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मीरा

गुलजार

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3205
आईएसबीएन :81-7119-881-3

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मीरा के जीवन पर आधारित गुलजार द्वारा लिखी गई फिल्मी पटकथा।

Meera

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हमारे दौर के असाधारण फ़िल्मकार और शायर गुलज़ार की फ़िल्म  ‘मीरा’ की यह स्क्रिप्ट मीरा की जीवन-कथा का बयान भर नहीं है। यह मीरा को देखने के लिए एक अलग नजरिये का अविष्कार भी करती है।
जैसा कि स्वाभाविक ही था, माध्यम की जरूरतों के चलते, इस पाठ में मीरा हमें कहीं ज्यादा मानवीय और अपने आसपास की देहधारी ईकाई के रुप में दिखाई देती हैं; लगभग दैवी व्यक्तित्व नहीं जैसा कि इतिहास के नायकों के साथ अकसर होता है, और मीरा के साथ भी हुआ।

लेकिन मीरा के मानवीयकरण में माध्यम की आवश्यकताओं के अलावा काफी भूमिका खुद गुलज़ार साह की और एक रचनाकार के रुप में उनके रुझान की भी है। अपने गीतों में वे हवा, धूप और आहटों तक का मानवीकरण करते रहे हैं; फिर मेरा तो जीते-जागते इंसानों से भी कुछ ज्यादा जीवित मानवी थीं।

मीरा और उनके युग के पुनराविष्कार करनेवाली फ़िल्म  की स्क्रिप्ट के अलावा इस पुस्तक  में गुलज़ार से उसके रचनाकर्म के बारे में यशवंत व्यास की एक लम्बी बातचीत भी है और साथ है ‘मीरा’ के निर्माण में आनेवाली मुश्किलों के बारे में गुलज़ार का एक संस्मरण, जो इस पुस्तक को और उपयोगी तथा संग्रहणीय बनाता है। सिनेमा के विद्यार्थियों और पटकथा लेखकों को भी यह पुस्तक बहुत कुछ सिखाती है।


बात


शाख पर जब धूप आई
हाथ छूने के लिए
छाँव छम् से नीचे कूदी
हँस के बोली, आइए

मद्धम सी रोशनी में किसी खुशनुमा मौसम-सी गन्ध, किताबें ही किताबें। ठंडक भी, ख़ुशगवार ख़ामोशी भी। वही कुर्ता, वही मोटी फ्रेम का चश्मा, वही मुस्कान और वही गम्भीरता। हल्का-सा आनुनासिक स्पर्शवाला, साफ़, गहरा और किसी मानी में झंकृत कर देने वाला स्वर। धीमे-धीमे उठकर आते शब्द जो न तोड़ते हैं, न बनाने का दम्भ लेकर आते हैं, बस कुदरतन माहौल में मिल जाते हैं।

आप एक कवि के सामने बैठे हैं, जिसने कविता जैसी फ़िल्में बनाई हैं या ऐसे आदमी के सामने बैठे हैं, जो फ़िल्मों की व्यावसायिक मार-काट से भरी दुनियां में अपना एक संवेदनशील कोना बनाए हुए बैठा है। वह कोना, सिर्फ़ कोना ही नहीं है एक भरोसा है जिसने अपनी-पूरे माहौल पर छा जानेवाली-प्रतिष्ठा से कई धारणाएँ तोड़ी हैं, पूर्वग्रह खत्म किए हैं और नई अर्थवत्ता देने की कोशिश की है। उसके चाहनेवाले के मुताबिक, कैमरे की आँख से भी उसने कविताएँ ही लिखी हैं। कहानियों के मर्म को अपना स्पर्श देकर फ़िल्म में चाक्षुष विस्तार की अद्भुत बुनावट की है। संवादों और गीतों में पात्रों को जीवन्त करते, उसकी अनुभूतियों को जो वाणी दी है, वह महसूस करने की प्रक्रिया में शब्द दर शब्द अपना प्रभाव रोपती चली जाती है।

वे पढ़ रहे हैं :


कन्धे झुक जाते हैं बोझ से इस लम्बे सफर के
हाँफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते हुए तेज़ चढ़ानें
साँसें रह जाती हैं जब सीने में इक गुच्छा-सा होकर
और लगता है कि दम टूट ही जाएगा यहीं पर
एक नन्हीं सी नज़्म मेरे सामने आकर
मुझसे कहती है मेरा हाथ पकड़कर, मेरे शायर
ला, मेरे कन्धों पर रख दे, मैं तिरा बोझ उठा लूँ


कमरे के पर्दे हिलते हैं। एक सरसराहट के साथ। कुर्ते की बाँहें दबाकर कुहनियों पर खींचने से दबाए-दबाए बनी सलवटों में एक उँगली डालकर एक गहरी साँस खींचे और छोड़ दें। चाहें तो क्लोज-अप, लांग शाट या डिज़ाल्व कहकर बुलाएँ गुलज़ार के भीतर के मूड सामने आ रहे हैं, ‘एक आदमी की शख़्सियत में कई कम्पार्टमेंट होते हैं। जिस वक़्त जिसे खोला जाए, जिस हिस्से पर रोशनी पड़े, उतना हिस्सा उजाले में आ जाता है और बाकी अँधेरे में डूबा रहता है।’


पहला स्विच ऑन करें


इस वक़्त रोशनी में यह शायर का चेहरा है।
‘..ज़रूरी नहीं है कि शाम की शफ़क आप भी उसी तरह देखें, जैसे मैं देखता हूं। ज़रूरी नहीं कि उसकी सुर्ख़ी आपके अन्दर भी वही रंग घोले, जो मेरे अन्दर घोलती है। हर लम्हा, हर इंसान अपनी तरह खोलकर देखता है। इसलिए मैंने उन लम्हों पर कोई मुहर नहीं लगाई। कोई नाम नहीं दिया। लेकिन इतना ज़रूर है कि उन लम्हों को मैंने बिल्कुल इसी तरह महसूस किया है जिस तरह कहने की कोशिश की है और बगैर महसूस किए कुछ भी नहीं कहा।’

