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पुराण एवं उपनिषद् >> कूर्म पुराण

कूर्म पुराण

विनय

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3582
आईएसबीएन :81-288-0677-7

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पुराण-साहित्य-श्रृंखला में कूर्म पुराण....

kurma purana.

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि हैं। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएँ मिलती हैं। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म, और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं।
आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य़ को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक प्रस्तुत है।
पुराण साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को एक निश्चित दिशा दे सकता है।
निरन्तर द्वन्द्व और निरन्तर द्वन्द्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति का मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं। इसी उद्देश्य को लेकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज भाषा में प्रस्तुत है पुराण साहित्य की श्रृंखला में ‘कूर्म पुराण’।

प्रस्तावना

भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन-परंपरा में कर्मकांड युग, उपनिषद युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के ऊर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।

पवित्र ‘कूर्म पुराण’ ब्रह्म वर्ग के अंतर्गत आता है। इस पुराण में चारों वेदों का श्रेष्ठ सार निहित है। समुद्र-मंथन के समय मंदराचलगिरि को समुद्र में स्थिर रखने के लिए देवताओं की प्रार्थना पर भगवान् विष्णु ने कूर्मावतार धारण किया था। तत्पश्चात उन्होंने अपने कूर्मावतार में राजा इन्द्रद्युम्न को ज्ञान, भक्ति और मोक्ष का गूढ़ रहस्य प्रदान किया था। उनके ज्ञानयुक्त उपदेश को इस पुराण में संकलित किया है। इसलिए इस पुराण को ‘कूर्म पुराण’ कहा गया है। इस पुराण का ज्ञान महर्षि व्यास ने अपने शिष्य रोमहर्षण (लोमहर्षण) सूतजी को प्रदान किया था। तत्पश्चात् नैमिषारण्य में महषि रोमहर्षण सूतजी ने शौनकादि ऋषि-मुनियों को यह पुराण सुनाया था।
यद्यपि कूर्म पुराण एक वैष्णव प्रधान पुराण है, तथापि इसमें शैव तथा शाक्त मत की भी विस्तृत चर्चा की गई है। इस पुराण में पुराणों में पांचों प्रमुख लक्षणों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर एवं वंशानुचरित का क्रमबद्ध तथा विस्तृत विवेचन किया गया है।

हम आज के जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित नहीं रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। हमारे पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।

‘डायमण्ड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्रकुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है। और यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह अनिवार्य है।

-डा. विनय

पूर्वार्द्ध


स्वायम्भुव यज्ञ के उपलक्ष्य में इकट्ठा हुए नैमिषारण्य ऋषियों ने सूत महाराज से कूर्म पुराण सुनाने का निवेदन करते हुए कहा कि आप विद्वानों में श्रेष्ठ हैं और ब्रह्मज्ञानी शिरोमणि वेदव्यास के श्रीमुख से इतिहास पुराण का मर्म जानने के लिए उनकी श्रद्धापूर्वक आपने सेवा की है। परम पवित्र पुराणों को सुनकर आपका रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठा। इसी कारण आपका नाम भी रोमहर्षण पड़ गया। वेदव्यास ने आपको ही एकमात्र सुनने का अधिकारी जानकर आपको यह ज्ञान दिया। अब आप वह पवित्र वाणी हमें सुनाकर कृतार्थ करें। श्रद्धालु मुनियों की ऐसी पुराण सुनने की रुचि देखते हुए सूत ने बताया कि इस पवित्र पुराण को श्रद्धालु शान्त और धार्मिक श्रेष्ठ वर्ण के जनों को सुनाना चाहिए, और संशयी, तर्क करने वाले, ईश्वर में विश्वास न करने वाले, नास्तिकों के सम्मुख कभी भूलकर भी नहीं सुनाना चाहिए। क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के हृदय पर इसका प्रभाव स्थिर नहीं रह पाता। वास्तव में श्रद्धा और विश्वास व्यक्ति-मन की दो आंखें होती हैं। इनके अभाव में व्यक्ति अन्धा होता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति के सम्मुख यह आख्यान निरर्थक हो जाता है।

