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गजलें और शायरी >> छैंया छैंया

छैंया छैंया

गुलजार

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3204
आईएसबीएन :81-7119-777-9

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गुलजार की दिल को छूती गजलें।

Chainya-Chainya a hindi book by Guljar - छैंया-छैंया - गुलजार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उसके पास लगभग उतने ही शब्द हैं, ठीक जितने ‘आम आदमियों’ के शब्दकोश में होते हैं। उनके पास, लगभग नियत-जीवन-ह्रदय हैं जैसे आम-आदमियों जिन्दगी में होते हैं। उनके पास करीब-करीब वही इच्छाएँ हैं जो किसी भी आदमी के निजीपन में उसे तरंगित या उद्वेलित कर सकती हैं। हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता में संगीत के जादू से मिलकर जो मनहरणकारी क्रिया सम्पन्न होती है, उसका मूल भी यही बिन्दु है। लेकिन, गुलजार इसी मनहरणकारी व्यवसाय में अपनी संवेदनशीलता में रिश्तों का अनूठा स्पर्श देने में कामयाब होते हैं। यही उनकी सबसे बड़ी खूबी बन जाती है।
चाँद, रात, शाम, सुबह या सूरज उनके जरिए नई अर्थ वत्ता ग्रहण करते चलते हैं। मुहावरों के नवप्रयोग होते हैं, प्रकृति की सूक्ष्म व्यंजनाएँ खुल जाती हैं। शायद इसलिए कि शब्दों की ध्वन्यात्मकता को उन्होंने अपने ढंग से परख लिया है। उनके पास लोक रस, गंध और स्पर्श सुरक्षित हैं। वे स्मृतियों और यथार्थ के बीच एक पुल सर्जना करते हैं। गुलजार के शब्द, लोक-ह्रदय के उफानों, सुखों, इच्छाओं तथा यथार्थ के प्रति उत्पन्न आवेगों को इस तरह बाँटते प्रतीत होते हैं कि हम उन्हें देखने, सुनने, महसूसने लगते हैं। उनकी काव्य-यात्रा प्रकृति और मन के बीच अपने आपको खो देने की प्रबल इच्छा से संपन्न होती है।

‘बंदिनी’ से ‘इजाजत’ के बाद ‘सत्या’ और ‘फिलहाल’ तक गुलजार ऐसी निर्बन्ध परंपरा में बदलते हैं जो हमें लगातार अपने साथ ले चलने के लिए खींचती है। हमारी अनुभूतियों को उठाती है और उन्हें बेजान होने से बचने का अवसर प्रदान करती है। वह स्पर्श करती है, गूँजती है और अपने भीतर खो जाने की माँग करती है।
फिल्मों के सौदे में भी गुलजार उम्र के, साँस तोड़ के लम्हे देते हैं। ‘छैंया-छैंया’ गुलजार के प्रमियों के लिए उन्हीं लम्हों का ताजा गुच्छा है।

रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ
गानों की क़ीमत माँगता हूँ-
सब नज़्में आँख चुराती हैं
और करवट लेकर शे’र मिरे
मुँह ढाँप लिया करते हैं सब
वो शरमिंदा होते हैं मुझसे
मैं उनसे लजाता हूँ।
बिकनेवाली चीज़ नहीं पर
सोना भी तुलता है तोले-माशों में
और हीरे भी ‘कैरेट’ से तोले जाते हैं।
मैं तो उन लम्हों की क़ीमत माँग रहा था
जो मैं अपनी उम्र उधेड़ के, साँसें तोड़ के देता हूँ
नज़्में क्यों नाराज होती हैं ?

