लोगों की राय

सिनेमा एवं मनोरंजन >> सत्यजीत राय का सिनेमा

सत्यजीत राय का सिनेमा

चिदानन्द गुप्ता

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 36
आईएसबीएन :8123721358

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

43 पाठक हैं

फिल्मकार सत्यजीत राय के चार दशकों में फैले हुए अद्वितीय रचनात्मक जीवन का विवरण...

Satyajit Rai Ka Cinema - A hindi Book by - Chidanand Gupta सत्यजीत राय का सिनेमा - चिदानन्द गुप्ता

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सत्यजीत राय का यह विस्तृत अध्ययन फिल्मकार के चार दशकों में फैले हुए अद्वितीय रचनात्मक जीवन का विवरण प्रस्तुत करता है। राय को उनके समाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में रखते हुए उनकी पाथेर पांचाली (1955) से आगंतुक (1991) तक प्रत्येक फिल्म की विवेचना करते हुए यह आलोचनात्मक विस्तृत विवरण, एक ऐसे लेखक ने प्रस्तुत किया है, जो राय के कार्यों से काफी अंतरंग रहे हैं। यह पुस्तक राय के साहित्यिक मूल से दूर जाने के साथ-साथ, फिल्मों के साहित्यिक स्रोत्रों की ओर विशेष ध्यान आकर्षित करती है और यह भी स्पष्ट करती है कि पूर्वी और पश्चिमी, बहुत से प्रभावों ने राय के मस्तिष्क और कला को आकार दिया। अत्यधिक सहज शैली में लिखी हुई और फिल्मों से लिए गये लगभग सौ स्थिर चित्रों से सज्जित यह पुस्तक सत्यजीत राय की फिल्मों और सामान्यता भारतीय सिनेमा में रुचि रखने वाले सभी पाठकों को पसंद आयेगी।

सन् 1947 में कलकत्ता फिल्म सोसाइटी की स्थापना करने वालों में सत्यजीत राय के साथ चिदानन्द गुप्ता भी शामिल थे। श्री गुप्ता जाने-माने फिल्म समीक्षक और निर्माता रहे हैं। उनकी किताबों में द सिनेमा ऑफ सत्यजीत राय (1980) यह संशोधित और विस्तृत संस्करण उसी पर अधारित है, टाकिंग अबाउट फिल्म्स (1981), द पेन्टेड फेस : स्टडीज इन इंडिया’स पापुलर सिनेमा (1991) प्रमुख हैं। उनकी निर्देशित फिल्मों में वृत्तचित्र, डांस ऑफ शिवा (सह-निर्देशक), बिरजू महाराज, एक्रास द रिवर तथा फीचर फिल्म, बिलेट-फैरट हैं। अपनी दूसरी फीचर फिल्म आमोदिनी के निर्देशक आजकल टेलीग्राफ के कला सम्पादक हैं।

प्राक्कथन


मैं आभारी हूं फिल्मोत्सव निदेशालय के श्री रघुनाथ रैना और सुश्री बिन्दु बतरा का, जिनके कारण मेरे मन में इस पुस्तक के प्रथम संस्करण को हाथ में लेने की इच्छा हुई और अल्पकालिक सूचना पर मेरे लिए राय की बहुत-सी फिल्में दोबारा देखने का प्रबंध किया गया। और अब मैं नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक श्री अरविन्द कुमार का आभारी हूं जिनकी रुचि और सहायता के बिना यह नया संस्करण पूरा नहीं हो सकता था। श्री निमाई घोष भी मेरे आभार के पात्र हैं, जिन्होंने विशेष रूप से इस किताब के लिए अपने और दूसरों के स्थिर चित्रों के प्रिंट तैयार किये। भारत और विदेशों में सत्यजीत राय की कृतियों के प्रति लगातार रुचि बनी रहने के बावजूद मूल संस्करण वर्षों से अनुपलब्ध था। एक भारतीय द्वारा ‘‘राय का सिनेमा’’ पर लिखी गयी यह पहली पुस्तक थी, हालांकि यह काफी संक्षिप्त थी लेकिन सिनेमा को भली-भांति समझने वालों और सिनेमा प्रेमियों की रुचि को बनाए रखने वाली थी। अप्रैल 1992 में राय की मृत्यु के बाद दुनिया भर में उनके कार्य की प्रशंसा और बढ़ गई और अनेक कार्यों के सामाजिक संदर्भों और सौंदर्य संबंधी विशेषताओं को पूरी तरह समझने की इच्छा भी लोगों में बढ़ी। इस तरह एक संशोधित और आद्यतन तथा महत्त्वपूर्ण संस्करण को सबके सामने लाने में नेशनल बुक ट्रस्ट जुट गया। इस संस्करण में दिए गए अद्यतन विवरणों के कारण यह अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण बन गया है।

