लोगों की राय

जीवन कथाएँ >> युगांतरकारी

युगांतरकारी

शुभांगी भडभडे

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3324
आईएसबीएन :81-7315-554-2

Like this Hindi book 14 पाठकों को प्रिय

195 पाठक हैं

आदर्शों, महानताओं एवं प्रेरणाओं से युक्त जीवन पर आधारित एक कालजयी उपन्यास....

Yugantarkari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘गुरु जी आप इतना भ्रमण करते हैं। हर रोज नए गाँव, नए प्रदेश, नई भाषाएँ, नई राहें। आपको सब कुछ नया या अपरिचित जैसा नहीं लगता ?’
‘कभी नहीं; एक बार हिंदुस्तान को अपना समझ लिया तो सभी देशवासी अपने परिवार जैसे लगते हैं। आप भी एक बार मेरे साथ चलें-लेकिन आत्मीयता के साथ तो देखेंगे कि आपको भी सारा देश अपने घर, अपने परिवार जैसा प्रतीत होगा।’
‘गुरुजी, आप इतनी संघ शाखाओं में जाते हैं, प्रवास करते हैं। क्या आपको लगता है कि पचास वर्षों के पश्चात संघ का कुछ भविष्य होगा?’

‘अगले पचास वर्ष ही क्यों, पचास हजार वर्षों के पश्चात भी संघ की आवश्यकता देश को रहेगी, क्योंकि संघ का कार्य व्यक्ति-निर्माण है। जिस वृक्ष की जड़ें अपनी मिट्टी से जुड़ जाती हैं, भूगर्भ तक जाती हैं, वह कभी नष्ट नहीं होता। दूर्वा कभी मरती नहीं, अवसर पाते ही लहलहाने लगती है।

‘संस्कृति व जीवन-मूल्यों पर आधारित, संस्कारों से निर्मित, साधना से अभिमंत्रित संघ अमर है रहेगा। उसके द्वारा किया जा रहा राष्ट्र-कार्य दीर्घकाल तक चलनेवाला कार्य है।’

हिन्दवः सोदराः सर्वे
न हिन्दुः पतितो भवेत्
मम दीक्षा हिन्दुरक्षा
मम मन्त्रः समानता
कृण्वन्तो विश्वं आर्यम्
वसुधैव कुटुम्बकम्
संघे शक्ति कलौ युगे।


भूमिका


परम पूज्य गुरुजी—राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक, एक लोक-विलक्षण व्यक्तित्व हुआ करते थे। उनकी जीवन-शैली आत्यांतिक प्रभावशाली है। मैं स्वयं संघ कार्यालय के पास रहती थी। मैं उन्हें नित्य नियमित रूप से देखा करती थी। मुझे आज इस बात का एहसास हो रहा है कि शाखा के अनुशासन और बौद्धिक संस्कारों का मुझ पर अनजाने में ही गहरा असर हुआ था। रा.स्व. संघ के संस्थापक-आद्य सरसंघचालक परम पूज्य डा. हेडगेवार के जीवन पर मैंने डरत-डरते ही मराठी में ‘कृतार्थ’ शीर्षक उपन्यास लिखा, जो हिंदी  में ‘पारसमणि’ नाम से प्रकाशित हुआ। मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया। इस महामानव के जो स्वयं हिमालय समान उत्तुंग है, चरणों के पास पहुँचना भी मेरी जैसी सामान्य महिला के लिए कठिन था। वैसे भी चरित्रात्मक उपन्यास लिखना उतना ही कठिन है जितना कि शिव-धनुष उठाना। मेरी हमेशा धराणा यही रही है कि स्वयं ईश्वर ही सहायता करे, तभी यह संभव है।

केवल इसी श्रद्धाभावना के साथ मैंने प.पू. गुरुजी के जीवन पर आधारित उपन्यास-रचना का शिव-धनुष उठाया। परंतु ऐसा नहीं कि जीवन में जो सोचते हैं वह साकार होता ही है, इसे पूरा करने के लिए हर मोड़ पर ज्येष्ठ-श्रेष्ठ व्यक्तियों की उँगली पकड़कर ही मैं इस महानायक के चरणों के निकट पहुँच सकी।
प्रस्तुत उपन्यास ‘युगांतकारी’—में प.पू. गुरुजी के संपूर्ण चरित्र को मैंने जैसे समझा, वैसे आपके समक्ष रखा है। उनके चरित्र का यह आकलन मेरा अपना है। यह रा.स्व. संघ का अधिकृत प्रतिपादन नहीं है। उपन्यास एक ललित विधा होने के कारण इसमें लालित्य है, प्रकृति-वर्णन है। इस जीवन चरित्र में कई बार गुरुजी के जीवन की घटनाएँ मेरे स्मृति-कोष से यथावत् आई होने के कारण क्रम से नहीं आई हैं। ऐसा नहीं कि उसमें सभी अतीत की घटनाओं या व्यक्तियों का उल्लेख होगा। इसलिए उपन्यास पर उठाई गई आपत्तियाँ, टीका-टिप्पणियाँ मुझ पर, मेरे लेखन के अनुषंग से हों—बस इतनी ही प्रार्थना है।

