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जीवनी/आत्मकथा >> लाला लाजपतराय

लाला लाजपतराय

मीना अग्रवाल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3502
आईएसबीएन :81-288-0819-2

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लाला लाजपत राय के जीवन पर आधारित पुस्तक....

Lala lajpatrai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


पंजाब केसरी लाला लाजपतराय भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के एक अप्रतिम महानायक थे। उनकी राजनीतिक कर्मभूमि कांग्रेस थी। मातृभूमि की स्वाधीनता के महान लक्ष्य को लेकर वह निरन्तर अग्रसर होते रहे। परिणाम स्वरूप उन्हें माण्डले का देश निकाला तथा अनेक बार कारावास का दण्ड भोगना पड़ा।
अपने विदेश प्रवास में भी वह इस लक्ष्य से कभी विमुख नहीं हुए। इसी क्रम में साइमन कमीशन का विरोध करते हुए पुलिस की नृशंस लाठियों से आहत होकर उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
देश की दुर्दशा से जन-जन को अवगत कराते हुए जनचेतना जागृत करने के लिए उन्होंने कई पात्रों का प्रणयन और सम्पादन किया।

वह केवल एक राजनीतिज्ञ अथवा बुद्धिजीवी ही नहीं, अपितु एक महान समाज सुधारक भी थे। अकालपीड़ितों, विधवाओं, अनाथों, दलितों आदि की सेवा तथा उद्धार कार्यों में भी लालाजी का सराहनीय योगदान चिरस्मणीय रहेगा।
लाला लाजपत राय भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक चमकते सितारे थे। उनका व्यक्तित्व राजनीति, धर्म संस्कृति, समाज सुधार आदि महनीय गुणों का एक अद्भुत समन्वय रहा है। अपनी कर्म श्रृंखला से उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नवीन अध्याय की रचना की। ब्रिटिश राजभक्त कांग्रेस को राष्ट्रीय भावना से अनुस्यूत करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वह एक व्यावहारिक आदर्श प्रधान राजनीतिज्ञ थे।
वह सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रवादी नेता थे। उनके विचारों तथा कार्यों की सामयिकता आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी उनके जीवनकाल में थी।

दो शब्द


लाल लाजपतराय भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक ज्वाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उनका व्यक्तित्व राजनीति, धर्म, संस्कृति, समाज-सुधार आदि महनीय गुणों का एक अद्भुत समन्वय है। अपनी कर्म श्रंखला से उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नवीन अध्याय की रचना की। ब्रिटिश राजभक्त कांग्रेस को राष्ट्रीय भावना से अनुस्यूत करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वह एक व्यावहारिक आदर्श प्रधान राजनीतिज्ञ थे। भारतीय जनता में राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिए उन्होंने सर्वप्रथम उसे उसके सांस्कृतिक गौरव से परिचित कराना आवश्यक समझा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने शिवाजी, कृष्ण आदि सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महापुरुषों को अपनी रचनाओं के माध्यम से जन सामान्य के समक्ष रखा।
दलितों की सेवा, अस्पृश्यता आदि कुरीतियों का परिहार इत्यादि उनके कार्यक्रमों के अभिन्न अंग थे। बिना सामाजिक चेतना जागृत किए, राजनीतिक चेतना को वह केवल एक काल्पनिक भ्रान्ति समझते थे। सामाजिक एकता को वह राष्ट्रीय उन्नति के लिए आवश्यक तत्त्व मानते थे। इसीलिए साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन का उन्होंने सदा विरोध किया था। वह सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रीवादी नेता थे। उनके विचारों तथा कार्यों की सामयिकता आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी उनके जीवनकाल में थी।

इस राष्ट्र के निर्माण में लाला जी का योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा। इसी उद्देश्य के इस पुस्तक की रचना की गई है। इस पुस्तक को लिखने में लाला जी की आत्मकथा के अतिरिक्त श्री अलगूराय शास्त्री, श्री रामनाथ सुमन, नन्दकुमार देव शर्मा, पट्टाभि सीतारमैया आदि लेखकों एवं इतिहासकारों की पुस्तकों से आभार से आभार सहित सहायता ली गई है। अतः पुस्तक की सामग्री पूर्णतया ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक है। हां, पुस्तक कितनी उपयोगी बनी है, इसका निर्माण तो सुधी पाठक ही कर सकते हैं।

