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छायावाद

नामवर सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3170
आईएसबीएन :9788126707355

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इस पुस्तक में छायावाद की काव्यगत विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए छाया-चित्रों में निहित सामाजिक सत्य का उद्घाटन किया गया है।

Chhayavad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

छायावाद पर अनेक पुस्तकों के रहते हुए भी यह पुस्तक दृष्टि की मौलिकता; विवेचन की स्पष्टता तथा आलोचना-शैली की सर्जनात्मकता के लिए पिछले दशक की सबसे लोकप्रिय पुस्तक रही है।
लेखक के अनुसार इस पुस्तक में छायावाद की काव्यगत विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए छाया-चित्रों में निहित सामाजिक सत्य का उद्घाटन किया गया है। पुस्तक में कुल बारह अध्याय हैं जिनके शीर्षक क्रमशः इस प्रकार हैं :
प्रथम राशि, केवल मैं केवल मैं, एक कर दे पृथ्वी आकाश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश, देवि माँ-सहचरि प्राण, जागो फिर बार, कल्पना के कानन की रानी, रूप विन्यास, पद विन्यास, खुल गए छन्द के बंध, जिनके आगे राह नहीं, तथा परंपरा और प्रगति।

 

भूमिका

 

यह निबंध छायावाद की काव्यगत विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए छाया-चित्रों में निहित सामाजिक सत्य का उद्घाटन करने के लिए लिखा गया है।
स्वानुभूति कल्पना, प्रकृति का मानवीकरण, आध्यात्मिक छाया, मूर्तिमत्ता लाक्षणिक विचित्रता आदि छायावाद की विशेषताएँ कही जाती हैं। किंतु आलोचकों के विवेचन से कहीं यह स्पष्ट नहीं होता कि छायावादी स्वानुभूति संतों-भक्तों के आत्मनिवेदन से किस बात में भिन्न है; छायावादी कल्पना में प्राचीन कवियों की अप्रस्तुत-विधायिनी कल्पना से क्या विशेषता है प्रकृति का मानवीकरण करने में छायावाद ने संस्कृत कवियों से कितनी अधिक स्वच्छंदता दिखलाई है; छायावादी रहस्यवाद और संतों-भक्तों के अध्यात्मवाद में क्या अंतर है; छायावादी मूर्तिमत्ता में प्राचीन कवियों के दृश्यचित्रण से क्या नवीनता है और छायावाद की लाक्षणिकता में ऐसा क्या है, जो संस्कृत काव्यशास्त्र की सीमा में नहीं आ सकता। इन प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर दिए बिना छायावाद के काव्य-सौंदर्य का कोई विवेचन पूर्ण नहीं कहा जा सकता।
वस्तुतः ये सभी विशेषताएँ कमोबेश कहीं न कहीं अन्यत्र भी मिल जाती हैं, लेकिन एकत्र ही छायावाद के अतिरिक्त किसी एक युग के काव्य में इतनी प्रचुरता के साथ नहीं मिलतीं। इसका अर्थ यह है कि स्वानुभूति, कल्पना, प्रकृति का मानवीकरण आदि में कोई कार्य-कारण संबंध है और ये किसी एक ही मनोवृत्ति की तर्कसंगत परिणति हैं। इस मनोवृत्ति को ठीक-ठीक समझे बिना छायावाद के किसी विवेचन में सुसंगति और व्यवस्था नहीं आ सकती।
इसीलिए इस निंबध में छायावाद के केंद्र बिंदु ‘भावप्रबलता से प्रेरित स्वच्छंद कल्पना’ पर विस्तार से विचार किया गया है।

आरंभ में सामाजिक पृष्ठभूमि देकर फिर किसी काव्य-प्रवृत्ति पर विचार करने से कोई बात नहीं बनती। इससे पुस्तक, पाठक और लेखक के साथ ही उस कविता पर भी भार बढ़ता है। सामाजिक सत्य कविता से खोज निकालने की चीज है, ऊपर से आरोपित करने की नहीं। काव्यगत सामाजिक सत्य को तत्कालीन सामाजिक आधार के साथ मिलाकर देखने का सवाल तो उसके बाद उठता है। इसलिए इस निबंध में ‘सामाजिक पृष्ठभूमि’ का स्वतंत्र अध्याय खोजनेवालों को निराश होना पड़ेगा।