गुलज़ार

दो शब्द


दिल, जिगर, जिस्म, जान और न जाने कितने ऐसे शब्द हैं जिनके बिना हिंदी सिनेमा का काम नहीं चलता। इनका कविताओं, नज़्मों, ग़ज़लों, गीतों में अनगिनत बार प्रयोग हुआ है। ‘भेजा’ एक ऐसी चीज़ है जिससे इनकी दुश्मनी दिखती है। हिंदी सिनेमा की मुख्य धारा वैसे भी भेजे का प्रयोग कम करती है और चाहती है कि उसके दर्शक तो कतई न करें। लेकिन गुलज़ार ने यह जोख़िम लिया है-उनके एक गीत में भेजा है। शब्दों के अर्थ सन्दर्भ के साथ बदलते भी हैं और उनका वजन कम-ज्यादा भी होता है। पर शब्दों के साथ खेलना और भाषा को चमत्कार की तरह इस्तेमाल करना सधे हुए हाथों में ही संभव है। गुलज़ार ऐसी ही सधी क़लम वाले लेखक हैं। गुलज़ार को लोग फ़िल्मों से ज़्यादा जानते हैं। वे अगर फ़िल्मों में न होते तो भी साहित्य की महत्त्वपूर्ण शख्सियत होते। हाँ, फिल्में उन्हें सिचुएशन देती हैं। गुलज़ार ने अपनी नज़्मों में अमूर्त को रूप दिया है, आवाज़ को रोशनी दी है और आँखों को सुना है, कविता के बिबों और ध्वनियाँ को नए आयाम दिए हैं। उनकी कविता में ही यह संभव है कि कमर के बल पर नदी मुड़ती है और रस्ते सुस्त कदम होते हैं। हिंदी उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी के फ़ासले सिमट जाते हैं और कभी हाथ भर के फ़ासले के लिए उम्र भर चलना पड़ता है।

बात शुरू हुई थी दिल, जिगर जिस्म और जान से। मुझे याद नहीं कि इन बहुप्रयुक्त शब्दों के साथ ‘भेजे’ शब्द का प्रयोग किसी गीत में कभी हुआ हो। वैसे भी इस पर विवाद हो सकता है कि भेजा जिसका पर्याय है-दिमाग़ का, विवेक का, मेधा का, बुद्धि का या फिर किसका ? जो भी हो गुलज़ार के एक गीत की पंक्ति मेरे भेजे में गूँजती है-‘भेजा शोर करता है, भेजे की सुनेगा तो मरेगा कल्लू।’ यानी दर्शन शुद्ध है पर भाषा टपोरी है। यह गीत में असंभव सा है और इसको संभव करना सबके बस की बात नहीं। शब्द एक अपार ऊर्जा से भरा अस्त्र है और इससे आप क्या करते हैं, यह आप पर निर्भर है। आए चाहें तो शब्दों की असीम दुनिया में ज़मीन से चाँद तक कुछ भी समेट सकते हैं, भाषा की कौंध में छोटे-छोटे बिम्बों के माध्यम से बौद्धिक विराटता से साक्षात्कार करा सकते हैं। शब्दों की ऐसी ही जादूगरी गुलज़ार की नज़्मों में, उनके गीतों में, उनकी त्रिवेणियों में मुग्ध करती है। उनके यहाँ संज्ञा क्रिया हो जाती है और क्रिया संज्ञा और इस अनोखे ताने-बाने से सर पर इश्क की छाँव हो जाती है। कभी आदमी ख़ाली रिक्शे-सा सड़कों पर घूमता है और कभी आत्मीयता की गरमाहट हाथों में धूप मलने लगती है। अद्भुत विशेषण और विलक्षण बिम्ब ! यहीं गुलज़ार सबसे अलग दीखते हैं।

