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नारी विमर्श >> शाल्मली

शाल्मली

नासिरा शर्मा

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3529
आईएसबीएन :81-7016-177-0

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शाल्मली नासिरा शर्मा का एक ऐसा विशिष्ट उपन्यास है जिसकी ज़मीन पर नारी का एक अलग और नया ही रूप उभरा है।

Shalmali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

* शाल्मली नासिरा शर्मा का एक ऐसा विशिष्ट उपन्यास है जिसकी ज़मीन पर नारी का एक अलग और नया ही रूप उभरा है। शाल्मली इसमें परम्परागत नायिका नहीं है, बल्कि वह अपनी मौजूदगी से यह अहसास जगाती है कि परिस्थितियों के साथ व्यक्ति का सरोकार चाहे जितना गहरा हो, पर उसे तोड़ दिये जाने के प्रति मौन स्वीकार नहीं होना चाहिए।

* ‘शाल्मली’ सेमल के दरख़्त की तरह है जिसका अंश-अंश संसर्ग में आने वाले को जीवन दान करता है लेकिन उसका पति नरेश इस सच को स्वीकार करने की जगह अपनी कुठांओं में जीता है, अपने स्वार्थों को शाल्मली के यथार्थ आचरण से ऊपर समझता है। वह हिसाबी-किताबी जीव है; लेकिन जिन्दगी की सच्चाई के साथ उसका समीकरण गलत है।

* ‘शाल्मली’ एक बड़ी अफसर है। बावजूद इसके वह बेहद सामान्य है। पति माता-पिता और सास के साथ उसके रिश्ते सच के नजदीक हैं। यही उसकी खूबी है कि वह नौकरशाह होते हुए भी, उस वर्ग से कटी हुई है और एक आम भारतीय नारी के यथार्थ को जीती है।
*  लेकिन ‘शाल्मली’ दया और करुणा में डूबी अश्रू बहाने वाली उस नारी का प्रतीक भी नहीं है जिसे पुरुष सत्ता की गुलामी में सब कुछ खो देना पड़ता है। वह सामान्य होते हुए भी असाधारण है और चुनौती के तेवर रखती है।

नासिरा शर्मा ने निश्चय ही यह उपन्यास बड़ी मेहनत से लिखा है। इसकी भाषा में कविता की लय और विचार में निरंतरता को उन्होंने बड़ी खूबी से संवारा है।

मैं केवल एक सूखा वृक्ष-भर रह गई हूँ;
न फल, न फूल, न शाख, न पत्ती, न छाया, न ठंडक
ऐसे सूखे वृक्ष की शरण में भला कौन आना पसन्द करेगा !
धरती ने तो जैसे अपने स्रोत समेट लिए हैं,
तभी तो मेरी तरावट को तरसती धरती छोड़ने लगी है।
 सरस्वती को सादर समर्पित

जब से यह शंकवाकार कांटे वाला वृक्ष फूला है, कितनी तरह के पक्षियों से यह भर उठा है ! कभी मैना, कभी बुलबुल, कभी गुरसलें, कभी शकरख़ोर, और तो और कौवे तक इस फूल के प्याले में अपनी चोंच डालकर रस पीते हैं।.....एक चहचहाहट भरा उजाला, एक उल्लासित उत्सव का-सा आनंद इस वृक्ष  ने पूरे बग़ीचे के वातावरण में भर दिया है। शाल्मली तने को छूती है, फिर नाखून से उसकी हलके धूसर रंग की चिकनी छाल पर निशान-सा बना देती है।


शाल्मली


मैं केवल एक सूखा वृक्ष-भर रह गई हूँ। न फल न फूल, न शाख, न पत्ती, न छाया, न ठंडक
ऐसे सूखे वृक्ष की शरण में भला कौन आना पसन्द करेगा ?
धरती ने तो जैसे अपने स्रोत समेट लिए हैं, तभी तो मेरी जड़ें तरावट को तरसती, धरती छोड़ने लगी हैं। ऐसा सूखा छायारहित ठूंठ वृक्ष तो बस जलाने के काम का रह जाता है। लपटों के बीच कोयला बनती काली काया।