चिदानन्द दास गुप्ता

प्रस्तावना


पाथेर पांचाली को अपने प्रथम प्रदर्शन के लगभग चार दशक बाद एक बार फिर से देखना आज भी (लिंडसे एंडरसन के शब्दों में) घुटनों धूल में चल कर भारतीय यथार्थ और मानवीय दशा के हृदय में उतरना है।
भारतीय गांव की पीस डालने वाली गरीबी में पाथेर पांचाली लुइस माले के अज्ञात झुंड को नहीं देखती  बल्कि एक मनुष्य को देखती है जो अपने प्रेम, प्रकृति और बचपन के आनंद में उतना ही अकेला है जितना मृत्यु के बिछोहकारी दुख में और अस्तित्व बनाये रखने के अपने अंतहीन दैनिक संघर्ष में। यह ग्रामीण गरीबी का मानवीय चेहरा है, इसके सांख्यकीय कष्टों का नहीं। यह मानवीय चेहरा ही हमें अपु या दुर्गा, सर्वजया या हरिहर को अपने बीच के ही एक मनुष्य के रूप में दिखाता है। हम जान पाते हैं कि हरिहर एक कवि है, एक बुद्धिजीवीः सर्वजया क्षमता और गरिमायुक्त नारी हैः  अपु सौम्य संवेदनशीलता वाला लड़का है और दुर्गा प्रकृति की सुंदर और निर्दोष बालिका है, वे हमारे ही एक अंग बन जाते हैं और हमारे भीतर कुछ बदल देते हैं और मानवता के प्रति हमारे दृष्टिकोण को भी।

सत्यजीत राय की काम की एक विशुद्ध ‘‘सौंदर्य शास्त्रीय’’ समीक्षा मुश्किल से ही संपूर्ण हो सकती है। राय शास्त्रीयतावादी थे, वे कला की उस पारंपरिक भारतीय दृष्टि के वारिस थे जिसमें सौंदर्य सत्य और शिव से अविभाज्य है। पश्चिमी संस्कृति की एक बहुत व्यापक श्रृंखला की सूक्ष्म समझ—जिसे 1949 में ज्यां रेनेवां ने ‘‘असाधारण’’ पाया था—के बावजूद यह भारतीयता है जो उन्हें भारत के संदर्भ में और उस माध्यम के संदर्भ में जो पश्चिम से आयातित था और जिसमें उन्होंने काम किया, महत्त्वपूर्ण बनाती है। उनके काम के सैंतीस वर्ष भारत में एक शताब्दी से भी अधिक की अवधि में आये सामाजिक परिवर्तनों का इतिहास है। शतरंज के खिलाड़ी में मुगल गौरव के अंततः अवसान से लेकर जलसाघर में सामंती जमींदार के पतन, अपु त्रयी में पारंपरिक से आधुनिक होते हुए भारत में कमजोर होते ब्राह्मणवादी आंदोलन, देवी और चारुलता में भारतीय कुलीन वर्ग की बौद्धिक विचारों के प्रति जागरुकता, महानगर में महिला मुक्ति की शुरुआत तक, फिर प्रतिद्वंद्वी में स्वतंत्रता प्राप्ति के दशकों बाद बेरोजगार युवक का आक्रोश, जन अरण्य और शाखा प्रशाखा में भ्रष्ट समाज में सामाजिक चेतना की अपरिहार्य मृत्यु और अंततः अजांत्रिक में मानवीय आवश्यकताओं के सरलीकरण की एक नयी कार्य सूची में आशा की एक चमक और मूलभूत मूल्यों के प्रति आग्रह तक-राय का काम पहले आधुनिक भारत में मध्यवर्ग के सामाजिक विकास की आवश्यक रूपरेखा को तलाशता है और फिर इससे आगे की शुरुआत करता है।

