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पचपन खम्भे लाल दीवारें

उषा प्रियंवदा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3172
आईएसबीएन :978-81-267-1662

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इस पुस्तक में आधुनिक युग के जीवन की कथा का वर्णन हुआ है...

Pachpan Khambhe Lal Divarain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उषा प्रियंवदा की गणना हिन्दी के उन कथाकारों में होती है जिन्होंने आधुनिक जीवन की ऊब, छटपटाहट, संत्रास और अकेलेपन की स्थिति को अनुभूति के स्तर पर पहचाना और व्यक्त किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में एक ओर आधुनिकता का प्रबल स्वर मिलता है तो दूसरी ओर उसमें विचित्र प्रसंगों तथा संवेदनाओं के साथ हर वर्ग का पाठक तादात्म्य का अनुभव करता है; यहाँ तक कि पुराने संस्कारवाले पाठकों को भी किसी तरह के अटपटेपन का एहसास नहीं होता।

पचपन खंभे लाल दीवारें ऊषा प्रियंवदा का पहला उपन्यास है, जिसमें एक भारतीय नारी की सामाजिक-आर्थिक विवशताओं से जन्मी मानसिक यंत्रणा का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है। छात्रावास के पचपन खंभे और लाल दीवारें उन परिस्थितियों के प्रतीक हैं जिनमें रहकर सुषमा को ऊब तथा घुटन का तीखा एहसास होता है, लेकिन फिर भी वह उससे मुक्त नहीं हो पाती, शायद होना नहीं चाहती, उन परिस्थितियों के बीच जीना ही उसकी नियति है। आधुनिक जीवन की यह एक बड़ी विडंबना है कि जो हम नहीं चाहते वही करने को विवश हैं। लेखिका ने इस स्थिति को बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत उपन्यास में चित्रित किया है।

एक

सुषमा को लगा कि नील आकर सिरहाने खड़ा हो गया है, फिर उसने झुककर, धीरे-से उसके बाल छुए हैं। सुषमा चौंककर उठ बैठी, चारों ओर घुप्प अँधेरा था। उसने काँपते हुए कंठ से पुकारा—‘‘नील !’’
बरामदे में सोई हुई भौंरी खाँसी—सुषमा ने पाया कि वह अपनी चारपाई पर उठकर बैठी हुई है और नील कहीं नहीं है। सब ओर सन्नाटा है, भयावह, अकेला सन्नाटा। वह अकुलाकर खड़ी हुई और उसने खिड़की पूरी खोल दी। बाहर से प्रकाश की एक फाँक आकर उसके पैरों पर लोटने लगी और सुषमा छड़ों का ठंडा स्पर्श अनुभव करती हुई, अनझिप आँखों से बाहर ताकने लगी।

रात्रि के वह मौन स्वर उसके चारों ओर मँडरा रहे थे। टहनियों और पत्तों का मंद स्वर में वार्तालाप, दूर बजते रात के घंटे, चौंककर जागे किसी पक्षी का आर्त चीत्कार ! सुषमा को लगा कि उसके प्राणों और रात्रि की आत्मा में घना साम्य है। वैसे ही कुछ मद्धिम स्वरों की प्रतिध्वनियाँ गूँजती हैं, मन में कुछ करवट लेता है और चुप हो जाता है; ऐसा ही अभेद्य, सर्वग्रासी अंधकार जीवन में सिमटता आता है।
कुछ स्मृतियाँ, कुछ स्वप्न, कुछ अस्फुट शब्द, श्रमरत छात्र की तरह सुषमा बार-बार उन पृष्ठों को उलटकर दोहराती है। उन संवेगों की दहलीज पर खड़ी होकर अतीत में झाँकती है, मन की संकुल गलियों में भटका करती है—हर वाक्य, हर मुद्रा और प्रत्येक स्पर्श के अनेकों संदेशों पर रुकती हुई, ठहरती हुई। और उस समय इस संसार की सीमाएँ दूर-दूर हटती जाती हैं और वह अकेली रह जाती है—अपने में संपृक्त।

