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मेरा परिवार

महादेवी वर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3268
आईएसबीएन :0000

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महादेवी का कहानी संग्रह....

Mera parivar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इसमें महादेवी जी ने उत्कृष्ट कहानियों का संकलन किया है। यह सभी कहानियाँ वन्य जीवन पर आधारित है।

 

उच्छ्वास इलाचन्द्र जोशी

महाकवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा ने अत्यन्त विनयवश ही अपनी इस कृति को ‘मेरा परिवार’ नाम दिया गया है। वास्तविकता यह है कि इस महाप्राणशील कवयित्री का परिवार बहुत विशाल हैं- कल्पनातीत रूप से विशाल। पंचतंत्र के जिस पशु-पात्र ने घोर स्वार्थ की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर एक दूसरे पशु-पात्र के कानों में यह उपदेश भरा था कि ‘‘उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्’’, उसके भीतर जीव-मात्र के प्रति प्रेम की संवेदना नहीं वरन् अत्यन्त दुष्टतापूर्ण चातुरी भरी थी।

 इसलिए महादेवी जी की उच्चतम-स्तरीय संवेदना के लिए उक्त बहुउद्धत और पिष्टपेषित ‘सूक्ति’ का उपयोग करने में अत्यन्त संकोच का अनुभव होता है, क्योंकि कवयित्री की संवेदना अत्यन्त मार्मिक और जन्म-जन्मान्तर की मानवीय अनुभूति के शोधन, परिशोधन और परिशोधन के सुदार्घ योगाभ्यास के फलस्वरूप वर्षाकालीन निविड़ मेघ के स्वत:स्फूर्त वर्षण और गहन पर्वत-प्रसूत निर्झर के अनिरुद्ध प्रवाह की तरह सहज-विमुक्त और निश्चल सृजनशील प्रकृति के आदिम गतिशीलता की तरह एकांत स्वाभाविक है। अपने एक-एक लघुत्तम और सर्वथा उपेक्षित मानवेतर पात्र की सूक्ष्म से संवेदना को प्रकृति-माता के जिस अति-संवेदनशील राडार की तरह पकड़कर जो मर्ममोहक अभिव्यक्ति दी है, वैसी स्पर्शातीत और ईथरीय भावग्राहिता कोमल से कोमल अनुभूति वाले कवियों में भी अधिक सुलभ नहीं है, पंचतंत्र के पशु-पात्रों की तो बात ही क्या है।

वैसे मेरा यह निश्चित विचार है कि पंचतंत्र का लेखक चाहे जो भी रहा हो, वह निश्चय ही बहुत बड़ा पशु-प्रेमी रहा होगा; क्योंकि जैसी संवेदना और भाव-बोध उसने अपने मानवेतर पात्रों में भरने का प्रयास किया है, वह साधारण मनुष्यों के बोध और अनुभूति के स्तर की सीमा को भी अक्सर लाँघ जाती है। घेर स्थूल यथार्थ-बोध और ईथर-लोक के सूक्ष्म भाव-बोध का सहज समन्वय पंचतंत्र में भी किसी हद तक यदा-कदा और यत्र-तत्र वर्तमान पाया जाता है।
पर मेरा उद्देश्य पंचतंत्र और ‘मेरा परिवार’ के बीच किसी प्रकार के तुलनात्मक दृष्टिकोण की स्थापना नहीं वरन् दोनों के बीच पड़ी दुर्लघ्य खाई के महा-विस्तार के बीच की अपार असमानता का निदर्शन है।

वास्तविकता तो यह है कि महादेवी जी ने कुछ विशिष्ट मानवेतर प्राणियों के प्रति जिस अपनी सहज, सौहार्द्र और एकांत आत्मीयता की अभिव्यंजना का जो अपूर्व कला-कौशल अपने इन चित्रों में व्यक्त किया है, वह केवल उनकी अपनी ही कली की विशिष्टता की दृष्टि से नहीं वरन् संसार-साहित्य की इस कोटि की कला के समग्र क्षेत्र में भी बेमिसाल और बेजोड़ हैं। ये कृतियाँ मानवीय भावज्ञता, संवेदना और कलात्मक प्रतिभा के अपूर्व निदर्शन की दृष्टि से शाब्दिक अर्थ में अपूर्व और अद्भुत कलात्मक चमत्कार के नमूने हैं। करौं काह मुख एक प्रशंसा ?’ एक मुख से उनकी कला की प्रशंसा कैसे करूँ ! क्योंकि ये शब्द-चित्रण अनेक दृष्टिकोणों से प्रशंसा की अतिशयोक्ति की सीमा को भी पार कर जाते हैं।

महादेवी जी की आश्चर्यजनक काव्य-कला के एक-से-एक बढ़कर अपूर्वलक्षित नमूने जब उनके साहित्यिक जीवन के प्रारंभिक काल में हमारे साहित्यालोचकों के दृष्टि-क्षेत्र के घेरे के भीतर आए, तब उन्होंने काव्य-पारखियों की आँखों में ऐसी चकाचौंध लगा दी कि वे मुग्ध होने के साथ ही स्तब्ध भी रह गये। किसी प्रकार चकाचौंध से अपने को उबारने के बाद जो प्राथमिक प्रतिक्रियाएँ उनकी लेखनियों से बरबस विविध पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों में व्यक्त हुई वे शुद्ध प्रशंसा के सिवा और कुछ नहीं थीं। तुलना के लिए हमारे समीक्षकों को पिछले क्षितिजों में मीरा के अतिरिक्त और कोई नहीं कवयित्री नजर आई। जल्दी ही ‘मीरा और महादेवी’ यह एक साहित्यिक नारा बन गया, हालाँकि मीरा न तो (शुद्ध साहित्यिक अर्थ में) कोई कवयित्री थी न कला-संबंधी विविध चमत्कारों को अपने प्रतिभा में समेटे रहने वाली कोई जादूगरनी ही। वह तो विशुद्ध भक्ति-रस में डूबी हुई, अपूर्व आध्यात्मिक क्षमता वाली एक महा-तापसी थी। यह ठीक है कि भक्ति रस में सभी साहित्यिक रस और भाव अपने उन्नततम रूप में समन्वित होते हैं। पर उच्चतम कोटि की बहुमुखी कला के विविध रूपों के नव-नवोन्मेषशाली क्रीड़ा कौशल के चित्र-विचित्र कौतुक-निक्षेपणों का वैभव विलास उनकी समन्वयात्मक भावानुभूति के दायरे के भीतर नहीं आता।