तो शायर ने कलम के साथ कैमरा भी नज़्में लिखने के लिए अपने साथ ले लिया। अब वह जो बिंब, जो छवियाँ रचना चाह रहा था, वे नए-नए पहलुओं से प्रगट होने लगीं।


हम दूसरा स्विच ऑन करते हैं


दूसरे कोण से आती रोशनी, उस पूरे चेहरे को रोशन कर देती है, जिसके एक रोशन हिस्से को हमने एक शायर की तरह देखा है, पहला स्विच ऑन करके। यह वही आदमी है, जिसने कई-कई रूपों में अपनी आत्माभिव्यक्ति की है और कई मानों में घुल गया है। कई-कई चरित्रों का पुनर्सृजन करके उन्हें अपने से मिला लिया है।

अरसे पहले ‘माधुरी’ के ‘सात सुरों के मेले’ में किसी समीक्षक ने लिखा था—ज़िन्दगी की तलाश में गुलज़ार ने कई दीये जलाए। कुछ जलते हैं, जलते रहेंगे, लेकिन एकाध दीया उसकी अपनी पूरी कोशिश के बाद भी सिर्फ़ यों गन्दुमी उजाला कर रहा है जैसे किसी पेड़ का फ़ेड आउट शाट हो। अपने अन्दर निरन्तर लौ उठाते उस चिराग को ईमानदार आशिक फेंक भी नहीं सकता।


माहौल और किरदार


आम फ़िल्मों से गुलज़ार की फ़िल्मों का माहौल अलग है और किरदार भी। फ़िल्मों में वे ज़िन्दगी के करीब आने की कोशिश करते रहे हैं, ‘कोई शख्स पूरा काला नहीं है, पूरा सफेद नहीं है। सन्तों और ऋषि-मुनियों पर जाएँ तो बात और है। जो जीते-जागते इंसान हैं उनकी कमजोरियाँ भी हैं, खूबियाँ भी।’
गुलज़ार की अपनी ज़िद है। इस ज़िद की अपनी प्रतिष्ठा है और इस प्रतिष्ठा की अपनी ऊँचाई है :

‘एक फ़िल्म अपने भीतर धारण करना होता है। कोई सब्जेक्ट मुझे छू लेता है। कोई आकर्षित करता है। किसी घटा की जटिलता में मैं अपनी संभावनाएँ खोजता हूँ। उलझे हुए सूत्र सुलझाने की कोशिश चलती है। एक चित्र उभरकर सामने आता है। फिर उचित अवसर आते ही प्रकट हो जाता है।’

किरदारों के बारे में गुफ़्तगूँ हो।
वे अपना इरादा, नीयत व दिलचस्पी साफ़ करें। रिश्तों के जितने आयाम होते हैं, हर्ष और विषाद होते हैं, उनके जरिए उन पर जाएँ। गन्ध महसूस करें, स्पर्श जिएँ।

वे डायरी का एक पन्ना पढ़ते हैं—‘इमेजेज’


मैं भी उस हाल में बैठा था
जहाँ परदे पर इक फ़िल्म के किरदार
ज़िन्दा जावेद नज़र आते थे
उनकी हर बात बड़ी, सोच बड़ी, कर्म बड़े
उनका हर एक अमल
एक तम्सील थी सब देखनेवालों के लिए
मैं अदाकार था उसमें
तुम अदाकार थीं
अपने महबूब का जब हाथ पकड़कर
तुमने
ज़िन्दगी एक नज़र में भर के
उसके सीने पे बस इक आँसू से
लिखकर दे दी
कितने सच्चे थे वो किरदार
जो परदे पर थे
कितने फ़र्जी थे वो दो, हाल मैं बैठे साए।


वो फ़र्जी साए कौन थे, वो सच्चे किरदार कौन थे। खिड़की से रोशनी की एक और किरण गिरती है। तकनीक के बड़े-बड़े काले-काले डब्बों में न जाने कितने लोग चलते-फिरते साए बनते हैं जिसे अमूमन हम फ़िल्म  मेकिंग कहा करते हैं। असल में डब्बों में कुछ नहीं होता। होता है उसमें जो रोशनी की किरण गुज़ारने के तरीके तय करता है। इस तरह जब किरणें गुज़र जाती हैं, कुछ साए हाथ में आते हैं। यह फ़िल्म होती है, सिनेमा होता है, अंधेरे हॉल में ज़िन्दगी का कोई जीता-जागता लम्हा होता है। मगर एक तकनीक तो है ना। इस तकनीक को अपने हुनर से अपनी तरह बना लेना होता है। वे तकनीक क्या है ? थोड़ा हटकर, रूमान से उतरकर इस तिलिस्म के टुकड़े करके देखें।
बातचीत खुले उजाले में आ जाती है।...

यशवन्त व्यास : एक अर्थपूर्ण सिनेकृति क्या होती है ?
गुलज़ार : अगर हम किसी को इस बात पर विवश कर सकें कि वह सच्चाई को ढूँढ़े तो यह बात ख़ुद में अच्छाई बन जाती है। एक सवाल उठाना या ज़िन्दगी का एक टुकड़ा सामने रख देना जिसमें कुछ कड़ुवे सच हों या कि आप ज़िन्दगी के मानी ढूँढ़ने पर मजबूर हो जाएँ-तो यह अपने आप में एक अर्थपूर्ण रचना हो सकती है।


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