दो


सुषमा ने मेज़ पर रखी पीतल की तख्ती पर फिर एक बार उँगली फेरी। नई चमकती तख्ती पर उसके नाम के अक्षर उभरे हुए थे। सुषमा को अपना नाम अनायास ही बहुत मीठा और संगीतमय लग आया। उसने नेम-प्लेट एक ओर सरका दी और ट्रे में रखे पत्रों के ढेर को देखने लगी। वह अचानक ही अपने पद की गरिमा से अभिभूत हो चिक के बाहर देख उठी। चिक की नई, पीली तीलियों के पार एक बहुत मोहक, आकर्षक संसार बिखरा हुआ था—रंगीन दुपट्टों की झलक, अचिंतित युवा स्वरों का हास्य, और भोले स्वप्निल चेहरे ! बाहर चपरासी स्टूल पर बैठा था और उसकी खाकी वर्दी कभी-कभी झलक जाती थी।

सुषमा उस संसार की हँसी-खुशी में डूब गई। वह फिर उन्हीं अनजान राहों में भटक गई, जहाँ का हर मोड़, एक नई दिशा लिए होता है। वह भूल गई कि वह कितने मोड़ पार कर चुकी है। अब वह उस स्थान पर आ पहुँची है, जहाँ पीछे मुड़कर देखने से आशाएं बड़ी खोखली नज़र आती हैं और यथार्थ की प्रखरता में कोमल स्वप्न कुम्हला जाते हैं।

घंटा टन्न-से बजा और उसकी अनुगूँज कॉलेज के गलियारों और कमरों में काँपने लगी। रंगीन ओढ़नियाँ सिमट आईं और उमड़ता हास्य क्लास-रूम की गंभीरता में दब गया। सुषमा पत्र छांटने लगी। अभी उसे ठीक से याद न हुआ था कि कौन छात्रा किस ब्लाक की थी। उसने पत्रों की छः गड्डियाँ बनाईं और चपरासी को बुलाने के लिए घंटी दबा दी। छात्रावास का पुराना चपरासी हरीसिंह आकर चिट्ठियाँ ले गया। सुषमा ने क्लास में जाने को रजिस्टर उठाया और बाहर आई ही थी कि दो चपरासियों ने उसे एक साथ सलाम किया। पिछले साल तक ये दोनों काम के नाम से दूर भागते थे और सलाम करना तो दूर, सुषमा को टिप देने पर भी काम ठीक नहीं करते थे। सुषमा को लगा कि वह सचमुच अब ‘कुछ’ हो गई है। उसका आदर और सम्मान बढ़ गया है। वह मुस्कराई और क्लास में चली गई।

घंटा समाप्त होने पर वह लौटी तो देखा कि इस बीच उसके कमरे के आगे नेम-प्लेट जड़ दी गई थी—मिस एस. शर्मा, एम.ए. वार्डन गर्ल्स हास्टल। अपने नाम के आगे इतनी बड़ी पूछ देख उसे बड़ा विचित्र-सा लगा। उसने अंदर आकर पाया कि उसके ऑफ़िस में उसकी दो सह अध्यापिकाएँ बैठी हुई हैं।
‘‘आइए वार्डन साहिबा,’’ मिस शास्त्री ने कुछ व्यंग्य से कहा। मिस शास्त्री संस्कृत पढ़ाती थीं। संस्कृत साहित्य के संपर्क से उनमें रस के प्रति रुचि तो थी, पर उस रसोपलब्धि का साधन न पा, वह जीवन और संसार के प्रति कटु होती जा रही थीं।
सुषमा ने रजिस्टर रख दिया और अपनी घूमनेवाली कुर्सी पर बैठ कर पूछा, ‘‘इस समय आप फ्री हैं ?’’
‘‘फ्री कहाँ हैं ? ज़रा फोन करना था। ऑफ़िस में तो ज़रा भी प्राइवेसी नहीं है।’’
सुषमा ने फोन उनकी ओर खिसका दिया और स्वयं कुछ कागज़ देखने लगी।