इसलिए मीरा से महादेवी जी की तुलना के कृत्रिम और आरोपित प्रयास की असंगति शीघ्र ही कला पारखियों के आगे आने लगी। हमारे तत्कालीन साहित्य-समीक्षकों ने जब कालान्तर में महादेवी जी की निरंतर-विकासशील काव्य-प्रतिभा के नये-नये आयामों और नित-नूतन चमत्कारों पर दृष्टि डाली तब वे और अधिक अप्रतिभ हो गये और अपनी समीक्षा की इस अद्भुत प्रतिभाशालिनी नारी के कला और विकला के विविध क्षेत्रों पर आश्चर्यजनक अधिकार, कला-संबंधी बहुरंगी वैचित्र्य के विस्मयकारी सौष्ठव और कल्पनातीत चित्रकारी के चमत्कार के नव-नवरूपों की विमोहकता का परिचय प्राप्त करने लगे त्यों-त्यों प्रतिभा के उस विराट् रूप से निष्प्रभ होकर अपनी समीक्षा के सीमित दायरे से स्वयं खीझ उठे, जिसकी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया यह हुई कि वे उस नवाविर्भूत कवयित्री की काव्य-कला में ‘अतिरंजित भावकता’ और ‘अदकचरी रोमांटिक अनुभूति’ के आतिशय्या का दोषारोपण करने लगे। कुछ ढीठ आलोचक आपसी गोष्ठियों में यहाँ तक घोषित करने लगे कि ‘‘महादेवी जी को हमीं लोगों ने आगे बढ़ाया और हमीं उन्हें उनकी निम्नतम सीमा तक समेट भी देंगे।’’ उन लोगों की सीमित कल्पना में यह बात कहीं कण-मात्र भी प्रविष्ट नहीं हो पायी कि किसी यथार्थ और महान प्रतिभा के बीज-कण जब अपनी स्वाभाविक विकास-यात्रा के विस्तृत क्षेत्र में अपने विराट् रूप के वास्तविक प्रदर्शन के लिए तुल जाते हैं, तब वह कला-मात्र की सीमाओं और निरन्तर वर्द्धमान आयामों के साथ खुल कर खेलने लगते हैं और फलस्वरूप अपने चारों ओर ऐसी चकाचौंध लगाने वाला प्रकाश-पुंज बिखेर देते हैं कि किस दिशा से उसकी अवधारणा की जाय यह बात गतानुगतिक समीक्षकों की चुँधियाई आँखें तनिक भी निश्चित नहीं कर पातीं और तब से तीव्र प्रकाश-पुंज के मूल उत्स को ही गाली देने या उसकी तीव्र निन्दा करने का पर्व सामूहिक रूप से आरम्भ हो जाता है।

 किशोरी कवयित्री जब आगे बढ़कर अपने विराट् आयामों का विस्तार करती चली गयी तब उसकी प्रतिभा के विस्तार की दिशाएँ भी विस्तृत होती चली गयीं और उसकी तथाकथित ‘‘थोथी किशोर भावुकता’’ भावज्ञात के सागर की गहराइयों में डूब कर उतराने लगी और उसकी कविताओं की उस गहराई की थाह पा सकना। रूढिवादी साहित्यलोचकों के लिए असंभव होता दिखाई देने लगा। एक नारी की सहज प्रतिभा इस कदर आगे बढ़ती चली जाय, इस चुनौती को अपने पौरुष का दावा करने वाले पुरुष-आलोचक कैसे अनुत्तरित कहने दे सकते थे ? फलस्वरूप आक्रमक आलोचना के नये-नये ‘टैनजेन्ट’- नुमा बाणों की वर्षा उनकी काव्य-प्रतिभा पर होने लगी। पर किसी भी ‘टैनजेन्ट’ को चाहे किसी भी सीमा कर प्रसारित क्यों नहीं किया जाय, वह किसी भी लक्ष्य तक पहँचने में असफल ही सिद्ध होता है, यह ज्यामिति का मूलगत नियम है।

महादेवी जी की काव्य-प्रतिभा पर जो-जो आरोप विभिन्न दिशाओं से लगाये जाने लगे, उसमें एक यह भी थी कि कविता का भाव-लोक तो रबर की तरह होता है, उसे यहाँ से भी, जिस किसी भी दिशा की ओर खींचा जाय वह आसानी से उसी ओर खींचा जा सकता है; और महादेवी जी ने अपनी कविताओं में इसी ‘चालाकी’ से काम लिया है। साथ ही इस पुराने नारे को नये सिरे से दोहराया जाने लगा कि काव्य-प्रतिभा की वास्तविकता की परख उसके गद्यात्मक कला-कौशल से होती है, क्योंकि गद्य ही काव्य-प्रतिभा की सच्ची कसौटी है।


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