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पथ के साथी

महादेवी वर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3270
आईएसबीएन :9788180313028

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कुछ प्रमुख साहित्यकारों के जीवन से संबंधित पुस्तक....

Path Ke Sathi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पथ के साथी में महादेवी वर्मा ने अपने समकालीन रचनाकारों का चित्रण किया है। जिस सम्मान और आत्मीयता के साथ उन्होंने उन महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों का जीवन-दर्शन और स्वभावगत महानता को स्थापित किया है, वह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है।

पथ के साथी में संस्मरण भी है और महादेवीजी द्वारा पढ़े गये कवियों के जीवन-पृष्ठ भी। उन्होंने एक ओर इन साहित्यकारों की निकटता, आत्मीयता और प्रभाव का कलात्मक उल्लेख किया है, तो दूसरी ओर उनके समग्र जीवन-दर्शन को परखने का प्रयत्न किया है। यह प्रयत्न महादेवी के चिंतन, अनुभूति और दृष्टिकोण की विशद विशेषताओं को रेखांकित करता है।
पथ के साथी में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मैथलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान तथा सियारामशरण गुप्त के उत्कृष्ट शब्द-चित्र हैं।

दो शब्द

साहित्यकार की साहित्य-सृष्टि का मूल्यांकन तो अनेक आगत-अनागत युगों में हो सकता है; पर उनके जीवन की कसौटी उसका अपना युग ही रहेगा।
पर यह कसौटी जितनी अकेली है, उतनी निर्भान्त नहीं। देश-काल की सीमा में आबद्ध जीवन न इतना असंग होता है कि अपने परिवेश और परिवेशियों से उसका कोई संघर्ष न हो और न यह संघर्ष इतना तरल होता है कि उसके आघातों के चिह्न शेष न रहें।

एक कर्म विविध ही नहीं, विरोधी अनुभूतियाँ भी जगा सकता है। खेल का एक ही कर्म जीतने वाले के लिए सुखद और हारने वाले के लिए दुःखद अनुभूतियों का कारण बन जाता है।
जो हमें प्रिय है, वह हमारे हित के परिवेश में ही प्रिय है और अप्रिय है, वह हमारे अहित के परिवेश में ही अपनी स्थिति रखता है। यह अहित, प्रत्यक्ष कर्म से सूक्ष्म भाव-जगत् तक फैला रह सकता है। हमारे दर्शन, साहित्य आदि विविध साधनों से प्राप्त संस्कार, हमें अपने परिवेश के प्रति उदार बनाने का ही लक्ष्य रखते हैं पर, मनुष्य का अहम प्रायः उन साधनों से विद्रोह करता रहता है।

अपने अग्रजों सहयोगियों के सम्बन्ध में, अपने-आप को दूर रखकर कुछ कहना सहज नहीं होता। मैंने साहस तो किया है; पर ऐसे स्मरण के लिए आवश्यक निर्लिप्तता या असंगता मेरे लिए संभव नहीं है। मेरी दृष्टि के सीमित शीशे में वे जैसे दिखाई देते हैं, उससे वे बहुत उज्जवल और विशाल हैं, इसे मानकर पढ़ने वाले ही उनकी कुछ झलक पा सकेंगे।

महादेवी वर्मा

प्रयाग
श्रावणी पूर्णिमा
1956

प्रणाम


रवीन्द्र ठाकुर



कार्य और कारण में चाहे जितना सापेक्ष सम्बन्ध हो किन्तु उनमें एकरूपता, नियम का अपवाद ही रहेगी। बिजली की तीखी उजली रेखा में मेघ का विस्तार नहीं देखा जाता और सौरभ की व्याप्ति में फूल का रूप-दर्शन सम्भव नहीं होता।
इसी प्रकार साहित्य की सामान्य अनुभूति और साहित्यकार के व्यक्तिरूप में समानता पाना प्रायः कठिन हो जाता है। कभी-कभी तो ये दोनों इतने अनमिल ठहरते हैं कि साहित्य से उत्पन्न पूजा-भाव व्यक्ति तक पहुँच कर अवज्ञा बन जाता है या व्यक्ति-परिचय से उत्पन्न आसक्ति छलककर साहित्य को धबीला कर देती है।
कवीन्द्र रवीन्द्र उन विरल साहित्यकारों में थे जिनके व्यक्तित्व और साहित्य में अद्भुत साम्य रहता है। यहाँ व्यक्ति को देखकर लगता है मानो काव्य की व्यापकता ही सिमट कर मूर्त्त हो गई और काव्य से परिचित होकर जान पड़ता है मानो व्यक्ति ही तरल होकर फैल गया है।