छायावाद के काव्य-सौंदर्य के विवेचन से स्पष्ट है कि यह सारा सौंदर्य व्यक्ति की स्वाधीनता की भावना से उत्पन्न हुआ है और वह स्वाधीनता भी व्यक्ति के माध्यम से संपूर्ण समाज की स्वाधीनता की अभिव्यक्ति है। परंतु इस काव्यगत स्वाधीनता को तत्कालीन स्वाधीनता-संग्राम के साथ मिलाकर देखने से पता चलता है कि छायावाद में स्वाधीनता-संग्राम के कुछ पहलू छूट गए हैं और कहीं-कहीं छाया भी बहुत धुँधली और मूल से दूर चली गई है।
फिर भी छायावाद की कविता से राष्ट्रीय जागरण का पर्याप्त आभास मिलता है। इस राष्ट्रीय जागरण के फलस्वरूप संपूर्ण भारत में रोमांटिक काव्य की लहर दौड़ गई थी, जिसका एक अंग हिंदी का छायावाद भी है। छायावाद की कविताएँ अपने पीछे एक विशाल परिदृश्य का पता देती हैं। छायावाद में जो सार्वभौम और शाश्वत तत्त्व दिखाई पड़ते हैं, वे सौंदर्यशास्त्र के किसी अलौकिक नियम से नहीं आए हैं बल्कि उसके ऐतिहासिक कार्यों के ही पुरस्कार हैं।

निबंध के प्रथम अध्याय में छायावाद का इतिहास बतलाते समय कुछ नई सामग्री दी गई है, जिसमें मुकुटधर पांडेय का लेख ‘हिंदी में छायावाद’ (1920 ई.) बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस लेख की सूचना के लिए मैं भाई श्रीनारायण पांडेय का कृतज्ञ हूँ। पुस्तक के प्रकाशन का श्रेय आदरणीय श्री जगत शंखधर को है; उनके स्नेह की तुलना में आभार बहुत कम है।

 

नवंबर, 1954
नामवर सिंह

 

पुनश्च

 

 

इस संस्करण (दूसरे) के विषय में इससे अधिक कहने को नहीं है कि यह प्रथम संस्करण का प्रायः पुनर्मुद्रण है।

 

दिसंबर, 1968
नामवर सिंह

 

प्रथम रश्मि

 

 

छायावाद का आरंभ सामान्यतः 1920 ई. के आसपास से माना जाता है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं से पता चलता है कि 1920 तक ‘छायावाद’ संज्ञा का प्रचलन हो चुका था। मुकुटधर पांडेय ने 1920 की जुलाई, सितंबर, नवंबर और दिसंबर की श्रीशारदा (जबलपुर) में ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से चार निबंधों की एक लेखमाला छपवाई थी। जब तक किसी प्राचीनतर सामग्री का पता नहीं चलता, इसी को छायावाद-संबंधी सर्वप्रथम निबंध कहा जा सकता है। ‘हिंदी में उसका नितांत अभाव देखकर मुकुटधर जी ने ‘इधर-उधर की कुछ टीका-टिप्पणियों के सहारे’ वह निबंध प्रस्तुत किया था। इससे स्पष्ट है कि उस निबंध से पहले भी छायावाद पर कुछ टीका-टिप्पणियाँ हो चुकी थीं।