नंबर मिलाकर मिस शास्त्री ने सुषमा की ओर देखकर कहा, ‘‘कल रोमाँ डेविड रात को एक बजे लौटकर आई थी। सच, हद कर रखी है अनाचार की—कुछ तो सोचे-समझे, हलो, मैं दुर्गा बोल रही हूँ, ज़रा जोशीजी को फोन दे दें।’’
टेलीफोन पर बात समाप्त कर मिस शास्त्री खड़ी हुईं।
‘‘सुषमा, तुम ज़रा होस्टल को टोन-अप करो। नई हो, इसलिए उत्साह अधिक है। वैसे क्या नहीं होता है यहाँ...’’
उनकी बात काट सुषमा ने कहा, ‘‘आपका तो क्लास था न ! लड़कियाँ बड़ा शोर मचा रही होंगी।’’
‘‘तुमसे फिर विस्तार में बात करूँगी।’’ मिस शास्त्री अनिच्छापूर्वक चली गईं।
अब तक चुप बैठी, मिस शास्त्री की बातें सुनती मीनाक्षी मुस्कराई, और बोली, ‘‘मिस शास्त्री का समय इसी में बीतता है। जाने रात में सोती भी हैं या पहरेदारी ही करती रहती हैं कि कौन कितने बजे आया। इनसे सब पूछ लो, किस लड़की की मैत्री किस छात्र से है, कौन अध्यापिका घर कितने रुपये भेजती है, कौन सेक्स-स्टार्व्ड है...।’’
आगे वह क्या कहेगी, इसका अनुमान कर सुषमा ने कहा, ‘‘बस, बस, मुझे सब पता है। तुम्हारे कहने की कोई आवश्यकता नहीं।’’
‘‘तुम झेंप गईं ?’’ मीनाक्षी ने कुछ आशचर्य से कहा, ‘‘ऐसे तो तुम काम कर चुकीं। लड़कियों के साथ डील करने में इतनी समस्याएँ आएँगी कि....।’’

‘‘रहने भी दो मीनाक्षी ! जब से आई हूँ, हरेक शुभेच्छु ने मुझे एक लंबी लिस्ट दी है कि मैं किन बातों पर विशेष ध्यान दूँ।’’ सुषमा ऊबने-सी लगी। वह उठकर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘चलो एक प्याला कॉफी पी लें। अभी घंटा बजने में काफी देर है।’’
कैफ़े की लंबी खिड़की से होस्टल की नई इमारत दिखाई दे रही थी। कमरों की खिड़कियों में रंगीन परदे उड़ रहे थे। चहारदीवारी पर चढ़ी हुई मधुमाधवी की सुगंध कैफ़े तक जा रही थी। सुषमा को याद आया कि उसने माली से बँगले में गुलाब लगाने को अभी तक नहीं कहा। बरसात बीत जाएगी तो मुश्किल होगी।
‘‘बड़ा काम बढ़ गया है,’’ उसने चम्मच से खेलते हुए कहा,’’ सारा वक्त होस्टल के पचड़े में निकल जाता है। अपने लिए कुछ समय नहीं मिलता।’’

