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आजादी मुबारक

कमलेश्वर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3338
आईएसबीएन :81-7016-516-4

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हिंदी कहानी ने मनुष्य की नश्वरता के बावजूद, विचार की जिस शाश्वतता को रेखांकित और स्थापित किया है, वह एक बड़ा रचनात्मक अभियान है।

Aazadi Mubarak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कमलेश्वर की कहानियों का यही सच है। तमाम कथा-आंदोलन आए और गए, उनके साथ और उनके बाद भी कमलेश्वर ने अपनी निर्मितियों को विलक्षण रचनात्मक निर्ममता से तोड़ा है। उसी प्रयोगधर्मिता का उदाहरण है-आजादी मुबारक संकलन की यह कहानियाँ।

विनम्र निवेदन

कहानी लिखने के सिवा मुझे कुछ नहीं आता। थोड़ी पत्रकारिता कर लेता हूँ। थोड़ा मीडिया का काम कर लेता हूँ। पुरस्कार-सम्मान मुझे शुरू से ही रास नहीं आते, इसलिए पत्रकारिता और मीडिया मेरी अभिव्यक्ति और ज़रूरत का साधन हैं। इन दोनों माध्यमों ने मुझे मेरी वैचारिक स्वतंत्रता और कहानी लिखने की आधारभूत अभिरचना का अवकाश दिया है। मैं इन दोनों माध्यमों को भी साहित्य की तरह ही रचनात्मक मानता हूँ।

लेकिन साहित्य की सदियों पुरानी जो गरिमामय परंपरा हमारे पास है, उनके मुक़ाबले यह माध्यम नए हैं, पर हमारे दौर का सामान्य जन इन्हीं माध्यमों से जुड़ा हुआ है, अतः आज हम अपने साहित्यिक अहं में इन्हें नकार नहीं सकते।
शब्द पर सबका अधिकार है। इसलिए शब्द की व्याप्ति और उसके अर्थ-संतरण को, इस बदलते हुए परिवेश में पहचानने की ज़रूरत बहुत बढ़ गई है...साहित्य अब शब्द-निर्मित द्वीपों में नहीं रह सकता। उसे सड़क और बाज़ार की पटरियों पर उतरकर आना ही पड़ेगा। साहित्य, विचार और शब्द की शुचिता पर आज अकिंचनों ने अपने अनुभव, यातना और भाषा के वाजिब प्रश्न-चिह्न लगा दिए हैं। इन वाजिब सवालों के उत्तर एकातिंक साहित्य के रचनाघरों में नहीं खोजे जा सकते।
हिंदी कहानी शुरू से ही जीवन की नश्वरता में निरंतरता के मूल्यगत तत्त्व तलाशती रही है...और एक सदी पार करते हुए आज भी उसके प्रसंग मनुष्य के न्याय नियति के प्रश्नों से जुड़े हुए हैं। यह तब, जब कि विश्वकथा के परिप्रेक्ष्य में मनुष्य-नियति के सवाल बेमानी हो चुके हैं, नेपथ्य में चले गए हैं।

कहानी रचना की विधा बन गई है। वह वाचन की विधा नहीं रह गई है। ऐसे में हिंदी की युवा कथा-रचना ने प्रतिवाद और हस्तक्षेप से कहानी को लगातार सार्थक बनाए रखा है। यह पाँच हज़ार वर्षों की कथा-परंपरा को अपने में समाहित करके वर्तमान के सवालों को कथा-रचना का कथ्य बनाने वाले युवा रचनाकारों की कहानियों द्वारा ही संभव हुआ है।
तमाम प्रयोगवादी कथा के रचनाकारों की भीड़ में, साहित्य को मनुष्य के संदर्भ में नहीं, परंपरागत रचना की परिपाटी में पहचानने और स्थापित करने की कोशिश की जा रही है...
ऐसे में हिंदी कहानी ने मनुष्य की नश्वरता के बावजूद, विचार की जिस शाश्वतता को रेखांकित और स्थापित किया है, वह एक बड़ा रचनात्मक अभियान है।
‘आज़ादी मुबारक़’ की ये कहानियाँ उसी रचनात्मक अभियान की विनम्र समर्थक हैं, जो रचना के प्रतिमानों से अलग मनुष्यता के प्रतिमानों के प्रति समर्पित हैं।

आज़ादी मुबारक़ !

