लोगों की राय

स्वास्थ्य-चिकित्सा >> चुम्बक चिकित्सा

चुम्बक चिकित्सा

एस. के. शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3626
आईएसबीएन :81-7182-901-5

Like this Hindi book 13 पाठकों को प्रिय

62 पाठक हैं

चुम्बकीय चिकित्सा का वर्णन

Chumbaki Chikitsa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चुम्बकीय चिकित्सा

अनादिकाल से विश्व में मानवीय रोगों के उपचार के अनेक प्रकार प्रचलित हैं। पुरातन आयुर्वेद और यूनानी औषधियों के द्वारा उपचार व्यवस्था के साथ ही साथ और भी अनेक विधियां पुरातन काल से चली आ रही हैं। तपते लोहे के द्वारा रोगग्रस्त अंगों को सेंकने, तपाने और दागने की क्रिया, किरणों द्वारा उपचार, प्राकृतिक चिकित्सा की तरह चुम्बक द्वारा चिकित्साएँ पुरातन काल से प्रचलवित हैं। वर्तमान होम्योपैथी पद्धतियों का प्रचलन सर्वाधिक है उनमें चुम्बकीय चिकित्सा प्रणाली अत्यधिक प्रचलित है।

आयुर्वेद के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता में चरक ने लिखा है-‘संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसमें उपचार का गुण न हो।’ जड़ी-बूटियां, विभिन्न धातुओं की भस्में आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा प्रणाली में प्रयोग की जाती है। चुम्बक भी एक धातु ही है। लेकिन इसका प्रयोग भस्म के रूप में नहीं किया जाता। इसके द्वारा उपचार अवश्य किया जाता है।’

आयुर्वेद के अनुसार चुम्बक का प्रयोग रक्तस्राव होने अर्थात् शरीर के किसी भी भाग से रक्त बहने पर किया जाता था। स्त्रियों का मासिक धर्म यानी रजस्वला होने पर अत्यधिक रक्तस्राव होने की स्थिति में भी चुम्बक का प्रयोग किया जाता था-

शतस्य धमनीनां सहस्रस्य हिराणाम्।
अस्बुरिन्मध्यमा इमा: साकमन्ता अरंसत:।।
परि व: सिफवासवतौ धनुर्वुहत्यक्रमीत्।
सतयडलेयता यु क्रम् ।।

अर्थात शरीर की कितनी ही शिराओं और धमनियों से कितना ही रक्त क्यों न प्रवाहित हो रहा है सिकतावली अर्थात चुम्बक के प्रयोग से तत्काल रुक जाता है।

इमायास्ते शव हिरा: सहर्स्र धमनीसत
वास्यां ते स वीसा यह न बयना बिल भव्य धाम,
परं यो नरवरं ते कृतोमि मात्वा प्रजानि युन्मोत सुनू:
त्वस्वं तना प्रजस क्रञ्णे भय ध्यानं ते अदिधान कृतोमि

इस श्लोक से प्रमाणित हो जाता है कि उत्तम सन्तान प्राप्ति के लिए योनि संबंधी रोगों के उपचार के लिए चुम्बक का प्रयोग किया जाता था।
प्राचीन काल में आये दिन युद्ध होते रहते थे, तलवारों और बर्छियों आदि से आये हुए घावों को रोकने के लिए चुम्बक का प्रयोग किया जाता था।

विश्व के प्राचीन ग्रन्थों में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें अनेक विशिष्ट कार्यों के लिए चुम्बक का प्रयोग किया जाता था। पुरातन काल में अपनी उत्कृष्ट सभ्यता के लिए प्रख्यात भारत, मिस्र और यूनान-तीनों ही देशों में चुम्बक का प्रयोग किया जाता था। यूनानी महान दार्शनिक अरस्तू, प्लेटो और होमर ने अपने ग्रन्थों में चुम्बक के उपयोग का उल्लेख किया है।
मिस्र की एक राजकुमारी जो अपने काल की सर्वाधिक सुन्दरी मानी जाती थी अपने सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए चुम्बक का एक छोटा सा तावीज आभूषण के रूप में अपने माथे पर हर समय बाँधे रहती थी।