प.पू. डॉक्टर साहब ने संघ की स्थापना की, उसे संस्कारों का बल दिया, सद्विचार की साधना, विस्तारित दिशा, विस्तारित कार्यक्षेत्र का मार्ग प्रदान किया। प.पू. गुरुजी ने इसी राह से आगे बढ़ते हुए संघ को भव्यता प्रदान की तथा स्थिरता, व्यापकता, सर्वसमावेशकता तथा लचीलापन दिया। इसी कारण तैंतीस वर्षीय कालखंड में रा.स्व. संघ को अखिल भारतीयता प्राप्त हुई। संघ का विचार उन्होंने गतिमान रखा। अपनी शाखाओं से विस्तारित ‘संघ’ जैसे महावृक्ष का बीज डॉक्टर साहब ने बोया और अखंड स्नेह तथा कार्य-जल के सिंचन से गुरुजी ने उसे दृढ़मूल तथा संवर्धित किया।
रा.स्व. संघ में ही गुरुजी के जीवन को आकार प्राप्त हुआ। वे पहले प्राध्यापक रहे, उसके बाद संन्यास धर्म की दीक्षा ग्रहण करने के लिए उन्होंने सारगाछी को प्रयाण किया। संघ कार्य पर प्रगाढ़ श्रद्धा तो जैसे उनके लहू में ही बसी हो। डॉक्टर साहब की संघ से विषयक आस्था का एहसास, अविचल कार्य-निष्ठा और राष्ट्र-संघटना के संकल्प से प्रभावित होकर गुरुजी ने मनसा, वाचा, कर्मणा संघ में प्रवेश किया। लोकमान्य तिलक, स्वातंत्र्य वीर सावरकर, स्वामी विवेकानंद, योगी अरविंद की विचारधारा से प्रवाहित हो रही हिंदू संस्कृति, हिंदू राष्ट्रीयता का उन्होंने मूलभूत चिंतन किया तथा उससे प्राप्त कार्य-दिशा का उन्होंने विस्तार किया।

उस कालखंड में उन्हें डॉक्टर साहब के साहचर्य में आए हुए निष्ठावान्, त्यागी, समर्पणशील, कर्तृत्व-संपन्न कार्यकर्ताओं का साथ मिला। गुरुजी की आकलनशक्ति, उनका सर्वकष ज्ञान और असीम कार्यशक्ति के आधार पर मनःपूर्वक की हुई संघ सेवा भारत के गाँव-गाँव में शुरू हुई संघ शाखाओं में विकसित हुई। संपूर्ण भारत में शाखाओं का बारीक, लेकिन मजबूत जाल फैला हुआ था। देश के विविध स्थानों पर आयोजित हो रहे शिविरों और संघ शाखाओं, संघ शिक्षा वर्गों में वे स्वयं वहां उपस्थित रहते थे। इसी तरह से ‘भारत जोड़ो’ अभियान सहजता से पूर्ण हो गया। देश की सूक्ष्म घटनाओं की बिलकुल नई जानकारी लेने के कारण समाज जीवन से उनका निकटता से परिचय हो गया देशव्यापी संघ शाखाओं का प्रमुख सूत्रधार अर्थात् एक महाकाय परिवार के वे महानायक बन गए।

रा.स्व. कई बार, स्वतंत्रता के पश्चात् भी, सरकारी प्रकोप को झेलता रहा। संघ पर विपदाएँ लादकर उसे किस तरह समाप्त किया जा सकता है, इसका विचार प्रशासन कभी-कभी करता रहा। वास्तव में संघ को कभी किसी पद अथवा सत्ता की कामना नहीं रही है। परंतु संघ की बढ़ती लोकप्रियता तथा दृढ़तर लोक-संघटन का कार्य प्रशासन से देखा नहीं गया। प्रशासकों को संघ से ईर्ष्या होती रही। संघ पर प्रतिबंध लगने पर भी उस अग्नि दिव्य से बाहर निकलने के बाद कुंदन की तरह खरे उतरे संघ ने अपार लोकप्रियता प्राप्त की थी। गुरुजी कर्तृत्व, नेतृत्व और वक्तृत्व से परिपूर्ण होकर तथा सत्य का एहसास कराकर प्राकृतिक तथा राष्ट्रीय आपदाओं से संघटित होकर सामना करने का आह्वान करते थे, इसलिए प्रशासन या फिर राष्ट्रीय आपदाओं के दरम्यान स्वयं ही गुरुजी को आमंत्रित करता था।