परम पवित्र कूर्म पुराण ब्रह्म वर्ग के अन्तर्गत आता है, और इसमें चारों वेदों का सर्वोत्तम सार निहित है। इसके श्लोकों की संख्या छः हजार है। जिसमें चर्तुवर्ग के प्रदान करने वाले सारे संसार के नियंत्रक, परब्रह्म के माहात्म्य का वर्णन है अन्य पुराणों के समान इसमें भी सर्ग, प्रतिसर्ग, मन्वन्तर, वंशानुचरित और अन्यान्य पुण्यकथाएं वर्णित है। धर्माचार्यों, वेदप्रियों और ब्राह्मणों के लिए इस पुराण का अनुशीलन लाभप्रद रहता है।

इस पुराण में भगवान श्री नारायण के समुद्र -मन्थन के समय कूर्म रूप धारण करने की कथा का वर्णन है। बहुत समय पहले दिति और दनु के पुत्रों दैत्यों और दानवों के साथ देवताओं ने मिलकर अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया था, इसमें मंदराचल पर्वत को मथानी बनाया गया था। भगवान श्री नारायण ने देवताओं के हित में कूर्म रूप धारण करके पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया था। सभी देवताओं ने भगवान के इसी रूप का साक्षात् हरि रूप में दर्शन करके अपने आप को कृतकृत्य अनुभव करते हुए उनकी बहुविधि स्तवन-अर्चना की। प्रभु के पीठ पर पर्वत को धारण करने से वह स्थिर हो गया और देवताओं का प्रयास सफल हुआ। समुद्र-मन्थन से जो प्रमुख तत्त्व निकले उनमें श्री लक्ष्मी भी थीं, जिन्हें स्वयं विष्णु ने अपनी प्रिया के रूप में वर लिया। देवों ने जब उनका परिचय पूछा तो भगवान नारायण ने बताया कि यह देवी मेरी परमशक्ति, अनन्त माया है। इसी के द्वारा मैं देवों, दानवों एवं मानवों की सृष्टि करता हूं। जड़-चेतन जगत का प्रसार, पालन एवं संहार करता हूं।

इसी से उनकी उत्पत्ति और प्रलय होती है, मेरी इसी शक्ति की विद्या रूप में जानकर ज्ञानी पुरुष अपनी आत्मा का उद्धार करते हैं। यह देवताओं को ही नहीं बल्कि ब्रह्मा और शिव को भी शक्तिमान करती है। यही सत, रज, तम गुणों को समेटने वाली प्रकृति है और ब्रह्माण्ड तथा जड़-चेतन जगत की उत्पत्ति करने वाली है। कल्प के प्रारम्भ में मैंने इसकी सृष्टि की। यह चार भुजाओं वाली, शंख, चक्र, गदा और पद्म वाली, गले में करोड़ों सूर्यों की आभा लिये हुए है। अपने इसी मोहक रूप से देवता, पितर, मानव, वसु और अन्य योनियों के प्राणियों के ज्ञान की सीमा से परे है और सदा उन्हें आकृष्ट करे रखती है।
यही सब प्रकार से सर्व समर्थ और सबका संचालन करने वाली है। कल्पान्त में इसी देवी की स्थिति का वृत्त सुनाते हुए श्री नारायण ने बताया कि पूर्वजन्म में एक राजा अपने दूसरे जन्म में इन्द्रद्युम्न नाम के ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने कूर्म पुराण सुनने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि शंकर आदि देव मेरी ही शक्ति से शक्तिमान हैं और यह जानकर अन्य देवताओं का आश्रय छोड़कर उसने मेरे ही कूर्म रूप की उपासना प्रारम्भ कर दी। उसकी इस श्रद्धाभक्ति को देखकर ही मैंने उस राजा को अगले जन्म में ब्राह्मण योनि में उत्पन्न होने का वरदान दिया। मेरी ही कृपा से उसे अपने पूर्वजन्म के सभी वृत्त स्मरण रहे। साथ ही देवों, ऋषियों को दुर्लभ ज्ञान का आविष्कार भी हुआ। मैंने उस राजा से यह भी कहा कि पृथ्वी पर निवृत्ति भाव से चित्त को समाहित करके अपने कर्त्तव्यों का पालन करो, वैस्वत मन्वंतर के बीत जाने पर तुम मेरे लोक वास के अधिकारी बनोगे।

