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पल्लव

सुमित्रानंदन पंत

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3161
आईएसबीएन :81-267-0335-5

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सुमित्रानंदन पंत की प्रकृति और मानव-सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करती कविताओं का संकलन...

Pallav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘पल्लव बिलकुल नये काव्य-गुणों को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में आया...पन्त में कल्पना शब्दों के चुनाव से ही शुरू होती है। छन्दों के निर्वाचन और परिवर्तन में भी वह व्यक्त होती है। उसका प्रवाह अत्यन्त शक्तिशाली है। इसके साथ जब प्रकृति और मानव-सौन्दर्य के प्रति कवि के बालकोचित औत्सुक्य और कुतूहल के भावों का सम्मिलन होता है तो ऐसे सौन्दर्य की सृष्टि होती है जो पुराने काव्य के रसिकों के निकट परिचित नहीं होता। कम सम्वेदनशील पुराने सहृदय इस नई कविता से बिदक उठे थे और अधिक सम्वेदनशील सहृदय प्रसन्न हुए थे।

 पल्लव के भावों की अभिव्यक्ति में अद्भुत सरलता और ईमानदारी थी। कवि बँधी रूढ़ियों के प्रति कठोर नहीं है उसने उनके प्रति व्यंग्य और उपहास का प्रहार नहीं किया, पर वह उनकी बाहरी बातों की उपेक्षा करके अन्तराल में स्थित सहज सौंदर्य की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करता है। मनुष्य के कोमल स्वभाव, बालिका के अकृत्रिम, प्रीति-स्निग्ध हृदय और प्रकृति के विराट और विपुल रूपों में अन्तर्निहित शोभा का ऐसा हृदयहारी चित्रण उन दिनों अन्यत्र नहीं देखा गया।’’

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

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महाकवि कालिदास ने रघुवंश के प्रारम्भ में अपने लिए ‘तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्’ लिखकर हम लोगों के लिए विनम्रता प्रदर्शन करने का द्वार एकदम ही बन्द कर दिया। और हिन्दी के कवियों ने महात्मा सूरदास के समय से जिस प्रकार-सूर से शशि, शशि से उड़गन, उड़गन से खद्योत-उन्नति का अटूट क्रम रखा है, उनके अनुसार भी हम लोग चमकीले रेत के कणों तथा बुझती हुई चिनगारियों से अवश्य ही कहीं आगे बढ़ गये होंगे। ऐसी दशा में समझ में नहीं आता कि अपने को प्रभात का टिमटिमाता तारा, दीपक का फूल, सील खायी हुई गन्धक की दियासलाई आदि क्या बतलाया जाए ! अत: नम्रता दिखलाने को अपने लिए असंख्य बार अल्पाति लिखना, साहित्य की दृष्टि से, राम नाम प्रचार करने के लिए एक लक्ष राम नामों की पुस्तक छपवा कर बिना मूल्य वितरण करने के प्रयत्न के समान हास्यास्पद तथा व्यर्थ जान कर मैंने इस विषय में चुप रहना ही ठीक समझा, ‘मौनं स्वीकृतिलक्षणम्’ कहा भी है। मुझे आशा है कि वैज्ञानिक लोग शीघ्र ही अणु-परमाणुओं को और भी छोटे-छोटे खंडों में विभक्त कर एवं ‘अब के कवि’ के लिए नवीन उपमा का आविष्कार कर हिन्दी साहित्य को इस उपमा की परिक्षीणता (बैंकरप्सी) से उबारेंगे।

इसमें संदेह नहीं कि अपनी वाणी को सजधज के साथ पुस्तक रूप में प्रकाशित होते देखकर मन में बड़ी प्रसन्नता होती है। ऐसे अवसर पर ज्ञान गंभीर मुद्रा बनाकर हृदय के इस बालोचित स्वभाव की ओर उपेक्षापूर्ण विरक्ति अथवा उदासीनता दिखलाना बड़ा कठोर जान पड़ता है। अतएव भीतर ही भीतर आनन्द को पीकर, होंठ पोंछकर लोगों के सामने निकलने की अधिक आवश्यकता न समझकर मैं प्रसन्नतापूर्वक अपने इन पल्लवों को हिन्दी के कर पल्लवों में अर्पण करता हूँ। इन्हें मैं ‘पत्रं पुष्पम्’ नहीं कह सकता, ये केवल पल्लव हैं-

‘न पत्रों का मर्मर संगीत,
न पुष्पों का रस राग पराग !’