मुख की सौम्यता को घेरे हुए वह रजत आलोक-मंडल जैसा केश-कलाप। मानो समय ने ज्ञान को अनुभव के उजले झीने तन्तु में कातकर उससे जीवन का मुकुट बना दिया हो। केशों की उज्जवलता के लिए दीप्ति दर्पण जैसे माथे पर समानान्तर रहकर साथ चलने वाली रेखाएँ जैसे लक्ष्य-पथ पर हृदय विश्राम-चिह्न हों।
कुछ उजली भृकुटियों की छाया में चमकती हुई आँखें देखकर हिम-रेखा से घिरे अथाह नील जल-कुण्डों का स्मरण हो आना ही सम्भव था। दृष्टि-पथ की बाह्य सीमा छूते ही वे जीवन के रहस्य-कोष सी आँखें, एक स्पर्श-मधुर सरलता राशि-राशि बरसा देती थीं अवश्य, परन्तु उस परिधि के भीतर पैर धरते ही वह सहज आमन्त्रण दुर्लभ्य सीमा बनकर हमारे अन्तरतम का परिचय पूछने लगता था। पुतलियों की श्यामता से आती हुई रश्मि-रेखा जैसी दृष्टि से हमारे हृदय का निगूढ़तम परिचय भी न छिप सकता था और न बहुरूपिया बन पाता था।

अतिथि का हृदय यदि अपने मुक्त स्वागत का मूल्य नहीं आँक सकता, उसकी गहराई की थाह नहीं ले सकता तो उसे, उस असाधारण जीवन के परिचय भरे द्वार से अपरिचित ही लौट आना पड़ता था।
प्रत्येक बार पलकों का गिरना-उठना मानो हमीं को तोलने का क्रम था। इसी से हर निमिष के साथ कोई अपने-आपको सहृदय कलाकार के एक पग और निकट पाता था और कोई अपने-आपको एक पग और दूर।
उस व्यक्तित्व की, अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में फैली हुई विशालता, सामर्थ्य में और अधिक सघन होकर किसी को उद्धत होने का अवकाश नहीं देती, उसकी सहज स्वीकृति किसी को उदासीन रहने का अधिकार नहीं सौंपती और उसकी रहस्यमयी स्पष्टता किसी क्रत्रिम बन्धनों से नहीं घेरती। जिज्ञासु जब कभी साधारण कुतूहल में बिछलने लगता था तब वह स्नेह-तरलता हिम का दृढ़ स्तर बन जाने वाले जल के समान कठिन होकर उसे ठहरा लेना नहीं भूलती। इसी से उस असाधारण साधारण के सम्मुख हमें यह समझते देर नहीं लगती थी कि मनुष्य मनुष्य को कुतूहल की संज्ञा देकर स्वयं भी अशोभन बन जाता है।

प्रशान्त चेतना के बन्धन के समान, मुख पर बिखरी रेखाओं के बीच में उठी सुडौल नासिका को गर्व के प्रमाण-पत्र के अतिरिक्त कौन-सा नाम दिया जावे ! पर वह गर्व मानो मनुष्य होने का गर्व था, इतना अहंकार नहीं; इसी से उसके सामने मनुष्य, मनुष्य के नाते प्रसन्नता का अनुभव करता था, स्पर्धा या ईर्ष्या का नहीं।

