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कबीर

हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3228
आईएसबीएन :9788126714971

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कबीर के व्यक्तित्व, साहित्य और दार्शनिक विचारों की आलोचना

Kabir

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘कबीर’ लिखते समय नाना साधनाओं की चर्चा प्रसंगवश आ गई है। उनके उसी पहलू का परिचय विशेष रूप से कराया गया है जिसे कबीरदास ने अधिक लक्ष्य किया था। पाठक पुस्तक में यथास्थान पढ़ेंगे कि कबीरदास बहुत-कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तत्काल प्रचलित नाना साधन-मार्गों पर उग्र आक्रमण किया है। कबीरदास के इस विशेष दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से हृदयंगम कराने के लिए मैंने उसकी ओर पाठक की सहानुभूति पैदा करने की चेष्टा की है। इसीलिए कहीं-कहीं पुस्तक में ऐसा लग सकता है कि लेखक भी व्यक्तिगत भाव से किसी साधन-मार्ग का विरोधी है, परंतु बात ऐसी नहीं है। जहाँ कहीं भी अवसर मिला है वहीं लेखक ने इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है, पर फिर भी यदि कहीं भ्रम का अवकाश रह गया हो तो वह इस वक्तव्य से दूर हो जाना चाहिए। कबीरदास ने तत्कालीन नाथपंथी योगियों की साधन-क्रिया पर भी आक्षेप किया है, यथास्थान उसकी चर्चा की गई है। पुस्तक के अधिकांश स्थलों में ‘योगी’ शब्द से इन्हीं नाथपंथी योगियों से तात्पर्य है। समाधि के विरुद्ध जहाँ कहीं कबीरदास ने कहा है वहाँ ‘जड़-समाधि’ अर्थ समझना चाहिए। यथाप्रसंग पुस्तक में इसकी चर्चा आ गई है। वैसे, कबीरदास जिस सहज समाधि की बात कहते हैं वह योगमार्ग से असम्मत नहीं है। यहाँ यह भी कह रखना जरूरी है कि पुस्तक में भिन्न-भिन्न साधन-मार्गों के ऐतिहासिक विकास की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया है।

पुस्तक के अंत में उपयोगी समझकर ‘कबीर-वाणी’ नाम से कुछ चुने हुए पद्य संग्रह किए गए हैं। उनके शुरू के सौ पद श्री आचार्य क्षितिमोहन सेन के संग्रह के हैं। इन्हीं को कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजी में अनूदित किया था। आचार्य सेन ने इन पद्यों को लेने की अनुमति देकर हमें अनुग्रहीत किया है।

पुस्तक के इस संस्करण में यथासंभव संशोधन किया गया है। पुस्तक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत पाठकों के समक्ष आ रही है। श्रीमती शीला संधू, प्रबंध निदेशिका, राजकमल प्रकाशन, प्रा.लि.दिल्ली को पुस्तक का नया रूप देकर शीघ्र प्रकाशित करने का श्रेय प्राप्त है। अनेक लेखकों और प्रकाशकों के अमूल्य ग्रंथों की सहायता न मिली होती तो पुस्तक लिखी ही न गई होती। जिन लोगों के मत का कहीं-कहीं विरोध करना पड़ा है उनके प्रति मेरी गंभीर श्रद्धा है। वस्तुत: जिनके ऊपर श्रद्धा है उन्हीं के मतों की मैंने प्रतीक्षा की है। इनमें कई मेरे गुरुतुल्य हैं। सब लोगों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।

 

हजारी प्रसाद द्विवेदी

 

संकेत विवरण

 

 