लेखमाला का प्रथम निबंध ‘कवि स्वातंत्र्य’ में मुकुटधर जी ने रीति-ग्रंथों की परतंत्रता से मुक्त होकर कविता में व्यक्तिव तथा भाव भाषा छंद प्रकाशन-रीति आदि में मौलिकता की आवश्यकता पर जोर दिया है। दूसरा निबंध ‘छायावाद क्या है ?’ सबसे महत्त्वपूर्ण है। आरंभ में ही लेखक कहता है-‘‘अंग्रेजी या किसी पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखनेवाले तो सुनते ही समझ जाएँगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म’ के लिए आया है।’’ फिर भी छायावाद ‘‘एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों द्वारा इसका ठीक-ठीक वर्णन करना असंभव है’’ क्योंकि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मूल्य को खोकर सांकेतिक चिह्न मात्र हुआ करते हैं।’’

‘‘छायावाद के कवि वस्तुओं को असाधारण दृष्टि से देखते हैं। उनकी रचना की संपूर्ण विशेषताएँ उनकी इस ‘दृष्टि’ पर ही अवलंबित रहती हैं।...वह क्षण-भर में बिजली की तरह वस्तु को स्पर्श करती हुई निकल जाती है।...अस्थिरता और क्षीणता के साथ उसमें एक तरह की विचित्र उन्मादकता और अंतरंगता होती है जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में नहीं किंतु एक अन्य रूप में दीख पड़ती है। उसके इस अन्य रूप का संबंध कवि के अंतर्जगत् से रहता है।...यह अंतरंग दृष्टि ही ‘छायावाद’ की विचित्र प्रकाशन रीति का मूल है।’’ इस प्रकार मुकुटधर जी की सूक्ष्म दृष्टि ने ‘छायावाद’ की मूल भावना ‘आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि’ को पहचान लिया था। जब उन्होंने कहा कि ‘‘चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का ही उतारा जाता है,’’ तो छायावाद की मौलिक विशेषता की ओर संकेत किया। छायावादी कवियों की कल्पनाप्रियता पर प्रकाश डालते हुए मुकुटधर जी कहते हैं-‘‘उनकी कविता देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती हैं; मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध रहता है; वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा को अतिक्रम करके मन-प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है।’’

‘‘यहीं छायावादिता से आध्यात्मिकता तथा धर्म-भावुकता का मेल होता है यथार्थ में उसके जीवन के ये दो मुख्य अवलंब हैं।’’
छायावाद में प्रकृति का उपयोग प्रायः प्रतीक की तरह होता है, इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए मुकुटधर जी कहते हैं कि ‘‘प्राकृतिक दृश्य और घटनाएँ सांकेतिक रूप में अदृश्य तथा अव्यक्त के प्रकाशन में साहाय्य पहुँचाती हैं।’’
छायावाद के कलापक्ष पर विचार करते हुए मुकुटधर  जी ‘‘काव्य में चित्रकारी और संगीत का अपूर्व एकीकरण’’ उसका आदर्श मानते हैं।
लेखमाला के शेष दो निबंधों का एक ही शीर्षक है-‘‘हिंदी में छायावाद’। इनमें छायावाद पर लगाए गए ‘अस्पष्टता’ आदि आरोपों का स्पष्टीकरण करते हुए अंत में श्री मुकुटधर पांडेय ने लिखा है-
‘‘छायावाद की आवश्यकता हम इसीलिए समझते हैं कि उससे कवियों को भाव-प्रकाशन का एक नया मार्ग मिलेगा। इस प्रकार के अनेक मार्गों-अनेक रीतियों का होना ही उन्नत साहित्य का लक्षण है।’’

