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मुल्ला नसरुद्दीन

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3572
आईएसबीएन :81-284-0037-3

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मुल्ला नसरूद्दीन के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Mulla nasruddin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मुल्ला नसरुद्दीन अपने समय का सबसे ज्यादा चालाक व होशियार व्यक्ति था। वह तरह-तरह की तिकड़मबाजियों से अमीरों से धन बटोरकर गरीबों में बांट देता था, जिससे गरीब लोग उसे देवता की तरह पूजते थे। जनता में लोकप्रिय होने के कारण वह सदा ही शासकों की नज़रों में खटकता रहता था। अनेक शासक और जागीरदार उसे फाँसी पर चढ़ा देना चाहते थे, लेकिन वह हर बार अपनी होशियारी से बच निकलता था।

मुल्ला नसरुद्दीन
अपने समय का
सबसे अधिक बुद्धिमान और चतुर व्यक्ति था।
वह येन-केन-प्रकारेण
धन अर्जित करता था
और उसे गरीबों में बाँट देता था।
इसी कारण गरीब जनता
उसे ईश्वर की तरह
चाहती थी।
क्योंकि वह जनसामान्य में
प्रसिद्ध था, इसी कारण
वह शासकों की आँखों का काँटा
बना रहता था।
अनेक शासकों और सरदारों ने
उसे मारना चाहा,
लेकिन हर समय अपनी
चतुराई और कुशलता के कारण वह बचता रहा।
ऐसे चतुर, चालाक और चुस्त
मुल्ला नसरुद्दीन
की कहानी
यहाँ प्रस्तुत है।

मुल्ला नसरुद्दीन


शाम के सूरज की किरणें बुखारा शरीफ़ के अमीर के महल के कंगूरों और मस्जिदों की मीनारों को चूमकर अलविदा कर रही थीं। रात के क़दमों की धीमी आवाज़ दूर से आती सुनाई देने लगी थी।
मुल्ला नसरुद्दीन ऊँटों के विशाल कारवाँ के पीछे-पीछे अपने सुख-दुख के एकमात्र साथी गधे की लगाम पकड़े पैदल आ रहा था। उसने हसरत-भरी निगाह बुखारा शहर की विशाल चारदीवारी पर डाली, उसने खूबसूरत मकान को देखा, जिसमें उसने होश की आँखें खोली थीं, जिसके आंगन में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था। किंतु एक दिन अपनी सच्चाई, न्यायप्रियता, गरीबों तथा पीड़ितों के प्रति उमड़ती बेपनाह मुहब्बत और हमदर्दी के कारण उसे अमीर के शिकारी कुत्तों जैसे खूँखार सिपाहियों की नजरें बचा कर भाग जाना पड़ा था।

जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था—बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी, सराय, तिफ़सिल, दमिश्क, तबरेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में। कभी उसने अपनी रातें चरवाहों व छोटे से अलाव के सहारे-ऊँघते हुए गुजारी थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन-भर के थके-हारे ऊँट सारी रात धुँधलके में बैठे, अपने गले में बँधी घंटियों की रुनझुन के बीच जुगाली करने, अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे। कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और ग़धे वाले गरीब मजदूरों और फ़क़ीरों के बीच में, अपने अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद में सारी रात सोते-जागते गुज़ार देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाज़ार फिर से गूँजने लगते थे।

नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों और बाज़ार के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुजरती थीं उनकी वासना की प्यास बेगमें किसी भी मर्द की बाँहों में रात गुजारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।
पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। वह अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाखानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।

जालीदार खूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़कियों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंख को सँवारने लगी थीं। आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘वक्त हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।’
‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया।
‘नहीं दिलरुबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा !’
‘क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो ? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेज दूँगी।’
‘नहीं, मेरी मलिका। मुधे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, ‘एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना।’

‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो ? क्या किसी दूसरे शहर में कोई ज़रूरी काम है ?’
‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफर पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज़ तुम्हें सुनाई दे रही है ना ? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गये हैं। मैं अब नहीं रुक सकता।’
‘तो फिर !’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराजी के साथ कहा, ‘‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’

‘मेरा नाम ?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नज़रों में नज़रें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी। मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बग़ावत और झगड़े फैलाने वाला मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। कल अमीर के सिपाही मुझे पकड़ने वाले को तीन हजार तूमान देने का लालच दे रहे थे। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी कीमत पर मैं खुद ही अपना सिर इनके हवाले कर दूँ।’

मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हँस पड़ी।
‘तुम हंस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल ?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द-भरी आवाज में कहा, ‘लाओ, आखिरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो। जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ-कोई जेवर। लेकिन जेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना।’

इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह जल चुकी थी।
उसने एक बार फिर बेगम का चुम्बन लिया और चुपचाप दरवाजे से निकल गया।
दरवाजे़ पर महल के खज़ाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे लगा रहा था।

सामने ही गलीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।
मुल्ला नसरुद्दीन बिना कोई आवाज किए बाहर निकल आया। हमेशा की तरह सकुशल। फिर वह सिपाहियों की नज़रों सो छूमंतर हो गया।
एक बार फिर उसके गधे की तेज़ टापों से सड़क गूँजने लगी थी। धूल उड़ने लगी थी और नीले आकाश पर सूरज चमकने लगा था। मुल्ला नसरुद्दीन बिना पलकें झपकाए उसकी ओर देखता रहा।
एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना, अतीत की यादों की किसी भी कसक के बिना और भविष्य में आने वाले संकटों से निडर वह अपने गधे पर सवार हो आगे बढ़ता चला गया।

लेकिन अभी-अभी वह जिस कस्बे को छोड़कर आया है, वह उसे कभी भूल नहीं पाएगा। उसका नाम सुनते ही अमीर और मुल्ला क्रोध से लाल-पीले होने लगते थे। भिश्ती, ठठेरे, जुलाहे, गाड़ीवान, जीनसाज़ रात को कहवाख़ानों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियां सुना-सुनाकर अपना मनोरंजन करते; और वे कहानियाँ कभी भी समाप्त न होतीं। उसकी प्रसिद्धि और ज़्यादा दूर तक फैल जाती।

अमीर के हरम में अलसायी हुई बेगम बार-बार सफ़ेद पत्थर के उस टुकड़े को देखती और जैसे ही उसके कानों से पति के कदमों की आवाज़ टकराती, वह उस सीप को पिटारे में छिपा देती।

जिहरवख़्तर की खिलअत को उतारता, हाँफता-काँपता मोटा अमीर कहता, ओह, इस कम्बख़्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है। पूरे देश को उजाड़ कर गड़बड़ फैला दी है। आज मुझे अपने पुराने मित्र खुरासान के सबसे बड़े अधिकारी का पत्र मिला था। तुम समझती हो ना ? उसने लिखा है कि जैसे ही यह आवारा उसके शहर में पहुँचा अचानक लुहारों ने टैक्स देना बंद कर दिया और सरायवालों ने बिना की़मत के लिए सिपाहियों को खाना खिलाने से इनकार कर दिया। और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वह चोर, वह बदमाश हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताख़ी कर बैठा। उसने हाकिम की सबसे अधिक चहेती बेगम को फुसला लिया। विश्वास करो, दुनिया ने ऐसा बदमाश आज तक नहीं देखा। मुझे इस बात का अफसोस है कि उस दो कौड़ी के आदमी ने हरम में घुसने की आज तक कोशिश नहीं की। अगर मेरे हरम में घुस जाता तो उसका सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटका दिखाई देता।’



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