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जीवन जीने की कला

दलाई लामा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3311
आईएसबीएन :81-7315-591-7

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इस पुस्तक में वर्तमान पीढ़ी हेतु भगवान बुद्ध के ज्ञान और उपदेशों की प्रासंगिकता का वर्णन हुआ है

jeevan jeene ki kala

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आभार

धर्मोत्सव व्याख्यानों को एक बार फिर संकलित करने के लिए अपने आध्यात्मिक गुरुओं-परमपावन तेनजिंग ग्यात्सो, चौदहवें दलाई लामा और आदरणीय लामा झोपे रिनपोचे की अनुमति एवं आशीर्वाद पाना मेरे लिए महान् गौरव की बात है। उनकी अपरिमेय कृपा और स्नेह के लिए मैं हृदय से उनका धन्यवाद प्रकट करती हूँ। परमपावन के निजी कार्यालय के तेनजिन गेचे तेथांग, ल्हाकदोर-ला और तेनजिन तकल्हा का सहयोग व सहायता बहुमूल्य हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वाविद्यालय के सहकर्मियों के सहयोग के लिए मैं उनकी भी कृतज्ञ हूँ।

तुशिता केंद्र के सभी सदस्यों को उनके द्वारा दिए गए प्रोत्साहन और परामर्श के लिए धन्यवाद एवं कृतज्ञता। मैं आदरणीय येशे चोडरोन, डॉ. जैकी टार्टर रोजर कुनसांग, क्लेअर इसिट, मार्सेल बर्टल्स, फ्रांसेस शेनकर, सूसी रॉय जॉन महोनी गोह, ब्रूनो फ्यूरर, रंजीत वालिया, सुनील सूद, चौधरी भंडारी, माथुर, झालानी (सभी दंपती), साधना कुमार तथा सतीश नंदा-इन सबकी विशेष रूप से ऋणी हूँ।
अपने डॉक्टरल विद्यार्थियों, विशेष रूप से सारा जयाल साहनी का सहयोग पाना मुझे हमेशा सुखद लगता है।

अंत में सुखःदुःख में सदैव साथ देने के लिए अपने पिता प्रीतम सिंह और अमेरिका स्थित मेरे परिवार-द पॉल्स-का कोटिशः धन्यवाद।

रेणुका सिंह

प्रस्तावना



तुशिता महायान ध्यान केंद्र की स्थापना स्व. लामा येशे तथा आदरणीय लामा झोपे रिनपोचे, जो वर्तमान में उसके आध्यात्मिक निदेशक हैं, ने की थी। सन् 1950 के दशक में तिब्बत पर आई त्रासदी और कई निर्वासित तिब्बतियों के भारत व अन्य स्थानों पर बस जाने के बाद तिब्बती बौद्ध धर्म की सभी धाराओं, जो अपनी आध्यात्मिक धरोहरों को सुरक्षित रखने हेतु प्रयासरत हैं, के लिए हमारे महागुरु परमपावन दलाई लामा प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। लामा के अनुसार, दिल्ली के ‘तुशिता केंद्र’ की स्थापना के पीछे जहाँ एक तरफ तिब्बतियों के प्रति दरशाई गई उदारता और सहयोग के लिए भारतवासियों के प्रति कृतज्ञता रही है वहीं दूसरी तरफ भगवान् बुद्ध एवं अन्य महान् आत्माओं की पुण्यभूमि को नमन करने की पवित्र भावना रही है।

