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कविता संग्रह >> धरती होने का सुख

धरती होने का सुख

केशव

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3333
आईएसबीएन :81-89859-13-7

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इस पुस्तक में अपनी कविता यात्रा को कल्पना को सच बनाना ही मुख्य उद्देश्य है...

Dharti Ka Shukh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैं/तुम्हें ढूंढने निकला/तुम/मुझे/अफसोस कि हम/खुद को ढूंढते रहे/एक दूसरे के मरुस्थल में। केशव की कविताएँ उस दूसरे को जानने का जुनूनी प्रयत्न हैं, इसलिए नहीं कि उसे जाने बिना संसार को नहीं जाना जा सकता, बल्कि इसलिए कि उसे जाने बिना खुद को नहीं जाना जा सकता। इस यात्रा में वे अकेले हैं, संपूर्णता की असंभव चाह लिये सूक्ष्म को भेदने, जानने और पा लेने के जुनून के साथः झुर्रियाँ सच हैं/देह का/स्पर्श/देहातीत/हम दोनों/ जीवित हैं स्पर्श में/देह में मृत। देह के उस पार जाने का यत्न, पर देह के सिवा नहीं, यह रास्ता तो है, मंजिल नहीं, वह देहातीत अवस्था, जहाँ मेरा-तेरा का भेद मिट जाए, तू मुझमें है मैं तुझमें हूँ, आसान नहीं है किसी दूसरे को इस तरह जानना, यह छलांग पहले अपने बाहर, फिर अपने भीतर लगती है, उस दूसरे को जानना, वह दूसरा ही हो जाना है।

 केशव की कविताएँ उनके लिए हैं, जो अपनी तलाश में है, प्रेम की ऐसी नदी, जो बहती तो जीवन के बीचों-बीच है, पर दिखाई नहीं देती, बहुत कोशिश करो तो सुनाई देती है आवाज उसकीः जब तुम्हारे कान अपनी ही छाती से लगे हैं। वह अवस्था कि उस दूसरे को सुनना, खुद को सुनने जैसा हो पाए, उस दूसरे को कहना, खुद को कहने जैसा। प्रेम, सत्य, जीवन ईश्वर अकथनीय हैं। इसलिए हम इन्हें बार-बार कहते और इन्हें इनकी असंभव जगहों से उठाकर दुनिया में लाकर अपने लिए संभव बनाते हैं। यह केशव की कविता का दुस्साहस है। जीवन एक दुस्साहसिक यात्रा ही तो है, न कहीं से, न कहीं तक। इस यात्रा में अपनी कल्पना को अपना सच बनाना ही कविता का लक्ष्य है, संसार के बरक्स खड़ा एक सृजनात्मक संसार, जो उस दूसरे धरातल से कहीं ज्यादा साफ दिखता है है....वास्तविक संसार वास्तव में अधूरा ही है।

केशव की कविताएँ इसे पूरा करती हैं, अपने रचे एक नए काल्पनिक संसार में, जो कल्पना भी नहीं है, न सच ही। वह इन दोनों के बीच खड़ा है, जहाँ से सच इतना साफ पहले कभी नहीं दिखा जहाँ से कल्पना इतनी सच नहीं लगी। इन कविताओं में हम केशव की दुनियाँ में एक अंतरंग भाव से झाँक सकते हैं और शायद यह तय कर सकते हैं कि वे सबकी यात्रा में किस रूप में शामिल हैं। न केवल मनुष्य के भीतरी संसार, बल्कि इनकी कविताएँ मनुष्य जीवन के लगभग सभी पहलुओं का स्पर्श करती हैं, उसकी गहराई, ऊँचाई और विडंबनाओं से एकमेक। उसके आलोक अंधकार, खूबसूरती, दुःख और संघर्ष में लिथड़ी हुई। अपनी ताजा कवितओं में केशव ने कुछ ऐसे विंध्याचल भी लांघे हैं, जिनसे समकालीन कवि प्रायः बचते रहे हैं। देश और दुनियाँ को बाँटकर स्वार्थ-साधना में लगे लोगों को केशव के कवि ने आग्नेय नेत्रों से देखा है, क्योंकि आम आदमी यहाँ पूरी शिद्दत के साथ उपस्थित है।