(जिन पुस्तकों का पूरा नाम और विवरण ग्रंथ में ही दिया गया है उनका उल्लेख यहाँ नहीं किया है।)
अ.रा.- अध्यात्म रामायण, श्री मुनिलाल का अनुवाद, गोरखपुर, सं.1989
अष्टो- ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् निर्णयसागर प्रेस बंबई, चतुर्थ संस्करण, 1932
उपासक- भारतवर्षीय उपासक संप्रदाय, श्री अक्षयकुमार दत्त प्रणीत, कलकत्ता, 1314 बंगाब्ध (द्वितीय संस्करण)
क.ग्रं.- कबीर ग्रंथावली, श्री श्यामसुंदरदास-संपादित, काशी नागरी-प्रचारिणी सभा, काशी, 1928
क.वच.- कबीर वचनावली, श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय-संपादित, काशी नागरी-प्रचारिणी सभा, काशी, 1916
मन,मनसूर- कबीर मनसूर, स्वामी परमानंद-कृत भानजी कुबेरजी पेंटर द्वारा प्रकाशित, बंबई, 1902
गोरक्ष वि.- गोरक्षविजय श्री अब्दुल करीम सम्पादित, कलकत्ता, 1324 (बंगाब्द)
गोरक्षविजय

गोपी.- गोपीचंद्रेर गान, कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित और श्री विश्वेश्वर भट्टाचार्य द्वारा संकलित।
गो.सि.सं.- गोरक्ष-सिद्धांत म.म.गोपीनाथ कविराज संपादित, सरस्वती भवन टेक्स्ट्स नं.18 काशी 1925
चर्चा- चर्याचर्यनिश्चय, बौ.गा.दो.में संकलित
जाति- भारतवर्ष में जातिभेद श्री क्षितिमोहन सेन लिखित कलकत्ता 1940
ज.डि.ले- Journal of the Department or Letter Vol. XXVIII कलकत्ता विश्वविद्यालय, 1934। इनमें श्री बागची द्वारा संपादित निम्नलिखित ग्रंथ: (1) तिल्लोपाद का दोहा-कोश, (2) सरहपाद का दोहा, (3) कण्हपादका, (4) सरहपादकीय दोहा-संग्रह। (5) प्रकीर्ण दोहा संग्रह।
डायसन- The system of vedant by.P.Ducssen, शिकागो, 1912
पंचदशी- विद्यारण्य स्वामी विरचित, निर्णयसागर प्रेस बंबई, 1918
पदा.- शब्दा देखिए

प्राण.- प्राणसंगली, संत संपूरणसिंह जी संपादित, तरनतारन,पंजाब
फर्कुहर- An Outline of the Religious Literature of India by J.N.Farquhar, Oxford, 1920
गा.दो.बौद्ध- बौद्ध गान ओ दोहा, म.म.हरप्रसाद शास्त्री संपादित कलकत्ता, 1323 (बंगाब्द)
भ.र.सिं.भक्ति.र.- भक्तिरसामृतसिंधु:, श्री रूपगोस्वामिपद् विचरित मुर्शिदाबाद, 1931 मनसूर-क.मन देखिए
मिडिएवल मिस्टि- Medieval Mysticism of India श्री क्षितिमोहन सेन लिखित, लंदन, 1935
विचार- साधु श्री विचारदास जी की टीका, कबीर साहब का बीजक’ पर, काशी सं.-1983
विश्व- बीजक कबीरसाहब पर श्री विश्वनाथसिंहजू देव बहादुर कृत पाखंडखंडिनी टीका, वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई सं.1961
वेदांत- वेदांतसार कर्नल जे.ए.जैकौब संपादित द्वितीय संस्करण, निर्णयसागर प्रेस बंबई, 1916
शब्दा.- शब्दावली कबीरसाहब की बेलवेडियर प्रेस इलाहाबाद, 1900 ई.।
शरादा.- शारदातिलक-तंत्रम् Arthur Avalon द्वारा संपादित Tantric Text society Vol. XVI, कलकत्ता, 1933
शिव.-शिवसंहिता पाणिनी ऑफिस इलाहाबाद, 1914
शुक्ल- पं.रामचंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्य का इतिहास प्रयाग सं.1990
स.क.स.- सत्य कबीर की साखी, वेंकटेश्वर प्रेस. बंबई, 1977
सहजा सहजाम्नाय.- सहजाम्नायपंजिका बौ.गा दो. में संकलित
हठ- हठयोगप्रतीपिका पाणिनी ऑफिस, इलाहाबाद 1915
हिदुत्व- श्रीरामदास गौड़ रचित ज्ञानमंजल काशी 1997
हि.भा.सा.वि.- हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय लहेरिया-सराय, 1997
भा.सा.वि.-हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, पं.अयोध्यासिंह उपाध्याय, लहेरियासराय 1997

