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हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास

हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3162
आईएसबीएन :9788126700356

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इसमें हिन्दी साहित्य के उदभव तथा विकास का वर्णन हुआ है...

Hindi Sahitya Udbhav Aur Vikas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीने साहित्यिक इतिहास लेखन को पहली बार पूर्ववर्ती व्यक्तिवादी इतिहास प्रणाली के स्थान पर सामाजिक अथवा जातीय ऐतिहासिक प्रणाली, का दृढ़ वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। उनका प्रस्तुत ग्रंथ इसी दृष्टि हिंदी का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण साहित्येतिहास है। यह कृति मूलतः विद्यार्थियों को दृष्टि में रखकर लिखी गई है। प्रयत्न किया हया है कि यथासंभव सुबोध भाषा में साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों और उसके महत्त्वपूर्ण बाहृ रूपों के मूल और वास्तविक स्वरूप का स्पष्ट परिचय दे दिया जाए।

 परंतु पुस्तकके संक्षिप्त कलेवर के समय ध्यान रखागया है। कि मुख्य प्रवृत्तियों का विवेचन छूटने न पाए और विर्द्याथी अद्यावधिक शोध कार्यों के परिणाम से अपरिचित न रह जाएँ। उन अनावश्यक अटकबाजियों और अप्रासांगिक विवेचनाओं को छोड़ दिया गया है जिनसे इतिहास नामधारी पुस्तकें प्राय भरी रहती हैं। आधुनिक काल की प्रवृत्तियों को समझाने का प्रयत्न तो किया गया है, पर बहुत अधिक नाम गिनाने की मनोवृत्ति से बचने का भी प्रयास है। इससे बहुत से लेखकों के नाम छूट गए हैं, पर साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों नहीं छूटी हैं।

साहित्य के विद्यार्थियों और जिज्ञासुओं के लिए एक अत्यंत उपयोगी पुस्तक।
अपनी मूक सेवाओं से साहित्य को महान् और गतिशील बनाने वाले अगणित अख्यात और अज्ञात साहित्य साधकों को यह पुस्तक समर्पित है, जिनका नाम इतिहासकार नहीं जानता।

 

दो शब्द

 

‘हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास’ कई वर्षों तक अनुपलब्ध रहने के पश्चात् इस वर्ष राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. से पुनः प्रकाशित हो रहा है। इस बीच आचार्य द्विवेदी स्वर्गस्थ हो गए। आचार्यजी की यह हार्दिक इच्छा थी कि सारी पुस्तक का एक बार पुनर्लेखन किया जाए, विशेषकर आधुनिक काल का। लेकिन नियति-निर्णय से वे इस कार्य को पूरा नहीं कर सके। उनकी मृत्यु के बाद कुछ समय तक इसको प्रकाशित नहीं किया गया। उसके मूल में यह विचार था कि ‘इतिहास’ का पुनर्लेखन करके इसे संशोधित रूप से प्रकाशित किया जाए।

बहुत विचार-मंथन के बाद अंत में इस बात का निर्णय लिया गयाकि इसे इसके मूल रूप में ही प्रकाशित किया जाए। उसका कारण था कि आचार्य द्विवेदी का इतिहास के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण था। इतिहास के इसी विशेष दृष्टिकोण के कारण ही वे साहित्य के अन्य इतिहास लेखकों से भिन्न थे। इसमें परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं संशोधन न्यायसंगत नहीं होता। अतः यह पुस्तक (हिंदी साहित्य उद्भव और विकास) आचार्य द्विवेदी द्वारा लिखित मूल रूप में ही प्रकाशित हो रही है।
पिछले संस्करणों में छपाई की अनेक अशुद्धियाँ थीं। इस संस्करण में यह प्रयत्न किया गया है कि अशुद्धियाँ बिलकुल न हों।

 

मुकुंद द्विवेदी

 

निवेदन

 