मिस्र की ममियों से सम्बन्धित एक चित्र घटना हाल ही में कुछ वर्ष हुए बिटिश म्यूजियम में हुई। एक शीशे, जडे़, लकड़ी के बक्स में एक ममी रखी थी। म्यूजियम के कर्मचारियों ने उसे शायद सफाई करते समय उठाकर एक ओर रख दिया। अचानक कुछ घंटे बाद ही ऐसी आवाज सुनाई दी जैसे उस हाल में कोई बम फटा हो। म्यूजियम के कर्मचारी घबराकर उस हाल में पहुंचे तो उन्होंने देखा ममी बक्स में कमर तक उठ आई थी।
अचानक म्यूजियम के एक अधिकारी ने न जाने क्या सोचकर उस बक्स को उसके पुराने स्थान पर ठीक उसी स्थिति रखवा दिया जिस स्थिति में वह पहले रखी हुई थी।

दूसरे ही पल सब हैरान रह गए। बक्स के उस स्थान पर रखते ही ममी पहले की तरह लेट गई।
म्यूजियम के अधिकारियों का विचार था कि उस बक्स के साथ किसी शक्तिशाली चुम्बक का कोई सम्बन्ध था। सफाई करने वाले कर्मचारियों ने बक्स की दिशा बदल दी थी। इसीलिए जब चुम्बक ने उसे अपनी ओर खींचने की चेष्टा की तो भयंकर विस्फोट जैसी आवाज़ पैदा हुई।

चुम्बकीय चिकित्सा रोगों के उपचार का एक प्राकृतिक साधन है। इस पद्धति के द्वारा औषधि आदि पर कोई खर्च नहीं करना पड़ता और रोगी आधुनिक एलोपैथिक दवाओं की भयानक प्रतिक्रियाओं से बचा रहता है। पद्धति सर्वाधिक सुरक्षित और सरल है। इस पद्धति के द्वारा रोगी घर पर रह कर स्वयं ही अपना उपचार कर सकता है। यह पद्धति न तो किसी अन्य प्रकार के उपचार में बाधक है और न इससे कोई आदत ही पड़ती है। चुम्बक का प्रयोग शारीरिक क्रियाओं को नियमित और नियन्त्रित रखता है। कुछ रोग तथा शारीरिक कारणों से जिन लोगों के लिए व्यायाम वर्जित होता है वे इस पद्धति द्वारा पूरा-पूरा लाभ उठा सकते हैं। चुम्बक द्वारा उपचार करने पर निरन्तर खर्च भी नहीं करना पड़ता। न औषधि आदि लेने का ही कोई बन्धन होता है। यह चिकित्सा इतनी कम खर्चीली है कि एक चुम्बकीय उपकरण ही अनेक रोगियों के भिन्न-भिन्न रोगों का उपचार करने में प्रयोग किया जा सकता है।

जिन रोगों में अन्य चिकित्साएं विफल होती देखी गई हैं वहां चुम्बक को सन्तोषजनक काम करते पाया गया है। चुम्बक की सहायता से पुराने और असाध्य रोग कम समय में ठीक किए जा सकते हैं। चुम्बक के सेवन में आयु की भी कोई बाधा नहीं है। एक नन्हें बच्चे से लेकर 70-80 वर्ष तक के वृद्ध चुम्बक का सेवन कर सकते हैं। रोगी ही नहीं जो लोग स्वस्थ हैं वे भी अपना स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए चुम्बक का सेवन कर सकते हैं। इससे उन्हें जीवन भर हृदय रोग, रक्त, चाप, पक्षाघात, और मधुमेह जैसे भयानक रोगों के होने की सम्भावना नहीं रहती। वे मृत्यु पर्यन्त स्वस्थ और नीरोग बने रहते हैं।

चुम्बक और उसकी संरचना


आमतौर पर चुम्बक तीन प्रकार के होते हैं-
1. प्राकृतिक चुम्बक: जिसे लोग स्टोन कहते हैं ऐसी चट्टानों से प्राप्त होते हैं जिनके पत्थरों में लोहार्य शामिल हों।
2. विद्युत चुम्बक: जिसे इलैक्ट्रामैगनेट कहते हैं, विद्युत द्वारा ही काम में लाया जा सकता है।
3. स्थायी चुम्बक: जिसे परमानेन्ट मैगनेट कहते हैं, मिश्रित धातुओं और पदार्थों से बनाये जाते हैं। इनका संचालन पहली बार विद्युत यन्त्रों से किया जाता है। इसके बाद वे वर्षों तक अपनी शक्ति बनाए रखते हैं। शक्ति कमजोर पड़ जाने पर इन्हें बिजली के करेन्ट से फिर चार्ज कर लिया जाता है।

