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विष-बीज

सूर्यकांत-नागर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :76
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3522
आईएसबीएन :81-7016-779-5

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छोटी-छोटी लघुकथाओं पर आधारित पुस्तक....

Vish beej

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दादी माँ पहले कुत्ता पालने का विरोध कर चुकी थीं। बड़ी मुश्किल से बच्चों और बड़ों को ऐसा करने से रोका गया था, लेकिन इस बार वह ऐसा नहीं कर पाईं। बच्चों की जि़द के आगे हथियार डाल उन्हें बिल्ली पालने की इजाज़त देनी पड़ी। घर में पहाड़ी नस्ल की सफेद झक झबरीली बिल्ली आ गई। बच्चे और एक हद तक बड़े भी उसी में उलझ गए कोई उसे दूध पिला रहा है, कोई नहला रहा है, कोई उसके साथ खेल रहा है।

वह सबसे हिल-मिल गई है। मगर दादी माँ उसे अपने नज़दीक फटकने भी नहीं देतीं। यहाँ-वहाँ गन्दा कर देती है तो बहुत नाराज़ होती हैं। पूजाघर और रसोई में बिल्ली का प्रवेश वर्जित है। भूले-भटके प्रवेश कर जाती है तो दादी माँ आसमान सिर पर उठा लेती हैं। बिल्ली को बुरी तरह कोसती ही हैं, घर वालों की भी खबर लेती हैं। यदि बच्चे बिल्ली को अपने साथ लिटा लेते है तो दादी का पारा एकदम ऊपर चढ़ जाता है। इसके बावजूद पिंकी (हाँ, यही नाम है बिल्ली का) दादी माँ का प्यार पाने की कोशिश करती रहती है। अपनी पीठ को दादी के पैरों में रगड़ती हुई, पूँछ को लहराती हुई उनके पास जाती है, लेकिन बदले में उसे मिलती दुतकार, डाँट। ऐसे में कई बार दादी माँ उसे पैरों से दूर धकेल देती हैं।

उस बार घर के लोग नज़दीकी रिश्ते की शादी में शामिल होने के लिये बड़ौदा गए हुए थे। घर पर अकेली दादी थीं। हफ्ता-भर बाद लौटे तो वह दृश्य देखकर चकित रह गए, अभिभूत भी हुए। उन्होंने देखा, पिंकी ने घर के एक कोने में पाँच बच्चों को जन्म दिया है और दादी माँ दुलराते हुए उसे दूध और हलवा खिला रही हैं।


प्राक्कथन


इसमें संदेह नहीं कि लघुकथा ने विधा-सी प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है और उसे अनदेखा करना संभव नहीं रह गया है। हालाँकि सच यह भी है कि लघुकथा को लेकर बहस आज भी जारी है। बहस इस बात को लेकर है कि लघुकथा पूर्वपेक्षा आगे बढ़ी है अथवा लगभग वहीं है, तीन दशक पूर्व जहाँ थी। कुछ का मत है कि काफी कूड़ा-करकट लिखा जा रहा है। पुराने विषयों को घिसे-पिटे ढंग से दोहराया जा रहा है। अधिकांश संपादकों की शिकायत है कि उनके पास आने वाली लघुकथाओं में प्रकाशन योग्य रचनाओं को तलाश पाना सागर से मोती खोज पाने जैसा कठिन और श्रमसाध्य कार्य है।

इसके विपरीत ऐसे लोग भी हैं जिनका मत है कि भाषा, शिल्प, विचार और कथ्य के स्तर पर काफी कुछ बदला है। नए प्रतिभाशाली रचनाओं में जागरुकता बढ़ी है। बदलते यथार्थ के रचनात्मक स्वरूप को सामने लाने के लिए वे लघुकथा में रूपात्मक बदलाव ला रहे हैं। लघुकथा अधिक सांकेतिक, कलात्मक और काव्यात्मक हुई है। वैदिक शिल्प में सूक्तियों के दोहराव में कमी आई है। स्व० रघुनंदन त्रिवेदी, विष्णु नागर, चैतन्य त्रिवेदी, स्व० रमेश बतरा, बलराम, जगदीश अरमानी, सुकेश साहनी, बलराम, अग्रवाल आदि इसके प्रमण हैं। लघुकथा में शोर व नारेबाज़ी भी कम हुई है। प्रतिष्ठित व स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में उन्हीं लघुकथाओं को स्थान मिल पा रहा है, जिनमें नयापन है-दृष्टि और अभिव्यक्ति-कौशल के स्तर पर।