बालकों की तरह, कौतूहलवश मैंने जो यह कागज की नाव साहित्य-समुद्र में छोड़ दी है इसका मेरे चापल्य के सिवा और क्या कारण हो सकता है ? देखूँ यह बड़ी-बड़ी नावों के बीच में कैसी लगती है ! गिरिधर कविराय की तरह इस ‘नय्या मेरी तनिक सी’ को चहुँदिशि के भँवरों का भय हीं, यह तो अपने ही हलकेपन के कारण डूबने से बच जाएगी, न महापुरुषों के ही इसके पास आने की सम्भावना है, जो मुझे पाँव ‘पखारने’ की आवश्यकता पड़े। इसमें पार जाने की बात कैसी ? यह तो केवल मनोविनोद की वस्तु है। यदि वह भी न कर सकी तो फिर सोचूँगा। अस्तु-

‘पल्लव’ में मैंने 1919 से 1925 तक की, प्रत्येक वर्ष की दो-दो तीन-तीन कृतियाँ रख दी हैं, जिनमें से अधिकांश ‘सरस्वती’ तथा ‘श्री शारदा’ में समय-समय पर प्रकाशित हो चुकी है। प्रत्येक कविता के नीचे उनका रचना-काल-वर्ष तथा मास-दे दिया है। छाया, स्वप्न, बालापन, नक्षत्र, बादल, इन कविताओं में बीच में, एक-दो बार कहीं-कहीं परिवर्तन परिवर्धन भी हुआ है।
पुस्तक के आरम्भ में एक भूमिका भी जोड़ दी है, मेरी इच्छा थी उसमें ‘काव्य कला’ के आभ्यंतरिक रूप पर भी एक साधारण दृष्टिपात किया जाए, पर विस्तार भय से ऐसा न हो सका, काव्य के बाह्म रूप पर ही थोड़ा बहुत लिखकर सन्तोष करना पड़ा।

मैंने अपनी रचनाओं में कारणवश जहाँ कहीं व्याकरण की लोहे की कड़ियाँ तोड़ी हैं, यहां कुछ उसके विषय में भी लिख देना उचित समझता हूँ। मुझे अर्थ के अनुसार ही शब्दों को स्त्रीलिंग पुल्लिंग मानना अधिक उपयुक्त लगता है। जो शब्द केवल अकारांत इकारांत के अनुसार ही पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग हो गये हैं, और जिनमें लिंग का अर्थ के साथ सामंजस्य नहीं मिलता, उन शब्दों का ठीक-ठीक चित्र ही आँखों के सामने नहीं उतरता, और कविता में उनका प्रयोग करते समय कल्पना कुंठित सी हो जाती है। वास्तव में जो शब्द स्वस्थ तथा परिपूर्ण क्षणों में बने हुए होते हैं उनमें भाव तथा स्वर का पूर्ण सामंजस्य मिलता है, और कविता में ऐसे ही शब्दों की आवश्यकता भी पड़ती है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यदि संस्कृत का ‘देवता’ शब्द हिन्दी में आकर पुल्लिंग न हो गया होता तो स्वंय देवता ही हिन्दी कविता के विरुद्ध हो गये होते।
‘प्रभात’ और प्रभात के पर्यायवाची शब्दों का चित्र मेरे सामने स्त्रीलिंग में ही आता है, चेष्टा करने पर भी मैं कविता में उनका प्रयोग पुल्लिंग में नहीं कर सकता।


‘सौ सौ साँसों में पत्रों की
उमड़ी हिमजल सस्मित भोर’, के बदले
‘उमड़ा हिमजल सस्मित भोर’,-तथा
रुधिर से फूट पड़ी रुचिमान
पल्लवों की यह सजल प्रभात’ के बदले
‘रुधिर से फूट पड़ा रुचिमान
पल्लवों का यह सजल प्रभात’,


इसी प्रकार अन्य स्थानों में भी ‘प्रभात’ आदि को पुल्लिंग मान लेने पर मेरे सामने प्रभात का सारा जादू, स्वर्ण, श्री, सौरभ सुकुमारता आदि नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं, उनका चित्र ही नहीं उतरता।