तुशिता की यह पच्चीसवीं वर्षगाँठ है। तुशिता प्रतिवर्ष धर्मोत्सव के अवसर पर प्रवचन आयोजित करता है, जिसमें परमपावन दलाई लामा बौद्ध धर्म पर व्याख्यान देते हैं। यही स्व. लामा येशे का स्वप्न था। पिछले पच्चीस वर्षों में ऐसे सत्रह धर्मोत्सव आयोजित हुए हैं।
यह पुस्तक धर्मोत्सव प्रवचनों के संकलन ‘रूपांतरित मन’ की अगली कड़ी है। ‘चार महान् सत्य’ नामक व्याख्यान, जो संभवतः’ 80 के दशक के किसी आरंभिक वर्ष में दिया गया था, को छोड़कर सम्मिलित सभी व्याख्यान वर्ष 1999 और बाद के हैं। बौद्ध मत में चार सूत्र’, ‘छह पूर्णताओं के माध्यम से स्व-विकास’, नकारात्मक भावनाओं पर विजय पाना’ और ‘समचित्तता का विकास’ आदि सब निर्वाण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

परमपावन ने अपने व्याख्यानों में, भगवान् बुद्ध ने 2500 वर्ष पूर्व जो सिखाया था, उसे अधिक सुगम और प्रभावी बनाने के लिए आधुनिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया है। विषय के विश्लेषण और व्याख्या पर अधिक जोर दिया गया है, क्योंकि बौद्ध धर्म के अनुयायी उसे आज के बुद्धि और विश्लेषण-प्रधान युग के अनुकूल पाते हैं। परमपावन धर्म को युद्ध, शांति, राजनीति, विकास, यौन नीतिशास्त्र मीडिया और पारिवारिक जीवन से भी जोड़ते हैं। यह पुस्तक मुख्यतः उन पाठकों के लिए है, जो धार्मिक अनुष्ठानों से परे धर्म के वैज्ञानिक और दार्शनिक पहलुओं में अधिक रुचि रखते हैं। परमपावन भगवान् बुद्ध के वचनों को ही विस्तार देते हैं तथा अंतर्धर्मीय संवाद के महत्त्व को रेखांकित करते हैं। आज के अशांत युग में जनसाधारण को भौतिक सुखों के पीछे भागने और अपूरणीय इच्छओं की मरीचिका में भटकने की बजाय अपनी आंतरिक शक्तियों के विकास और दायित्व-बोध की अधिक आवश्यकता है।

आज मनुष्य ने जहाँ एक ओर समुद्र की गहराई और आकाश की ऊँचाई को माप लिया है, वहीं दूसरी ओर पृथ्वी से दूर अनंत अंतरिक्ष में अपना कदम रखा है, बुद्धिमत्ता का निवास, हमारा मनोलोक अब भी रहस्यमय और अबूझ है। लेकिन 2500 वर्ष पूर्व बुद्ध शाक्य मुनि ने ध्यान के माध्यम से मन के सारतत्त्व को अनुभव किया था। उन्होंने आग्रह किया है कि हम अपने अंतस में विराजमान प्रकाश-पुंज को पहचानें तथा अज्ञानता से बचते हुए सर्वग्राही बुद्धिमत्ता तथा संवेदना का विकास करें।