इस पुस्तक में हिंदी साहित्य के उद्भव और विकास का संक्षिप्त विवेचन किया गया है। पुस्तक विद्यार्थियों को दृष्टि में रखकर लिखी गई है। प्रयत्न किया गया है कि यथासंभव सुबोध भाषा में साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों और उसके महत्त्वपूर्ण बाह्य रूपों के मूल और वास्तविक स्वरूप का स्पष्ट परिचय दिया जाए। परंतु पुस्तक को संक्षिप्त रूप देते समय ध्यान रखा गया है कि मुख्य प्रवृत्तियों का विवेचन छूटने न पाए और विद्यार्थी अद्यावधिक शोध-कार्यों के परिणाम से अपरिचित न रह जाएँ। उन अनावश्यक अटकलबाजियों और अप्रासंगिक विवेचनाओं को छोड़ दिया गया है जिनके इतिहास नामधारी पुस्तकें प्रायः भरी रहती है, आधुनिक काल की प्रवृत्तियों को समझाने का प्रयत्न तो किया गया है, पर बहुत अधिक नाम गिनाने की मनोवृत्ति से बचने का भी प्रयास है। इससे बहुत से लेखकों के नाम छूट गए हैं, पर यथासंभव साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ नहीं छूटी हैं।

पुस्तक के लिखने में अनेक मित्रों ने सहायता दी है। मित्रवर डॉ. दशरथ ओझाजी ने अपनी सम्मतियों और सुझावों से पुस्तक को अधिक त्रुटियुक्त होने से बचा लिया है। मेरे अनुज साहित्याचार्य पंडित पृथ्वीनाथ द्विवेदी ने पुस्तक के प्रस्तुत करने में बहुत सहायता पहुँचाई है और श्री मदनमोहन पांडेजी ने भी इसके लिखने में बहुत सहायता की है। भाई रामगोपाल सिंहजी ने पुस्तक का प्रूफ बड़े परिश्रम से देखा है। वे इतना श्रम न करते तो पुस्तक की छपाई में अधिक त्रुटियाँ रह गई होती। इन सभी मित्रों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
अंत में पुस्तक के प्रकाशकों के प्रति भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिन्होंने बहुत थोड़े समय में पुस्तक को निकालने का आयोजन किया है। इस अवसर पर उन सभी गंथकारों को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करता हूँ, जिनकी पुस्तकों से सहायता लेकर यह पुस्तक लिखी गई है।

 

हजारीप्रसादद्विवेदी

 

प्रस्तावना

 

‘हिंदी’ शब्द का अर्थ हिंदी भारतवर्ष के एक बहुत विशाल प्रदेश की साहित्य-भाषा है। राजस्थान और पंजाब राज्य की पश्चिमी सीमा से लेकर बिहार के पूर्वी सीमांत तक तथा उत्तरप्रदेश के उत्तरी सीमांत से लेकर मध्य प्रदेश के मध्य तक के अनेक राज्यों की साहित्यिक भाषा को हम हिंदी कहते आए हैं। इस प्रदेश में अनेक स्थानीय बोलियाँ प्रचलित हैं। सबका भाषा-शास्त्रीय ढाँचा एक-जैसा ही नहीं है, साहित्य में भी किसी एक ही बोली के ढाँचे का सदा व्यवहार नहीं होता था, फिर भी हिंदी साहित्य की चर्चा करने वाले सभी देशी-विदेशी विद्वान् इस विस्तृत प्रदेश के साहित्यिक प्रयत्नों के लिए व्यवहृत भाषा या भाषाओं को हिंदी कहते रहे हैं। वस्तुतः हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘हिंदी’ शब्द का व्यवहार बड़े व्यापक अर्थों में होता रहा है।

जिस विशाल भू-भाग को आज हिंदी-भाषा-भाषी क्षेत्र कहा जाता है, उसका कोई एक नाम खोजना कठिन है। परंतु इसके मुख्य भाग को पुराने जमाने से ही मध्य-देश कहते रहे हैं। यद्यपि वर्त्तमान भारतवर्ष के रूप को देखते हुए इस विस्तीर्ण भू-भाग को ‘मध्य- देश’ कहना ठीक नहीं मालूम होता, तो भी यह शब्द प्राचीन काल से ही बहुत अधिक परिचित है, इसलिए इस पुस्तक में हम ‘हिंदी भाषा-भाषी’ क्षेत्र जैसे भारी भरकम शब्द का सदा व्यवहार न करके ‘मध्य-देश’ का ही व्यवहार करेंगे।