‘बूंद’ , ‘कम्पन’ आदि शब्दों को मैं उभय लिंगों में प्रयुक्त करता हूँ। जहाँ छोटी-सी बूँद हो वहां ‘स्त्रीलिंग’, जहाँ बडी़ हो वहाँ पुल्लिंग, जहाँ हल्की-सी हृदय की कम्पन हो वहाँ ‘स्त्रीलिंग’-- जहाँ जोर-जोर से धड़कने का भाव हो वहां पुल्लिंग।
‘पल्लव’ शीर्षक पहली ही कविता में ‘मरुताकाश’ समास आया है, मुझे ‘मरुदाकाश’ ऐसा लगा जैसे आकाश में धूल भर गई हो, या बादल घिर आए हों, स्वच्छ आकाश देखने ही को नहीं मिलता, इसलिए मैंने उसके बदले मरुताकाश ही लिखना उचित समझा।
‘बालिका मेरी मनोरम मित्र थी’ के बदले ‘..मेरा मनोरम मित्र थी’ लिखना मुझे श्रुतिमधुर नहीं लगता। इसी प्रकार-

‘हा ! मेरे बचपन से कितने
बिखर गये जग के श्रृंगार,
जिनकी अविकच दुर्बलता ही
थी उसकी शोभालंकार,
जिनकी निर्भयता विभूति थी,
सहज सरलता शिष्टाचार,
औ’ जिनकी अबोध पावनता
थी जग के मंगल की द्वार !

उपर्युक्त पद्य में ‘शोभालंकार’ तथा ‘द्वार’ का लिंग ‘दुर्बलता’ तथा ‘पावनता’ के अनुसार ही लेना मुझे श्रुतिमधुर जान पड़ता है, इसी प्रकार अन्यत्र भी।
कहीं-कहीं अन्त्यानुप्रास मिलाने के लिए आवश्यकतानुसार ‘कण’ ‘गण’ ‘मरण’ आदि णकारांत शब्दों को नकारांत कर दिया है। यथा-

‘एक छवि के असंख्य उड़गन
एक ही सब में स्पंदन !’

यहाँ दूसरा चरण पहले से छोटा होने के कारण ‘उड़गन’ के ‘न’ पर दीर्घ काल तक स्वर ठहरता है, अत: ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ रख देने से कर्कशता आ जाती है। पुन:

‘अचिर में चिर का अन्वेषन
विश्व का तत्वपूर्ण दर्शन’

में ‘अन्वेषन’ के स्थान पर ‘अन्वेषण कर देने से दूसरा चरण फीका पड़ जाता है।
ऐसे ही ‘कर दे मंत्रमुग्ध नत फन’ में फण का उद्धत ‘ण’ मंत्रमुग्ध हो विनम्र ‘न’ बन जाता है, और ‘छेड़ कर शस्त्रों की झंकार’ इस चरण की ‘झंकार’; ‘झींगुरों की झीनी झनकार’ में ‘झीनी’ बनकर ‘झनकार’; इसी प्रकार अन्यत्र भी। ‘भौहों’ से मुझे ‘भोंहों’ में अधिक स्वाभाविकता मिलती है ‘भौहें’ ऐसी जान पड़ती है जैसे उनके काले-काले बाल क्रोध से कठोर ऱूप धारण कर खडे़ हो गये हों ‘नवल कलियों के धीरे झूम’ इस चरण में ‘धीरे’ शब्द प्रांतिक होने पर भी, उसके ‘झूम’ के धोरे आ जाने से भौरें की गूंज अधिक स्पष्ट सुनाई पड़ती है, इसलिए उसका प्रयोग कर दिया है। अन्यत्र भी इसी प्रकार कहीं-कहीं मैने शब्दों को अपनी आवश्यकतानुसार बदल लिया है। अंत में व्याकरण से अपनी इस ईडिओसिनक्रेसी (स्वभाव वैषम्य) के लिए क्षमा प्रार्थना कर, मैं बिदा होता हूँ।

3 म्योर रोड, प्रयाग
1 मार्च 1926

-श्री सुमित्रानन्दन पंत


प्रवेश
(क)



