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श्रंगार - प्रेम >> पलछिन

पलछिन

समीर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :285
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3505
आईएसबीएन :0000

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एक नया उपन्यास...

Palchhin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


बंगला दुल्हन की तरह सजा हुआ था...बाहर कारों की कतारें खड़ी थीं। अँदर सजे हुए लॉन में मेहमानों की भीड़ थी। ज्योति के शरीर पर झिलमिल करता हुआ कीमती लबादा था, जिसमें वह अप्सरा-सी नजर आ रही थी। आने वाले मेहमान उसे गुलदस्ते और तोहफे देते हुए कह रहे थे—
‘‘मैनी-मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ दी डे।’’
‘‘वैरी वैरी थैंक्स।’’
ज्योति तोहफे लेकर साथ खड़े नौकर को देती जाती जो पास रखे बड़े मेज पर रखे जाता...लेकिन ज्योति की निगाहें बार-बार फाटक की तरफ उठ जातीं, जैसे किसी का बेचैनी से इन्तजार हो।
अचानक एक बिल्कुल नई चमचमाती हुई मर्सिडीज कार अंदर आई और ज्योति का दिल खुशी से चमक उठा और वह पुकार उठी—
‘‘आ गए डैडी।’’
फिर जब वह सामने आने वाले मेहमान को छोड़कर बड़े उत्साह से कार की ओर झपटी तो सारे मेहमान कार की ओर आकृष्ट हो गए।
‘‘सेठ साहब आ गए।’’
‘‘वाह ! कितनी शानदार गाड़ी लाए हैं बेटी को उपहार में देने के लिए।’’
‘‘मर्सिडीज का लेटेस्ट मॉडल है।’’
‘‘बीस-लाख से कम का नहीं होगा।’’
‘‘अरे ! सेठ साहब के पास दौलत की क्या कमी है।’’
‘‘फिर इकलौती बेटी है।’’

ज्योति जैसे ही कार के पास पहुंची, कार का दरवादा खुला और उसमें से ड्राइवर ने उतरकर शिष्टता से हाथ जोड़कर नमस्कार किया तो ज्योति के मस्तिष्क को झटका-सा लगा...उसके चेहरे का रंग उतर-सा गया..उसने पूछा—
‘‘डैडी कहां हैं ?’’
‘‘वह...अचानक जापान से एक पार्टी आ गई और मालिक को उनके साथ होटल सैन्टूर जाना पड़ा।’’
‘‘कब तक आएंगे ?’’
‘‘मुझे पता नहीं मेमसाहब।’’
ज्योति के चेहरे से बेचैनी-सी झलकी...वह तेजी से मुड़ी और लगभग दौड़ती हुई बंगले के अन्दर पहुंच गई। ऊपर अपने कमरे में आकर उसने मोबाइल संभालकर नम्बर मिलाए और रिसीवर कान से लगा लिया..कुछ देर तक टूं-टूं की आवाज गूंजी, फिर एक मर्दाना आवाज गूंजी—‘हैलो !’’
‘‘डैडी ! मैं ज्योति हूं।’’
‘‘अरे बेटी ! मेनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ दी डे।’’
‘‘थैंक्यू डैडी।’’
‘‘हमारा उपहार मिल गया ?’’
‘‘मर्सिडीज...लोग बहुत तारीफ कर रहे हैं।’’

‘‘अरे बेटी ! हम तो जल्दी ही तुम्हारे लिए प्लेन खरीदने वाले हैं।’’
ज्योति अपने उसी मूड में बोली—‘‘डैडी ! मुझे कार की जरूरत नहीं..कई कारें हैं मेरे पास पहले ही—मुझे आपकी जरूरत है।’
‘‘बेटी... हम...।’’
‘‘ड्राइवर ने बताया कि आप कोई जापानी पार्टी अचानक आ गई है जिसके साथ डील के लिए आप होटल सैन्टूर गए हैं।’’
‘‘बेटी ! कई करोड़ की डील के बाद सौदा हो जाए तो तुम टोकियो घूमने जा सकती हो।’’
‘‘मुझे नहीं जाना टोकियो-वोकियो—क्या करेंगे आप इतनी दौलत का ? मैं आपकी इकलौती बेटी हूं...जितना कुछ आपके पास है वही बहुत है।’’
‘‘बेटी ! दौलत जितनी ज्यादा हो उसे उतना ही ज्यादा बढ़ाते रहना चाहिए, क्योंकि लोग कहते हैं कि, दौलत के भी पांव होते हैं...अगर उसके पांव में जंजीर डालने की कोशिश की गई तो वह वापस भाग सकती है।’’
‘‘आपको अपनी बेटी से ज्यादा दौलत से प्यार है डैडी  ?’’