 

प्रस्तावना

 

 

कबीरदास का लालन-पालन जुलाहा परिवार में हुआ था, इसलिए उनके मत का महत्त्वपूर्ण अंश यदि इस जाति के परंपरागत विश्वासों से प्रभावित रहा हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यद्यपि ‘जुलाहा’ शब्द फारसी भाषा का है, तथापि इस जाति की उत्पत्ति के विषय में संस्कृत पुराणों में कुछ-न-कुछ चर्चा मिलती ही है। ‘ब्रह्मवैवर्त्त पुराण के ब्रह्ममखंड के दसवें अध्याय में बताया गया है कि म्लेच्छ से कुविंदकन्या में ‘जोला’ या जुलाहा जाति की उत्पत्ति हुई है।2 अर्थात् म्लेच्छ पिता और कुविंद माता से जो संतति हुई वही जुलाहा कहलाई। पुराणकार ने म्लेच्छ और कुविंद के संबंध में कोई संदेह नहीं रहने दिया है। विश्वकर्मा ने शूद्रा के गर्भ से नौ शिल्पकार पुत्र उत्पन्न किए थे: माली, लुहार, शंखकार, कुविंद, कुम्हार, कंसेरा, बढ़ई, चित्रकार और सुनार।3 इस प्रकार कुविंद एक शिल्पी या कलाकार है और उसका कार्य वस्त्र बुनना है। क्षत्रिय पिता और शूद्रा माता के संयोग से म्लेच्छ की उत्पत्ति हुई। यह उत्पत्ति जिस समय हुई उस समय माता ऋतुदोष से अपवित्र थी और पिता के मन में पाप-भावना थी। इसलिए इस संयोग से बलवान् दुरंत और पापपरायण म्लेच्छ जातियों का प्रादुर्भाव हुआ। ये जातियाँ क्रूर, निर्भय, दुर्धर्ष और विधर्मी हुईं।4 इस प्रकार हिंदू-पुराणों के मत से जुलाहा जाति का प्रादुर्भाव मुसलमान पिता और कुविंद माता के आकस्मिक संयोग से हुआ। इस देश में इस प्रकार के आकस्मिक संयोग से नई जाति का पैदा हो जाना अपरिचित घटना नहीं है। आज जो सहस्रों की संख्या में जातियाँ वर्तमान हैं, वस्तुत: उनमें कई इसी प्रकार बन गई है; परंतु जुलाहों के संबंध में पुराणों की यह व्यवस्था कई कारणों से मानने वाले योग्य नहीं मालूम होती।
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1. प्रसिद्ध विद्वान रामकृष्णदास जी ने अपने एक पत्र में मुझे बताया है कि ‘जुलाहा’ शब्द संस्कृत ‘चोलवाय’ से बना है। परंतु मुझे संस्कृत-साहित्य में ‘चोलवाय’ शब्द का कहीं प्रयोग नहीं मिला।

 

2. म्लेच्छात् कुविंदकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह।
जोलात् कुविंदकन्यायां शरका: परिकीर्तित:।।

3. विश्वकर्मा च शूद्रायां वीर्याधानं चकार ह।
ततो बभूव: पुत्रास्ते नवैते शिल्पकारिण:।।
मालाकार: कर्मकार: शंखकार: कुविंदक:।
कंभकार; कांसकर; षडेते शिल्पिनां वरा:।।
सूत्रधारश्चित्रकार: स्वर्णकारस्तथैव च।
पतितास्ते ब्रह्ममशापाद् अजात्या वर्णसंकरा:।।

4. क्षत्रवीर्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापत:।
बलवत्यो दुरंताश्च बभूवुर्म्लेच्छजात:।।
अविद्धकर्णा: क्रूराश्च निर्भया रणदुर्जया:।।
शौचाचारविहीनश्च दुर्धर्षा धर्मवर्जिता:।।

 