उन्नीसवीं सदी की यूरोपीय मुख्य धारा के सामाजिक विचारकों की भविष्यवाणियों के बावजूद धर्म अब भी एक प्रबल शक्ति है। आधुनिकता ने कुछ धार्मिक विश्वासों को कम जरूर किया है, लेकिन वह संदेहवाद को विश्वव्यापी बनाने में असमर्थ रही है। इस पृष्ठभूमि में व्याख्यानों का यह संकलन संपूर्ण विश्व के लोगों में बौद्ध धर्म की समझ बढ़ाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया जा रहा है। जैसा कि एन.पी. जैकबसन* अपने विश्लेषण में भगवान् बुद्ध के विचारों की समसामयिकता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-
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*‘बौद्ध धर्म-विश्लेषण का धर्म’, 1966।
ह्यूम की ही तरह स्वयं को तात्त्विक फंदों में फँसानेवाले विवेकहीन प्रयासों से मनु्ष्य को मुक्त कराने की आकांक्षा से शुरुआत करते हुए बुद्ध मनुष्य की हर जिज्ञासा का समाधान बहुत सादगी और स्पष्टता से करते हैं। नीत्शे के समान बुद्ध भी अपराध-बोध से ग्रस्त एक कमजोर इनसान की कुढ़न द्वारा उसकी आंतरिक शक्ति क्षीण होते जाने का दयनीय नजारा देखते हैं। बुद्ध मार्क्स और एंजिल्स की तरह अनर्गल कल्पनाओं और मिथकों के अबूझ रहस्यों से आक्रांत मनुष्य को मुक्त कराने की दृष्टि भी रखते हैं। यह देखने में बुद्ध जॉन स्ट्रअर्ट मिल के समान हैं कि इनसान को गुलाम बनानेवाले सबसे कठोर बंधन सिंहासनों पर बैठे निरंकुश क्रूर शासकों द्वारा नहीं लगाए गए हैं बल्कि ये अंतर्मन को संचालित करनेवाली उन सूक्ष्म धारणाओं की देन हैं, जो उसकी निष्ठा और स्वतंत्रता का हनन करती हैं। बुद्ध इस आकांक्षा में फ्रायड के समान भी हैं कि वे मनुष्य के अहंभाव या अति अहंभाव की बाध्यकारी निरंकुश जकड़न-जो उसकी हर खुशी को विकृत, दमित या नष्ट कर देती है-से उसके अंदर छिपी रचनात्मक शक्तियों को मुक्त कराएँ। विटगेंस्टाइन की तरह वे मानवीय बुद्ध को ‘आच्छादित’ करने में भाषा की भूमिका से सावधान रहने की बात भी करते हैं।

एक शुद्ध हृदय, जो भावनात्मक विकारों और तुच्छ कामनाओं से मुक्त और परिष्कृत हो, हमारे मन को बंधनों और अज्ञानता से छुटकारा दिला देता है। ध्यान के निरंतर अभ्यास से निर्वाण की अवस्था प्राप्त की जा सकती है। ध्यान हमें अपनी विशिष्ट समाज-संस्कृति, अनुकूलित मानसिकता और मनोदैहिक रोगों से मुक्ति दिलाता है। अहंवाद और आसक्ति उपजानेवाले मनोभावों एवं कामनाओं से स्वयं को मुक्त कराने की आंतरिक विजय के पश्चात् व्यक्ति चिंता, अक्षमता और अवसाद जैसी नकारात्मक मनःस्थितियों को परमानंद और संतुष्टि में रुपांतरित कर सकता है। इसलिए निर्वाण अर्थात् दुःख से ऊपर उठ जाने के कई मार्ग हैं।
जाफरी हॉपकिंस के अनुसार, दुःख के त्यागने मात्र से बौद्धिक ऊहापोह का अंत हो जाना ही निर्वाण है। बात केवल तर्क की समाप्ति या दुःखों से उत्तीर्ण हो जाने की ही नहीं है बल्कि योगी के अंतर्मन की उस घटना की है, जहाँ, दुःख बस अनुपस्थित है।* इस प्रकार ‘चार महान् सत्य’ एक सही मार्ग है, जो निर्वाण की ओर ले जाता है।
अंत में, मैं हमारे आध्यात्मिक निदेशक श्रद्धेय लामा झोपे रिनपोचे का संदेश उद्धृत करती हूँ-