हुआ यह कि मैं मंटो के साथ घूमने निकल पड़ा। मौक़ा ही ऐसा था। आज़ादी की पचासवीं वर्षगाँठ मनाने का मौक़ा। यह तो नहीं मालूम कि मुल्क कौन-सा था, पर इतना मालूम था कि दो मुल्कों में से कोई भी एक हो सकता था-भारत या पाकिस्तान, क्योंकि पचास साल पहले, एक ही मुक्ल दो टुकड़ों में आज़ाद हुआ था। एक इंडिया, दैट इज़ भारत और दूसरा पाकिस्तान।
तो आज़ादी का पचासवीं सालगिरह पर मंटो से मिलना लाज़िमी था, क्योंकि पचास बरस पुरानी इस सभ्यता का असली विद्वान् और साहित्यकार सिर्फ़ मंटो ही है। एक ऐसी सभ्यता, जिसने लहू की दीवारें और आँसुओं की नदियाँ ईजाद की थीं !
मंटो को देवेन्द्र इस्सर और बलराज मेनरा जानते हैं। टोबाटेक सिंह जानता है। अगर तुम नहीं जानते तो तुम बदनसीब हो। हमारे-तुम्हारे बीच यह कहासुनी तो चलती ही रहती है। तो ख़ैर...
तो हम लारेंस बाग़ नहीं-नहीं, जिन्ना बाग़ वाले इलाक़े में ही कहीं थे। सामने थोड़ी दूर पर लहू की एक गीली दीवार अब भी खड़ी थी। उसे देखकर मैंने पूछा—
‘‘मंटो साहब ! क्या ‘बेख़बरी का फ़ायदा’ वाला हादसा यहीं हुआ था ?’’

‘‘हाँ, यहीं-कहीं...लहू की दीवार के इस पार या उस पार...उस हादसे में जो बच्चा मौजूद था, अगर वह अब भी ज़िंदा है तो वह अब पचपन साल का होगा। हादसे के वक़्त वह पाँच साल का था।’’
तभी एक पचपनसाल आदमी रुककर मंटो की ओर देखने लगा।
‘‘इस तरह क्या देख रहे हो ?’’
‘‘जी, आपको देख रहा हूँ...क्योंकि आपकी उस कहानी का बच्चा मैं ही हूँ और इत्तफ़ाक़ से अभी तक ज़िंदा हूँ !’’
‘‘यह तो ताज्जुब की बात है !’’ कहते हुए मंटो ने मुझे और फिर पचपनसाला को बड़ी-बड़ी आँखों से अचरज से देखा। उस आदमी ने हम दोनों को ख़ामोश देखा...तो वह पचपनसाला आदमी बीच में बोल पड़ा—
‘‘मुझे आपकी वह कहानी अब तक याद है ! बेख़बरी का फ़ायदा।’’
‘‘तुमने कब पढ़ी ?’’
‘‘जब मैं बारह-तेरह साल का था। उस वक़्त घरों में आपकी कहानियों पर पाबंदी लगी हुई थी क्योंकि आप तरक़्क़ीपसंद थे...और तरक़्की़पसंदों में आप पर पाबंदी लगी हुई थी क्योंकि आप अदब और इंसानपरस्त थे....आपके बारे में यही बताया था लोगों ने...’’