ऐसा आशय पाकर वह राजा अपने लोक में पहुंच गया और धर्म के अनुरूप अपनी प्रजा का पालन करने लगा। निश्चित समय पर उसने देह त्याग दी। श्वेत दीप के दुर्लभ वैष्णव भोग का अधिकारी होकर उसने सुख प्राप्त किया, तत्पश्चात् मेरी ही आज्ञा से पुनः उत्तम विप्र कुल में जन्म ग्रहण किया। विप्रयोनि में जन्म ग्रहण करके उस इन्द्रद्युम्न ब्राह्मण ने अपने सभी कर्म, धर्म का यथावत् पालन किया, उसके इस व्रत-अनुष्ठान से प्रसन्न होकर मैंने उसे साक्षात् लक्ष्मी के दर्शन कराए। ब्राह्मण ने विविध विधियों से स्तोत्र पाठ करके लक्ष्मी की पूजा-स्तुति की। नारायण चिह्मों से अंकित विशालनयना देवी का परिचय जानने की इच्छा भाव से उसने श्रद्धापूर्वक पूछा-हे देवि ! आप कौन हैं ? तो उस मंगलस्वरूता ने प्रसन्नमना हो उस ब्राह्मण से कहा-मैं विष्णु की तद्रूपा माया हूं। नारायण देव और मैं अभिन्न हैं। विष्णु का विष्णुत्व, ब्रह्मा का ब्रह्मत्व तथा शिव का शिवत्व मुझसे ही है। जो लोग जीवों का आश्रय देने वाले भगवान श्री विष्णु की श्रद्धा और मन से आराधना करता हैं, मैं उन्हें विशेष रूप से स्नेह देती हूं, उन पर अपनी अनुकम्पा रखती हूं और मोक्ष प्रदान करती हूं।

इस पर उस जिज्ञासु ब्राह्मण ने करबद्ध निवेदन करते हुए लक्ष्मी से सब कुछ देने वाले भगवान श्री नारायण को जानने की विधि के बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो कमलासन ने उससे कहा कि तुम इसी तपस्या में लीन रहो, समय आने पर प्रभु तुम्हें स्वयं दर्शन देकर तुष्ट करेंगे। ऐसा कहते हुए वह देवी ब्राह्मण को आशीर्वाद देती हुई अन्तर्हित हो गई।
वह ब्राह्मण इन्द्रद्युम्न लक्ष्मी के द्वारा प्रबोधित होकर जीवमात्र के क्लेशों का हरण करने वाले श्री विष्णु की भक्ति आराधना में पूरी तरह लीन होकर तपस्या करने लगा। काफी समय इसी प्रकार से तपस्या करते रहने के बाद एक दिन भक्तवत्सल श्री विष्णु ने उस पर कृपा करके उसे दर्शन देकर कृतार्थ किया। भगवान श्री परम ईश को अपने सम्मुख देखकर वह ब्राह्मण कृतकृत्य होकर धरती पर घुटने टेककर उन्हें प्रणाम करते हुए-सम्पूर्ण जगत के रचने वाले, रक्षा करने वाले, प्रलयंकारी, सर्वव्यापी आदि, मध्य और अन्त से परे ज्ञान द्वारा जानने योग्य श्री विष्णु के चरणों में प्रमाण करते हुए नत हो गया। उस ब्राह्मण की इस भक्तिभावना से प्रसन्न और द्रवित भगवान ने स्वयं अपने दोनों हाथों से उसे स्नेहपूर्वक ऊपर उठाया। स्पर्शमात्र से ही उसे परमानन्द की सिद्धि देने वाला, ब्रह्मप्राप्ति की एकमात्र, साधन देव-ज्ञान प्रत्यक्ष स्फुरित हो गया। प्रभु की इस कृपा से अत्यन्त अभिभूत होते हुए बार-बार प्रणत मुद्रा में निवेदन करते हुए प्रभु से पथ-प्रदर्शन की याचना करने लगा।

उससे पूर्ण प्रसन्न भगवान श्री नारायण ने उससे कहा-हे राजन् ! अभीष्ट की सच्ची आराधना का अधिकारी, वर्णाश्रम धर्म-व्यवस्था का विधिपूर्वक पालन करने वाला आचार में निष्ठा रखने वाला प्राणी ही होता है। मोक्ष की कामना करने वाले जीवन की प्रवृत्ति मार्ग के अन्तर्गत कुलक्रम से चले आ रहे आचरण की ओर वर्ण-व्यवस्था का पालन करते हुए विष्णु की आराधना और पूजा करनी चाहिए। यह ध्यान रहे कि प्रवृत्ति मार्ग को अपनाने का तात्पर्य-संसार में आसक्ति नहीं हैं, बल्कि मायामय जगत और सभी एषणाओं का त्याग करते हुए अद्वैत भावना को अपनाना है। इसी विधि से जीव अपने हृदय में भी विष्णु को प्रतिष्ठित कर उनके दर्शन करता है। भावना तीन प्रकार की होती है-आत्मविषया, अव्यक्त विषया तथा गुणातीत विषया। इनमें किसी भी एक भावना से जगत के पालक की आराधना करने वाले मोक्ष का अधिकारी होता है।