मीना अग्रवाल


1
वंश परम्परा एवं प्रारम्भिक जीवन



वंश एवं पूर्वज


उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट संक्रमण काल रहा है। उस समय भारतीय नरेशों की भाग्यश्री निरन्तर अस्ताचल की ओर अग्रसर होती जा रही थी और अंग्रेजी राज्य का सूर्य अपने प्रबल तेज के साथ उत्कर्षोन्मुख था। सन् 1839 में महाराज रणजीत सिंह का देहावसान हो चुका था। अंग्रेजी राज्य प्रसार में यह घटना एक सुअवसर सिद्ध हुई। 18 दिसम्बर, 1845 को मुदकी में अंग्रेजी एवं सिखों के मध्य संग्राम का श्रीगणेश हुआ। यह युद्ध लगभग दो महीने तक चला जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई और उन्हें पंजाब में अपने राज्य के पांव जमाने का सुन्दर अवसर मिल गया।

मुदकी युद्ध की इस घटना तक अग्रवाल वैश्यों की एक शाखा मालेर कोटला तथा उसके समीपस्थ स्थानों पर पीढ़ियों से रहती आ रही थी। मालेर कोटला लुधियाना रेलवे स्टेशन से केवल 28 मील की दूरी पर दक्षिण में स्थित है। मालेर कोटला के मुसलमान शासकों के कोषाध्यक्ष पीढ़ियों से अग्रवालों की इसी शाखा के सदस्य होते थे। आरम्भ में मालेर तथा कोटला दो भिन्न-भिन्न नगर थे। अशान्तिपूर्ण सिख शासन के किसी उपद्रव के कारण अग्रवालों को मालेर छोड़ने पर विवश होना पड़ा, किन्तु वे वहां से अधिक दूर नहीं गए। कुछ मालेर के समीप ही कोटला में बस गये तथा अन्य लुधियाना एवं फिरोजपुर जिलों में बस गए। मूल स्थान मालेर होने के कारण इन्हें मालेरी या मालेरिया अग्रवाल कहा जाता है।
इन्हीं मालेरी वैश्यों के कुछ परिवार लुधियाना जिले के जगरांव नामक स्थान पर रहने लगे। इस पुस्तक के चरितनायक लाला लाजपतराय के पितामह अंग्रेजों के शासन में पटवारी थे, जो जागरांव के निवासी तथा पास के ही एक गांव में कार्यरत थे। उनमें एव वैश्य के सभी गुण विद्यमान थे। उनके विषय में स्वयं लाला लाजपतराय ने लिखा है-"वह बड़े उद्यमी, साहसी, समझदार, बुद्धिमान और मिलनसार व्यक्ति थे। उनमें व्यापारी पूर्वजों के समस्त सम्भव गुण और दोष दोनों विद्यमान थे। वंश परम्परा के अनुरूप उनको भी समस्त सम्भव उपायों द्वारा धन कमाने की धुन थी।"

पटवारी को बहुत ही न्यून वेतन मिलता है और वह गांव का एक महत्त्वपूर्ण कर्मचारी होता है, इसलिए उसे येन-केन-प्रकारेण धन प्राप्ति से कोई संकोच नहीं होता। उसके न्यून वेतन का यही अर्थ लगाया जाता है कि वह ‘अतिरिक्त’ धन संग्रह करने का अधिकारी है। आजकल जबकि उच्च अधिकारी वर्ग की ओर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध इतना प्रचार किया जाता रहा है, अतिरिक्त आय की ओर ध्यान न देने वाले ईमानदार पटवारियों की संख्या श्वेत काकों की भांति अत्यल्प ही दिखलाई पड़ती है। लाहौर के एक कॉलेज के प्रोफेसर को भी जिन्होंने भ्रष्टाचार के मूलोच्छेदन के विषय में बहुत कुछ पढ़ा था, उक्त बात स्वीकार करनी पड़ी। प्रोफेसर महोदय के पास छोटी सी जमींदारी है। उसी के सम्बन्ध में उनको पटवारी महोदय से कुछ काम लेना पड़ा। पटवारी ने काम तो कर दिया, परन्तु साथ ही उसने स्पष्ट शब्दों में यह भी सुना दिया कि उसने धन प्राप्ति की आशा से यह काम किया है। इसपर प्रोफेसर साहब बिगड़े। "परन्तु महाशयजी पटवारी बोला, "मैं तो आपके पड़ोस की जमींदारी के प्रसिद्ध मालिक पंजब के एक्टिंग गवर्नर से भी पैसे वसूल करता हूं।" इस पर प्रोफेसर महोदय को चुपके से झुकना पड़ा।