दृढ़ता का निरन्तर परिचय देने वाले अधरों से जब हँसी का अजस्र प्रवाह बह चलता था जब अभ्यागत की स्थिति वैसी ही हो जाती थी जैसी अडिग और रन्ध्रहीन शिला से फूट निकलने वाले निर्झर के सामने सहज है। वह मुक्त हास स्वयं बहता, हमें बहाता तथा अपने हमारे बीच के विषम और रूखे अन्तर को अपनी आर्दता से भर कर कम कर देता था। उसका थमना हमारे लिए एक संगीत-लहरी का टूट जाना था जो अपनी स्पर्शहीनता से ही हमारे भावों को छू-छूकर जगाती हुई बह जाती है। वाणी और हास की बीच की निस्तब्धता में हमें उस महान् जीवन के संघर्ष और श्रान्ति का एक अनिवर्चनीय बोध होने लगता था, परन्तु वह बोध, हार-जीत की न जाने किस रहस्यमय सन्धि में खड़े होकर दोहराने तिहराने लगता था...‘तुम इसे हार न कहना, क्लान्ति न मानना।’

अपनी कोमल उँगलियों से, असंख्य कलाओं को अटूट बन्धन में बाँधे हुए, अपने प्रत्येक पद-निपेक्ष को, जीवन की अमर लय का ताल बनाये हुए कलाकार जब आँखों से ओझल हो जाता था, तब हम सोचने लगते, हमने व्यक्ति देखा है या किसी चिरन्तन राग को रूपमय !

युग के उस महान सन्देशवाहक को मैंने विभिन्न परिवेशों में देखा है और उनमें उत्पन्न अनुभूतियाँ कोमल प्रभात, प्रखर दोपहरी और कोलाहल में विश्राम का संकेत देती हुई सन्ध्या के समान हैं।
महान साहित्यकार अपनी कृति में इस प्रकार व्याप्त रहता है कि उसे कृति से पृथक रखकर देखना और उसके व्यक्तिगत जीवन की सब रेखाएँ जोड़ लेना कष्ट-साध्य ही होता है। एक को तोलने में दूसरा तुल जाता और दूसरे को नापने में पहला नप जाता है। वैसे ही घट के जल का नाप-तौल घट के साथ है और उसे बाहर निकाल लेने पर घट के अस्तित्व-अनस्तित्व का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

बचपन से जैसे रामचरितमानस के दोहे-चौपाइयों में तिलक-तुलसी-कंठी युक्त गोस्वामी जी का चित्र नहीं दृष्टिगत हुआ, रघुवंश के कथाक्रम में जैसे शिखा, उपवीत युक्त कवि-कुलगुरु कालिदास की जीवन-कथा अपरिचित रही, वैसे ही गीतांजलि के मधुर गीतों ने मुझे कवीन्द्र-रवीन्द्र की सुपरिचित दुग्धोज्जवल दाढ़ी फहराती हुई नहीं मिली। कथा का सूत्र टूटने पर ही तो श्रोता कथा कहने वाले के अस्तित्व का स्मरण करता है !
वस्तुतः कवीन्द्र के व्यक्तिरूप और उनके व्यक्तिगत जीवन का अनुमान मुझे जिन परिस्थितियों में हुआ नितान्त गद्यात्मक ही कहा जायगा।

हिमालय के प्रति मेरी आसक्ति जन्मजात है। उसके पर्वतीय अंचलों में भी हिमानी और मुखर निर्झरों, निर्जन वन और कलरव-भरे आकाश वाला रामगढ़ मुझे विशेष रूप से आकर्षित करता रहा है। वहीं नन्दा देवी, त्रिशूली आदि हिम-देवताओं के सामने निरन्तर प्रणाम में समाधिस्थ जैसे एक पर्वत-शिखर के ढाल पर कई एकड़ भूमि के साथ एक छोटा बँगला कवीन्द्र का था जो दूर से उस हरीतिमा में पीले केसर के फूल जैसा दिखाई पड़ता देता था। उसमें किसी समय वे अपनी रोगिणी पुत्री के साथ रह रहे थे और सम्भवतः वहाँ उन्होंने ‘शान्ति निकेतन’ जैसी संस्था की स्थापना का स्वप्न भी देखा था; पर रुग्ण पुत्री की चिरविदा के उपरान्त रामगढ़ भी उनकी व्यथा भरी स्मृतियों का ऐसा संगी बन गया जिसका सामीप्य व्यथा का सामीप्य बन जाता था। परिणामतः उनका बँगला किसी अंग्रेज अधिकारी का विश्राम हो गया।
जिस बँगले में मैं ठहरा करती थी, उसमें मुझे अचानक एक ऐसी अल्मारी मिल गई जो कभी कवीन्द्र के उपयोग में आ चुकी थी।