‘‘तुम कौन ऐसा काम करती थीं कि अब नहीं कर सकतीं ? क्या वह सस्ते उपन्यास पढ़ने को समय नहीं मिलता ?’’ मीनाक्षी सदा ही सुषमा की पठनीय सामाग्री के निम्न स्तर का मज़ाक उड़ाया करती थी। सुषमा ने इसका कभी बुरा नहीं माना, सारे दिन की माथा-पच्ची के बाद उसे ऐसे ही उपन्यास अच्छे लगते थे, हल्के-फुल्के रोमैंटिक। वे मीनाक्षी के उच्च स्तर की बराबरी भले ही न कर सकें, पर उसका मनोरंजन पूरी तरह कर पाते थे। मीनाक्षी की बात पर सुषमा मुस्कराई, फिर नीची पलकें कर कॉफी के प्याले की डिज़ाइन देखने लगी। सुबह के ग्यारह बजे थे। इसलिए कैफ़े में अधिक छात्राएँ न थीं। एक-दो मेज़ों पर जो भी थीं, मंद स्वर में बातें कर रही थीं। काउंटर के पास दो बैरे चुप खड़े थे।

जाली का दरवाज़ा खुला और एक लड़की ने अंदर झाँका। सुषमा और मीनाक्षी की दृष्टि एक साथ अपने पर पाकर उसने हड़बड़ाकर दोनों को नमस्कार किया और शायद कैफ़े में अपनी सखी को न पाकर वह चली गई। उसकी साड़ी को देख सुषमा को कृष्णा मौसी की याद आ गई और उसने मन में सोचा की मौसी भी ऐसी ही है, सामने पड़ेगी तो बड़ा दुलार बरसाएँगी। कितना कहा था कि साड़ियाँ कढ़वाकर जल्दी भेज दें। अब सौंठ होकर बैठ गई हैं। उनसे पाँच पैसे का पोस्टकार्ड भी न डाला गया। साड़ियाँ आ जातीं तो पहनी जातीं।

उसी शाम उसने मौसी को एक पत्र और डाल दिया। उसका उत्तर आया तो सुषमा को और क्रोध आया। मौसी ने लिखा था, तुम्हारी साड़ियाँ कढ़कर आ गई थीं, भेज न सकी। मेरी सहेली कौशल्या जी का एक रिश्तेदार दिल्ली जा रहा था। उसी के हाथ भेज दी हैं कि तुम्हें आसानी से मिल जाएँगी। अव्वल तो वही दे जाएगा, नहीं तो तुम मँगा लेना। उस पत्र में उस रिश्तेदार का नाम-पता कुछ न था। बाद में सुषमा को मौसी के भोलेपन पर हँसी आई। उन्होंने यह भी न सोचा कि आखिर दिल्ली जैसी विशाल नगरी में वह उस संबंधी को कहाँ ढूँढ़ती फिरेगी ! फिर झुँझलाहट की पैसे बचाने के लोभ में साड़ियाँ भी गईं।

कृष्णा मौसी को सुषमा से बड़ा प्यार था। वह कानपुर आई तो सुषमा की गरमी की छुट्टियाँ थीं। मौसी हर रोज़ एक नई सुंदर साड़ी निकालकर पहनतीं। सुषमा आई तो वह झट बोलीं—‘‘वायल दे दो तो कढ़वा दूँगी। ऐसी बढ़िया कढ़ेगी कि तुम्हारी सहेलियाँ भी देखती रह जाएँगी।’’
अम्माँ ने अपनी राय दी, ‘‘एक नीरू के लिए भी कढ़वा देना। साल-छः महीने में उसकी शादी होगी तो काम आएगी।’’
कृष्णा मौसी ने आश्चर्य से कहा, ‘‘तो क्या दीदी, सुषमा को कुँवारी रखोगी ? इसका ब्याह नहीं करोगी जो अभी से नीरू के लिए दहेज जोड़ने लगीं।’’