लगभग एक सहस्र वर्षों से इस मध्य देश में साहित्यिक प्रयत्नों के लिए एक प्रकार की केंद्रीय भाषा का व्यवहार होता रहा है। देश काल भेद से साहित्यिक भाषा के रूपों में भेद अवश्य पाया जाता है, परंतु प्रयत्न बराबर यही रहा है कि यह भाषा केंद्रीय भाषा के निकट रहे। हिंदी की एकता इस प्रयत्न में ही है। यह परंपरा आज भी ज्यों-की-त्यों है। यद्यपि इस भाग में अनेक उपभाषाओं का प्रयोग होता है, किंतु समाचारपत्र सभा-समितियों की कार्यवाहियाँ, पाठ्य-पुस्तकों व्याख्यान और विचार-विमर्श आदि कार्य केंद्रीय भाषा में ही किए जाते हैं। ‘हिंदी’ शब्द का व्यवहार इसी केंद्रोन्मुख भाषा के अर्थ में होता है। जिन क्षेत्रों के लोग अपने साहित्यिक प्रयत्नों में केंद्रोन्मुखी भाषा का प्रयोग करते हैं, वे ही आज हिंदी भाषी कहे जाते हैं। इनका यह प्रयत्न नया नहीं है। वस्तुतः हिंदी शब्द उतना एक-रूपा भाषा के अर्थ में व्यवहृत नहीं होता, जितना परंपरा के अर्थ में होता है।

दीर्घकाल से हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखक अपभ्रंश भाषा के साहित्य को भी हिंदी साहित्य के पूर्वरूप के रूप में ग्रहण करते आए हैं। मिश्रबंधुओं ने अपनी पुस्तक में अनेक अपभ्रंश रचनाओं को स्थान दिया है। स्वर्गीय पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी तो अपभ्रंश को ‘पुरानी हिंदी’ कहना अधिक पसंद करते थे (नागरी प्रचारिणी पत्रिका नवीन संस्करण, भाग-2)। पं. रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने इतिहास के प्रथम संस्करण में आदिकाल के अंदर अपभ्रंश रचनाओं की भी गणना की थी, क्योंकि वे सदा से भाषा काव्य के अंतर्गत मानी जाती रही है। सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री राहुल सांकृत्यायन ने भी अपभ्रंश की रचनाओं को हिंदी कहा है। उन्होंने जब बौद्ध सिद्धों के पदों और दोहों को हिंदी कहा था, तब बडा विरोध हुआ था, क्योंकि बंगाल के विद्वान् उसे बंगला मानते आए हैं। इस तरह गुजरात के विद्वान् पश्चिमी अपभ्रंश की रचनाओं को ‘जूनी गुजराती’ अर्थात्, पुरानी गुजराती मानते आए हैं।

 

अपभ्रंश का साहित्य :

 

बहुत दिनों तक पंडितों को अपभ्रंश साहित्य की जानकारी बहुत कम थी। कम तो अब भी है, पर अब पहले की अपेक्षा इस भाषा का बहुत अधिक साहित्य हमारे पास है। सन् 1877 ई. में पिशेल ने हेमचंद्राचार्य के प्राकृत व्याकरण का सुसंपादित संस्करण निकाला था। इस पुस्तक के  अंत में प्राकृतों से भिन्न अपभ्रंश भाषा का व्याकरण दिया हुआ है, और अपभ्रंश के पदों के उदाहरण के लिए अपभ्रंश के कुछ पद्य अधिकतर दोहे उद्धृत किए गए हैं। हेमचंद्राचार्य जैन धर्म के महान् आचार्य थे, वे अपने समय में कलिकाल सर्वज्ञ कहे जाते थे। इनके प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश की चर्चा है। अन्य प्राकृतों में व्याकरण के प्रयोगों का उदाहरण देते समय तो उन्होंने एक शब्द या एक वाक्यांश को पर्याप्त समझा है, पर अपभ्रंश के पदों का उदाहरण देते समय उन्होंने पूरे-पूरे दोहे उद्धत किए हैं। इससे इस भाषा के प्रति आचार्य की ममता सूचित होती है।