हिन्दी कविता की नीहारिका, संप्रति अपने प्रेमियों के तरुण उत्साह के तीव्र ताप से प्रगति पा, साहित्याकाश में अत्यन्त वेग से घूम रही है, समय-समय पर जो छोटे-मोटे तारक पिण्ड उससे टूट पड़ते हैं, वे अभी ऐसी शक्ति तथा प्रकाश संगृहीत नहीं कर पाए हैं कि अपनी ही ज्योति में अपने लिए नियमित पंथ खोज सकें, जिससे हमारे ज्योतिषी उनकी गतिविधि पर निश्चित सिद्धान्त निर्धारित कर लें, ऐसी दशा में कहा नहीं जा सकता कि यह अस्तव्यस्त केन्द्र परिधिहीन द्रवित वाष्प पिण्ड निकट भविष्य में किस स्वस्थ स्वरूप में घनीभूत होगा, कैसा आकार-प्रकार ग्रहण करेगा, हमारे सूर्य की कैसी प्रभा होगी, चाँद की कैसी सुधा, हमारे प्रभात में कितना सोना होगा, रात में कितनी चाँदी।
पर मनुष्य के ज्ञान का विकास पदार्थों की अज्ञात परिधि पर निर्भर न रह कर अपने ही परिचय के अन्तरिक्ष के भीतर परिपूर्णता प्राप्त करता जाता है; जब तक वह पृथ्वी की गोलाई तक नहीं पहुंचा था, वह उसे चिपटी मानकर भी चलता रहा, हम अपने प्रौढ़ पगों के लिए नहीं ठहरते, घुटनों के बल चलने के नियमों को सीखकर ही आगे बढ़ते हैं। सच तो यह कि हम भूमिका बाँधना नहीं छोड़ सकते।

अब ब्रजभाषा और खडी़ बोली के बीच जीवन-संग्राम का युग बीत गया, उन दिनों मैं साहित्य का ककहरा भी नहीं जानता था। उस सुकुमार मां के गर्भ से जो यह ओजस्विनी कन्या पैदा हुई है, आज सर्वत्र इसी की छटा है, इसकी वाणी में विद्युत है। हिन्दी ने अब तुतलाना छोड़ दिया, वह ‘पिय’ को ‘प्रिय’ कहने लगी है। उसका किशोर कण्ठ फूट गया, अस्फुट अंग कट-छँट गए, उनकी अस्पष्टता में एक स्पष्ट स्वरूप की झलक आ गई, वक्ष विशाल तथा उन्नत हो गया, पदों की चंचलता दृष्टि में आ गई, वह विपुल विस्तृत हो गई, हृदय में नवीन भावनाएँ, नवीन कल्पनाएँ उठने लगीं, ज्ञान की परिधि बढ़ गई, चारों दिशाओं से त्रिविध समीर के झोंके उसके चित्त को रोमांचित करने लगे, उसे चाँद में नवीन सौंदर्य, मेघ में नवीन गर्जन सुनाई देने लगा। वह अज्ञात यौवन कलिका अब विकसित हो गई, प्रभात के सूर्य से उसका उज्जवल मुख चूम उसे असज्र आशीर्वाद दे दिया, चारों ओर से भौरें आकर उसे नव सन्देश सुनाने लगे, उसके सौरभ को वायुमण्डल इधर-उधर वहन करने लग गया विश्वजननी प्रकृति ने उसके भाल पर स्वयं अपने हाथ से केशर का सुहाग टीका लगा दिया, उसके प्राणों में अक्षय मधु भर दिया है।

उस ब्रज की बाँसुरी में अमृत था, नन्दन की मधु ऋतु थी; उसमें रसिक श्याम के प्रेम की फूंक थी, उसके जादू से सूर सागर लहरा उठा मिठास से तुलसी मानस उमड़ चला। आज भी वह कुछ हाथों की तूंबी बनी हुई है, जो प्राचीन जीर्ण-शीर्ण खण्डहरों के टूटे-फूटे कोनों तथा गन्दे छिद्रों से दो-एक दन्तहीन बूढ़े साँपों को जगा, उनका अन्तिम जीवन नृत्य दिखला, साहित्य की टोकरी भरने तथा प्रवीण कलाकुशल बाजीगर कहलाने की चेष्टा कर रहे हैं, दस बरस बाद ये प्राणहीन केचुलियाँ शायद इनके आँख झाड़ने के काम आएँगी। लेकिन यह अपवाद ही खडी़ बोली की विजय का प्रमाण है। अब भारत के कृष्ण ने मुरली छोड़ पांचजन्य उठा लिया, सुप्त देश की सुप्त वाणी जाग्रत हो उठी, खड़ी बोली उस जागृति की शंख ध्वनि है, ब्रज भाषा में नींद की मिठास थी, इसमें जागृति का स्पनन्दन इसमें रात्रि की अकर्मण्य स्वप्नमय ज्योत्स्ना इसमें दिवस का सशब्द कार्यव्यग्र प्रकाश।