इधर कला के नाम पर कुछ लघुकथाएँ काफी अमूर्त हो चली हैं। यह सही है कि कला और कल्पना में ही रचना का सौंदर्य निहित है। शिल्प और भाषा ही संवेदना के सच्चे वाहक हैं। लेकिन अतिकलावादिता प्रायः संवेदना के संप्रेषण में बाधक होती है। अतः कला और फैंटेसी को उस हद तक जाना चाहिए, जिस हद तक वह लघुकथा को खूबसूरत और प्रभावी बनाती हो। रचना में ऐसे सूत्र होने चाहिए, जिन्हें पकड़कर पाठक रचना के अंदर प्रवेश कर सके, उसके मर्म को समझ सके। मेरी कोशिश प्रायः इसी दिशा में है।

संकलन की कथाओं के बारे में कोई बड़ा दावा करने की स्थिति में मैं अपने को नहीं पाता हूँ। प्रयास यही रहा है कि लघुकथा के माध्यम से कोई बारीक बात कही जाए, चाहे फिर वह स्खलित होते मानवीय व नैतिक मूल्यों की हो, मनुष्य के दोहरे और दोगलेपन की हो, पारिवारिक रिश्तों की हो, सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों-विषमताओं की हो, स्त्री विमर्श की हो या मनोविज्ञान की हो ! इन्हीं विषयों के इर्द-गिर्द लघुकथाएं बुनने का प्रयास रहा है। रचनात्मकता का तक़ाज़ा है कि वह पड़ताल करे कि आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दबावों का मनुष्य-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है; वह टूट क्यों रहा है ? हर स्तर पर उसके बिखराव का कारण क्या है ? संकलन की लघुकथाएँ इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है।

संग्रह की कथाओं में ‘रावण-दहन’, ‘प्रदूषण’, ‘ममत्व’, ‘कुकिंग क्लास’, ‘विष-बीज’, ‘आकलन’ ‘दृष्टिकोण’, ‘विकास’, ‘आत्म-सुख’, ‘धर्म-कर्म’, ‘बाज़ार’, ‘माँ’, ‘देवी’-पूजा’ आदि लघुकथाएँ मुझे विशेष रूप से प्रिय हैं। वैसे लेखक को अपनी हर रचना अच्छी लगती है, मगर असल में वह स्तरीय, सर्वमान्य और निर्दोष है या नहीं, इसका निर्णय तो प्रबुद्ध पाठक और तटस्थ आलोचक ही कर सकते हैं। लेखक के लिए ज़रूरी यह है कि वह ईमानदारी से आत्म-समीक्षा करे तथा स्वस्थ एवं रचनात्मक आलोचना पर गौर कर, उसकी रोशनी में आगे बढ़ने का प्रयास करे। इस प्रयास के साथ यात्रा जारी रखने की कोशिश की जाती रहेगी, फिलवक्त इसी का भरोसा दिलाया जा सकता है।


सूर्यकान्त नागर


रावण-दहन



दशहरे के अवसर पर रावण-दहन का कार्यक्रम आयोजित था। कालोनी के विस्तृत मैदान पर रावण का दीर्घकाय पुतला खड़ा किया गया था। भारी भीड़ जमा थी। मुख्य वक्ता और अध्यक्ष के रूप में विशालकाय नेताजी आमंत्रित थे। रावण-दहन इस बार कालोनी के ही एक प्रतिभाशाली किशोर बालक के हाथों कराना तय हुआ था। सर्वप्रथम नेताजी ने अनैतिकता, अन्याय और अनाचार के विरुद्ध आग उगलता भाषण दिया और बुराई के प्रतीक रावण को जलाने का आह्वान किया।

जानलेवा भाषण के पश्चात् बारह वर्षीय किशोर को रावण-दहन के लिए आमंत्रित किया गया। मंच पर आसीन लोग उत्साह के साथ रावण के पुतले की ओर बढ़े। वहाँ पहुँचकर बालक से रावण-दहन करने के लिए कहा गया। वह कुछ देर असमंजस की स्थिति में खड़ा रहा। उसने एक बार बार रावण के पुतले को देखा और फिर खड़े नेताजी को। फिर आयोजकों से पूछा-‘‘यह तो बताइए, जलाना किसे है ?’’