राय के पहले दस वर्षों में फिल्में (1955-65) मानव मात्र में विश्वास की पुष्टि से उत्प्लावित हैं, अनेक समीक्षकों ने ऐसा उल्लेख किया है, अंतिम कुछ को छोड़कर राय की फिल्में खलनायक नहीं हैं। शोषक और शोषित दोनों ही शिकार हैं। अपने निकृष्टतम रूप में भी मनुष्य अच्छाई की मूलभूत संभावना का कुछ न कुछ अंश लिये रहता है। अतः भले वह किसी भी भूमिका में हो मनुष्य को करुणा की आवश्यकता होती है क्रोध की नहीं। राय के काम में पारंपरिक भारती ‘‘भाग्यवाद’’ के संकेत ही नहीं हैं बल्कि उससे कुछ अधिक है। इसमें एक अनाशक्ति भाव है, घटना से दूरी बनाए रखने का। इसमें यह भाव अंतर्निहित है कि कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के स्थान और समय का चुनाव नहीं करता या उन परिस्थितियों का चुनाव नहीं करता जिनके बीच वह घिरा रहता है। स्थान और काल द्वारा निर्धारित चक्र के बीच ही वह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है, उपलब्ध अवसरों में से अपने लिए कुछ बनाने का प्रयास करता है। मनुष्य का आदर्श स्वयं प्रयास में ही निहित है, प्रयास की सार्थकता का यह ज्ञान मनुष्य के प्रयास का कुछ घटता नहीं बल्कि इसे ऐसी स्वच्छन्दता प्रदान करता है जो उन लोगों को उपलब्ध नहीं होती है जो सोचते हैं कि दुनिया को बदलने की ताकत उनके पास है, और इसलिए वे साध्य को साधन से ऊपर रखते हैं और अंततः ये साधन उन्हें भ्रष्ट बना देते हैं।

राय के कार्य में अंतर्निहित दृष्टिकोण भारतीय और अतिप्रयुक्त शब्द के अर्थ में पारंपरिक, इसे जन्म और जीवन में आनंद प्राप्त होती हैः मृत्यु का वहन यह गरिमा से करता है। यह उस ज्ञान से प्रसूत है जो अनाशक्ति पैदा करता है और भय तथा व्यग्रता से मुक्ति प्रदान करता है। अनाशक्ति या दूरी करुणा से मिलकर कलाकर के लिए यह संभव बनाती है कि वह वास्तविकता के एक व्यापक कोण को देख सके और फलक के विस्तार को विवरण की सूक्ष्मता से मिला सके। स्वतंत्रता बाध्य प्रारंभिक दशकों में आस्था मात्र ‘‘यहां के बाद’’ में ही में नहीं थी बल्कि ‘‘यहां और अब’’ में थी। सभी के लिए पर्याप्त प्रगति की कमी की निराशाओं के बावजूद विश्वास मौजूद था कि देर-सवेर देश अंगड़ाई लेगा कि भारत का पुनरोदय अपरिहार्य था। यही वह शब्द था जो नेहरू युग में पैदा हुआ था जो अब विपरीत दिशाओं में, कभी कभी उग्र रूप में खिंच गया है लेकिन एक क्षीण रूप में आज भी बना हुआ है, यद्यपि शायद निरंतर बढ़ते हुए भौतिकतावादी अर्थ में।
इसके विपरीत कुछ लोगों की समृद्धि उस बुद्धिजीवी में एक अपराधबोध पैदा कर देती है, जो अपनी शिक्षा के कारण, सुविधा प्राप्त छोटे वर्ग से संबंधित रखता है।