प्रत्येक चुम्बक के उत्तरी और दक्षिणी (नार्थ पोल, साउथ पोल) नामक दो ध्रुव होते हैं। उत्तरी ध्रुव को प्राय: धन (+) चिन्ह और लाल रंग से प्रदर्शित किया जाता है। चाहे प्राकृतिक चुम्बक हो, विद्युत चुम्बक हो या मिश्रित पदार्थों से बनाया गया चुम्बक हो। तीनों प्रकार के चुम्बकों के दोनों ध्रुवों से इलेक्ट्रोन के रूप में ऊर्जा का प्रसार निरन्तर बना रहता है। लेकिन दोनों ध्रुवों से प्रसारित होने वाली ऊर्जा के गुण अलग-अलग होते हैं।
प्रत्येक चुम्बक के दोनों ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। उत्तरी ध्रुव को उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव अपनी ओर खींचने के बजाय परे धकेलते हैं। जब कि उत्तरी ध्रुव दक्षिणी ध्रुव को और दक्षिणी ध्रुव को उत्तरी ध्रुव अपनी ओर आकर्षित करता है। चुम्बक का यह अटल सिद्धान्त है।

चुम्बक के ध्रुवों को पहचानने के लिए उसे एक धागे में बांध दीजिए। चुम्बक का जो सिरा उत्तर दिशा की ओर संकेत करे उस चुम्बक को उत्तरी ध्रुव और जो सिरा दक्षिण दिशा का संकेत करे उसे दक्षिणी ध्रुव कहते हैं।
चुम्बक की तरंगों के प्रभाव से तरल पदार्थों के गुणों में परिवर्तन आ जाता है। रक्त में पाये जाने वाले लौह तत्व और आक्सीजन भी प्रभावित हो जाती हैं। और रक्त में पाए जाने वाले उस हेमोग्लोविन की मात्रा बढ़ जाती है जो स्वास्थ्य और जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

चुम्बकीय तरंगों का स्पर्श पाते ही रक्त संचार नियमित होने लगता और लाल रक्त कणों की जिन्हें R.B.C. कहते हैं, मात्रा में वृद्धि होने लगती है। रक्त तरंगों की सहायता से शरीर की निर्जीव कोशिकाओं की पुनर्रचना हो जाती है और शरीर का वह निर्जीव भाग भी सुचारू रूप से कार्य करने लग जाता है। चुम्बकीय तरंगों में रोगाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता और शक्ति पाई जाती है।

प्रत्येक चुम्बक के ध्रुवों का प्रभाव अलग-अलग होता है। उत्तरी ध्रुव कीटाणुओं और जीवाणुओं के विकास को रोकता है। यदि शरीर में फोड़े-फुंसी हों और उनमें पीव पड़ गई हो तो पीव नष्ट करके घावों को भरने में सहायता करता है।
शरीर के किसी भी भाग में दर्द और सूजन हो तो दक्षिणी ध्रुव से सूजन और दर्द समाप्त हो जाता है। रक्त संचार नियमित हो जाता है और निर्जीव कोशिकाओं और मांसपेशियों को पुर्नजीवित करने में सहायता देता है।

जब चुम्बक का प्रयोग पैरों के नीचे किया जाता है तो दायें पैर पर उत्तरी ध्रुव और बायें पैर पर दक्षिणी ध्रुव का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार हाथों पर भी चुम्बक का प्रयोग किया जाता है। दायें हाथ की हथेली के नीचे उत्तरी ध्रुव और बायें हाथ की हथेली के नीचे दक्षिणी ध्रुव का चुम्बक लगाया जाता है। अगर शरीर के आगे या पीछे चुम्बक का प्रयोग किया जाता है। तो सीने और पेट पर उत्तरी ध्रुव का और पीठ पर दक्षिणी ध्रुव का प्रयोग किया जाता है।
अगर रोग नाभि के ऊपरी भाग में हो तो चुम्बकों को हथेलियों पर लगाया जाता है। और अगर रोग नाभि के निचले भाग में हो तो चुम्बकों का स्पर्श पैरों के तलवों में कराया जाता है। रोग की स्थिति के अनुसार कभी कभी चुम्बक उस स्थान पर भी लगाया जाता है जो रोग युक्त होता है।