मंटो की बड़ी-बड़ी आँखें और बाहर निकल आईं। वो हैरत से बोले--‘‘अजीब इंसान हो तुम...इस तहज़ीब में पले-बढ़े हो, फिर भी कहानियाँ पढ़ते हो ?’’
‘‘वह तो उस दौर में पढ़ ली थी, अब नहीं पढ़ता। आपकी कहानी तो मुझे ज़बानी याद है...सुनाऊँ...’’
‘‘मेरी दिलजोई के लिए तुम झूठ बोल रहे हो....’’
‘‘नहीं...हाथ कंगन को आरसी क्या ! सुन लीजिए...’’ और उसने कहानी सुनानी शुरू कर दी...
...लबलबी दबी—पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली !
खिड़की से झाँकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा गया !
लबलबी थोड़ी देर के बाद फिर दबी—दूसरी गोली भनभनाती हुई बाहर निकली !
सड़क पर माशकी की मशक फटी। औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मशक के पानी में मिलकर बहने लगा।
लबलबी तीसरी बार दबी—निशाना चूक गया। गोली एक गीली दीवार में जज़्ब हो गई।
चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी—वह चीख़ भी न सकी और वहीं ढेर हो गई।
पाँचवी और छठी गोली बेकार गईं। न कोई हलाक़ हुआ न जख़्मी।
गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया। उसी वक़्त सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता दिखाई दिया। गोलियाँ चलाने वाले ने पिस्तौल का मुँह उसकी तरफ़ मोड़ दिया।
उसके साथी ने कहा--‘यह क्या करते हो ?’
गोलियाँ चलाने वाले ने पूछा-‘क्यों ?’
‘गोलियाँ तो ख़त्म हो चुकी हैं !’
‘तुम ख़ामोश रहो, इतने-से बच्चे को क्या मालूम ?’
कहानी सुनाकर वह पचपनसाला आदमी तारीफ़ पाने के लिए मंटो को देखने लगा-‘‘है न वही कहानी !’’
‘‘है तो वही !’’ कहते हुए मंटो ने उसकी तरफ़ देखा।

क़रीब-क़रीब ऐसा ही कूचा कुंडेवालान में हुआ था। अरे वहीं, अजमेरी गेट के पास, जहाँ विष्णु प्रभाकर रहते हैं...हुआ यह था कि एक अँधेरी गली में सूनसान मोड़ पर एक आदमी पिस्तौल छुपाए खड़ा था। जी.बी. रोड का एक मुसाफ़िर सकीना बाई के साथ आधी रात गुज़ारकर वापस जा रहा था। मौक़ा पाते ही उस आदमी ने पिस्तौल मुसाफ़िर के सीने पर रख दी और दबी आवाज़ में चीखा-
‘जो कुछ है, मेरे हवाले कर दो !’
और कोई चारा नहीं था। पिस्तौल सीने पर थी। चीख़ने-चिल्लाने का मौक़ा भी नहीं था। सकीना बाई से जो पैसे बचे थे, वो—साथ ही सोने की चेन और घड़ी भी मुसाफ़िर को उतारनी पड़ी।
‘कच्छा पहने है ?’ पिस्तौल वाले ने दबी आवाज़ में कड़क के पूछा।
‘क्यों ?’ मुसाफ़िर ने डरते हुए सवाल किया।
‘पैंट उतार दे !’
मुसाफ़िर अचकचाया—
‘पैंट....’
‘हाँ, वहाँ भी तो उतारी होगी ! उतार !’ पिस्तौल वाले ने धमकाया।
कोई चारा नहीं था। उसने पैंट भी उतार दी।
पिस्तौल वाले ने सामान समेटा और चलने लगा।
‘ऐ भाई...ये तमंचा हमें दे दो....’
‘क्यों, क्या करेगा...इसकी लबलबी खराब है और नल्ली भी....’
‘तो क्या हुआ...इसमें ख़ौफ़ तो है !’
पिस्तौल वाला हँसा और तमंचा फेंक के चला गया।