दरवाजे की घन्टी बज उठी, शाल्मली के हाथ सब्जी काटते-काटते रुक गए, सोच का सिलसिला बिखर गया, हाथ का चाकू सब्जी की टोकरी में डालकर वह उठ खडी़ हुई और आंचल से चेहरे पर आए पसीने को पोंछते हुए तेजी से दरवाजे के पास पहुँची। दरवाजा खोला, सामने नरेश खड़ा था। वह हल्के से मुस्कराई....मगर उत्तर में उसे केवल एक कड़ी नजर झेलनी पड़ी। सपाट चेहरे के साथ नरेश घर में दाखिल हुआ। शाल्मली ने थके हाथों से दरवाजा बन्द किया और धीरे-धीरे रसोई की तरफ बढ़ी।

पिछले दो वर्षों से वह इस शीत-युद्ध की आदी हो चुकी थी, बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि वह हर प्रकार के संग्राम में आँखें बन्द करके कूद जाने के लिए मजबूर कर गई थी। गृह-युद्ध में नरेश ने किस लड़ाई का बिगुल बजाया है, आभास मिलते ही वह अपने बचाव का कवच पहने अन्दर से सावधान की मुद्रा में खड़ी हो जाती थी। हर गुजरने वाला क्षण उसे होशियार .....! खबरदार ....! की आवाज से सचेत करता था। उसके अवचेतन में खतरे की बू सूंघने की एक विचित्र शक्ति अंकुरित हो गई थी। भले ही वह ऊपर से शांत और सामान्य बने रहने की चेष्टा करती हो, मगर सहजता तो उसके अन्दर से जाने कहां गायब हो गई थी। हरदम एक खटका, एक धड़का लगा रहता था कि देखो, अब आगे क्या होता ....?

‘‘तुमने वह कागज पहुँचा दिया था ?’’ नरेश की आवाज गूंजी।
‘‘पहुंचा दी थी, मगर काम हुआ नहीं।’’ चाय की ट्रे मेज पर रखते हुए शाल्मली ने कहा।
‘‘तुम क्या कर पाओगी मेरा काम....? मुझे  पता था.....खैर, वह लिफाफा मुझे दो ! मैं स्वयं कल जाकर काम पूरा कर लूँगा।’’ कुढ़े अन्दाज से नरेश ने कहा और शाल्मली की बढ़ाई प्याली पकड़ी।

‘‘जाने से पहले तीसरे पन्ने पर हस्ताक्षर जरूर करा लेना, वरना मेरी तरह तुम्हें भी लौटना पड़ेगा।’’ शाल्मली ने मुस्कुराते हुए चाय की चुस्की भरी। उसके इस तरह कहने से नरेश के चेहरे की कठोरता कुछ कम हुई, मगर बोला कुछ नहीं। उसी गम्भीरता को ओढ़े हुए वह नहाने चला गया। शाल्मली के चेहरे पर खेलती मुस्कराहट दम तोड़ गई, एक थकावट भरी उदासी ने उसे दबोच लिया, कुछ पल वह चाय की प्याली को देखती रही, फिर कमरे में फैले नरेश के ब्रीफ़केस, शर्ट और जूतों को उनके स्थान पर रखने लगी।

विवाह के कुछ दिन बाद से ही उसे लगने लगा कि उनके बीच कुछ टूटा था, जिससे एक ही ध्वनि गूंजी थी कि नरेश पति है और वह पत्नी। स्वामी और दासी का यह सम्बन्ध एक काली छाया बन उसके और नरेश के बीच एक मजबूत दीवार का रूप धरने लगी थी। उसने आरम्भ में बहुत हाथ-पैर मारे। मानवीय सम्बन्धों की गहराई को परम्परागत चले आए पति-पत्नी के रिश्तों से अलग हट-कर एक पारस्परिक समझ और बराबरी के स्तर पर उसे समझाने की कोशिश की थी, मगर बात उससे बिगड़ी थी, वह घबराकर पहली कही बात को विस्तार से समझाने की अधिक कोशिश करती मगर फिर उससे बात बन न सकी, बल्कि बिगड़ती ही चली गयी। उसके विवाहित जीवन में गहन लगना था, सो लग गया। उसका संकल्प, संघर्ष, उसकी चुनौती जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण, सब कुछ एकाएक ढहते नजर आए। जीवन का यह रूप कभी नहीं सोचा था, मगर प्रश्न उसके सोचने का नहीं, किसी दूसरे के सोचने का था और इसी विभ्रम ने दोनों के आधे-आधे चेहरे ढक लिय थे, जो शेष आधे चेहरे बचे थे, वे भी धुंधला कर स्याही की चपेट में आ रहे थे। एक-दूसरे पर आरोप लगाते, एक-दूसरे के प्रति द्वेष रखते हुए। अपनी सारी कोशिशों के बाद उसे लगने लगा था कि कहीं यह गहन पूरा का पूरा उसके विवाहित जीवन  को निगल न जाए ?
 