मुकुटधर पांडेय के इस निबंध की विस्तृत चर्चा इसलिए की गई हैं कि यह छायावाद पर पहला निबंध होने के साथ ही अत्यंत सूझ-बूझ भरी गंभीर समीक्षा भी है। इस निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व ही नहीं, बल्कि स्थायी महत्त्व भी है।
उस युग की प्रतिनिधि पत्रिका सरस्वती में छायावाद का सर्वप्रथम उल्लेख जून 1921 के अंक में मिलता है। किंहीं सुशीलकुमार ने ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक एक संवादात्मक निबंध लिखा है। संवाद में भाग लेनेवाले कुल चार व्यक्ति हैं-ब्राह्म कन्या-विद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त सुशीलादेवी, उनके अरसिक किंतु लक्ष्मी के कृपापात्र पति हरिकिशोर बाबू, चित्रकार रामनरेश जोशी और कवि-सम्राट पंत जी। पहले केवल प्रथम तीन व्यक्तियों में जोशी जी के एक ‘छाया-चित्र’ पर बातचीत होती है जिसे उन्होंने पंत जी की एक कविता के आधार पर बनाया है। चित्र के नाम पर बढ़िया फ्रेम में मढ़ा कोरा कागज है और उसके नीचे लिखा है ‘छाया’। हरिकिशोर बाबू के अनुसार वह निर्मल बह्य की विशद छाया है। स्वयं जोशी जी ने भी उसमें किसी प्रकार ‘अनंत की अस्पष्टता को स्पष्ट करने’ का प्रयत्न किया था। अंत में पंत जी आते हैं और वे भी कविता के नाम पर एक ‘कोरा कागज’ प्रस्तुत करते हैं जिसका आधार जोशी जी का वही चित्र है। हरिकिशोर बाबू के शब्दों में, ‘‘यह तो वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है।’’ कवि सम्राट् अपने वक्तव्य में कहते हैं: ‘‘छायावाद का प्रधान गुण है अस्पष्टता। भाव इतने स्पष्ट हो जाएँ कि वे कल्पना के अनंत गर्भ में लीन हो जाएँ। मेरी यह सम्मति है कि शब्द अक्षरों से बनते हैं और अक्षर, अविनाशी है। वह तो अज्ञेय है, अनंत है। अतएव हमें भाषा को वह रूप देना चाहिए जिससे वह नीरव हो जाए। वह कर्णश्रुत न होकर हृदयगम्य हो, इंद्रियगोचर न होकर आत्मा से ग्राह्य हो।’’

इस व्यंग्यात्मक निबंध से एक और बात सामने आती है कि उस समय के लोग छायावाद की कविता को टैगोर-स्कूल के छायाचित्रों के साथ रखकर देखते थे। यहाँ भी अभिव्यक्ति की अस्पष्टता को ही लेकर व्यंग्य किया गया है।
इस तरह उन कविताओं के लिए हिंदी छायावाद और अंग्रेजी ‘मिस्टिसिज्म’ शब्द चल पड़े और इन दोनों में भी हिंदी छायावाद अधिक प्रचलित हुआ। परंतु जैसा कि सुकवि-किंकर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के मई, 1927 ई. की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित ‘आजकल’ के हिंदी कवि और कविता शीर्षक निबंध से पता चलता है, छायावाद और ‘मिस्टिसिज्म’ पर्याय नहीं समझे जाते थे। आचार्य की समझ में नहीं आता था कि इन कविताओं को ‘मिस्टसिज्म’ क्यों कहा जाता है क्योंकि पं. मथुराप्रसाद दीक्षित के ‘त्रैभाषिक कोष’ के अनुसार मिस्टिक’ का अर्थ होता है गूढ़ार्थ गुह्य, गुप्त गोप्य, रहस्य आदि। इधर इन कविताओं में आचार्य द्विवेदी को आध्यात्मिक रहस्य दिखाई ही नहीं पड़ता था। रवींद्रनाथ की कविताओं में तो वे ‘आध्यात्मिक रहस्य’ मान लेते थे; परंतु हिंदी कवियों के प्रति वे शंकालु थे। इसलिए उनके अनुसार पंत, पांडेय आदि की कविताएँ छायावादी ही थीं। छायावाद का अर्थ ठीक-ठीक न समझते हुए भी वे उन कविताओं को छायावादी मानते थे। कहते हैं, ‘‘छायावाद से लोगों का क्या मतलब है, कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र-जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिए।’’ उनके विचार से ‘अन्योक्ति-पद्धति’ ही छायावाद है। इस तरह आचार्य उन कविताओं और छायावाद संज्ञा में संबंध स्थापित करके दोनों में निहित अर्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। ध्यान देने की बात है कि आचार्य द्विवेदी ने ‘रहस्य’ शब्द को तो ऊपर किया, ‘परंतु रहस्यवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया।