इन्द्रद्युम्न ने भगवान नारायण से पूछा कि आपका स्वरूप और प्रवृत्ति क्या है, तथा आप यह भी बताने की कृपा करें, कि कार्य-कारण सम्बन्ध तथा परात्पर तत्त्व मूलतः क्या है ? भगवान नारायण ने उत्तर देते हुए कहा कि एकमात्र परब्रह्म परमेश्वर ही परात्पर तत्त्व हैं और यह आनन्दमय विभूति कहा जाता है। अव्यक्त शुद्ध और अक्षर ब्रह्म कारण है और यह जगत् कार्य तथा सब प्राणियों में विराजमान है। मेरा स्वरूप यही है और मेरी प्रवृत्ति जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय है।
इसके पश्चात् कूर्म रूप भगवान नारायण ने ऋषियों को बताया फिर जो उन्होंने प्रश्न किए थे वे इस प्रकार हैं-

1.    कौन-कौन से वर्णाश्रम धर्म आचरण करने योग्य है ?
2.    जगत की सृष्टि और संहार किस प्रकार होता है ?
3.    कितने प्रकार की संसार की सृष्टि है ?
4.    उत्पत्ति, स्थिति और लय में ज्ञान का क्या स्वरूप है ?
5.    वर्णाश्रम और धर्म में ज्ञान का स्वरूप क्या है ?

इन प्रश्नों के साथ उन्होंने पूछा कि वंश और मन्वंतर कौन-कौन से हैं तथा सूर्य-पृथ्वी का क्या परिणाम है ?
कूर्म ने बताया कि मैंने उसके सारे प्रश्नों का उत्तर दिया और फिर मैं वहां से अन्तर्हित हो गया। उस ब्राह्मण ने अपने पुत्रादि का प्रेम त्यागकर पूर्ण सन्तुष्टि भाव से अपरिग्रह के साथ पूजा की। वह धीरे-धीरे निष्काम कर्म करते हुए पूर्ण विरक्त हो गया। उसने अपने में ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड में अपने आपको देखा। वह उसी रूप से परम भोगी बन गया, जिसरूप में परम परमात्मा सर्वत्र दिखाई देते हैं। उसने सामान्य मानवीय व्यवहारों को अपने वश में कर लिया।

वह ब्राह्मण एक बार ब्रह्मा के दर्शन के लिए आकाश मार्ग से गया। मार्ग में ब्रह्मर्षियों, अप्सराओं और गधर्वों ने उसके रथ को देखा, उसका विमान सूर्य की तरह से प्रदीप्त हो रहा था। यात्रा करने के बाद उसने ब्रह्मा के अतःपुर में प्रवेश किया, इसके पूर्व वह ब्राह्मणों, योनियों द्वारा सूचित हुआ था। वहां पर उसने ब्रह्मा के दर्शन किये। ब्रह्मा जन्म-मृत्यु से रहित ब्रह्म को जानने वालों के लिए भी अगम्य परम योगियों द्वारा आराधित, चतुर्मुख और तेज से प्रतिभासित हो रहे थे। ब्रह्मा को देखकर जैसे ही वह उनके चरण छूने के लिए झुका वैसे ही ब्रह्मा ने अपने आलिंगन में ले लिया। उसी समय, उसके शरीर से एक परम ज्योति निकली और त्रिवेद अर्थात् ऋग्, यजु और साम से युक्त सूर्य-मण्डल में प्रवेश कर गई, उसी मण्डल में देवों के लिए जानेवाला यज्ञ भाग (हव्य) और पितरों को दिया जाने वाला भाग (कव्य) का भोग लगाने वाले हिरण्यगर्भ भगवान विद्यमान होते हैं। इन वेदों में आद्यद्वार कहा गया है। वहीं उस योगी ब्राह्मण ने निर्विकार परम, अक्षर विष्णु रूप से दर्शन किए और उसे अनुभव हुआ कि वह उस स्थान पर आ गया है जहां आकर मोक्ष प्राप्त होता है। यह अनुभव करते ही वह आत्मविश्रांति को प्राप्त कर गया।