गुरुजी का पत्र-व्यवहार प्रचंड था। भारत के कोने-कोने में उनके पत्र पहुँचते। उन्होंने हाजारों की संख्या में पत्र लिखे। उसमें से संघ-प्रणाली शब्दांकित की। उसी तरह हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, संस्कृति, मानवता, सहविचार, राष्ट्रकार्य-गठन को फैलाने का आह्वान, तात्कालिक घटनाओं की गूँज, राष्ट्रचैतन्य का प्रवाह इस तरह के सौकड़ों विषय उनमें समाविष्ट रहते।
उनके अनुसार प्रयोजन के बिना कोई भी बात नहीं बनती। इसी कारण अपने सैकड़ों भाषणों में संदर्भ के साथ स्पष्ट करते हुए वे प्रयोजन की मीमांसा करते। मुस्लिमों का स्वतंत्रता पूर्वकालीन द्विराष्ट्रवाद आगे संघटित स्वरूप में आ गया। देश की अखंडता पर वज्रपात हो गया। देश का विभाजन हुआ। कश्मीर पर आक्रमण, चीन का आक्रमण (उत्तर-पूर्व सीमा पर), सन् 1965 का भारत-पाक संघर्ष, निर्वासितों का प्रश्न, राष्ट्रीय और प्राकृतिक आपदाएँ, बाँगलादेश की निर्मित आदि दीर्घ परिणामी घटनाओं का सूक्ष्म अध्ययन, उसी तरह हिंदू समाज रक्षण, स्वत्व की पहचान आदि महत्त्वपूर्ण व स्थूल विशेषताएँ उनके भाषणों से प्रकट होतीं। उनके वक्तृत्व पर लाखों लोग प्रसन्न थे। अपने भाषणों द्वारा संघ का उद्देश्य विशद करते हुए हिंदुत्व ही राष्ट्रीयता तथा यही संघ का वैचारिक एवं कृतिशील मूलाधार है यह वे लोगों को समझाते। हिंदुत्व की संकल्पना प्रतिक्रियात्मक नहीं है। यह राजनीतिक आवश्यकता से निर्माण नहीं हुई है। यह भावनात्मक धारणा है। समाज में नैतिक सामर्थ्य संघटित करने का कार्य संघ का है, यही उन्होंने स्पष्ट किया।

महात्मा गांधी का सामर्थ्य नैतिक बल पर तथा उनकी साधना के कारण उन्हें प्राप्त हुआ था, इसलिए प्रसंगवश वे भारत को अपने वशीकरण मंत्र से वश में कर सके। यह सब वे अपनी बैठकों में, अध्ययन वर्ग के शिविरों में कहते। सत्ता की राजनीति करने की उन्हें कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी।

गुरुजी लोक-विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनमें अनेक गुणों का समावेश था। संघ में प्रवेश करने के पश्चात उन्होंने हिंदुत्व का भावात्मक अर्थ स्पष्ट करके उसका पालन किया। हमारी जीवन-प्रणाली, सांस्कृतिक परंपरा, हमारा इतिहास, हमारे नैतिक मूल्य, आदर्श, स्वत्व की पहचान और उसमें मानवता का आशय स्पष्ट करते समय अपनी अस्मिता उन्होंने स्पष्ट की। हिंदुत्व एक विधायक दृष्टि है। इतना ही नहीं बल्कि विश्व मानवता और समरसता ही हिंदुत्व का लक्ष्य है। राजनीति संघ का ध्येय कभी नहीं रहा और भविष्य में भी न हो, इस तरह के विचार वे अपने वक्तृत्व में जोर देकर कहते।