लगभग दो साल बाद 1929 ई. में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘काव्य में रहस्यवाद’ निबंध पुस्तकाकार निकला, जिससे पता चलता है कि ‘रहस्यवाद’ शब्द का प्रचलन पहले से हो चुका था। पंत का ‘पल्लव’ तब तक निकल गया था। शुक्ल जी के निबंध से पता चलता है कि उनका ध्यान मुख्यतः पंत जी की उन कविताओं पर केंद्रित था, जिनमें रहस्य के प्रति प्रायः जिज्ञासा और कहीं-कहीं लालसा व्यक्त की गई थी। उनके अनुसार अज्ञात के प्रति जिज्ञासा’ ही सच्ची रहस्य-भावना है। परंतु उन्होंने देखा कि छायावादी कवि उस जिज्ञासा को आध्यात्मिकता का रूप दे रहे हैं; इसलिए रहस्यवादी रहस्य-भावना को उन्होंने सांप्रदायिक अथवा आध्यत्मिक रहस्यवाद समझ लिया उन्हें छायावाद की इस आध्यात्मिकता का मूल स्रोत रवींद्रनाथ में दिखाई पड़ा और चूँकि रवींद्रनाथ ब्राह्म थे और ब्राह्मों का मत ईसाई धर्म से ज्यादा मिलता था इसलिए शुक्ल जी ने इन सबमें एक तरह का बादरायण संबंध स्थापित कर लिया। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ईसाई धर्म की ही आध्यात्मिकता बाह्म माध्यम से हिंदी कविता में व्यक्त हो रही है। जब मूल भाव की एकसूत्रता स्थापित हो गई तो उन्होंने छायावाद नाम के साथ भी उसका मेल मिला दिया। बुद्धि हो तो आदमी क्या नहीं कर सकता ! उन्हें ईसाई मत में छाया अर्थ देनेवाला एक फैंटसमैटा’ शब्द भी मिल गया। बस फिर क्या था ? उन्होंने छायावाद शब्द को उससे जोड़ दिया और साबित कर दिया कि ‘छायावाद’ नाम और भाव-धारा दोनों दृष्टियों से यूरोप का प्रभाव है। जिस तरह उन्होंने यूरोपीय और हिंदी आध्यात्मिकता के बीच में बंगला को माध्यम माना; उसी तरह उन्होंने हिंदी छायावाद और ईसाई ‘फैंटसमैटा’ के बीच की बंगला कड़ी की भी कल्पना कर डाली और कह चले कि बंगला में भी इन कविताओं को छायावाद कहते थे। बंगला में छायावाद नामक कोई वाद या शब्द है या नहीं, इसकी छानबीन करना उनका प्रयोजन न था। उन्हें तो अपनी बात रखनी थी, रख दी। गलत हो चाहे सही।

यह प्रवाद कि बंगला में भी छायावाद नामक एक ‘वाद’ है, बहुत दिनों बाद हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा निर्मूल हुआ।
तात्पर्य यह कि शुक्ल जी ने छायावाद की केवल आध्यात्मिक कविताओं को अपने दृष्टि-पथ में रखा और इसीलिए रहस्यवाद को छायावादी कविताओं की विषयवस्तु कहा। उनका यह विचार अंत तक बना रहा। शेष को यह शैली-मात्र मानते थे। जिस तरह आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी छायावाद को ‘अन्योक्ति-पद्धति’ समझते थे, उसी तरह आचार्य शुक्ल भी उसे शैली मानते थे जिसमें ‘अन्योक्ति’ के अतिरिक्त भी कई प्रकार की शैलियों का समावेश था।
आगे चलकर आलोचकों ने शुक्ल जी द्वारा प्रवर्तित इस द्वैतवाद को समाप्त करते हुए स्थापित किया कि भाव के क्षेत्र में जो रहस्यवाद है, वही शैली में लाक्षणिक वक्रता, अन्योक्ति-विधान, अप्रस्तुत योजना आदि रूपों में व्यक्त होता है। इस तरह इन्होंने रहस्यवादी विषय और लाक्षणिक शैली दोनों को एक कर दिया। इस समन्वित रूप को प्रसाद जी ने ‘रहस्यवाद’ नाम दिया और नंददुलारे वाजपेयी ने छायावाद।