हिंदू पुराणों और धर्मग्रंथों की यह प्रवृत्ति रही है कि किसी जाति की उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित पाँच कारणों में से किसी एक को मान लेना:-
(1) वर्णों के अनुलोम विवाह से
(2) वर्णों के प्रतिलोम विवाह से,
(3) वर्णों की संस्कार-भ्रष्टता के कारण,
(4) वर्णों से बहिष्कृत समुदाय से और
(5) भि्न्न संकर जातियोंके अंतर्विवाह से।
इन पाँच कारणों के अतिरिक्त कोई छठा कारण हिंदू-पुराणों और स्मृतियों में नहीं बताया गया। जब किसी नई जाति का आविर्भाव, भारतीय भूमि पर हुआ है तभी कोई-न-कोई ऐसा ही मिश्रण सोच लिया गया है। यह धारणा केवल शास्त्रीय विवेचनाओं तक ही सीमित नहीं रही है, साधारण जनता में भी बद्ध-मूल हो गई है।

इस प्रकार की कल्पनाएँ जाति की सामाजिक मर्यादाओं का नियमन भी करती हैं। स्मृतियों और पुराणों की कथाओं पर से यह अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि जिस समय ये कथाएँ लिखी गई थीं उस समय किसी जाति की सामाजिक मर्यादा क्या और कैसी थी। यह ध्यान देने की बात है कि कई जातियों के संबंध में संस्कृत-ग्रंथों में जो कथाएँ कही गई हैं उन्हें वे जातियाँ स्वयं नहीं मानती। प्रायः आर्येतर जातियाँ अपनी उत्पत्ति और मर्यादा के विषय में कोई-न-कोई पौराणिक कथा बताया करती है। इन कथाओं में साधारणत: उनका श्रेष्ठत्व प्रतिपादित किया होता है और कभी-कभी यह भी बताया गया है कि वर्तमान काल में उनकी सामाजिक मर्यादा किस अभिशापवश या किस धोखे के कारण हीन हो गई है। उदाहरणार्थ, पटवेगर नामक कपड़ा बुननेवाली जाति अपनी उत्पत्ति शिव की जिह्वा से बताती है और यह दावा करती है कि मानव-जाति की लज्जा बचाने के लिए शिवजी ने इन्हें वस्त्र बुनने का सबसे पवित्र कार्य सौंपा है। इनके आदि-पुरुषों को उपवीत और वेद प्राप्त हुए थे।

आधुनिक काल में मनुष्य गणना के समय जुलाहा जाति के संबंध में जो तथ्य प्राप्त हुए है, उन पर से पुराण-समर्थित आकस्मिक संयोगवाली बात का समर्थन नहीं होता। जुलाहे मुसलमान है, पर इनसे अन्य मुसलमानों का मौलिक भेद है। सन् 1901 की मनुष्य-गणना के आधार पर रिजली साहब ने ‘पीपुल्स ऑफ इंडिया’ नामक एक ग्रंथ लिखा था। इस ग्रंथ में उन्होंने तीन मुसलमान जातियों की तुलना की थी। वे तीन है: सैयद, पठान और जुलाहे। इनमें पठान तो भारतवर्ष में सर्वत्र फैले हुए है, पर उनकी संख्या कहीं भी बहुत अधिक नहीं है। जान पड़ता है कि बाहर से आकर वे नाना स्थानों पर अपनी सुविधा के अनुसार बस गए। पर जुलाहे पंजाब, उत्तर प्रदेश बिहार, और बंगाल में ही पाए जाते हैं। ये जहाँ हैं वहाँ थोक-के-थोक हैं। एक पूरा का पूरा भूखंड इनके द्वारा अध्युषित है। पंजाब में इनकी संख्या 6,95,119, उत्तर प्रदेश में 9,23,032 और बंगाल-बिहार में 92,42,049 थी। पंजाब में इनकी बस्ती कश्मीर रिसायत की दक्षिण सीमा से शुरू होकर कुछ दूर तक पंजाब के उत्तरी किनारे पर फैली हुई है। उत्तर प्रदेश जहाँ पर राजपूताना और मध्यभारत की सीमाओं से मिलता है वहाँ से लेकर बनारस और गोरखपुर कमिश्नरी की पूर्वी सीमा तक एक मेखला की भाँति के भूखंड में इनकी दूसरी बस्ती है। बिहार के उत्तरी अंश में और नेपाल की दक्षिण-पूर्वी सीमा तक इनकी घनी बस्ती है। फिर दक्षिण बिहार में भी इनकी एक छोटी-सी बस्ती है। दक्षिणी बंगाल में बर्दवान से ढाका कमिश्नरी तक ये बसे हुए हैं। इस प्रकार उत्तरी पंजाब से लेकर ढाका कमिश्नरी तक अर्धचंद्राकृति भूभाग में फैले हुए हैं। इन प्रदेशों में कभी नागपंथी योगियों का बड़ा जबरदस्त प्रभाव था। रिजली साहब का अनुमान है कि ये जुलाहा जाति किसी निम्न स्तर की भारतीय जाति का मुसलमानी रूप है। सामाजिक परिस्थिति इनकी अच्छी नहीं रही और नवागत धर्म में कुछ अच्छा स्थान पा जाने की आशा से इन्होंने समूह-रूप में धर्मांतर ग्रहण किया होगा। यही कारण है कि ये सैयद और पठानों की भाँति सारे भारतवर्ष में फैले हुए नहीं है बल्कि अपने मूल निवासस्थान में ही पाए जाते हैं।