व्यक्तिगत धर्मनिष्ठा, राष्ट्रीय चारित्र्य, राष्ट्रहित का प्राधान्य, व्यक्तिगत उदारता, धार्मिक श्रेष्ठता आदि राष्ट्रीय चारित्र्य की कल्पनाएँ उन्होंने प्रस्तुत कीं। शक्ति की उपासना करने का उपदेश दिया। सामर्थ्य व पुरुषार्थ का समर्थन किया। धर्म के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। अन्य धर्मों के प्रति उनके मन में सम्मान व आदरभाव था, क्योंकि सभी धर्मों के मूल सिद्धांत मानवता पर आधारित हैं। गुरुजी कहते थे, ‘‘बँटवारे के बाद दो राष्ट्रों का उदय हुआ। उस समय साधना संपत्ति का बँटवारा हो गया। भरत में रह रहे मुसलामानों की जड़ हिंदू ही है। आज भारत की सारी साधन-संपत्ति का वे भोग करते हैं। अपने को उसका हिस्सेदार समझते हैं। परंतु श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे हिंदू पूर्वजों के साथ उनके पूर्वजों का भी जन्म संबंध था, यह वे नकारते हैं। धर्मांतर होने से पूजा पद्धति, आराधना के प्रकार में परिवर्तन हो गया, लेकिन संस्कृति और इतिहास कैसे बदलेगा ? लेकिन ऐसा न होने के कारण धर्मान्तर का अर्थ राष्ट्रांतरण है।’ गुरुजी सभी धर्मियों से कहते, ‘‘जिस भूमि पर आप रहते हैं, उस भूमि को अपनी समझो, उस संस्कृति व परंपराओं को अपना समझो, इसी में सभी का गौरव है।’

गुरुजी का कार्य इतना प्रचंड तथा विविध स्तर पर है कि उपन्यास लिखते समय मेरी स्थिति ऐसी हो गई कि सूरज की अनेक प्रकाश-शलाकाओं से सारा भुवन प्रकाशमान हो, परंतु सूरज की एक किरण भी हाथ में पकड़ना असंभव हो। हनुमान जी जनमते ही सूर्य-बिंब की ओर लपके थे। वैसी लपक, वैसी उड़ान मेरे जैसी ललित लेखिका के पास कैसे होगी ! परंतु भक्तिभाव, श्रद्धा से सागर पर भी सेतु-निर्माण हो सकता है। इस विचार से ही मैंने यह साहस किया है।

गुरुजी का भारत भ्रमण भी एक गहन अध्ययन का विषय है। हिंदुस्तान के गाँव-गाँव में संघ शाखा खुलें, संघ-विचारों का बीजारोपण हो, इसलिए वे तीन बार संपूर्ण भारत की यात्रा करते हुए, तैयार की गई व्यक्ति-श्रृंखला को दृढ़ से दृढ़तर करते जाते। आचार्य विनोबा भावे के अतिरिक्त उनके सामने समान देश भर में गाँव-गाँव, स्थान-स्थान की यात्रा करनेवाला व्यक्ति दूसरा कोई नहीं है। आचार्य विनोबा भावे ने साढ़ें तेरह वर्ष अखंड पदयात्रा की थी। भूदान के प्रचंड दान को आँचल में लेकर उन्होंने जनसाधारणों का दान कर दिया था। गुरुजी प्रसन्न मन से तथा उत्साह के साथ आजीवन यात्रा की। उनकी जीवन अवतरित प्रवाहिता लोकमाता भागीरथी के समान था। भागीरथी जिस-जिस प्रदेश से प्रवाहित हुई, वह सारा प्रदेश सुजलां, सुफलाम् तथा समृद्ध हो गया। यह विलोभनीय व्यक्तित्व, जो जीवन की अंतिम घड़ी तक कार्यरत था, एक जीवन को परिपूर्ण करता गया। एक युग साक्षात्कार बन कर चला गया।

उपन्यास मेरी सबसे प्रिय साहित्य-विधा है। नित्य सुमंगल उषःकाल मेरे लिए चैतन्य की तथा लेखन साधना की वेला है। लेखन मेरी साँस ही परंतु उपन्यास रचना के लिए एक साधना की आवश्यकता होती है। बरसों से साधना करने पर ही यह सिद्धि प्राप्त हो सकती है। मेरे तीस उपन्यास मिलाकर कुल इकसठ पुस्तकें प्रकाशित होने पर भी मुझे सतत इसका अहसास रहता है कि मैं कहीं-न कहीं अधूरी हूं। चरित्र-प्रधान उपन्यास लिखते समय और रचना पूरी होने के बाद भी चित्त पर बारी बोझ रहता है। आदर्श की ओर मेरा रुझान रहता है। ज्ञान-संपन्न, कर्तव्य संपन्न तथा अखंड कर्मयोगी रहे महामानव की जीवन-शैली से मैं अभिभूत होती हूँ। व्यक्तिगत निर्मोही, राष्ट्र, समाज के प्रति निष्ठावान रहे महानायकों के आचार-विचारों का मेरे दिलो-दिमाग पर गहरा प्रभाव है।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book