‘‘बिल्कुल नहीं...हमें जितना प्यार अपनी बेटी से है इतना तो स्वयं अपने-आपसे नहीं है।’’
‘‘क्या आप इसे बाप का प्यार कहते हैं कि आपके पास अपनी बेटी के साथ गुजारने के लिए चंद घंटे भी नहीं मिल सकते ? यहां तक कि आप उसकी सालगिरह पार्टी भी अटैंड नहीं कर सकते।’’
‘‘बेटी ! यह सब भी तो हम तुम्हारे ही लिए कर रहे हैं।’’
‘‘मैंने कह दिया न आपसे कि मुझे नहीं चाहिए ऐसी दौलत जिसने मुझे अच्छे डैडी से इतनी दूर कर दिया है।’’
‘‘बेटी ! समझने की कोशिश करो।’’
‘‘आप भी समझ लीजिए डैडी, अगर आप दस बजे तक पार्टी में न आए तो मैं अगले साल से बर्थ-डे मनाना छोड़ दूंगी।’’
‘‘ओके बेटी ! हम दस बजे तक पार्टी में पहुंचने की कोशिश करेंगे।’’
‘‘कोशिश नहीं करेंगे...दस बजे तक पहुंच जाएंगे, वरना मैं...मैं आज कुछ भी नहीं खाऊंगी।’’
‘‘नहीं...हम जरूर आ जाएंगे।’’
‘‘मैं आपकी राह देखूंगी।’’
‘‘ओके बेटी, अब हम अपने ग्राहकों को डील करेंगे इसलिए फोन बंद कर दो।’’
‘‘ओके !’’

दूसरी ओर से डिस्कनेक्ट हो गया...ज्योति ने मोबाइल बंद किया और अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई खुद को संभालकर फिर पार्टी में वापस आ गई..नए आने वाले मेहमानों ने उसे घेर लिया और शुभ दिन की बाधाई के साथ उपहार भी देने लगे। धीरे-धीरे समय बीतता रहा, यहां तक कि ग्यारह बज गए, लेकिन सेठ साहब नहीं आए...ज्योति अपने आंसुओं को रोकती रही..फिर वह कई पैग लगाकर अन्दर आ गई और बिस्तर पर गिरकर सिसकियां भरती रही...सिसकते-सिसकते पता नहीं कब उसकी आंख लग गई।
फिर उसकी आंख तब खुली जब कोई बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर रहा था...उसने नींद भरी आंखों से डैडी को देखा...जो बड़े प्यार और स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेर रहे थे।
उन्होंने कहा—‘‘आई एम वैरी-वैरी सॉरी।’’
ज्योति झटके से उठकर बैठ गई और अपना सिर अलग करके बोली—‘‘डोंट टच मी डैडी।’’
‘‘बेटी ! हम बहुत ही मजबूर हो गए थे।’’
‘‘मैं भी बहुत मजबूर हो गई हूं डैडी।’’
‘‘बेटी ! अगर तुमने खाना नहीं खाया तो हम भी भूखे हैं...तीन बजने वाले हैं...चलो खाना खा लेते हैं।’’
‘‘मैं नहीं खाऊंगी डैडी।’’

‘‘अच्छी बात बेटी...अगर तुम चाहती हो कि तुम्हारे डैडी भी भूख रहें तो मत खाओ।’’
ज्योति अचानक सेठ साहब के सीने से लगकर सिसक-सिसककर रो पड़ी।
सेठ साहब की आंखें भी छलक पड़ीं—उन्होंने प्यार से उसके कंधे पर थपकी देते हुए कहा—
‘‘क्या बताऊं बेटी...कारोबार इतना फैल गया है कि अब उसे समेटना असम्भव है...चलते हुए कारोबार में रुकावट डालना भी भगवान की ना-शुक्री है...कोई बेटा होता तो हमारा हाथ बंटाता...इसीलिए अब हम सोचते हैं कि जल्दी से एक अच्छा दामाद मिल जाए तो हमारा बोझ हल्का हो जाए।’’ फिर उन्होंने ज्योति के आंसू पोंछते हुए कहा—‘‘चलो उठो ! हम वचन देते हैं कि अब से हमारी यही कोशिश होगी कि तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा वक्त निकाल सकें।’’
ज्योति आंसू पोंछते हुए बैठ गई। कुछ देर बाद दोनों डाइनिंग टेबल पर बैठे खाना खा रहे थे। सेठ साहब ने ध्यान से ज्योति को देखते हुए कहा—
‘‘तुम्हारे कॉलेजमेट दोस्त भी होंगे पार्टी में ?’’