जीवन का उद्देश्य केवल सुख पान और अपनी ही समस्याएँ सुलझाना नहीं है, उसका मुख्य उद्देश्य समस्त प्राणियों को हर दुःख से छुटकारा दिलाकर प्रसन्नता की ओर ले जाना, विशेषतः प्रबोधन की चरम उपलब्धि तक ले जाना है। यह हमारा लक्ष्य ही नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व भी है।
यदि यह हमारा उत्तरदायित्व है तो क्या हममें उतनी क्षमता है कि हम अन्य लोगों को दुःखों से छुटकारा और सुख पाने में सहायता कर सकें ? हममें वह क्षमता है। प्रथम, हमारे मन का स्वभाव बुद्ध है। द्वितीय, हमने श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म लिया है; यह बहुमूल्य मानव शरीर आठ स्वाधीनताओं और दस विपुलताओं से सुसज्जित है।
 बुद्ध स्वभाव मन की उस सामर्थ्य का नाम है, जो मानव सहित सभी प्राणियों को अल्पकालिक या परम सुख उपलब्ध करा सकती है। हमारी श्रेष्ठ मनुष्य योनि हमें अपने बुद्ध स्वभाव के पूर्व विकास का हर अवसर प्रदान करती है। समस्त प्राणियों को कष्टों से छुड़ाकर उनके जीवन में सुख के संचार का अर्थ है दुःखों के मूल कारण-उनके मन में घर किए हुए अज्ञान, अस्मिता की भ्रांत धारणा-का अंत।
ऐसा कर पाने का एकमात्र उपाय है सही मार्ग-दो सत्यों,
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*‘रिक्तता पर चिंतन’, 1983।
चरम और पारंपरिक-का ज्ञान होना। यह ज्ञान यथार्थ और भ्रम के अंतर को स्पष्ट करता है। इसलिए लोगों को निर्मल स्वरूप, जो एकमात्र सच्चाई है, को समझानेवाली शिक्षाओं को सुनना और उनपर चिंतन-मनन करना चाहिए। इस आचरण से प्राणी दुःखों के मूल-‘मैं’ के निर्मल स्वरूप से अज्ञानता-का ही नाश कर सकते हैं।
परिणामतः सभी भ्रांतियाँ, कर्म और उनके चिह्न-न जाने कब से जारी बुढ़ापा, बीमारी, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र-सदा के लिए मिट जाते हैं तथा निर्वाणजनित अनंत सुखों के द्वार खुल जाते हैं। तत्पश्चात् जटिल धुँधलके को क्रमशः चीरते हुए सर्वज्ञता तक पहुँचा व्यक्ति पूर्ण जाग्रत् बुद्धत्व की अद्भुत स्थिति महानिर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
अपने आत्मिक विकास के लिए हमें परम पावन दलाई लामा जैसे महान् शिक्षक-जो स्वयं त्याग, बोधिसत्त्व, रिक्तता जैसे कई पड़ाव पार कर चुके हैं-की आवश्यकता है। यह जानकर मुझे अति प्रसन्नता हो रही है कि परम पावन दलाई लामा के धर्मोत्सव प्रवचन पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

मुझे आशा है कि निर्वाण के कई मार्ग दरशाती यह पुस्तक लोगों को समकालीन जीवन की खंडित सच्चाइयों में समाधान खोजने में सहायक होगी।

रेणुका सिंह

बौद्ध मत में चार सूत्र



बौद्ध मत के चार सूत्र हमारी धार्मिक शिक्षाओं के महत्त्वपूर्ण भाग हैं। मन को साधना और शांतचित्तता आज के समय में भी प्रासंगिक है। मन के रूपांतरण की बौद्ध पद्धति मात्र विश्वास पर नहीं अपितु विश्लेषणात्मक चिंतन पर आधारित है। इसलिए तथ्यान्वेषण अति आवश्यक है।

इस क्षेत्र में अन्वेषण करने के लिए एक संशयी प्रवृत्ति लाभप्रद है। आप किसी विचार की अंधश्रद्धा के कारण स्वीकार नहीं करते। संशयवाद प्रश्नों को जन्म देता है और प्रश्न अन्वेषण माँगते हैं। अन्वेषण एक विश्लेषणात्मक चिंतन है, जिसके माध्यम से हम अधिक स्पष्ट जानकारी-एक स्पष्टतर यथार्थ-बोध प्राप्त करते हैं। ऐसी प्रामाणिक जानकारी से गहरी प्रतिबद्धता का जन्म होता है। ऐसी ठोस प्रतिबद्धता ही मानसिक रूपांतरण को संभव बनाती है।
दूसरे शब्दों में, हमारा सिर या मस्तिष्क एक प्रयोगशाला के समान है। मानवीय बुद्धि अन्य प्राणियों से भिन्न और अनूठी है। मस्तिष्क की इस प्रयोगशाला में विभिन्न मनोभावों की पड़ताल करने के लिए एक साधन के रूप में मानवीय बुद्धि या बौद्धिक क्षमता का उपयोग भावनात्मक स्तर पर विभिन्न प्रयोगों के लिए किया जाता है। यह हमारी भावनाओं के रूपांतरण को संभव बनाता है।

कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार मनोभाव अनिवार्यतः नकारात्मक नहीं होते। भाव तीव्र होकर आवेश बन जाता है। जहाँ कुछ मनोभाव ध्वंसकारी होते हैं, वहीं अन्य रचनात्मक। वैज्ञानिकों के साथ एक बैठक में यह निष्कर्ष निकला कि बुद्ध के मन में भी भावनाओं का समावेश है। सभी के लिए करुणा व सेवा की प्रबल भावना और साथ ही एक रिक्तता की अनुभूति।
 
आरंभ में रिक्तता की एक अस्पष्ट अनुभूति होती है। इस चरण में कोई भावना नहीं होती, किंतु जैसे-जैसे उसकी उपस्थिति का आभास बढ़ने लगता है, भावना की तीव्रता भी बढ़ने लगती है। एक निश्चित स्तर पर रिक्तता की अनुभूति स्वयं ही एक प्रकार की भावना को जन्म देती है। इस क्रम में बुद्धिमत्ता और प्रेमपूर्ण संवेदना के विकास की प्रक्रिया में आप इन आंतरिक गुणों को सशक्त करते हैं, जिससे भावनाओं के ज्वार उपजते हैं। हम बुद्धि और भावना की संबद्धता स्पष्ट देख सकते हैं। इस प्रकार, मस्तिष्क और हृदय साथ-साथ चल सकते हैं। मेरी समझ से यही बुद्धवादी दर्शन है।

भारतीय मनीषा की प्राचीन परंपराओं में ऐसी पद्धतियाँ अपनाई गई हैं। बौद्ध मत की विशेषता इसमें है कि बुद्ध अपने ही वचनों पर प्रश्न करने की स्वतंत्रता देते हैं। बुद्ध स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जिस प्रकार एक स्वर्णकार स्वर्ण की परीक्षा उसको कसौटी पर रगड़कर-काटकर और अग्नि में तपाकर करता है, उसी प्रकार भिक्षुगण और अन्य बुद्धमान लोग उनके कहे गए शब्दों की परीक्षा करें। उन्होंने लोगों को उनकी शिक्षाओं को निरे विश्वास के आधार पर स्वीकार न करने का आग्रह किया है।

इस प्रकार शास्त्रीय ज्ञान और वास्तविक अनुभव में आपसी संबंध है। दोनों साथ-साथ चलते हैं। मुझे लगता है कि प्रत्येक देश की अपनी एक प्रमुख धार्मिक परंपरा है। धर्म के दो पहलू हैं-एक है मन का अभ्यास और दूसरा है दार्शनिक। मन के अभ्यास को लेकर सभी प्रमुख धर्मों में समानता है। उन सभी में मानव-मन को परिवर्तित करने की क्षमता है। यह इस बात से स्पष्ट है कि सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन का संदेश देती हैं। संदेश वही हैं, परंतु कुछ मामलों में उनके भिन्न दर्शनों के अनुसार अर्थ भिन्न हो सकते हैं।
विभिन्न धर्मों के दर्शन में भारी भिन्नता हो सकती है; किंतु हम यह नहीं कह सकते कि कोई एक धर्म किसी अन्य धर्म से बेहतर है। जैसा मैंने पहले कहा है कि सभी धर्मों में मन को परिवर्तित करने की क्षमता है। हममें से प्रत्येक मनुष्य की मानसिक प्रवृत्ति भिन्न है तथा इसी भिन्नता के कारण विविध पद्धतियाँ और पहुँच-मार्ग देखने को मिलते हैं; किंतु परिणाम देने या प्रभावोत्पादकता में लगभग समान ही है।

इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि अमुक धर्म दूसरों से बेहतर है; यह कहना कठिन है। यह अभिवृत्ति हमारे अंदर अन्य सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं के प्रति आदर-भाव विकसित करती है। भूतकाल में करोड़ों लोग विभिन्न-परंपराओं से प्रेरित हुए हैं। यह निष्ठा उन्हें एक सार्थक जीवन जीने में सहायक हो सकती है। भविष्य में भी करोड़ों लोग इसी प्रकार प्रेरित होंगे। परिणामस्वरूप उनके जीवन भी अधिक सार्थक और प्रेम से परिपूर्ण हो जाएँगे। जहाँ तक इन धर्मों के दर्शन का प्रश्न है, तो हम यह नहीं कह सकते कि अमुक दर्शन अधिक जटिल है या कोई अन्य अधिक सुगम।

तिब्बती भाषा में बौद्ध मत की चार मुहरों या सूत्रों की बात कही गई है। ये हैं-सभी कारणभूत या सकारण घटनाएँ अस्थायी हैं। सभी प्रदूषित सत्ताएँ दुःखदायी हैं। सभी सत्ताएँ निस्स्वार्थ और रिक्त हैं तथा निर्वाण ही शांति है।
पहले सूत्र-‘सभी सकारण घटनाएँ अस्थायी हैं’ की व्याख्या के लिए हमें यह समझना होगा कि इस कथन का आधार अस्थायी होने से संबंधित है। ऐसी कोई विशिष्ट घटना, जो अपने अस्तित्व के लिए उसके कारणों और परिस्थितियों पर निर्भर है, सकारण घटनाओं की श्रेणी में आती है। वह उसके कारणों और परिस्थितियों पर आश्रित है। उदाहरण के लिए, किसी विशिष्ट तंबू में बैठे हमें यह बोध है कि वहाँ कोई वृक्ष नहीं है। ‘वृक्ष’ की इस अनुपस्थिति के कारण हम जानते हैं कि वृक्ष अस्तित्व में नहीं है। इस उपाय से हमारा मस्तिष्क कुछ जान सकता है; यथा वृक्ष का अस्तित्व में न होना। यह स्पष्ट रूप से सिद्ध करता है कि वृक्ष की अस्तित्वहीनता वास्तव में अस्तित्व में है, क्योंकि वह हमारी जानकारी का विषय है।
साथ ही वृक्ष की अस्तित्वहीनता भौतिक अर्थ में, जिसे हम देख सकें, अस्तित्व में नहीं है। वृक्ष निश्चित ही एक अनुभव करने योग्य वस्तु है और वास्तव में कई वस्तुओं को, जिन्हें हम मान लेते हैं, वृक्ष की अस्तित्वहीनता की भाषा में समझना होगा। उदाहरणार्थ, फूलों को ही लीजिए, जिन्हें हम देख सकते हैं। फूलों की कई विशेषताओं में एक यह भी है कि (जिस पर वह लगा था) वह पेड़ अनुपस्थित है। इसीलिए हम इस विशिष्ट फूल पर उन वस्तुओं, जो फूल नहीं हैं, की अस्तित्वहीनता का अनंत अस्तित्व पाते हैं। यह निश्चित है कि उस फूल पर इन अन्य वस्तुओं की अस्तित्वहीनता एक ज्ञेय वस्तु है। परंतु यह भी सत्य है कि यह वस्तु ऐसी नहीं है जिसके स्वरूप का वर्णन किया जा सके।

इसी प्रकार अस्थायित्व या अस्तित्वहीनता जैसे विषय अनुभव-योग्य और ज्ञेय हैं, परंतु साथ ही उनका स्वतःस्फूर्त अस्तित्व नहीं है।
इसी तरह जब हम किसी विशिष्ट फूल की नहीं, अपितु सामान्यता और विशिष्टता की बात करते हैं, तब इस ‘फूल’ की बात सामान्य अर्थ में कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, आप एक विशिष्ट फूल किसी विशिष्ट स्थान पर, किसी निश्चित समय पर देखें। फिर एक निश्चित अवधि बीतने के पश्चात् आप एक भिन्न रंग का भिन्न फूल देखें। इस दूसरे फूल को देखने मात्र से आप निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह भी एक फूल ही है। अतः जब हम ‘फूल’ शब्द का उल्लेख करते हैं तो किस विशिष्ट वस्तु को यह नाम देते हैं ?