वाजपेयी जी का भी छायावाद आध्यात्मिक ही है। हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी नामक पुस्तक के ‘महादेवी वर्मा’ शीर्षक निबंध में छायावाद की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं कि ‘‘मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है।’’ वाजपेयी जी की आध्यात्मिक छाया शुक्ल जी का ‘फैंटसमैटा’ अथवा छायाभास ही है-केवल इस अंतर के साथ कि उसमें धार्मिक स्थूलता नहीं है।

अपने को इस परिभाषा में बाँधकर वाजपेयी जी ने प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की बहुत-सी कविताओं को छोड़ दिया। उन्होंने अपनी परिभाषा का निर्माण छायावादी कवियों की केवल एक तरह की कविताओं के आधार पर किया।  वाजपेयी जी की इस परिभाषा के पीछे शांतिप्रिय द्विवेदी, महादेवी वर्मा, नगेंद्र आदि की यह प्रचलित धारणा भी है कि छायावाद स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह है।

छायावाद में निःसंदेह सूक्ष्मता काफी है, लेकिन इस सूक्ष्मता की सीमा के कारण हम निराला और प्रसाद की उन कविताओं से वंचित रह जाते हैं, जिनमें अतीव मांसलता है। इसलिए इस परिभाषा में स्पष्ट ही अव्याप्ति दोष है।
जो हो, इन तमाम बातों से मालूम होता है कि शुरू-शुरू में जिस अस्पष्टता के लिए छायावाद शब्द चलाया गया, वही थोड़ा नाम बदलकर मुकुटधर पांडेय और आचार्य शुक्ल से होती हुई नंददुलारे वाजपेयी और नगेंद्र तक आई और अब  भी अनेक विद्यार्थियों का संस्कार बन गई है। सुशीलकुमार की अस्पष्टता, मुकुटधर की आध्यात्मिकता, आचार्य द्विवेदी का रहस्य, शुक्ल जी का आध्यात्मिक छायाभास, वाजपेयी जी का ‘आध्यात्मिक छाया का भान’ और नगेंद्र का ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’ सब एक-से ही चिंतन क्रम में हैं।

छायावादी कविताओं की आलोचना-प्रत्यालोचना के सिलसिले में जिस समय अंग्रेजी का ‘मिस्टिसिज्म’ शब्द आया, उसके कुछ ही दिन बाद ‘रोमैटिसिज्म’ शब्द आ गया। शुक्ल जी ने इसका हिंदी अनुवाद स्वच्छंदतावाद किया और श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि को स्वच्छंदतावादी कवि कहा। इस तरह शुक्ल जी ने ‘स्वच्छंदतावाद’ और ‘छायावाद’ में अंतर किया। वे छायावाद को ‘रोमैंटिसिज्म’ कहने के पक्ष में नहीं थे। आश्चर्य की बात है कि प्रसाद, पंत, निराला की शैली इत्यादि से प्रभावित मानते हुए भी शुक्ल जी उन्हें रोमैंटिक मानने से इनकार करते थे। परंतु यहाँ भी शुक्ल जी का द्वैतवाद न चल सका। कवि, आलोचक और सामान्य पाठक छायावाद को रोमैंटिसिज्म का पर्याय समझने लगे। कुछ लोग शुक्ल जी द्वारा गढ़े हुए स्वच्छंदतावाद को भी छायावाद का पर्याय अथवा अंग मानने लगे तथा अन्य लोग छायावाद को स्वच्छंदतावाद का द्वितीय उत्थान कहना अधिक युक्ति संगत मान चले।

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