मुसाफ़िर ने तमंचा उठाया और उस अँधेरी गली के उसी मोड़ पर किसी और के गुज़रने का इंतज़ार करने लगा !
‘‘इंतज़ार का यह सिलसिला आज़ादी के दिन से जारी है !’’ मंटो ने कहा और ख़रामा-ख़रामा चलने लगे।
कुछ ही गज़ों के फ़ासले पर एक जली हुई दुकान दिखाई दी। उसके अंदर एक आदमी बर्फ़ की दो मोटी-मोटी सिलें रखे बैठा था ! मंटो को जैसे कुछ याद आया तो पचपनसाला आदमी ने याद दिलाया-‘‘यह वही दुकान है मंटो साहब, जो आपने तब भी देखी थी।’’
मंटो बेसाख़्ता बोले-‘‘तब जो मैंने कहा था, वही आज भी कह सकता हूँ। आख़िर जली हुई इस दुकान को किसी तरह ठंडक पहुँच ही गई !’’
कहते हुए मंटो की आँखों में सर्द कोहरा-सा उभर आया।
मैंने चलते-चलते कहा-‘‘मंटो भाई, कहीं एक प्याला कॉफ़ी हो जाए...’’
‘‘ज़रूर...ज़रूर...लेकिन कुछ और होता तो...’’
‘‘वो भी मुमकिन है...’’
‘‘क्या मैं आप लोगों के साथ चल सकता हूँ ?’’ पचपनसाला ने पूछा।
‘‘हाँ, हाँ, आओ...तुम तो इस पचाससाला आज़ादी के चश्मदीद गवाह हो...’’कहते हुए मंटो ने एकाएक उसके माथे को देखा।
‘‘मियाँ, तुम्हारे माथे पर घाव का यह गहरा निशान...’’
‘‘जी, ये सन् 1984 में लगा था...’’
‘‘1984 में !’’ मंटो ने हैरत से पूछा-‘‘1984 से तुम्हें क्या लेना-देना ? उस साल तो इंदिरा गांधी का क़त्ल हुआ था...और सिखों का क़त्लेआम...’’
‘‘जी, मैं उसी क़त्लेआम में फँस गया था।’’
‘‘तुम उसमें...तुम उसमें कैसे फँस गए ?’’ मंटो ने और ज़्यादा हैरत से पूछा।
‘‘जी, वो जीत आपा हैं न ...’’
‘‘जीत आपा ! तुम तो रावलपिंडी के हो, पर वो क़त्लेआम तो दिल्ली में हुआ था।’’

‘‘जी, वो तो है, लेकिन जीत आपा भी रावलपिंडी की हैं...कदीमी तौर पर...पार्टीशन में उन्हें दिल्ली भागना पड़ा था। उनके माथे पर भी घाव का इतना ही गहरा निशान है...’’
‘‘पहेलियाँ मत बुझाओ...’’
‘‘जी, यह पहेली नहीं हक़ीकत है...जीत आपा के माथे पर जो निशान है, वह सन् 1947 में लगा था !’’ उस पचपनसाला ने कहा।
हम दोनों उस पचपनसाला की बात में और उलझ गए थे, तो मंटो ने कहा—
‘‘तुम इन पचास बरसों के गवाह हो...जो कुछ हुआ है, वह मुझे तफ़सील से बताओ...यह तो समझ में आता है कि तुम्हारी किन्हीं जीत आपा के कोई घाव तक्सीम के दौरान लगा हो, लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि तुम सन् 1984 के क़त्लेआम के दौरान रावलपिंडी से दिल्ली कैसे पहुँच गए...?’’
‘‘अदीबेआला ! मुल्क टूट सकते हैं, यादें नहीं टूटतीं...लहू की बेशुमार दीवारें खड़ी हो सकती हैं, मगर दीवारें आवाज़ को तो नहीं रोक सकतीं !...अल्फ़ज़ों का फ़र्क हो सकता है, पर मैं पाकिस्तान में मुहाज़िर था और जीत आपा हिंदुस्तान में शरणार्थी...मेरा छोटा-सा कुनबा करनाल हरियाणा से रावलपिंडी पहुँचा था और जीत आपा का कुनबा रावलपिंडी छोड़कर दिल्ली। मैं तब पाँच साल का था और जीत आपा की उम्र शायद छह साल रही होगी। शायद कुनबे वाली बात मैं ग़लत कह गया। जीत आपा के कुनबे में कुल इक्कीस लोग थे। रावलपिंडी से तीन मील बाहर थी जीत आपा की बस्ती—ढेरी। वहाँ उनके ईंटों के भट्टे थे, जिन पर पच्चीस-तीस मज़दूर दिन-रात काम करते थे। उनके भट्टे अव्वल नंबर की ईंटो के लिए मशहूर थे। दोयम नंबर की ईंटो को तुड़वा के गिट्टी में बदल दिया जाता था।’’
‘‘इतना ख़याल था उन्हें क्वालिटी कंट्रोल था ?’’