अम्माँ ने बड़े मजे से उत्तर दिया, ‘‘तुम जानों कृष्णा, सुषमा की शादी तो अब हमारे बस की बात रही नहीं। इतना पढ़-लिख गई, अच्छी नौकरी है और अब तो, क्या कहने हैं, होस्टल में वार्डन भी बनने वाली है। बँगला और चपरासी अलग से मिलेगा, बताओ, इसके जोड़ का लड़का मिलना तो मुश्किल ही है। तुम्हारे जीजा तो कहते हैं कि लड़की सयानी है, जिससे मन मिले, उसी से कर ले। हम खुशी-खुशी शादी में शामिल हो जाएँगे।’’
‘‘अरे जाओ दीदी, जब लड़की की उम्र थी तब तो आज़ादी दी नहीं। अब वह कहाँ ढूँढने जाएगी। लड़कियाँ सभी की होती हैं, शादियाँ भी सभी करते हैं। तुम्हारी तरह हाथ-पर-हाथ रखकर बैठने वाला कोई नहीं देखा।’’

छोटी बहन से फटकार सुन अम्मा अप्रतिभ हो आईं। उनसे कोई उत्तर न बन पड़ा। सुषमा को उनका सूखा-सा चेहरा देख बड़ी दया लगी, वह बात बदलती हुई बोली, ‘‘मौसी शाम को चलकर वायल ले आएँगे, दो मैं ले लूँगी, एक साड़ी नीरू के लिए बनवा देंगे।’’

‘‘यह भी कोई बात हुई।’’ कृष्णा मौसी के मन में, दो पल पहले की ही बात घूम रही थी। जीजा की गैर-जिम्मेदारी है। जब पढ़ रही थी तभी कर देते। लड़की तो अपने-आप मुँह खोलकर कहती नहीं। और लोगों की कानी-खुतरी ब्याह जाती हैं, तुम्हारी ऐसी अच्छी लड़की बिन-ब्याही रहेगी।’ फिर अचानक याद आ जाने पर पूछा, ‘‘और वकील साहब का लड़का था, उसका क्या हुआ ?’’
‘‘होता क्या, मज़े से है। खूब वकालत चल रही है, बँगला है।’’ अम्मा ने सुस्त स्वर में कहा।
छोटे भाई-बहनों के सामने ऐसी बातों से सुषमा को झेंप-सी लगी। ‘‘आप भी, मौसी, किस पचड़े को ले बैठीं। जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण काम हैं, सिर्फ विवाह ही तो नहीं। और देशों में देखिए, बिना शादी किए ही औरतें कैसे मज़े से रहती हैं।’’
‘‘जैसे रहती हैं वह मुझे पता है। तुम एक पुरुष मित्र बनाकर तो देखो, तुम्हारी अम्माँ सबसे पहले तुम्हारी खबर लेगी। हमारा समाज किसी को जीने नहीं देता।’’

अम्माँ किसी काम के बहाने जान छुड़ाकर चली गईं। कृष्णा मौसी के मन में गुबार भरा ही रहा। शाम को बाज़ार से लौटते समय उन्होंने बड़ी आत्मीयता से पूछा, ‘‘क्यों सुषमा, दिल्ली में कहीं आती-जाती है या नहीं ?’’
उनका तात्पर्य समझ सुषमा मुस्कराई।’’ ‘‘हाँ क्यों नहीं मौसी। संगीसाथी हैं, खूब मन लग जाता है।’’
मौसी सुषमा की ओर झुककर, बहुत गोपनीय बात कहने के-से-स्वर में बोलीं, ‘‘कुछ अपने बारे में भी सोचा सुषमा ! यह भाई-बहन किसी के नहीं होते। सब अपने-अपने घर के होंगे। आज की दुनिया में कौन किसका होता है।’’
‘‘पर इन सबको भी तो मदद की ज़रूरत होती है मौसी ! पिता जी को पेंशन मिलती ही कितनी है ? उसमें तो दो वक्त दाल-रोटी भी न चले। मैं भी अगर न करूँ तो किसके आगे हाँथ फैलाएँगे ? लड़कों को पढ़ाना ही है, सड़क पर आवारा घूमने नहीं दिया जाएगा,’’ और फिर सुषमा के होठों पर मासूम मुस्कराहट आ गई।