नैमिषारण्य में सूत ने मुनियों को बताया कि कूर्म वाले भगवान विष्णु ने नारद आदि देवताओं को जब यह सब सुनाया तो उन्होंने पूछा कि हे देव ! आपने उस ब्राह्मण को जो दिव्य ज्ञान दिया था, कृपया वह बताने की कृपा करें। इस प्रकार नारदादि देवों, महर्षियों के अनुरोध पर श्री नारायण भगवान ने उन्हें वह मोक्षदायी कूर्म पुराण सुनाया। श्री नारायण ने कूर्म रूप में जिस ज्ञान का प्रकाश किया था वही कूर्म पुराण कहलाया। इसके श्रवण से मनुष्य सभी विघ्न, बाधाओं, क्लेशों कष्टों, पापों-तापों अन्य आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक उत्पादों के दुष्प्रभावों से मुक्त होकर सुख-समृद्धि युक्त जीवन, सुन्दर-सुरुपा पत्नी, उत्तम सन्तान और सामाजिक प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। इस पुराण को सुनने वाला सुन्दर, सुखी जीवन जीता हुआ ब्रह्मलोक वास का अधिकारी हो जाता है। सूत ने यह भी कहा कि मेरे इस कथन को केवल मेरा कथन ही नहीं समझिए बल्कि वास्तव में यह कूर्म पुराण बहुत अधिक पुण्यदायी है। जो व्यक्ति श्रद्धा विश्वास के साथ इसका श्रवण और सेवन करता है उसे निश्चय ही विष्णु का परम पद प्राप्त करता है।

कूर्म रूप श्री नारायण ने ऋषियों को बताया कि जलवासी होने के कारण मैं पुराण में अपनी शेष शैया पर विराजमान था और मुझे निद्रा आ गई। जागने पर फिर से नयी सृष्टि रचने का विचार आया। मुझमें साहस उत्पन्न हुआ और अपने नाभिकमल से चतुरानन ब्रह्म की उत्पत्ति की। तभी अचानक मुझे क्रोध आ गया उससे त्रिशूलधारी महादेव शंकर का जन्म हुआ। तेज में सूर्य के समान शंकर के प्रादुर्भाव से तीनों लोक जलते हुए प्रतीत हुए। इसके बाद मैंने सुन्दर रूप वाली, सुन्दर मुख वाली, प्राणियों को अपने रूप से मोहित करने वाली, दैवीय आत्मा वाली, मंगल करने वाली, दिव्य मालाओं से सुशोभित और कमल नयना, अपनी मूल प्रकृति लक्ष्मी को उत्पन्न किया जो मेरे बाएं पार्श्व में स्थापित हुई। मेरी इस माया को देखकर ब्रह्मा ने मुझसे कहा कि मैं लक्ष्मी को अखिल ब्रह्माण्य को मोहित करने के लिए नियुक्ति कर दूं, जिससे उनका सृष्टि-निर्माण कार्य पूरा हो सके। ब्रह्मा की ऐसी आशा देखकर मैंने देव, असुर और मनुष्यों से युक्त संसार में सभी सांसारिक प्राणियों को मोहित करके पतन के गर्त में गिराने का आदेश देते हुए इस बात के लिए सतर्क किया कि ज्ञानी, योगी, ब्रह्मचारी ब्रह्मवादी, अक्रोधी, सत्यवक्ता इन्द्रिय संयमी, सांसारिक विषयों में ममतारहित, शान्तिचित्त धार्मिक, वेदज्ञानी, तपस्वी, कर्मकाण्डी और आचारशील ब्राह्मण होम, जप आदि में लीन स्वाध्यायी ईश्वर-विश्ववासी, निर्मलचित वाले तथा वर्णाश्रमधर्म पालन करने वाले सभी जनों को दूर से ही प्रमाण करते उनका सम्मान करना, उन्हें कभी मोहित करने की चेष्टा न करना। अर्थात् अपने नियत धर्म का निष्ठापूर्वक पालन करने वाले को कभी मोहित न करना। लक्ष्मी ने यथा आदेश संसारी जीवों को मोहित करना प्रारम्भ कर दिया। जो व्यक्ति इस माया से आविष्ट नहीं होना चाहता, उसका यह कर्त्तव्य है कि वह मेरे साथ-साथ लक्ष्मी का भी पूजन-स्तवन करे। लक्ष्मी श्रद्धाभाव से की गई पूजा-आराधना से प्रसन्न होकर साधक को भी सांसारिक सुख प्रदान करते हुए मेधा और यश का भागी बनाती है।


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