‘‘जी हाँ, आँच कम न होने पाए, इसी नाप-जोख भट्टियों के दहानों से हर घंटे की जाती थी, दहानों पर लोहे के तवे पड़ते रहते थे जो जलते-जलते और आँच सहते-सहते पपड़ीदार मठरियों जैसे लगने लगे थे। उन्हीं में पड़े कुंडों को लोहे की टेढ़ी लाबियों से उठा-उठाकर आग की दहक को नापा था....ज़रूरत पड़ते ही भट्टियों में लकड़ियाँ झोंकी जाती थीं...सर्दियों में क़बाइली बंजारे भट्टों के पास ही डेरे डालते थे। भट्टियों की तपिश से आस-पास की धरती माँ के पेट की तरह गरम रहती थी...’’
‘‘तुम तो बिलकुल कहानीकार की तरह सारी बातें बयान कर रहे हो !’’
‘‘तो और क्या करें जनाब ! यादों के नाम पर कहानियाँ ही तो बची हैं हमारे पास....’’
‘‘बताओ, बताओ...आगे बताओ !’’ मंटो ने उस पचपनसाला आदमी को गहरी नज़रों से ताकते हुए कहा--‘‘मेरी ऐनक के शीशों पर भी यादों के बहुत-से दाग़ हैं...यादों के सारे गोदाम भर गए तो यह ज़हमत शीशों को उठानी पड़ी...’’ अपनी बात हलके से कहकर मंटो ने उसकी तरफ़ देखा और बोले-‘‘दास्तान जारी रखो...’’
पचपनसाला आदमी ने गहरी साँस लेकर अंदर कुछ ज़िंदा किया और बोलने लगा—
‘‘यह सब तफ़सील से इसलिए दिमाग़ में अटका हुआ है कि जीत आपा के घरवालों का एक भट्टा हमारे अब्बा के हिस्से में आया था। बाक़ी तीनों भट्टों पर औरों ने कब्ज़ा कर लिया था। पर यह तो बाद की बात है...जीत आपा ने ही बताया था।’’
हमने पचपनसाला की तरफ़ देखा। वह बोला—
‘‘उनके पड़ोसी थे बाज़ खाँ, जो अलग-अलग मंडियों से प्याज़ ख़रीदकर ईरान के साथ तिजारत करते थे। उनके शादीशुदा बेटे रियाज़ ख़ाँ बीवी के साथ खुली छत पर रात गुज़ारते थे, इसलिए औलाद की आमद में देर हो रही थी...और एक बार तो ऐसी तूफ़ानी आँधी आई थी, जो उनकी बीवी की सुथनी ही उड़ा ले गई थी। वह आँधी-उड़ी सुथनी सुबह किसी और की छत पर मिली तो मियाँ-बीवी में ज़बरदस्त झगड़ा हुआ। बात तलाक़ तक पहुँच गई...पर बाद में यह साफ हो गया था कि रियाज़ की बीवी की सुथनी आँधी उड़ा ले आई थी...तब बात सधी और तभी से जीत आपा रियाज़ ख़ाँ की बीवी को ‘सुथनी भाभी’ कहकर पुकारती और चिढ़ाती थीं...’’