ज़िन्दगी के अनगिन आयामों की तरह उनकी कविता में एक ही उपादान, एक ही बिम्ब कहीं उदासी का प्रतीक होता है और कहीं उल्लास का। गुलज़ार की कविता बिम्बों की इन तहों को खोलती है। कभी भिखारिन रात चाँद कटोरा लिये आती है और कभी शाम को चाँद का चिराग़ जलता है; कभी चाँद की तरह टपकी ज़िन्दगी होती है और कभी रातों में चाँदनी उगाई जाती है। कभी फुटपाथ से चाँद रात-भर रोटी नजर आता है और कभी ख़ाली कासे में रात चाँद की कौड़ी डाल जाती है। शायद चाँद को भी नहीं पता होगा कि ज़मीन पर एक गुलज़ार नाम का शख़्स है, जो उसे इतनी तरह से देखता है। कभी डोरियों से बाँध-बाँध के चाँद तोड़ता है और कभी चौक से चाँद पर किसी का नाम लिखता है, कभी उसे गोरा-चिट्टा-सा चाँद का पलंग नज़र आता है जहाँ कोई मुग्ध होकर सो सकता है और कभी चाँद से कूदकर डूबने की कोशिश करता है। गुलज़ार के गीतों में ये अद्भुत प्रयोग बार-बार दीखते हैं और हर बार आकर्षित करते हैं। कभी आँखों से खुलते हैं सबेरों के उफ़ुक़ और कभी आँखों से बन्द होती है सीप की रात; और यदि नींद नहीं आती तो फिर होता है आँखोंमें करवट लेना। कभी उनकी ख़ामोशी का हासिल एक लम्बी ख़ामोशी होता है और कभी दिन में शाम के अंदाज होते हैं या फिर जब कोई हँसता नहीं तो मौसम फीके लगते हैं।

ये गुलज़ार का मौलिक अंदाज है। वे कहते हैं कि दिल है तो दर्द होगा और तभी उन्हें अहसास होता है कि दर्द है तो दिल भी होगा। यही तो दिल की मीठी मुश्किल है। फ़िल्मों के चरित्र गौण हो जाते हैं, गीत की सिचुएशन पीछे रह जाती है और शायर बहुत आगे निकल जाता है और कहीं दूर ढूँढ़ रहा होता है-हम भूल गए हैं रख के कहीं वो चीज जिसे दिल कहते थे। कभी ख़ामोशी इतनी प्रगल्भ हो उठती है कि शायर अपनी तन्हाई को उकसाता है बोलने के लिए और कभी सब कुछ इतना यथावत् होता है कि लगता है कि बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला। जब गुलज़ार की कविता में आँखें चाँद की ओर दिल से मुख़ातिब होती हैं तो लगता है इस शायर का ज़मीन से कोई वास्ता नहीं। पर यथार्थ की ज़मीन पर गुलज़ार का वक्त रुकता नहीं कहीं टिककर (क्योंकि) इसकी आदत भी आदमी-सी है, या फिर घिसते-घिसटते फट जाते हैं जूते जैसे लोग बिचारे। शायर ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को मुक़म्मल देखना चाहता है और आगाह करता है कि वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते; या फिर वक़्त की विडंबना पर हँसता है कि वो उम्र कम कर रहा था मेरी, मैं साल अपने बढ़ा रहा था। कभी वह ख़्वाबों की दुनिया में सोए रहना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि जाग जाएगा ख़्वाब तो मर जाएगा और कभी वह बिल्कुल चौकन्ना हो जाता है क्योंकि उसे पता है कि समय बराबर कर देता है समय के हाथ में आरी है, वक्त से पंजा मत लेना वक्त का पंजा भारी है। पर फिर भी उम्मीद इतनी कि उसने तिनके उठाए हुए हैं परों पर।

ज़ाहिर है, गुलज़ार की कविताओं की संरचना कभी इकहरी नहीं होती क्योंकि उनका कवि बुनता है तिनकों के घरौंदे, जोड़ता है शीशे के नशेमन और तराशता है पत्थर की हवेली।
कविता की दुनिया के इस अनन्य अदीबा का नाम है-गुलज़ार और उनके गीतों के साथ चलना पाँव के नीचे जन्नत होना है।

विनोद खेतान

1


मुझको इतने से काम पे रख लो...
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको

मुझको इतने से काम पे रख लो...

जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो

मुझको इतने से काम पे रख लो....

जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है

मुझको इतने से काम पे रख लो...