यदि ‘फूल’ शब्द का प्रयोग उस विशिष्ट फूल के लिए किया गया, जिसे आपने पहले देखा था तो स्पष्ट है कि वह विशिष्ट फूल वह फूल नहीं था जिसे आपने बाद में देखा। इस तरह एक प्रकार का ‘फूल’ होता है, जिसके गुण दोनों फूलों में विद्यमान हैं। फिर भी, यद्यपि यह एक वास्तविकता है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि कोई एक ‘सर्वमान्य’ फूल है जो सभी फूलों में व्याप्त हो और अन्य फूलों से भिन्न उसका अपना अस्तित्व हो।
इसलिए जब आप एक विशिष्ट फूल को देखते हैं तब वास्तव में आप एक गुण को ‘देख’ रहे होते हैं, जो फूलेतर वस्तुओं में नहीं पाया जाता। यही गुण उन फूलों में भी होता है जिन्हें आप बाद में देखते हैं। इस गुणधर्मिता के कारण ही आप फूलों को समझ, अनुभव और अन्य वस्तुओं से अलग कर सकते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि यह तथ्य परिस्थितिजन्य है या सकारण ? सभी सत्ताएँ दो वर्गों में बाँटी जा सकती हैं-विद्यमान सत्ताएँ और काल्पनिक सत्ताएँ। जब हम किसी विद्यमान सत्ता के बारे में बात करते हैं तो वह इस अर्थ में निश्चित होती है कि वह बोधगम्य है। काल्पनिक सत्ताएँ किसी प्रकार की चेतना द्वारा अनुभव नहीं की जा सकतीं।
हमारे कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि जो वस्तु मन की किसी भी चेतना से अनुभव की जा सके, वह विद्यमान होती है। इसलिए एक बार फिर हमें मन के प्रकारों का स्पष्ट वर्गीकरण करना होगा-प्रामाणिक मन और अप्रामाणिक मन। यही कारण है कि जब आप बुद्धवादी ज्ञान-मीमांसा का अध्ययन करते हैं, तब उसमें मन के कई प्रकारों का वर्णन मिलता है।
 
प्रामाणिक ज्ञान के वास्तविक अर्थ को कई विद्वान् समान रूप से परिभाषित करते हैं और इसको लेकर उनमें आम सहमति है। तथापि इस पर भिन्न दृष्टिकोण भी हैं। दिङ्नाग और धर्मकीर्ति जैसे महागुरु इन बिंदुओं पर विस्तार से व्याखया करते हैं। कारणों और परिस्थितियों के निहितार्थ को लेकर भारी मतभेद, विविधता और वर्गीकरण हैं। परंतु कारणों के मुख्यतः दो प्रकार हैं-प्रथम, सारगर्भित या ठोस कारण-किसी वस्तु के मूल तत्त्व या स्वभाव को निर्धारित या प्रभावित करनेवाला मुख्य कारण। दूसरे को हम सहयोगी कारण कह सकते हैं, जो उस वस्तु के अस्तित्व में विद्यमान घटक है।
इसलिए मनोलोक के भीतर मन के सकारात्मक या नकारात्मक होने के अनुसार सकारात्मक या नकारात्मक भाव होता है, जिसके दो मुख्य कारण हैं-सारवान या ठोस कारण, जो उस सत्ता के स्वभाव को निश्चित करने के लिए उत्तरदायी हैं; द्वितीय, सहयोगी कारण, जो एक प्रकार से परिस्थितिजन्य कारक है, जो किसी विशिष्ट मन को विकास का अवसर देता है।


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