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रामकथा

कामिल बुल्के

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :666
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3229
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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सुयोग्य लेखक ने इस ग्रंथ की तैयारी में कितना परिश्रम किया है यह पुस्तक के अध्ययन से ही समझ में आ सकता है। रामकथा से सम्बन्ध रखने वाली किसी भी सामग्री को आपने छोड़ा नहीं है।

Ramkatha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुयोग्य लेखक ने इस ग्रंथ की तैयारी में कितना परिश्रम किया है यह पुस्तक के अध्ययन से ही समझ में आ सकता है। रामकथा से सम्बन्ध रखने वाली किसी भी सामग्री को आपने छोड़ा नहीं है। ग्रंथ चार भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में ‘प्राचीन रामकथा साहित्य का’ विवेचन है। इसके अन्तर्गत पाँच आध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकिकृत रामायण, महाभारत की रामकथा, बौद्ध रामकथा तथा जैन रामकथा संबंधी सामग्री की पूर्ण परीक्षा की गयी है। द्वितीय भाग का संबंध रामकथा की उत्पत्ति से है।

इसके चार अध्यायों में दशरथ जातक की समस्या, रामकथा के मूलस्रोत के सम्बन्ध में विद्वानों के मत, प्रचलित वाल्मीकीय रामायण के मुख्य प्रक्षेपों तथा रामकथा के प्रारम्भिक विकास पर विचार किया गया है। ग्रंथ के तृतीय भाग में अर्वाचीन रामकथा साहित्य का विवेचन है। इसमें हिन्दी के अतिरिक्त तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, कश्मीरी, सिंहली, आदि समस्त भाषाओं के साहित्य की छान-बीन की गई है। चौथे अध्याय में विदेश में पाये जाने वाले रामकथा के रूप का सार दिया दिया गया है और इस सम्बन्ध में तिब्बत, खोतान, हिंदेशिया, हिंदचीन, स्याम, ब्रह्मदेश आदि में उपलब्ध सामग्री का पूर्ण परिचय एक स्थान पर मिल जाता है। अन्तिम कथा चतुर्थ भाग में रामकथा सम्बन्धी एक-एक घटना को लेकर उसका पृथक-पृथक विकास दिखलाया गया है। घटनाएँ कांड-क्रम से ली गई हैं अतः यह भाग सात कांडों के अनुसार सात अध्यायों में विभक्त है। उपसंहार में रामकथा की व्यापकता, विभिन्न रामकथाओं की मौलिक एकता, प्रक्षिप्त सामग्री की सामान्य विशेषताएँ, विविध प्रभाव तथा विकास का सिंहावलोकन है।

 

प्रकाशकीय

 

हिन्दी-विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गौरव स्वर्गीय फादर कामिल बुल्के की बहुमूल्य शोध कृति रामकथा विगत कई वर्षों से अप्राप्य रही है, जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।
रामकथा का यह संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें सन्तोष का अनुभव हो रहा है। भविष्य में हमारी चेष्टा रहेगी कि रामकथा उसके पाठकों के लिए प्राप्य होती रहे।
इस अवसर पर हम डॉ. कामिल बुल्के शोध संस्थान रांची के निदेशक आदरणीय विलियम द्वायर के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं जिनके धैर्य और प्रोत्साहन के फलस्वरूप हम रामकथा का यह संस्करण प्रकाशित कर सके हैं।

 

राजेन्द्र कुमार वर्मा

 

परिचय

 

प्राचीन भारत के समान ही आधुनिक यूरोप ज्ञान सम्बन्धी खोज के क्षेत्र में अग्रसर रहा है। यूरोपीय विद्वान ज्ञान तथा विज्ञान के रहस्यों के उद्घाटन में निरंतर यत्नशील रहे हैं। उनकी इस खोज क्षेत्र यूरोप तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि संसार के समस्त भागों पर उनकी दृष्टि पड़ी। इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के लेखक फादर बुल्के को हम इन्हीं विद्याव्यसनी यूरोपीय अन्वेषकों की श्रेणी में रख सकते हैं। भारतीय विचारधारा समझने के लिए इन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी भाषा और साहित्य का पूर्ण परिश्रम के साथ अध्ययन किया। प्रयाग विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. की परीक्षा पास करने के उपरान्त आप ने डी. फील. के लिए रामकथा का विकास शीर्षक विषय चुना। प्रस्तुत ग्रंथ उनका थीसिस ही है जिस पर उन्हें प्रयाग विश्वविद्यालय से डी.फिल. की उपाधि मिली है।