उसके असाधारण रंग, अनोखी बनावट तथा वनतुलसी की गन्ध से सुवासित और बुरुश के फूलों की लाल और जंगली गुलाब की सफेद पंखुड़ियों का पता देनेवाली दराजों ने मौन में जो कहा उसे मेरी कल्पना ने रंगीन रेखाओं में बाँध लिया। हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान में भी कल्पना और अनुमान अपना धुपछाँही ताना-बाना बुनते रहते हैं। ऐसी स्थिति में यदि उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान की सीमा से परे निर्बंध सृजन का अधिकार मिल सके तो उनकी स्वच्छन्द क्रियाशीलता के सम्बन्ध में कुछ कहना ही व्यर्थ है।

बँगले के अंग्रेज स्वामी ने अत्यन्त शिष्टाचारपूर्वक मुझे भीतर-बाहर सब दिखा दिया, पर उसके सौजन्य के आवरण से विस्मय भी झलक रहा था। सम्भवतः ऐसे दर्शनार्थी विरल होने के कारण। बरामदा, जिसकी छोटे-छोटे शीशोमय खिड़कियों पर पड़कर एक किरण अनेक ज्योति-बूँदों में बिखर-सँवर कर भीतर आती थी, द्वार पर सुकुमार सपनों जैसी खड़ी लताएँ जिनका हर ऋतु अपने अनुरूप श्रृंगार करती थी, देवदारु के वृक्ष जिनकी शाखाएं निर्बाध प्रतीक्षा में झुकी हुई-सी लगती थीं; आदि ने कवि-कथा की जो संकेतलिपि प्रस्तुत की, उसमें आसपास रहने वाले ग्रामीणों ने अपनी स्मृति से मानवी रंग भर दिया। किसी वृद्ध ने सजल आँखों के साथ कहा कि उस महान पड़ोसी के बिना उसके बीमार पुत्र की चिकित्सा असम्भव थी। किसी वृद्ध ग्वालिन ने अपनी बूढ़ी गाय पर हाथ फेरते हुए तरल स्वर में बताया कि उनकी दवा के अभाव में उसकी गाय का जीवन कठिन था। किसी अछूत शिल्पकार ने कृतज्ञता से गद्गगद् कंठ से स्वीकार किया कि उनकी सहायता के बिना उनकी जली हुई झोंपड़ी का फिर बन जाना कल्पना की बात थी।

सम्बलहीन मानस से लेकर खड्ड में गिरकर टाँग तोड़ लेने वाले भूटिया कुत्ते तक के लिए उनकी चिन्ता स्वाभाविक और सहायता सुलभ रही, इस समाचार ने कल्पना-विहारी कवि में सहृदय पड़ोसी और वात्सल्य भरे पिता की प्रतिष्ठा कर दी। इसी कल्पना-अनुमानात्मक परिचय की पृष्ठभूमि में मैंने अपने विद्यार्थी-जीवन में रवीन्द्र को देखा।
जैसे धृतराष्ट्र ने लौह-निर्मित भीम को अपने अंक में भरकर चूर-चूर कर दिया था—वैसे ही प्रायः पार्थिव व्यक्तित्व कल्पना-निर्मित व्यक्तित्व को खंड-खंड कर देता है। पर इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि रवीन्द्र के प्रत्यक्ष दर्शन ने ही मेरी कल्पना-प्रतिमा को अधिक दीप्ति सजीवता दी। उसे कहीं से खंडित नहीं किया। पर उस समय मन में कुतूहल का भाव ही अधिक था जो जीवन के शैशव का प्रमाण है।