मंटो को हँसी आ गई, और आँखों में चमक। उन्होंने पूछ ही लिया-‘‘फिर सुथनी भाभी छत से कैसे उतरी ?’’
‘‘आप तो मज़ाक करते हो...अब हमें क्या मालूम...’’ उसने मंटो को देखते हुए कहा--‘‘जीत आपा ने हमें इतना ही बताया था...’’
‘‘तो फिर, उसके बाद...’’
‘‘जीत आपा के पप्पाजी ने आँधी वाली रात के बाद बाज़ ख़ाँ से पेशकश की कि बेटे और बहू के लिए वह एक कमरा छत पर डाल लें। ईंटें भट्टे से आ जाएँगी...घर की बात है, पैसे-वैसे का सवाल ही नहीं उठता। दूसरे ही दिन बाज़ ख़ाँ के घर सामने अव्वल नंबर की ईंटों का चट्टा लग गया...और शायद उसी दिन यह ऐलान हुआ कि मुल्क आज़ाद होने वाला है...पाकिस्तान बनने वाला है !’’
‘‘अरे, वह तो हुआ ही। दुनिया ने देखा—आज़ादी कैसे आई...हमने भी दो आलमी जंगों के बाद आज़ादी को आते देखा...’’ और फिर मेरी तरफ़ मुख़ातिब होते हुए मंटो ने कहा-‘‘अरे भई, वो क़ॉफी का क्या हुआ...वैसे कॉफ़ी से काम चलेगा नहीं, यह वक़्त तो कड़वा शर्बत पीने का है !’’
‘‘तो चलिए...वही सही...सामने ताज पैलेस मजूद है !’’ मैंने कहा और हम तीनों होटल के सायबान से होते हुए लॉबी में घुस गए। मंटो कुछ थके हुए थे, बोले—
‘‘तुम बार का पता करो, तब तक मैं सुस्ताता हूँ !’’

मैं बार का रास्ता मालूम करने के लिए मुड़ने ही वाला था कि मंटो ने सवाल किया--‘‘वो पचपनसाला कहाँ गया ?’’
हम दोनों ने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं, पर वह कहीं नज़र नहीं आया। पता नहीं कहाँ चला गया था।
‘‘छोड़ो...साथ रहता तो हम उसे भी कड़वा शर्बत की झील में नहला देते...आज उसे भी ऐश करा देते !’’
तभी लिफ़्ट से निकलती, साथ वाले आदमी का हाथ छुड़ाती एक बेहद ख़ूबसूरत औरत चीख़ी थी-‘‘छोड़ो...तुम क्या मुझे ऐश कराओगे !’’
ज़ाहिर है, हम दोनों का ध्यान तेज़ी से उधर गया। वह कुलीन लगता आदमी बड़ी इज़्ज़त और सलीके से उस बेहद ख़ूबसूरत औरत को रोक रहा था। शायद वह चाह रहा था कि आलीशान होटल में कोई सीन क्रिएट न होने पाए...पर वह औरत अपनी रौ में उसका तिरस्कार करती तेज़ी से लॉबी की तरफ़ आई थी—बिफरती हुई।
‘‘होगा इंडस्ट्रियलिस्ट अपने घर का...ऐसे इंडस्ट्रियलिस्ट बहुत पड़े हैं दुनिया में...या खुद को आख़िर समझता क्या है...’’
‘‘क्या बात है शिवानी ?’’ होटल की वर्दी पहने एक निहायत आधुनिक औरत ने उसे आकर रोका टोका। वह शायद होटल के फ्रंट डेस्क की इंचार्ज थी।
‘‘आख़िर हुआ क्या है ?’’
‘‘ये कपूर पागल हो गया है...ठीक है, ये मेरे हस्बैंड का परिचित है...यह भी ठीक है कि इसने हमें सोलन में एक कोठी ले के दी है...अरे...हम धीरे-धीरे उसका पैसा चुका देंगे...जब इसे करोड़ों के लोन की ज़रूरत थी तो ये मिनिस्ट्री के चक्कर काटता था। बँगले पर आकर मेरे हस्बैंड के तलवे चाटता था...आज मुझे जिम में मिला। लेडीज़ आब्जेक्टेड...फिर पूल पर मिला...मैं ख़ुद पूल पर मिलने चली गई तो इसका मतलब यह तो नहीं कि आई हैड कंसेंटेड फॉर ऐनीथिंग...माई हस्बैंड डज़ंट माइंड दीज़ ट्राइफ थिंग्स, बट स्टिल...’’