‘‘मैं जो करती हूँ, कर्तव्य समझकर नहीं मौसी, उनके प्यार में करती हूँ। मेरा तो मन होता है कि मेरे पास और कुछ होता तो और भी करती। मौसी कुछ देर उसके मुँह की ओर देखती रहीं—‘‘अगर मैं सबसे बड़ा लड़का होती, तो क्या न करती ? उसी तरह मैं अब भी करती हूँ। इन लोगों के लिए कुछ करके मन में बड़ा संतोष-सा होता है। अपने लिए तो सभी करते हैं, छोटे भाई-बहनों को कुछ कर सकूँ, उस योग्य भी तो पिता जी ने नहीं बनाया है।’’
‘‘सो तो ठीक है, पर मेरा कहना है कि अपनी भी कुछ फिक्र करनी चाहिए।’’

सुषमा चुप रही। अपने मन को समझाकर, दुनिया की आँखों से छिपाकर जिस सत्य को बहुत दबा-ढककर रखा था, मौसी उसे अप्रयोजन ही उभार रही थीं; और उस बात की अधिक चर्चा करने से अम्माँ नाराज़ हो जाएँगी, ऐसे अवसरों पर अम्माँ प्रायः दोष सुषमा के ही सिर डालकर बरी हो जाती थीं—‘अब मैं क्या करूँ ? सयानी लड़की है, कोई बच्चा तो है नहीं जो समझाने-बुझाने से मान जाएगी। वह शादी करने को राजी ही नहीं होती तो मैं क्या करूँ ?’’ और मुहल्ले-पड़ोसवाले उनकी बात मान जाते। पर अम्माँ भी जानती थीं और सुषमा भी—इसीलिए ऐसे मौकों पर एक-दूसरे से आँखें चुरा जाती थीं। इस घर की मुख्य आय सुषमा का वेतन थी।

अम्माँ ने पहले तो न चाहा था कि लड़की घर के बाहर जाकर नौकरी करे, पर अब वह प्रसन्न थीं। सुषमा हमेशा ही छोटे भाई-बहनों के लिए बहुत करती थी और यह सोचकर अम्माँ मन को समझा लेती थीं कि उनकी लड़की नौकरी भले ही करे, वैसे सुखी है। सुषमा को अपनी माँ की यह दोहरी फिलासफी अब भी कभी-कभी खटकने लगती थी, घर में माँ का ही शासन चलता था, पिता अस्वस्थ रहते थे, पक्षाघात से पीड़ित। सुषमा माँ से अधिक पिता के निकट थी, माँ अब सुषमा की ओर से निश्चिन्त थीं, उनका सारा ध्यान अब छोटे बच्चों पर केंद्रित था, सुषमा प्रायः उपेक्षित-सा अनुभव करने लगती थी। वह चाहती थी कि माँ उसके जीवन में आ गए बिखराव को कुछ तो समझने का प्रयत्न करे।

कई सप्ताह बीत गए। कृष्णा मौसी का न कोई पत्र आया, न उसकी साड़ियाँ। सुषमा इतनी व्यस्त रही कि उसे मौसी को पत्र डालने का अवकाश भी न मिला। होस्टल की सारी बेतरतीबी में व्यवस्था लाने में ही उसका सारा समय निकल जाता। नौकरों के आपसी झगड़े, लड़कियों की विविध समस्याएँ, मेट्रन की परेशानियाँ, यह सब उसका अधिकांश समय ले लेतीं। उधर कॉलिज में नए एडमीशन, लड़कियों के लिए ट्यूटोरियल तय करना भी कुछ कम झंझट न था। अध्यापिकाएँ जिन घंटों में ट्यूटोरियल लेना चाहती थीं, उनमें लड़कियाँ खाली न होतीं। सभी को घर भागने की जल्दी पड़ी रहती, जो देर में घंटे निश्चित हुए, उन्हें भी लेने में हीलहवाला करने लगीं। मिस कृपलानी अपने डैडी के साथ लंच लेना पसंद करती थीं। मिसेज अग्रवाल की आया डेढ़ बजे छुट्टी पर चली जाती थी, उन्होंने पहले कह दिया, ‘‘मैं तो भई थर्ड पीरियड के बाद रुकूँगी नहीं। बेबी बहुत रोती है।’’