दूसरी बार जब उन्हें ‘शान्ति निकेतन’ में देखने का सुयोग्य प्राप्त हुआ तब मैं अपना कर्मक्षेत्र चुन चुकी थी। वे अपनी मिट्टी की कुटी श्यामली में बैठे हुए ऐसे जान पड़े मानो काली मिट्टी में अपनी उज्ज्वल कल्पना उतारने में लगा हुआ कोई अद्भुत कर्मा शिल्पी हो।
तीसरी बार उन्हें रंगमंच पर सूत्रधार की भूमिका में उपस्थित देखा। जीवन की सन्ध्या-वेला में ‘शान्ति-निकेतन’ के लिए उन्हें अर्थ-संग्रह में यत्नशील देखकर न कुतूहल हुआ न प्रसन्नता; केवल एक गम्भीर विषाद की अनुभूति से हृदय भर आया। हिरण्य-गर्भा धरतीवाला हमारा देश भी कैसा विचित्र है ! जहाँ जीवन-शिल्प की वर्णमाला भी अज्ञात है वहाँ वह साधनों का हिमालय खड़ा कर देता है और जिसकी उँगलियों से सृजन स्वयं उतरकर पुकारता है उसे साधन-शून्य रेगिस्तान में निर्वासित कर जाता है। निर्माण की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि शिल्पी और उपकरणों के बीच में आग्नेय रेखा खींच कर कहा जाए कि कुछ नहीं बनता या सबकुछ बन चुका !

कल्पना के सपूर्ण वायवी संसार को सुन्दर से सुनन्दरतम बना लेना जितना सहज है; उसके किसी छोटे अंश को भी स्थूल मिट्टी में उतार कर सुन्दर बनाना उतना अधिक कठिन रहता है। कारण स्पष्ट है। किसी सुन्दर कल्पना का अस्तित्व किसी को नहीं अखरता, अतः किसी से उसे संघर्ष नहीं करना पड़ता। पर प्रत्यक्ष जीवन में तो एक के सुन्दर निर्माण से दूसरे के कुरूप निर्माण को हानि पहुँच सकती है। अतः संघर्ष सृजन की शपथ बन जाता है। कभी-कभी तो यह स्थिति ऐसी सीमा तक पहुँच जाती है कि संघर्ष साध्य का भ्रम उत्पन्न कर देता है।
अपनी कल्पना को जीवन के सब क्षेत्रों में अनन्त अवतार देने की क्षमता रवीन्द्र की ऐसी विशेषता है जो महान साहित्यकारों में भी विरल है।

भावना, ज्ञान और कर्म जब एक सम पर मिलते हैं तभी युगप्रवर्तक साहित्यकार प्राप्त होता है। भाव में कोई मार्मिक परिष्कार लाना, ज्ञान में कुछ सर्वथा नवीन जोड़ना अथवा कर्म में कोई नवीन लक्ष्य देना, अपने आप में बड़े काम हैं अवश्य; परन्तु जीवन तो इन सब का सामंजस्यपूर्ण संघात है, किसी एक में सीमित और दूसरों से विछिन्न नहीं। बुद्धि-हृदय अथवा कर्म के अलग-अलग लक्ष्य संसार को दार्शनिक, कलाकार या सुधारक दे सकते हैं, परन्तु इन सबकी समग्रता नहीं। जो जीवन को सब ओर से एक साथ स्पर्श कर सकता है उस व्यक्ति को युग-जीवन अपनी सम्पूर्णता के लिए स्वीकार करने पर बाध्य हो जाता है। और ऐसा, व्यापकता में मार्मिक स्पर्श साहित्य में जितना सुलभ है उतना अन्यत्र नहीं। इसी से मानवता की यात्रा में साहित्यकार जितना प्रिय और दूरगामी साथी होता है उतना केवल दार्शनिक, वैज्ञानिक या सुधारक नहीं हो पाता है। कवीन्द्र में विश्व-जीवन ने ऐसा ही प्रियतम सहयात्री पहचाना, इसी से हर दिशा से उन पर अभिनन्दन के फूल बरसे, हर कोने से मानवता ने उन्हें अर्घ्य दिया और युग के श्रेष्ठतम कर्मनिष्ठ बलिदानी साधन ने उनके समक्ष स्वस्ति-वाचन किया।