‘‘थे...अपने-अपने कामों में लग गए हैं...दो सहेलियां शादी करके बाहर चली गई हैं।’’
‘‘हूं...! तुम्हारा कोई ऐसा दोस्त नहीं जिसके बारे में तुमने खासतौर से कंसीडर किया हो ?’’
‘‘नहीं डैड...कभी किसी को अपने निकट आने की कोशिश को कामयाब नहीं होने दिया।’’
‘‘मगर किसी न किसी तो निकट आना ही था।’’
‘‘क्या करूं डैडी...मेरे स्टैंडर्ड पर कोई लड़का उतरा ही नहीं...ज्यादातर में मुझे ऐसी झलक मिली जैसे वह मुझसे नहीं मेरी दौलत से प्रभावित होकर मुझसे घनिष्ठ होने की चाल चल रहे हैं...मैंने उन्हें साफ फटकार दिया।’’
‘मगर बेटी, फिर भी तुम्हें किसी न किसी को चुनना ही है।’’
‘‘क्या यह काम आप नहीं कर सकते ? आपके भरोसे का लड़का मुझे स्वीकार होगा।’’
‘‘क्या !’’ सेठ साहब ने आश्चर्य से ज्योति को देखा और बोले—‘‘तो क्या सचमुच तुम्हारी जिन्दगी में कभी कोई आया ही नहीं ?’’

‘‘डैडी ! क्या मैं झूठ बोल रही हूं ?’’
‘‘अरे, तुम्हारी उम्र और एजुकेशन की लड़कियां तो मुहब्बत की आखिरी मंजिल पर पहुंच गई होतीं।’’
‘‘मुहब्बत इंसान से की जा सकती है।’’
‘‘हूं...समस्या गम्भीर है।’’
‘‘अब जो कुछ भी हो।’’
‘‘खैर...कल इतवार है...हम तुम्हें एक लड़के से मिलाएंगे जिसके पिता चाहते हैं कि उनसे सम्बन्ध सदा के लिए जुड़ जाएं।’’
‘‘ओके !’’
‘‘कल हम उसे लंच पर बुलाए लेते हैं।’’
‘‘ओके...डैड !’’
फिर कुछ देर के लिए खामोशी छा गई।
दूसरे रोज लगभग ग्यारह बजे ज्योति की नींद टूटी—उसने अंगड़ाई ली तो नौकरानी बैड-टी लेकर आ गई—ज्योति ने बैठकर प्याली लेते हुए पूछा—‘‘डैडी जाग गए।’’
‘‘मालिक तो चले भी गए।’’

‘‘चले गए ?’’ उसके मस्तिष्क में एक छनाका-सा हुआ। चंद क्षण रुककर नौकरानी की तरफ देखकर पूछा—‘‘कहां चले गए ?’’
‘‘पता नहीं किसी का फोन आ गया था।’’
‘‘मेरे लिए कोई मैसेज छोड़ गए हैं ?’’
 ‘‘जी नहीं।’’
ज्योति के दांत गुस्से से भिंच गए...इतने में फोन की घंटी बजी और वह फोन उठाकर गुस्से में बोली—‘‘हैलो !’’
‘‘बेटी...!’’
‘‘बस डैडी, आगे कुछ नहीं।’’
‘‘अरे...सुनो तो सही।’’
‘‘सुनाइए।’’
‘‘मैने लंच पर जिस लड़के को बुलाने का वचन दिया था न..वह तुम्हें याद है न।’’
‘‘हां...याद है डैडी ! क्या मैं उसे अकेली अटैंड करूंगी ?’’
‘‘नहीं बेटी..हम लंच तक पहुंच जाएंगे।’’

‘‘श्योर !’’
‘‘ऑफ कोर्स बेटी !’
‘‘ओके...मैं उसे रिसीव कर लूंगी।’’
‘‘दैट्स लाइक ए गुड गर्ल।’’
फिर दूसरी तरफ से डिस्कनेक्ट हो गया। ज्योति ने रिसीवर रख दिया...उठकर बाथरूम में घुस गई—नहा-धोकर उसने मर्दाना कालर की शर्ट, ढीली पतलून और हाई-हील के जूते पहने।
नीचे आकर उसने नाश्ता किया तो बारह बजकर दस मिनट हो चुके थे...अभी नाश्ते से निपटी ही थी कि किसी ने घंटी बजाई..ज्योति चौंक पड़ी...कुछ देर के लिए उसके मस्तिष्क से निकल गया था कि कोई आने वाला है...फिर उसे झट से याद आ गया कि कोई आने वाला है।