चुम्बक का स्पर्श कितने समय तक किया जाए यह रोग की स्थिति और प्रकार पर निर्भर होता है। यदि रोग का आरम्भ ही हुआ है तो चुम्बक का प्रयोग केवल पांच मिनट तक ही किया जाता है। लेकिन अगर रोग पुराना हो या असाध्य बन गया हो तो यह समय बढ़ा दिया जाता है रोग की अवस्थानुसार पांच मिनट से लेकर पंद्रह मिनट तक चुम्बक का उपयोग किया जाता है।
चुम्बक के प्रयोग से पहले डाक्टर को यह जान लेना आवश्यक है कि रोगी को कब्ज तो नहीं है और उसने कोई चीज तो नहीं खाई है जो देर में पचने वाली हो।

चुम्बक का प्रयोग सुबह 6 बजे से 10 बजे तक ही करना चाहिए।
मानव शरीर के भीतरी और बाहरी भागों में भी चुम्बकीय तत्व विभाजित हैं। जब शरीर में विजातीय पदार्थ इकट्ठे हो जाते हैं तो कुछ समय के बाद वे पदार्थ कठोर बनकर गांठ या पत्थर जैसा रूप ग्रहण कर लेते हैं। इसलिए उस स्थान पर रक्त के संचालन की गति या तो धीमी पड़ जाती है या रुक जाती है। इस जमे हुए पदार्थ में शुष्क रूप में लौह तत्त्व उत्पन्न हो जाता है। अगर जमे हुए पदार्थ को चुम्बकीय शक्ति द्वारा टुकड़े-टुकड़े या विघटित कर दिया जाये तो यह पदार्थ अणु से परमाणु में परिवर्तित होकर रक्त में घुल जाएगा और फिर उस स्थान से हटकर हृदय की ओर चला जाएगा। और हृदय द्वारा उस रक्त में से दूषित तत्व अलग होकर विष शिराओं यानी अशुद्ध तत्वों को दूर करने वाली शिराओं द्वारा शरीर से बाहर निकल जायेगा। उस स्थिति में धीरे-धीरे वह गांठ या पत्थर जैसा सख्त भाग पूर्ववत् कोमल बन जाएगा और शरीर रोग मुक्त हो जाएगा।

चुम्बकीय शक्ति द्वारा यह क्रिया कुछ दिनों, सप्ताहों और महीनों तक चल सकती है। क्योंकि यदि वह कठोर स्थान कुछ दिनों में बना है तो यह क्रिया कुछ दिन तक चलेगी। अर्थात् शरीर के उस भाग में विजातीय तत्वों को एकत्र होते जितना समय लगा है चुम्बकीय शक्ति का प्रयोग उतने समय तक ही करना पड़ेगा। संगठित विजातीय तत्वों को विघटित करने के लिए बड़े और तेज चुम्बकों का प्रयोग किया जाता है।

उत्तरी चुम्बक विजातीय पदार्थ को द्रव बनाकर पीछे की ओर धकेलता है। और दक्षिणी चुम्बक विदीर्ण कर उस पदार्थ को अणुओं और फिर परमाणुओं में परिवर्तित कर देता है। उत्तरी चुम्बक का प्रभाव इतना गर्म नहीं होता जितना दक्षिणी चुम्बक का होता है। दोनों की क्रिया में भिन्नता होती है। दोनों ही लोहे को अपनी ओर खींचते हैं। विजातीय पदार्थ में लोहा होता है उसे खींचकर अपने स्थल से हटा देते हैं।

