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि मन्त्री बनाया जाने वाला व्यक्ति राजनीति का अच्छा ज्ञाता हो ही, साथ ही उसका चरित्र भी उत्तम हो।

२२. मन्त्रमूला: सर्वारम्भा:।


सभी कार्य मन्त्रणा से ही आरम्भ होते हैं।
किसी भी कार्य को करने से पहले उस पर भली प्रकार मन्त्रणा (विचार, सलाह-मशवरा) करनी चाहिए, तभी वह कार्य सुन्दर फल देता है।

२३. मन्त्ररक्षणे कार्यसिद्धिर्भवति।


मन्त्रणा की रक्षा करने से कार्य-सिद्धि होती है।
राजा और मन्त्रियों के बीच में होने वाली मन्त्रणा को पूरी तरह गुप्त (छिपाकर) रखना चाहिए, तभी कार्य सिद्ध होता है।

२४. मन्त्रविस्त्राणी कार्य नाशयति।



मन्त्रविस्त्राणी कार्य को नष्ट करता है।
राज्य की मन्त्रणाओं को किसी दूसरे व्यक्ति को बताने वाला कार्य को नष्ट कर देता है। इसलिए इसे सावधानी से गुप्त रखें; भेद न खुलने दें।

२५. प्रमादाद द्विषितां वशमुपयास्यति।


प्रमाद से ही भेद शत्रु को ज्ञात हो जाता है।
इन मन्त्रणाओं को गुप्त रखने में थोड़ी-सी भी लापरवाही न की जाए; लापरवाही से राज्य के सारे भेद शत्रु के पास चले जाते हैं।

२६. सर्वद्वारेभ्यो मन्त्रो रक्षयितव्य:।


सभी द्वारों से मन्त्र की रक्षा की जाए।
एक देश दूसरे देश के भेदों को जानने के लिए सदा कई तरह के प्रयत्न करता है, अत: जहाँ से भी भेद फूटने का डर हो उस दरवाजे को कठोरता से बन्द कर देना चाहिए और इन भेदों को पूरी तरह सुरक्षित रखना चाहिए।

२७. मन्त्रसम्पदा राज्यं वर्धते:।


मन्त्र-सम्पदा राज्य की वृद्धि करती है।
मन्त्रणाओं की सावधानी से रक्षा करने पर ही देश फलता-फूलता है।

२८. क. श्रेष्ठतमां मन्त्रगुप्तिमाहु:।


मन्त्र की गोपनीयता श्रेष्ठतम कही गयी है।
मन्त्रणा से ही राजा और मन्त्री लोग कार्य करते हैं। इसी से देश की रक्षा भी होती है। इसलिए देश को शक्तिशाली बनाने के लिए मन्त्रणा को गुप्त रखना ही सबसे बड़ी शक्ति है।

२८. ख. कार्यन्धस्य प्रदीपो मन्त्र:।


जैसे रात्रि में मनुष्य अन्धे के समान बन जाता है, तब दीपक ही उसे रास्ता दिखाता है, ऐसे ही राजा के सामने भी कभी कोई ऐसी समस्या आ जाती है कि उसे कुछ भी नहीं सूझता कि क्या करना चाहिए। तब मन्त्रणा ही राह दिखाती है।

२९. मन्त्रचक्षुषा परछिद्राण्व लोकयन्ति:।


मन्त्ररूपी चक्षुओं से राजा शत्रु की दुर्बलताओं को देखता है।
मन्त्रणा राजा के लिए आँखों के समान है। इसलिए वह मन्त्रणा से शत्रु की कमजोरियों का पता लगाए और लाभ उठाए।

३०. मन्त्रकाले न मत्सर: कर्तव्य:।


मन्त्रणा काल में मत्सर नहीं करना चाहिए।
मन्त्रियों के साथ सलाह-मशवरा करते समय राजा को उनकी बातें ध्यान से सुननी चाहिए, उनको अपने से छोटा नहीं समझना चाहिए और अपनी जिद पर भी नहीं अड़ना चाहिए।

३१. त्रयाणामेवकवाक्ये सम्प्रत्यय:।


तीनों का एक मत होना मन्त्रणा की सफलता है।
किसी समस्या में राजा, सलाह देने वाला और मन्त्री जब तक एक ही निर्णय पर पहुँच जाएँ, तो इस निर्णय से कार्य अवश्य सफल हो जाता है।

३२. कार्याकार्यतत्त्वार्थदर्शिनो मन्त्रिण:।


कार्य-अकार्य के तत्त्वार्थदर्शी ही मन्त्री होने चाहिए।
क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए तथा इससे क्या लाभ होगा या क्या हानि होगी, इन सब बातों को भली-भाँति जानने वाला और राजा को समझने वाला व्यक्ति ही मन्त्री बनाया जाना चाहिए।



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