सुयोग्य लेखक ने इस ग्रंथ की तैयारी में कितना परिश्रम किया है यह पुस्तक के अध्ययन से ही समझ में आ सकता है। रामकथा से सम्बन्ध रखने वाली किसी भी सामग्री को आप ने छोड़ा नहीं है। ग्रंथ चार भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में ‘प्राचीन रामकथा साहित्य’ का विवेचन है। इसके अन्तर्गत पाँच अध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकिकृत रामायण, महाभारत की रामकथा, बौद्ध रामकथा तथा जैन रामकथा संबंधी सामग्री की पूर्ण परीक्षा की गई है। द्वितीय भाग का संबंध रामकथा की उत्पत्ति से है और इसके चार अध्यायों में दशरथ जातक की समस्या, रामकथा के मूल स्रोत के सम्बन्ध में विद्वानों के मत, प्रचलित वाल्मीकीय रामायण के मुख्य प्रक्षेपों तथा रामकथा के प्रारंभिक विकास पर विचार किया गया है। ग्रंथ के तृतीय भाग में ‘अर्वाचीन रामकथा साहित्य का सिंहावलोकन’ है। इसमें भी चार अध्याय हैं। पहले और दूसरे अध्याय में संस्कृत के धार्मिक तथा ललित साहित्य में पाई जाने वाली रामकथा सम्बन्धी सामग्री की परीक्षा है। तीसरे अध्याय में आधुनिक भारतीय भाषाओं के रामकथा सम्बन्धी साहित्य का विवेचन है। इससे हिंदी के अतिरिक्त तमिल, तेलुगु, मलायालम, कन्नड़, बंगाली, काश्मीरी, सिंहली आदि समस्त भाषाओं के साहित्य की छान-बीन की गई है। चौथे अध्याय में विदेश में पाये जाने वाले रामकथा के रूप में सार दिया गया है और इस सम्बन्ध में तिब्बत, खोतान, हिंदेशिया, हिंदचीन, श्याम, ब्रह्मदेश आदि में उपलब्ध सामग्री का पूर्ण परिचय एक ही स्थान पर मिल जाता है। अंतिम तथा चतुर्थ भाग में रामकथा सम्बन्धी एक-एक घटना को लेकर उसका पृथक-पृथक विकास दिखलाया गया है। घटनाएँ कांडक्रम से ली गई हैं अतः यह भाग सात कांडों के अनुसार सात अध्यायों में विभक्त है। उपसंगार में रामकथा की व्यापकता, विभिन्न रामकथाओं की मौलिक एकता, प्रक्षिप्त सामग्री की सामान्य विशेषताएँ, विविध प्रभाव तथा विकास का सिंहावलोकन है।

इस संक्षिप्त परिचय से ही स्पष्ट हो गया होगा कि यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा सम्बन्धी समस्त सामग्री का विश्वकोष कहा जा सकता है। सामग्री की पूर्णता के अतिरिक्त विद्वान लेखक ने अन्य विद्वानों के मत की यथास्थान परीक्षा की है तथा कथा के विकास के सम्बन्ध में अपना तर्कपूर्ण मत भी दिया है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी है। हिन्दी क्या किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। अतः हिंदी में इस लोकप्रिय विषय पर ऐसे वैज्ञानिक अन्वेषण के प्रस्तुत करने के लिए विद्वान लेखक बधाई के पात्र हैं। आशा है कि भविष्य में उनकी लेखनी से इस प्रकार के अन्य खोजपूर्ण ग्रंथ प्रकाश में आवेंगे। प्रस्तुत अध्ययन का उत्तरार्ध ‘राम-भक्ति का विकास’ तो शीघ्र ही प्रकाशित होना चाहिए। प्रयाग विश्वविद्यालय हिन्दी परिषद् को इस बहुमूल्य कृति के प्रकाशन पर गर्व होना स्वाभाविक है।

 

धीरेन्द्र शर्मा

 

निवेदन

प्रथम संस्करण

 

भारत तथा निकटवर्ती देशों के साहित्य में रामकथा की अद्वितीय व्यापकता एशिया के सांस्कृतिक इतिहास का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इस रामकथा का अध्ययन अनेक दृष्टिकोणों से किया जा सकता है। प्रस्तुत निबन्ध में इसकी उत्पत्ति तथा कथावस्तु के विकास की रूपरेखा अंकित करने का प्रयत्न किया गया है। इस सीमित परिधि के दृष्टिकोण से प्राचीन तथा अर्वाचीन रामकथा साहित्य का निरूपण और विश्लेषण क्रमशः प्रथम तथा तृतीय भाग में किया गया है।
रामकथा की उत्पत्ति तथा मूलस्रोत के सम्बन्ध में अनेक भ्रामक धारणाएँ विद्वन्मडंली में प्रचलित हो गई हैं। इनका निरूपण तथा खंडन द्वितीय भाग का विषय है। यद्यपि निबन्ध के इस भाग में किसी सर्वथा नवीन निष्कर्ष का प्रतिपादन नहीं है, किन्तु विवेच्य विषय से सम्बन्ध रखने वाली समस्त प्रकाशित सामग्री का मौलिक रूप से वर्गीकरण तथा स्पष्टीकरण किया गया है।