बाद में मीनाक्षी नें झुँझलाकर कहा, ‘‘नौकरी है कि घर की खेती ? बेबी का ख़याल है तो घर बैठें।’’
सुषमा ने उसे शांत किया। किसी तरह क्लासों का बँटवारा हुआ। एक बजे के बाद के क्लास सुषमा के पल्ले पड़े। बाद में मीनाक्षी ने कहा, ‘‘सब तुम्हारी भलमनसाहत का फायदा उठाते हैं। तुम बहुत उदार हो सुषमा ! अरे बेबी है तो रोए—हमारे बेबी नहीं है तो वक्त-बेवक्त हम ही काम में लगे रहें।’’
सुषमा ने अपनी नौकरानी को आवाज़ दी और एकदम थककर बोली, बात तो ठीक है मीन, पर मुँह खोलकर कहा भी तो नहीं जाता। मैं तो कभी-कभी ज़िन्दगी से आजिज आ जाती हूँ।’’ उसकी पलकें थककर कुछ ऐसे आँखों पर ढलीं कि मीनाक्षी चुप हो आई। फिर आहिस्ता से बोली, ‘‘सुषमा तुम्हें तो शादी कर लेनी चाहिए। तुम ऐसी ज़िंदगी के लिए नहीं बनी हो।’’ सुषमा के होंठ हिलकर रह गए। उसने माथे पर हाथ फेरा और उठकर बैठ गई, ‘‘चलो चाय पिएँ। किसे क्या कहना चाहिए, यह तो बड़ा विवादस्पद विषय है।

बोलो चाय के साथ क्या खाओगी ? कैंटीन से कुछ मँगा लूँ !’’
खाने के कमरे में चाय के बर्तन रखकर सुषमा ने नौकरानी को पुकारकर कहा, ‘‘भौंरी, आज चाय इसी कमरे में पिएँगे।’’
मीनाक्षी ने पास पड़ी एक अंग्रेज़ी की पत्रिका उठा ली और उसके पन्ने उलटने लगी। सुषमा ने अपना कमरा बहुत सुरुचि से सजाया था। सफाई से सिले हुए खिड़की के फूलदार परदे रह-रहकर हिल उठते थे। उसके पलँग पर झालदार पलँगपोश बिछा था; मीनाक्षी को लगा कि सुषमा का यह कला-कौशल सब व्यर्थ जा रहा है। सुषमा के गोल-मटोल बच्चे हों, जिन्हें वह कढ़ी हुई फ्राकें पहनाए; अवसर आने पर वह बहुत स्नेहपूर्ण और कुशल माँ बनेगी, इसमें मीनाक्षी को संदेह न था।
भौंरी ने चाय की ट्रे लाकर रख दी।