ब्रज भाषा के मोम में भक्ति का पवित्र चित्र उसके माखन में श्रृंगार की कोमल करुण मूर्ति खूब उतरी है। वह सुख-सम्पन्न भारत के हृत्तन्त्री की झंकार है उसके स्वर में शान्ति, प्रेम करुणा है। देश की तत्कालीन मानसिक और भौतिक शान्ति ही ब्रज भाषा के रूप में बदल गई। वह था सम्राट अकबर, जहांगीर तथा शाहजहाँ का सुव्यवस्थित राज्यकाल, जिनकी निर्द्वन्द्व छत्रछाया में उनकी शान्तिप्रियता, कलाप्रेम तथा शासन प्रबन्ध रूपी विपुल खाद्य सामग्री पाकर चिरकाल से पीड़ित भारत एक बार फिर विविध ऐश्वर्य में लहलहा उठा। राजा-महाराजाओं ने स्वंय अपने हाथों से संगीन, शिल्प चित्र तथा काव्य-कला के मूलों को सींचा, कलाविदों को तरह-तरह से प्रोत्साहित किया। संगीत की आकाश लता अनन्त झंकारों में खिल खिलकर समस्त वायुमण्डल में छा गई, मृग चरना भूल गये, मृगराज उन पर टूटना। तानसेन की सुधा
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ब्रज भाषा से मेरा अभिप्राय प्राचीन साहित्यिक हिन्दी से है, जिसमें ‘अवधी’ भी शामिल है।

सिंचित राग-रागिनियाँ जिन्हें कहीं शेषनाग सुन ले तो उसके सिर पर रक्खे हुए धरा मेरू डावाडोल हो जायें इस भय से विधाता ने उसे कान नहीं दिये-अभी तक हमारे वसन्तोत्सव में कोकिलाओं के कण्ठों से मधुस्रवण करती हैं। शिल्प तथा चित्रकलाओं की पावस हरीतिमा ने सर्वत्र भीतर बाहर राजप्रसादों को लपेट लिया। चतुर चित्रकारों ने अपने चित्रों में भावों की सूक्ष्मता और सुकुमारता, सुरों की सजधज तथा सम्पूर्णता, जान पड़ता है अपनी अनिमेष चितवन की अचंचल बरुनियों, अपने भाव मुग्ध हृदय के तन्मय रोओं से चित्रित की। शाहजादा दारा का ‘अलबम’ चित्रकारी के चमत्कार की चकाचौंध है। शिल्पकला के अनेक शतदल दिल्ली, लखनऊ, आगरा आदि शहरों में अपनी सम्पूर्णता तथा उत्कर्ष में अमर और अम्लान खडे़ हैं, ताजमहल में मानो शिल्पकला ही गलाकर ढाल दी गयी।