 शायद दुनिया में कहीं भी गरीबी की इतनी चर्चा नहीं होती (और इसीलिए, कुछ लोग कहना चाहेंगे कि, इसके बारे में इतना कम किया जाता है) बातचीत के पीछे वास्तविक चिंता बनी रहती है, एक ऐसे कलाकार के मामले में और ज्यादा जो चेतनशील होता है और जनसंचार में सक्रिय होता है। सभी के लिए भौतिक समृद्धि अर्जित करने की आवश्यकता एक आध्यात्मिक प्रतिबंध पैदा कर देती है। वस्तुतः कलाकार को धार्मिक कला के प्रतिबंधों के साथ ही प्रस्तुत किया जाता है, ढांचा पहले से ही बना होता है कलाकार को इसमें अपनी भूमिका ढालनी होती है। ऐसा न करना और निजी कलात्मक दृष्टि की तलाश में इससे अलग हटना एक प्रकार से धर्मविरोधी माना जाता है। गरीबी और अंधविश्वास, दमन और अन्याय की उपेक्षा करके दैहिक संबंधों में विसंगतियों के मनोविज्ञान का अन्वेषण करना अनैतिक लगभग अश्लील है। ‘‘बंगाल पुनर्जागरण’’ सुधारवाद के बिना चारुलता का सौंदर्य खोखला हो जायेगा। यह सुधारवादी इसी पृष्ठभूमि से कहीं अधिक अग्रभूमि को तैयार करता है जो औरत के अपनी निजी पहचान के रूप में उभरने की ओर संकेत करती है।

राय में आक्रोश की कमी, घटना के प्रति उनकी तटस्थता, प्रत्यक्ष और बाहरी अभिनय की अवहेलना आदि के चलते राय युवा पीढ़ी में अपनी लोकप्रियता निरंतर बनाये रख सके। इस पीढ़ी के कुछ लोग उनसे धीरे धीरे अलग होते रहे और उन्होंने वैकल्पित आदर्श ऋत्विक घटक जो अपनी फिल्मों में राय के समान ही टैगोरवादी समन्वयवादी थे—मृणाल सेन, अपेक्षाकृत अधिक समर्पित राजनीतिक फिल्म निर्माता—में तलाशना शुरू कर दिया। राय का अपना कृतित्व चारुलता के शिखर के बाद एक अनिर्धारित विभाजक रेखा और पार कर गया था। उन लोगों के दबाव ने, जो चाहते थे कि वे चेखव को छेड़कर मार्क्स को अपना लें, उन पर संभवतः कुछ प्रभाव डाला होगा। इसके साथ साथ देश की बदली हुई परिस्थितियों, नेहरू युग के सुखी स्वप्नों के क्षीण होने, सुविधा संपन्न वर्गों द्वारा विकास के लाभ हड़प लिए जाने के निरंतर बढ़ते साक्ष्यों ने राय के कृतित्व की प्रकृति में एक सूक्ष्म परिवर्तन पैदा कर दिया।

तात्कालिक जीवन के प्रतिपादन में उन पारंपरिक दृष्टिकोणों से एक सुस्पष्ट पलायन दिखाई देता था जो दृष्टिकोण उनके प्रारंभिक कृतित्व में मुखर रहे थे। वह कलकत्ता जो बड़ी राजनीतिक सभाओं और लंबी लंबी जनकतारों का प्रतिनिधित्व करता था, और जो पहले दशक की उनकी फिल्मों में स्पष्टतः अनुपस्थित था उसने अपनी उपस्थिति महसूस करना शुरू कर दिया। इसने राय के शास्त्रीयतावाद को एक नयी ओजस्वी धार प्रदान की। प्रतिद्वंद्वी में नकारात्मक छवियां, मेडिकल डायग्राम के अचानक दृष्यांतरों और गुस्से से उबलते हुए बेरोजगार युवकों को शॉटों की भरमार है : जनअरण्य में राय ने पहली बार कलकत्ता के वीभत्स पहलू को उभारा, उसकी गंदी गलियों को दिखाया जो काल गर्ल अड्डों के क्षणभंगुर अगवाड़ों की ओर ले जाती हैं।