जिन दिनों कबीरदास इस जुलाहा-जाति को अलंकृत कर रहे थे उन दिनों, ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति ने अभी एकाध पुश्त से ही मुसलमानी धर्म ग्रहण किया था। कबीरदास की वाणी को समझने के लिए यह निहायत जरूरी है कि हम इस बात की जानकारी प्राप्त कर लें कि उन दिनों इस जाति के बचे-खुचे पुराने संस्कार क्या थे।

सन् 1901 की मनुष्य-गणना के आधार पर सर आर्थन्टेल बेन्स ने ‘Grundriss der Indo-orischen Philologie and Altertumskunde’ सीरीज में भारतीय जातियों के संबंध में जो अध्ययन उपस्थित किया, उसमें बाईस प्रकार की वयनजीवी (कपड़ा बुनकर जीविका चलानेवाली) जातियों का उल्लेख है। इनकी संख्या एक करोड़ से ऊपर है। सारे भारतवर्ष में इन सभी जातियों की सामाजिक मर्यादा एक ही सी नहीं है। निचले बंगाल के ताँती उनमें सबसे अधिक ऊँची सामाजिक मर्यादा के अधिकारी बताए गए हैं। अधिक धनी और संभ्रांत होने पर ये लोग कायस्थों के साथ विवाह-संबंध भी कर लेते हैं। इसी प्रकार गुजरात और मध्य भारत की खत्री पटवे जाति की सामाजिक मर्यादा भी अच्छी बताई जाती है। पर साधारणत: वयनजीवी जातियाँ निम्न श्रेणी की मानी जाती हैं। पंडितों का अनुमान है कि इन बाईस प्रकार की वयनजीवी जातियों में से अधिकांश मूल द्रविड़ अधिवासियों में से बनी होंगी। उड़ीसा और मध्यप्रदेश की पहाड़ियों में कुछ कोल या द्रविड़ श्रेणियों का जुलाहा होना अब भी जारी है। पाँका और गाँडा ऐसी ही जातियाँ है। इनमें पाँका जाति के अधिकांश व्यक्ति कबीरपंथी हो रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के वयनजीवियों में कोरी मुख्य हैं। बेन्स जुलाहों को कोरियों की समशील (Corresponding) जाति ही मानते हैं। कुछेक पंडितों ने यह भी अनुमान किया है कि मुसलमानी धर्म ग्रहण करनेवाले कोरी ही जुलाहे हैं। यह उल्लेख किया जा सकता है कि कबीरदास जहाँ अपने घर को बार-बार जुलाहा कहते हैं,1 वहाँ कभी-कभी अपने को कोरी भी कह गये है।2 ऐसा जान पड़ता है कि यद्यपि कबीरदास के युग में जुलाहों ने मुसलमानी धर्म ग्रहण कर लिया था पर साधारण जनता में तब भी कोरी नाम से परिचित थे। कबीरदास ने बुनाई के रूपकों और उलटबाँसियों में कई जगह ‘जुलाहों’ के स्थान पर ‘कोरी’ नाम लिया है। आजकल कोरियों में से बहुतों ने कबीरपंथ स्वीकार कर लिया है पर बहुत-से हिंदू विचारों के कट्टर अनुयायी भी हैं। आजकल इनमें उच्च श्रेणी के हिंदुओं की आचारनिष्ठा के अनुकरण की प्रवृत्ति जोरो पर पाई जाती है। फिर यह सब होते हुए भी प्रस्तुत लेखक यह नहीं मानता कि कोरियों का ही मुसलमान संस्करण जुलाहा है। अब तक उपर्युक्त अनुमान का पोषक न तो कोई सामाजिक कारण बताया गया है, न वैज्ञानिक नाप-जोख। इसलिए कोरियों और जुलाहों को एक श्रेणी की दो जातियाँ मान लेने का कोई प्रमाण नहीं है।