चतुर्थ भाग में वाल्मीकि रामायण की कथावस्तु के क्रमानुसार रामकथा के विभिन्न कथांग के विकास का अलग-अलग वर्णन किया गया है। इसके लिए प्रथम तथा तृतीय भागों में निरूपित प्राचीन तथा अर्वाचीन रामकथा साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक था। यह साहित्य अत्यन्त विस्तृत है और इस प्रकार का तुलनात्मक अध्ययन प्रायः सर्वथा मौलिक है; अतः इसमें त्रुटियाँ अवश्य रह गई होंगी। इनके लिए मैं विद्वानों से विनयपूर्वक क्षमा प्रार्थना करता हूँ।

राम-भक्ति के पल्लवित होने के साथ-साथ रामकथा का विकास अपनी अंतिम परिणति पर पहुँच गया था। अतः पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद के संस्कृत साहित्य का पूरा निरूपण अनावश्यक था। इसी प्रकार आधुनिक आर्य भाषाओं का रामकथा साहित्य प्रस्तुत निबन्ध के दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत कम महत्त्व रखता है। वास्तव में यह साहित्य प्रधानता रामकथा न होकर राम साहित्य सिद्ध होता है। इसका ‘विशेषकर हिन्दी राम-साहित्य का) समुचित अध्ययन राम-भक्ति की उत्पत्ति और विकास के पूरे विश्लेषण के पश्चात् ही संभव हो सकेगा। आशा है कि एकाध वर्ष की खोज के बाद मैं राम-भक्ति (उत्पत्ति और विकास) नामक ग्रंथ प्रकाशित कर सकूँगा। तत्पश्चात् हिन्दी साहित्य की राम-भक्ति शाखा की रचनाओं का कथा तथा दोनों दृष्टिकोणों से विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन करने का मेरा विचार है।

प्रस्तुत निबन्ध प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा डी. फिल. उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ है। परीक्षकों के सुझाव के अनुसार मैंने कई स्थलों पर भावों का किंचित् स्पष्टीकरण किया है तथा निरीक्षक के इच्छानुसार संहार नामक अंतिम अध्याय पुनः लिखकर अधिक विस्तार में प्रस्तुत किया है। निबन्ध के तृतीय भाग की सामग्री एकत्र करने में बहुत से भारतीय तथा विदेशी विद्वानों से सहायता मिली है। इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित विद्वान विशेष रूप से मेरे धन्यवाद के पात्र है-डॉ. राजेन्द्र हाजरा (पौराणिक साहित्य) श्री एस. तिरुमलैसामी आयंगर (तमिल); रेवरेण्ड टी. रायण और सी. सत्यनारायण (तेलुगु); डॉ. पी. के. नारायण पिल्लै (मलयालम); श्री एच.लोबो (कन्नड़); श्री प्रह्लाद प्रधान (उड़िया); श्री एन.के. भागवत (मराठी); श्री मनसुखलाल झावेरी (गुजराती); श्री एफ.मारटिनी और सुश्री एस. कार्पेलेज (हिंदचीन)।

मैं पूज्य डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के प्रर्ति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करना चाहता हूँ; वे मुझे कई वर्षों से हिन्दी के अध्ययन में प्रोत्साहन देते आ रहे हैं। उनकी प्रेरणा से मैं रामकथा की खोज में प्रवृत्त हुआ था और उनके विद्वत्तापूर्ण परामर्शों के फलस्वरूप निबन्ध को प्रस्तुत रूप दे सका हूँ। अपने निरीक्षक डॉ. माताप्रसाद गुप्त के प्रति अपना आभार प्रदर्शन करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। उन्होंने मुझे अपना बहुमूल्य समय देने में कभी संकोच नहीं किया और निबन्ध के प्रत्येक अंश को यथासंभव परिपूर्ण बनाने के लिए समय-समय पर अनेक सुझाव दिये हैं।

डॉ. रघुवंश का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने समस्त पाण्डुलिपि पढ़ने का कष्ट उठाया है। श्री रामसिंह तोमर ने प्रूफ देखने का भार स्वतः लेकर इस पुस्तक के शीघ्र प्रकाशित होने में सहयोग दिया है उसके लिए मैं उनका सदा आभारी रहूँगा।

 

कामिल बुल्के

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