2


तेरी आँखें तेरी ठहरी हुई ग़मगीन-सी आँखें
तेरी आँखें से ही तख़लीक़ हुई है सच्ची
तेरी आँखों से ही तख़लीक़ हुई है हे हयात

तेरी आँखों से ही खुलते हैं, सवेरों के उफूक़
तेरी आँखों से बन्द होती है ये सीप की रात
तेरी आँखें हैं या सजदे में है मासूम नमाज़ी
तेरी आँखें...

पलकें खुलती हैं तो, यूँ गूँज के उठती है नज़र
जैसे मन्दिर से जरस की चले नमनाक सदा
और झुकती हैं तो बस जैसे अज़ाँ ख़त्म हुई हो
तेरी आँखें तेरी ठहरी हुई ग़मगीन-सी आँखें...

3


कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी
तुमको ये चाँदनी की आवज़ें

पूर्णमासी की रात जंगल में
नीले शीशम के पेड़ के नीचे
बैठकर तुम कभी सुनो जानम
भीगी-भीगी उदास आवाज़ें
नाम लेकर पुकारती है तुम्हें
पूर्णमासी की रात जंगल में...

पूर्णमासी की रात जंगल में
चाँद जब झील में उतरता है
गुनगुनाती हुई हवा जानम
पत्ते-पत्ते के कान में जाकर
नाम ले ले के पूछती है तुम्हें

पूर्णमासी की रात जंगल में
तुमको ये चाँदनी आवाज़ें
कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी

4


इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला
सदियों से गिरी बर्फ़ें
और उनपे बरसती हैं
हर साल नई बर्फ़ें
इन बूढ़े पहाड़ों पर....

घर लगते हैं क़ब्रों से
ख़ामोश सफ़ेदी में
कुतबे से दरख़्तों के

ना आब था ना-दानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गईं जानें
संवाद : कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था
सरसब्ज़ ढलानों पर बसती गड़रियों की
और भेड़ों की रेवड़ थे
गाना :
ऊँचे कोहसारों के
गिरते हुए दामन में
जंगल हैं चनारों के
सब लाल से रहते हैं
जब धूप चमकती है
कुछ और दहकते हैं
हर साल चनारों में
इक आग के लगने से
मरते हैं हज़ारों में !
इन बूढ़े पहाड़ों पर...
संवाद : चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में
इक भेड़िया आता था
ले जाता था रेवड़ से
इक भेड़ उठा कर वो
और सुबह को जंगल में
बस खाल पड़ी मिलती।
गाना : हर साल उमड़ता है
दरिया पे बारिश में
इक दौरा सा पड़ता है
सब तोड़ के गिराता है
संगलाख़ चट्टानों से
जा सर टकराता है

तारीख़ का कहना है
रहना चट्टानों को
दरियाओं को बहना है
अब की तुग़यानी में
कुछ डूब गए गाँव
कुछ बह गए पानी में
चढ़ती रही कुर्बानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गई जानें
संवाद : फिर सारे गड़रियों ने
उस भेड़िए को ढूँढ़ा
और मार के लौट आए
उस रात इक जश्न हुआ
अब सुबह को जंगल में
दो और मिली खालें
गाना : नानी की अगर माने
तो भेड़िया ज़िन्दा है
जाएँगी अभी जानें
इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला...

5


न जाने क्या था, जो कहना था
आज मिल के तुझे
तुझे मिला था मगर, जाने क्या कहा मैंने

वो एक बात जो सोची थी तुझसे कह दूँगा
तुझे मिला तो लगा, वो भी कह चुका हूँ कभी
जाने क्या, ना जाने क्या था
जो कहना था आज मिल के तुझे

कुछ ऐसी बातें जो तुझसे कही नहीं हैं मगर
कुछ ऐसा लगता है तुझसे कभी कही होंगी
तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं हूँ तेरी क़सम
तेरे ख़यालों में कुछ भूल-भूल जाता हूँ
जाने क्या, ना जाने क्या था जो कहना था
आज मिल के तुझे जाने क्या...



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