उक्त पटवारी महोदय की शिक्षा नाममात्र की थी। उन्हें केवल बनियों के बही खातों की महाजनी भाषा का ही ज्ञान था। वह तत्कालीन कार्यालयी भाषा उर्दू तथा उसी फारसी लिपि से भी पूर्णतया अनभिज्ञ थे। वह एक नाटे कद के व्यक्ति थे। धार्मिक विश्वासों के अनुसार वह श्वेताम्बर जैन पन्थ के अनुयायी थे। नियमपूर्वक पूजा-पाठ किया करते थे। श्वेताम्बर जैन साधुओं के प्रति उनके हृदय में अत्यधिक श्रद्धा थी। यद्यपि वह जैन मत के त्याग आदि सिद्धान्तों के प्रबल समर्थक थे, तथापि इन सिन्द्धातों को वह धन कमाने के मार्ग में आड़े नहीं आने देते थे।

पटवारी महोदय की धर्मपत्नी अत्यन्त उदार, सीधी-सादी, भोली तथा अनपढ़ महिला थीं। तत्कालीन अधिकांश महिलाओं की तरह वह केवल बीस तक गिनना जानती थीं। उन्हें धन से मोह बिलकुल भी नहीं था। एक विषय में लाला जी ने स्वयं लिखा है-मैंने उन जैसी धर्मात्मा, शुद्ध हृदया, आतिथ्यपूर्ण, उदार तथा सीधी-सादी स्त्री और नहीं देखी। धन-संग्रह उनके स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल था। उनके पति उनको देते भी बहुत कम धन थे। जीवन भर में उन्होंने कभी ताले का प्रयोग नहीं किया और अपने पास कभी चाबी नहीं रखी। सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों की उन्हें कोई चाह न थी। वह इतनी उदार थी कि जो कुछ भी उन्हें अपने पति से प्राप्त होता था। लगभग सभी अपने पड़ोसियों को दे डालती थीं।"

कहा जाता है कि उन पर (लाला जी की दादी पर) उनके पति की दिवंगत बहिन की आत्मा का अवतरण होता था। तब वह अनेक सत्य भविष्यवाणियां करती थीं। अपने पुत्र के जन्म से पूर्व ही उन्होंने ऐसी अवस्था में भविष्यवाणी करते हुए कहा था, "मेरा पुत्र मुसलमान बनेगा तथा उसका पुत्र हिन्दू तथा हिन्दू धर्म का प्रचार करने वाला होगा।"

पूर्व कथित मुदकी युद्ध के आरम्भ होने के दिन ही युद्ध भूमि के केवल 30 मील की दूरी पर जगरांव में पटवारी जी की इस सरला धर्मपत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम राधाकिशन रखा गया। अपने विद्यार्थी जीवन में बालक राधाकिशन एक मेधावी विद्यार्थी थे। वह सदा कक्षा में प्रथम आते थे। नॉर्मल स्कूल की अन्तिम परीक्षा में सम्पूर्ण पंजाब में सर्वप्रथम आये थे। उन्हें भौतिक शास्त्र तथा गणित में शतप्रतिशत अंक प्राप्त हुए थे। राधाकिशन की प्राथमिक शिक्षा जगरांव के अरबी-फारसी के मदरसे में हुई थी। इस मदरसे के मुख्य अध्यापक एक मौलवी थे, जो एक उच्च चरित्र सुन्नी मुसलमान थे। इस स्कूल में उन्हें इस्लाम धर्म को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। उक्त मौलवी साहब से प्रभावित होकर उनके अनेक शिष्य मुसलमान बन गये। राधाकिशन पर भी उनके विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।

इस्लाम की दीक्षा न लेने पर राधाकिशन पूर्णतया अपने आचार व्यवहार से एक मुसलमान ही थे, वह नमाज पढ़ते थे, रजमान में रोजा रखते थे तथा उनका मित्रवर्ग भी मुल्ला-मौलवियों में से ही था। उनके इस आचरण से ऐसा लगता था कि वह किसी भी क्षण इस्लाम गहण कर लेंगे। सरसैयद अहमद उदारवादी इस्लामिक विचारों से वह अत्यन्त गहन रूप से प्रभावित हुए। इस विषय में उनका सरसैयद अहमद से पत्र-व्यवहार भी हुआ था। वह इस्लाम ग्रहण करना चाहते थे, किन्तु अपना नाम नहीं बदलना चाहते थे। अतः सर सैयद अहमद ने अपनी स्वीकृति देते हुए लिखा था कि इस्लाम ग्रहण करने के लिए नाम परिवर्तन अनिवार्य नहीं है, इसके लिए अल्लाह तथा उसके पैगम्बर में दृढ़ आस्था ही अनिवार्य है।



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