प्रकृति भी अपनी भव्यता और उदात्तता के साथ केशव की कविताओं में मौजूद है। पहाड़ी परिवेश के मुंहबोलते चित्र इधर की इनकी कविताओं में बहुतायत से नजर आए हैं, जिनके जरिये हम पहाड़ी जीवन को बहुत गहराई और करीब से देख और जान सकते हैं। केशव प्रकृति को किसी पर्यटक की दृष्टि से नहीं देखते, जिसके पास कैमरा-आंख तो होती है, पर उस जंगल में भीतर उतरने का साहस नहीं। वे उसके भीतर उतरते हैं उसे मात्र अनावृत करने नहीं, बल्कि उसके रहस्यों में अपना रहस्य खोजने। इस मायने में इनकी कविताएँ अपने समकालीन कवियों में सबसे अलग हैं और उनमें एक निर्दोष ताजगी है, गहराई है और है भीतर ही भीतर उतरते चले जाने की व्याकुलता, शायद उस उद्गम तक, जहाँ से जीवन निस्सृत हो रहा है....

कभी-कभी


कभी-कभी आदमी
अपने कद से ही
डर जाता है
अपने किये के लिए
बिना मरे ही मर जाता है
यह इसलिए होता है
कि वह अपने कद से
छोटा होकर
दूसरे के कद में आंख मूंद
लगा देता है छलांग
और अपने दुःख से
निज़ात पाने के लिए
दूसरे के सुख में
लगा देता है सेंध
और कभी-कभी
अपने कद से
बड़ा भी हो जाता है आदमी
कभी-कभी डूबकर भी
तिर आता है आदमी
यह इसलिए होता है
कि अपने लिये जीने से पहले
दूसरों के लिए जीने का
सुख पा लेता है वह
दूसरे के दुख से गुजर कर
अपने दुख की थाह पा लेता है वह।<

हां, मैं पहाड़ हूँ


न जाने
कब से खड़ा हूं
आसमान से होड़ लेता
चूहे तक के साहस को
चुनौती देता
सोचता
कि बड़ा हूं
छू सकता हूं
ईश्वर तक को
वहां से
जहां मैं खड़ा हूं
इस बोध से वंचित
कि बड़े से बड़ा भी
किसी से छोटा होता है
सिक्कों के चमचमाते ढेर में
एक आध सिक्का
खोटा भी होता है
भले ही हर युग गवाह
पर मेरी पीड़ा अथाह
जानकर भी न जान पाने की
मानकर भी न मान पाने की

हां, मैं पहाड़ हूं
सीने में दफन
आर्त्तनाद को
उलीचने के लिए
हर पल उद्यत
छटपटाती
एक मूक दहाड़ हूं
हां, मैं एक पहाड़ हूं।

जिद

एक पत्ता
शाख से
टूट कर
भी
अटका
तो अटका
हवा में !

हमारे बीच


न मैंने जताया
न तुमने
फिर भी
हमारे बीच
रहा प्रेम
जब तक हम रहे
नहीं रहे
तब भी
हमारे बीच
रहा प्रेम।

खामोशी


कहने से पहले होती है
कहने के बाद भी
कहने
में
भी
रहती
है
कहीं न कहीं
खामोशी

सुनी-सुनाई


हम सुनी सुनाई पर
यकीन नहीं करते
कहते हैं सभी
फिर भी
यकीन करते हैं
सुनी-सुनाई पर ही
सुन-सुनकर
अनसुना करना
हमारी आदत है
क्या इसीलिए होते हैं कान !

कान न होते
तो भी क्या सुनते हम
सुनकर कैसे
अनसुना करते हम।

स्ट्रटी लाइट


बहुत दूर तक नहीं जाती
जाती है जहां तक भी
हर चीज को उसकी
पहचान दिलाती
कोई अंधेरा
नहीं छीन सकता
उसका यह अधिकार
हो कितना भी गहरा
न खोजती है
न टटोलती
अपने दायरे में
आने वाली हर चीज
चुपके से उठा
धर देती है
हथेलियों पर
फिर उससे हम खेलें
या रख लें किसी चोर जेब में
इससे नहीं उसका वास्ता
उसका वास्ता
सिर्फ पहचान करवाने का है
थोपने का नहीं।

मुझे नहीं मालूम


मुझे नहीं मालूम
तुम यहां होते
तो यह शहर
किस करवट बैठता
जिस करवट यह बैठा है फिलहाल
वहां हुआ करता था घना जंगल कभी
अब यहां लोग हैं
लोग ही लोग
पेड़ों से कई गुना अधिक
छाया के लिए हाहाकार मचाते
हरियाली के लिए नारे लगाते
आत्मदाह की धमकी देते
अखबारों के लिए
फोटो खिंचवाते
लेकिन उसी जगह
तामीर होती कॉलोनी में
एक फ्लैट पाने के लिए
सिफारिशी चिट्ठी की तलाश में
दर-बदर की ठोकरें खाते।


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