विवाह से पहले जो मुलाकातें नरेश से हुई थीं, उससे तो उसने यही अर्थ निकाला था कि नरेश चीजों को कुछ अलग ढंग से देखता है। यह सोचकर वह खुश भी हुई थी कि एक तरह की सोच उनके जीवन में नीरसता तो नहीं भरेगी। दोनों एक साथ रहकर अपने-अपने दष्टिकोण से जीवन को अधिक रसिकता प्रदान करेंगे, उनके पास कहने-सुनने को बहुत होगा। ऊब जैसा अभिशाप उनके घर की ड्योढ़ी भी लांघ नहीं पाएगा मगर यहाँ तो संवाद की एक ही धुरी है कि......
‘‘तुम ठहरीं एक आधुनिक विचारों की महिला....विचारों में स्वत्रन्त्र, व्यवहार में उन्मुक्त, तुम्हारे संस्कार....।’’

यह वाक्य उसके आदाम-कद वजूद पर चिपका दिया गया है, जो दूर-करीब हर कोण से चमक उठता है। आधुनिकता की जो परिभाषा नरेश देता है, उसके विश्लेषण को सुनकर स्वयं शाल्मली को शब्द ‘आधुनिकता’ से घृणा होने लगती है। पिछले बीस साल से उसे कदम-कदम पर यही बताया गया था कि उसे कक्षा में प्रथम आना है, प्रत्येक प्रतियोगिता में भाग लेना है, पूछे गये प्रश्नों का भली प्रकार उत्तर देना है और अपने को निरन्तर खोजते रहना है। विद्यालय में उसकी जीव-विज्ञान की अध्यापिका ने बताया था कि मस्तिष्क खत्म होने वाली निधी नहीं है। इसका प्रयोग जितना करोगी उतना ही बढ़ेगा। तर्क और तथ्य को ढूंढने की उसकी शक्ति को देखकर हमेशा पिताजी मां से कहते, ‘‘देखना, एक दिन वह बड़े-बड़ों के कान कुतर डालेगी। खूब नाम कमाएगी। मेरा सर ऊँचा करेगी।’’

‘‘लड़की पराया धन है, पति के घर सुख से रहे, यही सबसे बड़ा आशीर्वाद है, बाकी तो ....।’’ मां हंसकर कहतीं।
‘‘तुम नहीं बदलोगी, श्यामल, आज औरत का कर्तव्य पत्नी बनने तक सीमित नहीं है। समय बदल रहा है। समाचार-पत्र तो तुम पढ़ती नहीं हो वरना वह लेख पढ़ती, तो पता चलता कि संसार में क्या हो रहा है। अच्छा, लाओ, मैं ही पढ़कर सुनाता हूँ। शालू बेटी, जरा मेरा चश्मा तो उठाना।’’ इतना कहकर पिताजी मां को लेख सुनाते और साथ-ही-साथ बीच-बीच में आए नामों; और घटनाओं को विस्तार से समझाते, ताकि लिखे गए वाक्य का संदर्भ मां की समझ में आ जाए।
 