मीनाक्षी के जाने के बाद सुषमा ने मुँह-हाथ धोकर कपड़े बदले। सुबह से जूड़ा बनाए थी, बाल सँवारकर उन्हें बिना गूँथे ही वह लेट गई। उसकी दृष्टि अपने खिड़की के परदों पर गई। पारदर्शी नायलोन के इन छपे हुए परदों की सभी ने बहुत सराहना की थी। बाहर से आती बरसाती हवा उनके कोनों से खेल रही थी और वे कुछ इस तरह हिल रहे थे जैसे किसी के अभिलषित स्पर्श से मन में हिलोरें उठने लगें। सुषमा ने अनजाने में एक आह भरी। उसे निरुपमा का ख़याल आ गया। वह देखने में तीनों बहनों से सुंदर थी, परंतु मंदबुद्धि थी, एक साल इंटर में फेल भी हो चुकी थी। उसे घर के काम-धंधे बहुत अच्छे लगते थे। माँ की इच्छा थी कि उसका विवाह जल्दी ही हो जाए, मौका निकालकर वह सुषमा से कह भी चुकी थीं, ‘‘तुम बहुत फिजूलखर्च होती जा रही हो। ज़रा हाथ दबा कर खर्च किया करो। नीरू की शादी भी तो करनी है।’’
सुषमा ने कुछ तिक्त स्वर में कहा, ‘‘पहले शादी तो तय करो। वक्त आने पर रुपया हो ही जाएगा। बूँद-बूँद से ही घट भरता है।

‘‘कर्ज़ ले लूँगी,’’ सुषमा बेबात चिड़चिड़ा उठी, ‘‘और बाद में चुकाती रहूँगी।’’
‘‘तुम क्यों लोगी, नीरू तुम्हारी जिम्मेदारी थोड़ी ही है। बाप है, सो करेंगे, माँ ने हल्के-से कहा।
‘‘कुछ मेरी कर दी, कुछ नीरू की भी कर देंगे।’’ सुषमा मुँह खोलकर कह न सकी। माँ का क्या दोष ! उसकी बात पर झुँझलाना अपने मन की गाँठ को स्वीकार करना है—वह गाँठ जो सबसे छिपाकर सुषमा पालती आई है। वह एक तरुण किशोरी का स्वप्न था, जो कि अनुकूल जलवायु न पा कुम्हला गया।
सुषमा ने अपने विचारों से बचने के लिए पत्रिका उठा ली और एक धारावाहिक उपन्यास पढ़ने लगी।

तीन


एक ऐसी सुबह, जबकि पानी बरस कर रुक गया था, रीते मेघ हवा के साथ उड़ने लगे थे और नन्हें पौधों की पत्तियों पर से पानी की बूँदें नीचे फिसल रही थीं, सुषमा अपने ऑफ़िस में आई। अभी घंटा बजने में काफी देर थी। खाली पड़े हुए बरामदे में कभी-कभी, जल्दी आ गई लड़कियों की हँसी गूँज उठती थी और हँसी की वे हिलोरें सुषमा को छू-छूकर लौट जातीं। सुषमा का मन बड़ा शांत था। पिछले सप्ताह उसने काफी काम किया था और अब मन में सहज संतोष था।
वह सुबह की डाक देख रही थी। अम्माँ का पत्र था, पर उसमें किसी प्रकार की शिकायत या कोई माँग न थी। अम्मा अपने कुशल-मंगल के समाचार की प्रतीक्षा में थीं। सुषमा पत्र दुबारा पढ़ रही थी कि उसके चपरासी ने कमरे के अंदर आकर कहा: ‘‘मिस साहब, आपसे कोई मिलने आए हैं। उन्हें विज़िटर्स रूम में बैठा दिया है।’’
‘‘क्या काम है, उनसे पूछा ?’’

प्रेमसिंह ने बाहर से लौटकर बादामी कागज़ में बँधा एक पैकेट उसे पकड़ा दिया। सुषमा ने कौतूहल से कागज़ खोला तो अपनी साड़ियों के रंग सहज पहचान में आ गए।
‘‘ओ S S S,’’  उसके मुखे से निकला और उसने झटपट कागज़ अलग कर साड़ियाँ देख डालीं। कृष्णा मौसी ने सच, बहुत सुंदर कढ़वाई थीं।
‘‘देखो, उन साहब को अंदर बुला लाओ,’’ सुषमा ने बड़े कोमल स्वर में कहा, ‘‘और फिर कैंटीन में कह दो कि दो कोल्ड ड्रिक्स भेज दें। कोकाकोला ठीक रहेगा।’’

   

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