वे उन सभी से एक शब्द या आवश्यकता प़डने पर एक ही वाक्यांश उद्धत कर सकते थे, पर उन्होंने ऐसा न करके पूरा पद्य उद्धत किया है। इस प्रकार बहुत सी अमूल्य साहित्यिक रचनाएँ लुप्त होने से बच गए हैं बहुत दिनों तक अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिए विद्वान् लोग इन्हीं दोहों से संतोष करते आए हैं। इनमें कई कवियों की रचनाएँ हैं। कुछ रचनाएँ हेमचंद्राचार्य की भी हो सकती हैं। पिशेल ने भी जब 1902 ई. में जर्मन भाषा में अपनी पुस्तक प्रकाशित की, तो प्रधान रूप से इन दोहों का अध्ययन किया, और अन्य उपलब्ध साहित्य अर्थात् विक्रमोवर्शीय सरस्वती कंठाभरण, वैताल पंचविशांत सिंहासन द्वात्रिशतिका और प्रबंध चिंतामणि आदि ग्रंथों में प्रसंग क्रम से आई हुई कुछ अप्रभंश रचनाओं का उपयोग किया। उनका विश्वास था कि अपभ्रंश का विशाल साहित्य अब खो गया है, बहुत दिनों तक अध्ययन इससे आगे नहीं बढ़ा। गलेरी जी ने अपनी पुस्तक में कुमारपाल चरित तथा प्रबंध चिंतामणि आदि में संगृहीत पदों की चर्चा की है। पर हेमचंद्राचार्य के संगृहीत दोहे उनके भी प्रधान संबल थे। बहुत दिनों तक इन्हीं पुस्तकों में प्राप्त बिखरी हुई सामग्री से अपभ्रंश भाषा और साहित्य का मर्म समझा जाता रहा।

सन् 1913-14 ईं. में एक जर्मन विद्वान् हर्मन याकोवी इस देश में आए। अहमदाबाद के एक जैन ग्रंथ भंडार का अवलोकन करते हुए, एक साधु के पास उन्हें भविसयत्त कहा की एक प्रति मिली। उन्होंने इसकी भाषा देखकर समझा कि यह अपभ्रंश की रचना है। इस समाचार से विद्वानों में बड़ा उत्साह आया और अन्य अपभ्रंश ग्रंथों के पाने की आशा बलवती हुई। बाद में अनेक जैन भंडारों की खोज करने पर अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्राप्त हुईं। यद्यपि ये रचनाएँ अधिकांश  में जैन कवियों की लिखी थीं। परंतु इनसे लोकभाषा के अनेक काव्य रूपों पर बिल्कुल नया और चकित कर देने वाला आलोक पड़ा। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, जो इंदु, रामसिंह आदि प्रथम श्रेणी के जैन कवियों की तो रचनाएँ प्राप्त हुई ही, अब्दुल रहमान जैसे मुसलमान कवि की उत्तम रचना भी प्राप्त हुई। अब हमारे सामने समृद्ध अपभ्रंश साहित्य का बहुत उत्तम निदर्शन है।

 

जैनेतर अपभ्रंश :

 

सन् 1916 ई. में म. म. पं. हरप्रसाद शास्त्री ने नेपाल से प्राप्त अनेक बौद्ध सिद्धों के पदों और दोहों को बौद्ध गान और दोहा। नाम देकर बंगाक्षरों में प्रकाशित किया। इन पदों और दोहों की भाषा को शास्त्री जी ने बंगला कहा। बाद में डॉ. शहीदुल्ला और डॉ. प्रबोधचंद्र बागची तथा पं. प्रकाशन हुआ। वस्तुतः इन दोहों और पदों की भाषा भी अपभ्रंश ही है, पर कुछ पूर्वी प्रयोग उनमें अवश्य है। दोहों की भाषा में तो परिनिष्ठित अपभ्रंश की मात्रा अधिक है।

अर्थात् इनमें भी केंद्रीय भाषा के निकट जाने का प्रयत्न है। शास्त्री जी के उद्योगों से ही विद्यापति की कीर्तिलता का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक की और इसके साथ ही इसी कवि की लिखी हुई एक और पुस्तक कीर्तिपताका की सूचना तो ग्रियर्सन ने पहले ही दे रखी थी, पर इसे प्रकाशित करने का श्रेय शास्त्री जी को है। विद्यापति ने स्वयं इस पुस्तक की भाषा को अवहट्ठ (अपभ्रष्ट-अपभ्रंश) कहा है। इसमें भी मैथिली प्रयोग मिलते हैं। इसमें गद्य का भी प्रयोग है। अधिकांश मैथिली प्रयोग गद्य में ही मिलते हैं। पद्यों में अपभ्रंश के प्रयोग ही अधिक मिलते हैं। इस पुस्तक में भी केंद्रीय भाषा के निकट रहने का वैसा ही प्रयत्न है, जैसा बौद्ध सिद्धों के दोहों में है।


 

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