सच तो है। स्वतन्त्रता के बाद शिक्षा के प्रसार का आन्दोलन गाँव-गाँव पहुँचा था। पिताजी बताते हैं कि उस समय जो बच्चों को पाठशाला नहीं भेजता था उससे तलब किया जाता था। पेशेवर लोगों के बच्चे भी पढ़ने आने लगे थे। जिन्हें पता था कि उन्हें बाप-दादा का पेशा ही करना है, फिर आज उसी शिक्षा के नाम पर कटाक्ष क्यों ? पुरानी मान्यताएं सड़-गलकर लुप्त हो चुकी हैं, उनकी आज दुहाई क्यों ? समाज को आगे जाना है या पीछे ?
‘‘भोजन बन गया है, तो .....।’’ नरेश की आवाज उसे दूर से आती सुनाई पड़ी।
‘‘अभी लगाती हूँ।’’ कहते हुए शाल्मली काटे सलाद पर नमक छिड़कने लगी।
‘‘देर है क्या ?’’ नरेश का ऊब भरा स्वर उभरा।
‘‘नहीं, खाना परोसती हूँ, बस। कहते हुए शाल्मली तेजी से थाली में कटोरी सजाने लगी।
‘‘एक दिन महाराजिन न आए, तो तुम्हारी दशा देखते बनती है।’’ नरेश ने शाल्मली के चेहरे पर चुहचुहाती पसीने की बूँद देखकर कहा।

‘‘घर और दफ्तर कुल मिलाकर थकन तो हो ही जाती है।’’ शाल्मली ने गिलास में पानी डालते हुए कहा।
‘‘उफ ! फिर वही सब्जी...! भई मैं खाना नहीं खा पाऊंगा।’’ कहते हुए नरेश उठ खड़ा हुआ।
‘‘थोड़ा चखकर तो देखो न ! ’’शाल्मली मनुहार करते हुए बोली।
‘‘अब ज्यादा विनम्र बनने की चेष्टा मत करो, समझीं !’’ नरेश ने अपना बाजू शाल्मली के हाथ से छुड़ाते हुए कहा।
‘‘गुस्सा थूक दो ...! तुम्हें मेरी सौगन्ध!.....बैठ जाओ !’’ शाल्मली ने नरेश की कही बात को अनसुना करते हुए कहा।
‘‘मन नहीं !’’ कहता हुआ नरेश दरवाजे की तरफ बढ़ा।
‘‘अब इस समय बाहर कहां जा रहे हो ?’’ शाल्मली ने आवेश को दबाते हुए पूछा।
‘‘ऐसी पत्नी जो अपने को पति से अधिक चतुर, सुदृढ और व्यवहार कुशल समझती हो, उसके पति के भाग्य में ढाबे का खाना ही लिखा है।’’ नरेश ने घृणा से कहा।

शाल्मली अपमानित-सी खड़ी रह गई। यह कैसा पति है, जो जरा-जरा-सी बात पर घर से बाहर की तरफ भागता है, जिसके व्यक्तित्व में जरा भी ठहराव नहीं है, उसे बांधकर रखना हथेली पर सरसों जमाना जैसा है ! शाल्मली ने चुपचाप परोसी थाली उठाई और रसोई में जाकर रख दी। क्रोध से उसकी कनपटी फटने लगी थी, मगर वह सहिष्णुता में अपने को संभाले खड़ी रही।

‘‘मैं थोड़ी देर में आऊंगा।’’ नरेश ने कपड़े बदल लिए थे।
‘‘पता है....सिद्धार्थ से कहना कि उसका काम हो गया।....’’ कहते हुए शाल्मली आगे बढ़ी। उसकी कही बात से नरेश का चेहरा पल भर के लिए लाल हुआ, जैसे फिर वहीं कठोरता का पर्दा गिर गया।

‘‘कुंड़ी बाहर से लगा लेना, शायद मैं तब तक सो जाऊं।’’ कहते हुए शाल्मली ने रसोई समेटी। उसकी भूख मर चुकी थी। बिना खाना खाए वह आफिस से लाई फाइलों को उलटती-पलटती रही, फिर उपन्यास उठा कर बिस्तर पर लेट गई।
जिस दिन दफ्तर में पीने-पिलाने का कार्यक्रम तय होता है, उस दिन नरेश का मूड घर से उखड़ा रहता है, ताकि वह अपने अकेले जाने और देर से लौटने के कारण को तर्क बना सके। शाल्मली को यह बात पता है, इसलिए आज उसने जानकर सिद्धार्थ वाली बात कहीं थी। एक शाम दोस्तों के साथ यदि पीने-पिलाने में गुजारनी है तो घर से लड़कर, पत्नी पर लांछन लगाकर जाने की क्या जरूरत है।


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