ममत्व



सुदूर प्रदेश से आगे की पढ़ाई के लिए आया मामूली हैसियत वाला वह लड़का मेरे यहाँ एक कमरा किराए पर लेकर रह रहा है। ट्यूशनें कर जैसे-तैसे अपना काम चलाता है। हाथ तंग होने से साल-भर से अपने गाँव भी नहीं गया है।
पर उसकी वृद्धा माँ से न रहा गया। तीर्थयात्रा से लौटते हुए वह बीच में ही यहाँ उतर गई और पूछते हुए बेटे के घर तक पहुँच गई। बेटा ट्यूशन पर गया हुआ था। मैंने वृद्धा को अपने घर में बैठाया। बैठते ही वह बेटे के बारे में पूछने लगी। कैसा है वह ? दुबला तो नहीं हुआ ? कब कालेज जाता है, कब आता है ? कहाँ खाता है ? क्या करता है ? आदि–आदि उसकी हर बात से बेटे के प्रति चिन्ता और उससे मिलने-देखने की उत्सुकता प्रकट हो रही थी। आखिर उससे न रहा गया, सहसा पूछ बैठी, ‘‘कौन-सा कमरा है मेरे बेटे का ?’’

चूँकि लड़का कमरे की चाबी हमारे यहाँ ही छोड़ जाता था, ताला खोलकर मैं उसे उसके बेटे के कमरे में ले गया। भरपूर नज़र से वह कमरे की एक-एक चीज़ को देखने लगी। देखने क्या लगी तौलने लगी। अजीब-सी जिज्ञासा थी उसकी आँखों में।
‘‘बैठो, मैं तुम्हारे लिए पानी लेकर आता हूँ।’’
फर्श पर बिछे अस्त-व्यस्त बिस्तर के एक छोर पर वह बैठ गई। लौटकर आया तो भौंचक रह गया। देखा, आत्मविभोर माँ चीकट हो आए उस तकिए को चूम रही थी, जिसे उसका बेटा सिरहाने रखकर सोता है। फिर आहिस्ता-आहिस्ता वह बिस्तर को सहलाने लगी। उसकी आँखों से गिरे आँसू न केवल बिस्तर को, बल्कि मुझे भी अन्दर तक भिगो गए। लगा बिस्तर को नहीं वह अपने बेटे को सहला रही है।


विष-बीज



डोनेशन और झूठा बर्थ सर्टिफिकेट देने के बाद नन्हे संदीप को स्कूल में दाखिला मिल गया। अगले दिन ड्रेस और बस्ता दिलाने के लिए मैं उसे बाज़ार ले गया। दुकान में कुछ ग्राहक पहले से मौजूद थे और दुकानदार उसमें उलझा हुआ था। गर्मी कुछ अधिक ही थी। दुकान का पंखा मरी-मरी-सी हवा फेंक रहा था। कुछ देर बाद संदीप ने कहा, ‘‘पापा प्यास लग रही है, पानी पिलवा दीजिए न !’’ खरीदारी करते समय दुकानदार से पानी माँगकर पिलवाने का पिछला अनुभव उसके साथ था। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। दुकान के कोने में पड़े साफ-सुथरे मटके और गिलास को देखते हुए उसने फिर जिद की, मैंने फिर अनसुना कर दिया। उसने माँग दोहराई तो सावधानी से इधर-उधर देखते हुए मैं अपना मुँह बेटे के मुँह के पास ले गया और धीमे से ऐसे कहा, जैसे मैं कोई बहुत रहस्य की बात बता रहा हूँ, ‘‘यह मुसलमान की दुकान है।’’
मैंने सोचा था। सुनकर वह चौंकेगा और धर्म-भ्रष्ट होने जैसी किसी बात का खयाल कर अपना विचार त्याग देगा। मगर मैंने देखा, उसका चेहरा सपाट था। मेरी बात का उस पर कोई असर नहीं हुआ था। एक क्षण रुककर उसने पूछा, ‘‘पापा, यह मुसलमान क्या होता है ?’’

मैं बगलें झाँकने लगा; भय था कि दुकानदार ने यह सब सुन न लिया हो। मुझे चुप देख संदीप ने फिर पूछा, ‘‘मुसलमान की दुकान का पानी पीने से क्या होता है पापा ?’’
मैंने बेटे के मुँह पर हाथ धर दिया और खींचकर उसे जल्दी से बाहर ले आया। लग रहा था मुलायम जमीन पर बबूल और थूअर बो दिए जाने का पाप मुझसे हो गया है।


तीसरा बेटा



घबराई हुई वृद्धा, हृदयाघात से कराहते, पसीने-पसीने होते पति को आटोरिक्शा में डाल निजी चिकित्सालय में लाई। स्ट्रेचर पर डालकर जब मरीज़ को चिकित्सा-कक्ष में लाया गया तो युवा डाक्टर ने पूछा, ‘‘माँजी, क्या आपने नर्सिग होम की सारी औपचारिताएं पूरी कर दीं ?’’
वृद्धा ने निरीह आँखों से डाक्टर को देखा। उन आँखों में बहुत कुछ था- भय दुश्चिंता और अनिश्चित भविष्य की आशंका।

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