कबीरदास की वाणियों से जान पड़ता है कि मुसलमान होने के बाद न तो जुलाहा जाति अपने पूर्वसंस्कार से एकदम मुक्त हो सकी थी और न उसकी सामाजिक मर्यादा बहुत ऊँची हो सकी थी। यह दूसरी बात विचारणीय है। रिजली के जो अनुमान ऊपर दिए गए हैं उनमें एक यह है कि सामाजिक मर्यादा की उन्नति के लिए इस जाति ने समूह-रूप में धर्मांतर ग्रहण किया होगा। समूह-रूप में धर्मांतर ग्रहण करने के विषय में कोई संदेह नहीं है, पर साधारणत: इस देश के निचली जाति के लोग उस कारण से धर्मांतर ग्रहण करते नहीं देखे जाते। नीची-से-नीची श्रेणी का हिंदू अपने को विधर्मी से उत्तम जाति का समझता है और कबीर की गवाही पर तो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि न तो लोक की दृष्टि में और न अपने-आप की दृष्टि में जुलाहा जाति उच्चतर सामाजिक मर्यादा पा सकी थी। आज जुलाहों के संबंध में जो लोकोक्तियाँ और किस्से-कहानियाँ आदि प्रचलित हैं, वे यह सिद्ध करती हैं कि सब मिलकर यह जाति आज भी साधारण जनता की दृष्टि में ऊंची नहीं उठ सकी। स्वयं रिजली साहब ने भी अपनी पुस्तक में ऐसी लोकोक्तियों का मनोरंजन संग्रह किया है। कबीरदास ने जुलाहों की जाति को कमीनी जाति कहा है और यह भी बताया है कि उन दिनों भी यह जाति जन-साधारण में उपहास और मजाक की पात्र थी। साधारणत: मूर्खता-संबंधी कहानियों का एक बहुत बड़ा अंश सारे भारतवर्ष में जुलाहों से भी बना है।
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1. (1) जाति जुलाहा मति कौ धीर।
हरिष हरिष गुन रमै कबीर।
तू ब्राह्मन मैं काशी का जुलाहा।

 

-क.ग्रं., पद 270 इत्यादि।

 

2. परिहरि काम राम कह बौरे सुनि सिख बंधू मोरी।
हरि को नाँव अभै-पद-दाता कहै कबीरा कोरी।

 

-;क.ग्रं.,पद 346

 

3. सरग्गलोक में क्या दुख पड़िया तुम आई कलिमाहीं।
जाति जुलाहा नाम कबीरा अजहु पतीजौ नाहीं।।
तहाँ जाहु जहाँ पाट-पटंबर अगर चँदन घसि लीना।
आइ हमारै कहा करौगी हम तौ जाति कमीना।।

 

-‘क.ग्रं.’,पद 270

 