तभी एक ओर शोर उठा। दोनों की बातें शोर में डूब गईं...आज़ादी की पचासवीं वर्षगाँठ पर नारे लग रहे थे। और वहाँ ‘आर्ट इंडिया-50’ का उद्घाटन करने कोई मिनिस्टर साहब चले आ रहे थे। अजीब-सी गहमागहमी। पूरे मैनेजमेंट ने मिनिस्टर साहब का स्वागत किया। भीड़ अंदर आ गई। ‘आर्ट इंडिया-50’ का उद्घाटन करने वे भीड़ और स्पेशल गार्ड के साथ बेसमेंट में उतर गए। वे ज़ैड कैटेगरी वाली सुरक्षा में नहीं थे।
हम जाके फ्रंट डेस्ट वाली इंचार्ज लड़की के सामने बैठ गए।
‘‘क्या हुआ आपकी दोस्त शिवानी को ?’’
‘‘कुछ ख़ास नहीं...’’ डेस्क इंचार्ज लड़की ने कहा-‘‘ऐसा तो होता ही रहता है...’’
‘‘फिर भी, कुछ तो हुआ ही था मिस लोनी ओबेराय’’ मंटो ने उसकी पतली-सी नेम-प्लेट पढ़ ली थी।
‘‘होना क्या था...शिवानी कम्स फ़्राम अ फ़ेमस फ़ैमिली...उसका हस्बैंड गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया में एडीशनल फ़ॉइनैंस-सेक्रेटरी है। उसे पैसे की क्या कमी...एंड यू हैव सीन—शिवानी कैन लांच ए थाउज़ैंड शिप्स...’’
‘‘वह तो है !’’ मैंने मंटो की तरफ़ देखकर कहा। मंटो ने सिर हिलाया।
पर वो स्टुपिड मैन कपूर...ही हैज़ अ क्रश ऑन शिवानी...फ़्राम एजेज़। वह चाहता है शिवानी मि. सरीन से डायवोर्स ले ले...’’
‘‘कपूर अनमैरिड है क्या ?’’
‘‘इस उम्र में अनमैरिड कौन होता है !’’ लोनी ओबेराय बोली-‘‘ही इज़ वैरी मच अ मैरिड मैन...चलो, ये भी चलता है...पर पता नहीं किस झोंक में उसने स्विटज़रलैंड में इक्कीस एकड़ की ऐस्टेट और टैन थाउज़ैंड मिलियन पर्सनल एकाउंट की बात उठा दी...स्टुपिड पिग...शिवानी इज़ रीयल क्लास...एंड व्हाट अ आंसर !’’
हम दोनों ने उत्तेजना से लोनी ओबेराय को देखा।

‘‘व्हाट वाज़ हर आंसर ?’’
लोनी ओबेराय खिलखिला के हँस पड़ी--‘‘शिवानी कुछ भी हो लेकिन शिवानी शिवानी है...’’उसने कहा--‘‘रंजीत कपूर ! तुम्हारे पास जितनी भी दौलत है, ले आओ...उसे मेरी आँखों के सामने जलाते जाओ...जितनी देर वह जलेगी, मैं तुम्हारी रहूँगी !
...व्हाट एन आंसर ! ब्रेवो शिवानी ! ब्रेवो !’’ जैसे लोनी ओबेराय शिवानी को शाबाशी दे रही थी-‘‘दिस ओनली अ शिवानी कैन से !...ओनली अ शिवानी !’’
तभी मिनिस्टर साहब के लौटने का शोर बरपा हो गया था..‘एक्सक्यूज़ मी’ कहते हुए लोनी ओबेराय उठकर तेज़ी से उधर चली गई थी।
हम दोनों एक-दूसरे का मुँह देखते बैठे रह गए थे...
‘‘हम किस दौर में हैं दोस्त ?’’ मंटो ने उदासी से पूछा था।
‘‘आज़ादी की आधी सदी के जश्न के दौर में मंटो भाई।’’

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