राय के दूसरे दशक में भी, जहां पतन की पहचान और अधिक मुखर होती है, निराशावाद उन दबावों की पहचान करता है जिनके अंतर्गत बुराई के साथ समझौते कर लिये जाते हैं। बुराई का चेहरा थोड़ा-सा तिरछा कर दिया जाता है और हम इसके साथ सीधा टकराव मोल नहीं लेते, सीमाबद्ध महत्वाकांक्षी अधिकारी अपनी आलोचक सिस्टर-इन-ला से सम्मान पाने की जरूरत लगातार महसूस करता है। जनअरण्य का जन संपर्क अधिकारी जो अपने युवा व्यापारी ग्राहक के लिए काल गर्ल की जरूरत पूरी करने को लड़की की व्यवस्था करता है। अपने हंसमुख स्वभाव, और होती हुई बुराइयों के प्रति एक विशेष प्रकार की निर्लिप्तता भाव के कारण चकले की मालकिन की तरह ही अपराधबोध से मुक्त है। शतरंज के खिलाड़ी वाजिद अली और उनके लखनऊ के पतन और ब्रिटिश शक्ति से पहले इसके ढह जाने की ऐतिहासिक अपरिहार्यता की तस्वीर को स्पष्टतः देखती है, तथापि यह उत्कृष्टता, स्वाभिमान और उस नवाबी त्रासदी के संकेत की भी पहचान करती है जो इस पतन को आच्छादित किए हुए है।

घरे बाहरे, जिसके निर्माण के दौरान राय को दिल का दौरा पड़ा था, के बाद से हम उनके अंदर खलनायक की ओर उंगली उठाने की निरंतर बढ़ती नयी प्रवृत्ति को देखते हैं। उनके वक्तव्य भी शाब्दिक और सुस्पष्ट होते जाते हैं।
राय की सम्यक समझ के लिए यह आवश्यक है कि पश्चिम के साथ उनके संबंधों के बारे में उनके बाह्य वक्तव्यों और भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के साथ उनके अंततः संबंधों के बीच विरोधाभास को देखा जाए। सौंदर्य शास्त्रीय अर्थों में राय ने सिनेमा की पश्चिमी संगीत शैलियों और पश्चिमी कथा परंपराओं से बहुत कुछ प्राप्त किया। पश्चिमी सिनेमा में सर्वाधिक योगदान हॉलीवुड का था।

 प्रत्यक्षतः राय का चौकस कथा वर्णन जिसमें प्रारंभ, मध्य और कथा विकास, संघर्ष और समाधान निहित रहते हैं। अरस्तुवादी विरेचर रूपविधान है जो शास्त्रीय संस्कृति साहित्य की अधिक मुक्त तर्कमूलक निष्कर्ष सिद्ध प्रवृत्तियों वाले रूपविधान से भिन्न से भिन्न है लेकिन इसके पीछे एक ऐसी नाभिनाल दिखाई देती है जो उन्हें प्रत्यक्षतः वेदांतिक विश्व दृष्टि से जोड़ती है। यही वेदांतिक दृष्टि उनकी फिल्मों को आध्यात्मिक तत्व प्रदान करती है। यद्वपि वे स्वयं को अनीश्वरवादी या अज्ञेयवादी बताते हैं, उनमें ब्रह्माण्ड और दिक्काल के परे इसकी विराट गति के रहस्य का भाव मौजूद था, इसी भाव में उनकी प्रारम्भिक ब्रह्म अध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि के साथ उनकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि घुलमिल जाती थी। इस ब्रह्म दर्शन के केंद्र में अनंत की उपनिषदवादी चेतना मौजूद थी, उदाहरण के लिए कठोपनिषद सृष्टि के पीछे की अदृश्य शक्ति है, ब्रह्म के रूप में बताता है जो मन और इन्द्रिय की पहुंच से बाहर है। पंडित कहता है कि वह इस शक्ति की प्रकृति को नहीं पहचानता है इसलिए इसकी व्याक्या भी नहीं कर सकता।

 

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book