अब प्रश्न यह है कि इतना बड़ा जनसमूह एक ही साथ मुसलमान क्यों हो गया ? सामाजिक मर्यादा की उन्नतिवाली बात तो कबीर की अपनी गवाही से ही परास्त हो जाती है। इस प्रश्न की जरा विचारपूर्वक जाँच करने की चेष्टा की जाए। एक विचित्र बात यह है कि अधिकांश वयनजीवी जातियों में यह एक उल्लेखयोग्य विशेषता पाई जाती है कि वे अपने-आपको उसी सामाजिक स्तर में रखने को प्रस्तुत नहीं है कि जिसमें साधारणत: उन्हें रखा गया है। ये लोग अपनी उत्पत्ति और इतिहास अलग से बताया करते हैं और अपनी वंशगत श्रेष्ठता का दावा करते हैं। कभी-कभी वे अपने को ब्राह्मण कहते हैं। इस प्रकार तमिल और तंजोर प्रांत की पटनूकर जाति (जो गुजरात-काठियावाड़ की आदिम अधिवासी होने के कारण ‘सौराष्ट्रक’ भी कहलाती है) अपने को ब्राह्मण कहती है और उपवीत धारण करती तथा आयंगर आदि पदवियों का व्यवहार करती है। 1पटगेवर जाति की चर्चा पहले ही हो गयी है। दाक्षिणात्य के साले भी अपने को ब्राह्मण कहने और शास्त्री आदि पदवियाँ धारण करने लगे हैं। ब्राह्मणों की भाँति इनकी शाखाएँ और गोत्र भी हैं। शायद ही किसी अन्य जाति में अपनी वर्तमान सामाजिक मर्यादा के विषय में ऐसा तीव्र असंतोष हो जैसा कि वयनजीवी जातियों में पाया जाता है। ऐसा जान पड़ता है, किसी काल में यह पेशा उत्तम गिना जाता था और किसी अज्ञात कारण से इस पेशे के लोग अपनी ऊंची मर्यादा से अध:पतित हुए हैं और इनके भीतर उनकी पुरानी महिमा के जो संस्मरण बचे रहे हैं वे ही उन्हें असंतुष्ट बनाए हुए हैं। संभवत: इस देश में ब्राह्मण-श्रेष्ठता प्रतिष्ठित होने के पूर्व इन वयनजीवी जातियों में से कई जैन-बौद्धादि ब्राह्मणेतर धर्मों में उन्नत स्थान की अधिकारिणी रही होगीं।

बंगाल-बिहार की ‘सराक’ जाति ताँतियों की ही एक शाखा है। इनके विषय में हाल ही में एक अत्यंत मनोरंजक तथ्य का रहस्योद्धाटन हुआ है। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण के अनुसार ‘शराक’ जाति की उत्पत्ति जुलाहा पिता कुविंद (ताँती) माता से हुई है। परंतु आधुनिक खोजों में पता चला है कि ये शराक असल में श्रावकों के अर्थात् जैनियों के भग्नावशेष हैं जो अवस्था-दुर्विपाक से समाज के निचले स्तर में डाल दिए गए हैं। अब भी इनके सामाजिक आचारों में बहुत-कुछ जैन आचार रह ही गए है। अब फिर से जैन मुनियों ने इनकी ओर ध्यान देना शुरू किया है।

सराक (शराक=श्रावक) जाति के इस रहस्योद्धाटन पर से यह अनुमान पुष्ट होता है कि अन्यान्य वयनजीवियों की वर्तमान अवस्था का कारण उनका ब्राह्मणेत्तर विश्वास का आश्रय होना चाहिए। शायद इन्होंने शुरू-शुरू में ब्राह्मण धर्म का जबरदस्त विरोध किया होगा। विरोध की मात्रा का कुछ अनुमान तो कबीर के पदों से ही हो जाता है।
लेकिन इन वयनजीवी जातियों में सबसे मनोरंजक बंगाल के ‘जुगी’ या ‘योगी’ है। सन् 1921 की मनुष्य-गणना के अनुसार अकेले बंगाल में इन जुग्गी या योगी लोगों की संख्या 2,65,910 थी। ये सारे बंगाल में फैले हुए हैं और कपड़ा बुनने का काम करते हैं।
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1.‘माइसोर ट्राइब्स एंड कास्ट्स’, जि. 4 पृ.474-‘जातिभेद’ से।
2.जोलात् कुविंदकन्यायां शराक: परिकीर्तितः। ‘ब्र.वै.पुराण’, 101, 121


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