देव, विहारी, केशव आदि कवियों के अनिन्द्य पुष्पोद्यान अभी तक अपनी अमन्द सौरभ तथा अनन्त मधु से राशि-राशि भौरों को मुग्ध कर रहे हैं-यहाँ कूल केलि कछार, कुजों में सर्वत्र असुप्त वसन्त शोभित है बीचोबीच बहती हुई नीली यमुना में, उसकी फेनोज्ज्वल चंचल तरंगों सी असंख्य सुकुमारियाँ श्याम के अनुराग में डूब रही हैं। वहां बिजली छिपे अभिसार करती, भौरें सन्देश पहुंचाते चाँद चिनगारियाँ बरसाता है। वहाँ छहों ऋतुएँ कल्पना के बहुरंगी पंखों में उड़कर स्वर्ग की अप्सराओं की तरह उस नन्दन वन के चारों ओर अनवरत परिक्रमा कर रही हैं। उस ‘‘चन्द्रिकाधौतहर्म्या बसतिरलका’’ के आस-पास ‘‘आनन ओप उजास’’ से नित प्रति पूनो ही रहती है। चपला की चंचल डोरियों में पैग भरते हुए नये बादलों के हिडोरे पर झूलती हुई इन्द्रधनुष सुकुमारियाँ झरी की झमक और घटा की धमक में हिंडोरें की रमक मिला रही हैं। वहाँ सौंदर्य अपनी ही सुकुमारता में अन्तर्धान हो रहा, समस्त नक्षत्र मण्डल उसके श्रीचरणों पर निछावर हो नखावलि बन गया, अलंकारों की झनक ने देव वीणा से फूटकर रूप को स्वर दे दिया है।

वहाँ फूलों में काँटे नहीं फूल की विरह से सूखकर काँटों में बदल गये हैं-यह कल्पना का अनिर्वचनीय इन्द्रजाल है प्रेम की पलकों पर सौंदर्य का स्वप्न है, मर्त्य के हृदय में स्वर्ग का बिम्ब है मनोवेगों की अराजकता है। सच है, ‘‘पल-पल पर पल-टन लगे जाके अंग अनूप’’ ऐसी उस ब्रज बाला के स्वरूप को कौन वर्णन कर सकता है ? उस माधुर्य की मेनका की कल्पना का अंचल छोर उसके उपासकों के श्वासोच्छ्वासों के चार वायु में उड़ता हुआ, नीलाकाश की तरह फैलकर, कभी आध्यात्मिक के नीरव पुलिनों को भी स्पर्श कर आता है पर कामना के झोंके शीघ्र ही सौ सौ हाथों से उसे खींच लेते हैं। वह ब्रज के दूध दही और माखन से पूर्ण प्रस्फुटित यौवना अपनी बाह्म रूप राशि पर इतनी मुग्ध रहती है कि उसे अपने अन्तर्जगत के सौंदर्य के उपभोग करने, उसकी ओर दृष्टिपात करने का अवकाश ही नहीं मिलता, नि:सन्देह उसका सौंदर्य अपूर्व है, भाषातीत है, यह उस युग का नन्दन कानन है ! जहाँ सौंदर्य की अप्सरा अपनी ही छवि की प्रभा में स्वच्छन्दता पूर्वक विहार करती है। अब हम उस युग का कैलास देखेंगे जहाँ सुन्दरता मूर्तिमती तपस्या बनी हुई, कामना की अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण हो, प्रेम की लोकोज्ज्वल कारिणी स्निग्ध चन्द्रिका में, संयम की स्थिर दीपशिखा सी शुद्ध एवं निष्कलुष सुशोभित है। वह उस युग का शत-शत ध्वनिपूर्ण कल्लोलों में विलोड़ित बाह्म स्वरूप है, यह उसका गम्भीर निर्वाक् अन्तस्तल !

जिस प्रकार उस युग के स्वर्ण गर्भ से भौतिक सुख शान्ति के स्थापक प्रसूत हुए उसी प्रकार मानसिक सुख शान्ति के शासक भी, जो प्रात: स्मरणीय पुरुष इतिहास के पृष्ठों पर रामानुज रामानन्द, कबीर, महाप्रभु बल्लभाचार्य, नानक इत्यादि नामों से स्वर्णांकित है इतिहास के ही नहीं, देश के हृत्पृष्ठ पर उनकी अक्षय अष्टछाप उसकी सभ्यता के वक्ष पर उनका श्रीवत्स चिह्न अमिट और अमर है। इन्हीं युग प्रवर्तकों के गम्भीर अन्तस्तल से ईश्वरी अनुराग के अन्नत-उद्गार उमड़कर देश के आकाश में घनाकार छा गये। ब्राह्मणों के शुष्क दर्शन तत्त्वों की ऊष्मा से नीरस, निष्क्रिय वायुमण्डल भक्ति के विशाल श्याम घन से सरस तथा सजल हो गया राम-कृष्ण के प्रेम की अखण्ड रसधाराओं ने, सौ-सौ बौछारों में बरस, भारत का हृदय प्लावित तथा उर्वर कर दिया। एक ओर सूरसागर भर गया, दूसरी ओर तुलसी मानस !

