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मैं उपस्थित हूँ यहाँ

बालकवि बैरागी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :215
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3628
आईएसबीएन :81-89182-77-3

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छंद-स्वच्छंद-मुक्तछंद-लय-अलय-गीत-अगीत...

Main upasthit hoon yahan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

है अमावस से लड़ाई, युद्ध है अँधियार से इस लड़ाई को लड़ें अब कौन से हथियार से ? एक नन्हा दीप बोला-‘‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ रोशनी की खोज में आप जाते हैं कहाँ ? आपके परिवार में नाम मेरा जोड़ दें (बस) आप खुद अँधियार से यारी निभाना छोड़ दें।’’

सर्वश्रेष्ठ का सच ‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’

जिस देश के पास वेद, उपनिषद्, गीता, आगम, मानस, महाभारत, कालिदास, तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, रहीम, रसखान, गालिब, निराला, दिनकर, बच्चन, सुमन, भवानी भाई, महादेवी और सुब्रम्हण्यम् भारती जैसे-लौकिक-अलौकिक विश्वश्रुत वंदनीय नक्षत्र हों उस देश में श्रेष्ठ से भी ऊपर सर्वश्रेष्ट लेखन की अपेक्षा आज कोई करे तो मुझ जैसे व्यक्ति गहरे सोच में डूब जाता है। श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ की आखिर हमारी अपनी कसौटी क्या है ?

भारत मूलतः श्रुति का देश है। प्राणपूर्ण सम्प्रेषित काव्य को लोग सुनकर सहेजते हैं। सृजन यहाँ पहले श्रुत हुआ। लेखन, लेप और लिपि उसे बाद में मिली। श्रुति ने उसे सदियों तक कंठ में रखा। कर्ण (कान) और कंठ के बीच में होती है वाचा-वाणी-वाग्मिता। अक्षर की पदयात्रा शब्द पर पहला पड़ाव पाती है। अक्षर अनादि है। शब्द ब्रह्म। यहाँ अनादि और ब्रह्म मिलकर ही ‘नारद ब्रह्म’ का रूप लेते हैं। सारस्वत सृजन इसी में गूंजता है।

मैं इसी चपेट में आ गया। ‘डायमंड पाकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्र कुमार जी ने मुझसे ऐसा ही कुछ माँगा। मुझे आश्चर्य हुआ। मेरी आयु का 74वां वर्ष पूरा हो रहा है। 10 फरवरी 2005 को मैं 75वें वर्ष में दाखिल हो जाऊँगा। लिखते, पढ़ते, बोलते, डोलते-घूमते, गाते, सुनते-सुनाते इस तरह से 66 वर्ष हो गए। 9 वर्ष की उम्र में मैंने-जैसे मेरे शिक्षक-गुरु ने कविता कहा था, अपना पहला गीत (कविता) लिख दिया था। अपने लिखे को मैं आज तक व्यवस्थित तौर पर सहेज नहीं पाया। खुद के बारे में अपनी लापरवाही पर कई बरसों तक मैंने गर्व किया, फिर संतोष करना शुरू किया और आज पछतावा कर रहा हूँ। खैर, ‘बहुत कुछ’ में से ‘कुछ’ आपके सामने हैं। जो गा सकें वे सस्वर हैं तो-गाएँ। जो पढ़ सकें वे पढें। श्रुति के देश में श्रोता मेरा पहला परमात्मा है—पाठक उसके बाद वाला महात्मा। बीच की लकीर आर खींच लें। अपने समय की छाप इनमें से कई कविताओं पर स्पष्ट है।

मैं आभारी हूँ ‘डायमंड पाकेट बुक्स’ और उसके प्रमुख श्री नरेन्द्र कुमार जी का इन बहुत श्रुत और पूर्व प्रकाशित कविताओं को यह आकार मिल सका। आपका कृतज्ञ तो हूँ ही। प्रणाम-

बालकवि वैरागी

10 फरवरी, 2005


सूर्य उवाच



आज मैंने सूर्य से बस ज़रा सा यूँ कहा
‘‘आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यूँ रहा ?’’
तमतमा कर वह दहाड़ा—‘‘मैं अकेला क्या करूँ ?
तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ कुछ तुम लड़ो।’’


हैं करोड़ों सूर्य



हैं करोड़ों सूर्य लेकिन सूर्य हैं बस नाम के
जो न दें हमको उजाला वे भला किस काम के ?
जो रात भर लड़ता रहे उस दीप को दीजे दुआ
सूर्य से वह श्रेष्ठ है तुच्छ है तो क्या हुआ ?
वक्त आने पर मिला ले हाथ जो अँधियारे से
सम्बन्ध उनका कुछ नहीं है सूर्य के परिवार से।।



दीपनिष्ठा को जगाओ



यह घड़ी बिल्कुल नहीं है शांति और संतोष की
‘सूर्यनिष्ठा’ सम्पदा होगी गगन के कोष की
यह धरा का मामला है घोर काली रात है
कौन जिम्मेदार है यह सभी को ज्ञात है
रोशनी की खोज में किस सूर्य के घर जाओगे
‘दीपनिष्ठा’ को जगाओ अन्यथा मर जाओगे।।



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