नौकरानी रानो सामने नहीं थी इसलिए उसने खुद जाकर दरवाजा खोला—और फिर सामने खड़े नौजवान को देखकर अनायास हंस पड़ी...पच्चीस-छब्बीस बरस का एक गम्भीर सूरत, लेकिन खूबसूरत नौजवान जिसकी आंखों पर ऐनक थी, बदन पर पूरा सूट था। सूट के चीथड़े से दिखाई पड़ रहे थे...कई जगह बदन में खरोंचें भी थीं...ऐनक का शीशा भी गायब था...गाल पर भी एक खरोंच था।
जब ज्योति हंस चुकी तो नौजवान ने गम्भीरता से कहा—‘‘अब वापस जाने की इजाजत है ?’’
‘‘ओहो ! तो आप क्या अपने इस हुलिए के दर्शन कराने आए थे  ?’’
‘‘जी नहीं..मुझे बारह-साढ़े बारह बजे के बीच यहां पहुंचने का आर्डर मिला था...और अब सवा बारह बजने वाले हैं।’’
‘‘तो क्या खुद ही वापस जाने का भी आर्ड़र था ?’’
‘‘जी नहीं...अब तो इस हुलिए के कारण जाना जरूरी हो गया है।’’ उसने अपने लिबास की तरफ इशारा किया।
‘‘क्या बन्दरों से मुठभेड़ हो गई थी ?’’

‘‘जी हां।’’
‘‘ह्वाट...!’’
‘‘दरअसल एक बन्दरिया का बच्चा कार के नीचे आकर कुचल गया था...मैं उसे देखने के लिए कार से उतरा तो पूरे परिवार ने हमला कर दिया...बड़ी मुश्किल से पुलिस वालों ने बचाकर कार में ठूंसा।’’
ज्योति फिर हंस पड़ी और रास्ता देती हुई बोली—‘‘आइए...अन्दर आ जाइए।’’
‘‘जी...मगर...यह...।’’
‘‘आपका हुलिया बदलने का बन्दोबस्त हो जाएगा।’’
नौजवान अन्दर आ गया। ज्योति ने दरवाजा बन्द करते हुए कहा—‘‘मेरा नाम ज्योति है।’’
‘‘और मैं बंदर हूं।’’

‘‘बन्दर !’’ ज्योति फिर हंस पड़ी।
‘‘सॉरी...! आई मीन दीपक मेहरा।’’
ज्योति दीपक को गेस्ट रूम ले आई और बोली—‘‘यह वार्डरोब है...इसमें आपके नाप और पसन्द का लिबास मिल जाएगा....सामने बाथरूम है...वहां जाकर हुलिया बदल लीजिए...
मैं हॉल में आपका इन्तजार कर रही हूं, आ जाइएगा।’’
फिर वह लौटकर हॉल में आ गई तो नौकरानी ने कहा—
‘‘मेमसाहब ! अब पागल भी इतनी कीमती गाड़ियों में आते-जाते हैं ?’’
‘‘वह पागल नहीं है।’’ ज्योति ने हंसकर कहा—‘‘कभी-कभी बन्दरों की झपट में अच्छा-खासा इंसान भी आ जाता है।’’
‘‘ओहो...तो यह किसी बन्दर से झपटकर आए हैं।’’

‘‘हां।’’
‘‘यह वही तो नहीं तो आपसे मिलने के लिए आने वाले थे ?’’
‘‘अगर तुम्हें पसन्द न हो तो मैं ड्रा किए लेती हूं !’’
नौकरानी शर्माकर भाग गई—ज्योति हंसने लगी—फिर उसने रिमोट उठाकर खोला तो टीवी पर अनाउंसमेंट हो रही थी—
‘‘एक बार सुन लीजिए...अभी-अभी मिली सूचना के अनुसार एक पागल मेंटल हास्पिटल से फरार हो गया है—जिसका कद छः फुट, रंग गोरा, बदन छरहरा...चेहरे पर गम्भीरता और लिबास फटा हुआ है...वह पागलखाने के एक डॉक्टर की गाड़ी लेकर भागा है।’’


 


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