मनुष्य के शरीर में पाई जाने वाली शक्ति को चुम्बकीय शक्ति द्वारा बढ़ाया जा सकता है। शरीर की चुम्बकीय शक्ति बढ़ जाने पर शरीर को अनेक प्रकार के रोगों से मुक्त रखा जा सकता है।
मनुष्य के शरीर में किसी भी प्रकार का नया-पुराना, साध्य या असाध्य रोग हो चुम्बक के प्रयोग से उसका उपचार किया जा सकता है। पहले आवश्यक है कि रोग का सही-सही निदान कर लिया जाए। रोग क्या है उसकी स्थिति क्या है, उसका जन्म कैसे हुआ। इसके साथ ही विजातीय तत्व की भी स्थिति और प्रकार को जानना आवश्यक होता है।
मनुष्य जो कुछ खाता है उसे पचाना आवश्यक होता है। नीरोग और स्वस्थ आमाशय एक सीमित आहार को ही पचा सकता है। यदि आहार की मात्रा अधिक होगी तो आमाशय पर अतिरिक्त भार पड़ेगा और अधिक आहार आमाशय के लिए भार बनने के साथ-साथ शरीर के लिए विष जैसा बन जायेगा। यदि इस विष को शरीर से बाहर न निकाला जाए तो शरीर में हानिकारक तत्व जिसे विजातीय तत्व कहते हैं उत्पन्न हो जाएँगे। आहार में सभी प्रकार की अधिकता शरीर के लिए विष ही होती है।

प्रत्येक रोगी की स्थिति में शारीरिक दृष्टिकोण से अन्तर दिखाई देता है। यह शारीरिक विजातीय द्रव्य के कारण होता है, शरीर में उत्पन्न इन विजातीय द्रव्यों का नाम ही रोग है। ये द्रव्य उन परमाणुओं से मिलकर बनते हैं जिनकी शरीर को कोई आवश्यकता नहीं होती और जो शरीर की भीतरी पाचन शक्ति के बिगड़ जाने से बच रह जाते हैं। विजातीय द्रव्य आरम्भ में शरीर के उन भीतरी अवयवों के पास इकट्ठा होता है जिनका काम आहार के रस को उत्पन्न करना या इसे पृथक करना होता है। लेकिन जैसे-जैसे वह विजातीय तत्व इकट्ठा होने लगता है जिसमें धीरे-धीरे उबाल पैदा होने लगता है और फिर वह सारे शरीर में फैलता रहता है। जब तक शरीर इसको अलग या उत्पन्न करने वाले अवयव विजातीय द्रव्य के एक भाग को निकालते रहते हैं तब तक शरीर की स्थिति सन्तोषजनक बनी रहती है। लेकिन जब उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है और वे विजातीय तत्व को शरीर से बाहर नहीं निकाल पाते शरीर में व्याधियां उत्पन्न होने लगती हैं। अनेक खराबियां पैदा हो जाती हैं। विजातीय द्रव्य के एकत्र होने की क्रिया में व्यक्ति को कोई तकलीफ महसूस नहीं होती क्योंकि विजातीय द्रव्य बहुत ही गोपनीय ढंग से धीरे-धीरे और काफी समय में एकत्र हो पाता है।

इस प्रकार विजातीय द्रव्य के एकत्र हो जाने के कारण जो रोग शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं उन्हें बिना दर्द के पैदा होने वाले या गुप्त रोग कहा जाता है। यह रोग वास्तव में वही रोग हैं जो बहुधा शिथिल व देर से बने चले आ रहे रोग होते हैं। जिन्हें क्रानिक रोग कहते हैं। विजातीय रोग की विशेषता अंग का सड़ जाना हैं यदि समय पर इस विजातीय द्रव्य को शरीर से अलग न किया जाए तो वह स्थान जहां विजातीय द्रव्य इकट्ठा हुआ है सड़ कर सारे शरीर में विष फैला देता है।
यह विजातीय द्रव्य ही शरीर में उत्पन्न उबाल का कारण होता है। यह उबाल पेट से शुरू होता है जहां विजातीय द्रव्य सबसे अधिक मात्रा में मौजूद रहता है। यह उबाल बड़ी तेजी से ऊपर की ओर फैल जाता है। दर्द महसूस होने लगता है और ज्वर हो जाता है। रोग के इन स्वरूपों को विद्रोह उत्पन्न करने वाले दुखदायी रोग कहते हैं इन्हीं को एक्यूट अर्थात तीव्र रोग भी कहते हैं।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book