सीही के उस अन्तर्यनन सूर का सूरसागर ? वह अतल, अकूत अनन्त प्रेमाम्बुधि ? उसमें अमूल्य रत्न है ! उसकी प्रत्येक तरंग श्याम की वंशी की भुवन मोहिनी तान पर नाचती, थिरकती भक्तों के भूरि हृत्स्पन्दन से ताल मिलाती, मँझधार में पड़ी सौ-सौ पुरानी नावों को पार लगाती, असीम की ओर चली गयी है ! वह भगवद्भक्ति के आनन्दाधिक्य का जल प्रलय है, जिसमें समस्त संसार निमग्न हो जाता है। वह ईश्वरीय प्रेम की पवित्र भूल-भूलैया है जिसमें एक बार पैठकर बाहर निकलना कठिन हो जाता है। कुएँ में गिरे हुए को जदुपति भले ही बाँह पकड़कर निकाल सकें पर जो एक बार सागर में डूब जाता है उसे सूर के श्याम भी बाहर नहीं खींच सकते ! सूर सूर की वाणी ! भारत के ‘‘हिरदै सों जब जाइ हौ मरद बदौगो तोहि !’’ और रामचरित मानस ? उस ‘जायो कुल मंगन’’ का ‘‘रत्नावली’’ से ज्योतित मानस ? उस-

‘‘जन्म सिन्धु, पुनि बन्धु विष, दिन मलीन, सकलंक,
उन सन समता पाय किमि, चन्द्र वापुरो रंक

’’-‘‘तुलसी शशी’’ की उज्ज्वल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण मानस ? वह हमारी सनातन धर्म-प्राण जातीयता का अविनश्वर सूक्ष्म शरीर है। भारतीय सभ्यता का विशाल आदर्श है जिसमें उसका सूर्योज्ज्वलमुख स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। वह तुलसीदास के निर्मल मानस में अनन्त का अक्षय प्रतिबिम्ब है। उसकी सौ-सौ तारक चुम्बित सरल तरल बीचियों के ऊपर जो भक्ति का अमर सहस्रदल विकसित है, वह मर्यादापुरुषोत्तम की पवित्र पद रेणु से परिपूर्ण है ! मानस इतिहास में महाकाव्य, महाकाव्य में इतिहास है। उस युग के ईश्वरीय अनुराग का नक्षत्रोंज्ज्वल ताजमहल है, जिसमें श्री सीताराम की पुण्यस्मृति चिरन्तन सुप्ति में जाग्रत है। ये दोनों काव्य रत्न भारती के अक्षय भण्डार के दो सिंह द्वार है, जो उस युग के भगवत्प्रेम की पवित्र धातु से ढाल दिये गये हैं।

जिन अन्य कवियों की पावन वाणी से ईस्वरनुराग का अवशिष्ट रस अनेक सरिता और निर्झरों के रूप में फूटकर ब्रज भाषा के साहित्य-समुद्र में भर गया, उनमें हम उस सखियों के सम्राट उस फूलों की देह के भगत कबीर साहब, उस लहरतारा के तालाब के गोत्र कुल हीन स्वर्ण पंकज उस स्वर्गीय संगीत के जुलाहे के साथ-जिसने अपने सूक्ष्म ताने-बाने में गगन का ‘‘शबद अनाहद’’ बुन दिया-एकान्त में अपने गोपाल की मूर्ति से बातें करने वाली उस मीरा को भी नहीं भूल सकते। वह भक्ति के तपोवन की शकुन्तला है, राजपूताने के मरुस्थल की मन्दाकिनी है ! उसने वासना के विष को पीकर प्रेमामृत बना दिया है, उसने शब्दों में नहीं गाया, अपने प्रेमाधिक्य से भावना को ही वाणी के रूप में घनीभूत कर दिया, अरूप को स्वरूप दे दिया ! –ऐसा था अपार उस युग के मधु का भण्डार, जिसने ब्रज भाषा के छत्ते को लबालब भर दिया, उस अमृत ने उस भाषा को अमर कर दिया, उस भाषा ने उस अमृत को सुलभ !



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