यह सत्य है कि युग के अनेक अभावों की अभिशप्त छाया से वे मुक्त रह सके और जीवन के प्रथम चरण में ही उनके सामने देश-विदेश का इतना विस्तृत क्षितिज खुल गया जहाँ अनुभव के रंगों में पुरानापन सम्भव नहीं था। परन्तु इतना ही सम्बल किसी को महान् साहित्यिक बनाने की क्षमता नहीं रखता। थोड़े जलवाले नदी-नाले कहीं भी समा सकते हैं, परन्तु सम्पूर्ण वेग के साथ सहस्त्रों धाराओं में विभक्त होकर आकाश की ऊँचाई से धरती के विस्तार वाली गंगा के समाने के लिए शिव का जटाजूट ही आवश्यक होगा और ऐसा शिवत्व केवल बाह्य सज्जा या सम्बल में नहीं रहता।
रवीन्द्र ने जो कुछ लिखा है उसका विस्तार और परिणाम हृदयंगम करने के लिए हमें यह सोचना पड़ता है कि उन्होंने क्या नहीं लिखा।

जीवन के व्यापक विस्तार में बहुत कम ऐसा मिलेगा जिसे, उन्होंने, नया आलोक फेंककर नहीं देखा और देखकर जिसकी नई व्याख्या नहीं की। जीवन के व्यावहारिक धरातल पर अथवा सूक्ष्म मनोजगत में उन्हें कुछ भी इतना क्षुद्र नहीं जान पड़ा जिसकी उपेक्षा कर बड़ा बना जा सके, कोई भी इतना अपवित्र नहीं मिला जिसके स्पर्श के बिना व्यापक पवित्रता की रक्षा हो सके और कुछ भी इतना विच्छिन्न नहीं दिखाई दिया जिसे पैरों से ठेल कर जीवन आगे बढ़ सके।
इसी से वे कहते हैं, ‘‘तुमने जिसको नीचे फेंका वही आज तुम्हें पीछे खींच रहा है, तुमने जिसे अज्ञान और अन्धकार के गह्वर में छिपाया वही तुम्हारे कल्याण को ढक कर, विकास में, घोर बाधाएँ उत्पन्न कर रहा है।’’
क्षुद्र कहे जाने वाले के लिए उनका दीप्ति स्वर बार-बार ध्वनित-प्रतिध्वनित होता रहता है, ‘‘तुम सब बड़े हो, अपना दावा पेश करो। इस झूठी दीनता-हीनता को दूर करो।’’

विशाल, शिव और सुन्दर के पक्ष का समर्थन सब कर सकते हैं क्योंकि वे स्वतः प्रामाणित हैं। परन्तु विशालता, शिवता और सुन्दरता पर, क्षुद्र, अशिव और विरूप का दावा प्रमाणित कर उन्हें विशाल, शिव और सुन्दर में परिवर्तित कर देना किसी महान् का ही सृजन हो सकता है।

अमृत को अमृत और विष को विष रूप में ग्रहण करके तो सभी दे सकते हैं। परन्तु विष में रासायनिक परिवर्तन कर और तत्वगत अमृत को प्रत्यक्ष करके देना किसी विदग्ध वैद्य का ही कार्य रहेगा।
कवीन्द्र में ऐसी क्षमता थी और उनकी इस सृजन-शक्ति की प्रखर विद्युत को आस्था की सजलता सँभाले रहती थी। यह बादल भरी बिजली जब धर्म की सीमा छू गई तब हमारी दृष्टि के सामने फैले रूढ़ियों के रन्ध्रहीन कुहरे में विराट मानव-धर्म की रेखा उद्भासित हो उठी। जब वह साहित्य में स्पन्दित हुई तब जीवन के मूल्यों की स्थापना के लिए, तत्व सत्यमय, सत्य शिवमय और शिव सौन्दर्यमय होकर मुखर हो उठा। जब चिन्तन को उसका स्पर्श मिला तब दर्शन की भिन्न रेखाएँ तरल होकर समीप आ गईं।

उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जो पहले नहीं कहा गया था, पर इस प्रकार सब कुछ कहा है जिस प्रकार किसी अन्य युग में नहीं कहा गया।
 

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