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क्या कहते है उपनिषद

महेश शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 314
आईएसबीएन :81-288-0854-0

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‘उप’, ‘नि’,‘षद्’ - इसका विश्लेषण किया जाय तो ‘उप’ अर्थात् पास में, ‘नि’ अर्थात् निष्ठापूर्वक और ‘षद्’ अर्थात् बैठना... इस प्रकार शाब्दिक अर्थ हुआ - तत्त्वज्ञान के लिए गुरु के पास निष्ठावान होकर बैठना।

Kya Kahte Hai Upnishad - A Hindi Book by - mahesh sharma क्या कहते है उपनिषद - महेश शर्मा

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

उपनिषद् अध्यात्म विद्या अथवा ब्रह्मविद्या को कहते हैं। उपनिषद् वेद का ज्ञान काण्ड है। यह चिर प्रदीप्त वह ज्ञान दीपक है जो सृष्टि के आदि से प्रकाश देता चला आ रहा है और जो शाश्वत है, सनातन है, अक्षर है। इसके प्रकाश में वह अमरत्व है, जिसने सनातन धर्म के मूल का सिंचन किया है। यह जगत् कल्याणकारी भारत की अपनी निधि है।
उप-समीप, निषद्-निषीदति-बैठनेवाला। जो उस परम तत्त्व के समीप पहुँचकर चुपचाप बैठ जाता है, वह उपनिषद् है। परम तत्त्व अवर्णनीय है। उपनिषद् हमें उस अवर्णनीय परम तत्त्व-परब्रह्म-का साक्षात् ज्ञान कराते हैं। परम तत्त्व तक पहुँचने की कुंजी हैं उपनिषद्।

मुख्य उपनिषद् दस कहे गए हैं। ये है-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, एतरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक।
सम्पूर्ण वेद तीन भागों में विभक्त हैं-उपनिषद् भाग, मंत्र भाग और ब्राह्मण भाग। उपनिषद् भाग वेद के ज्ञान काण्ड का प्रकाशक है। वर्तमान मन्वंतर में वेद की 1180 शाखाएँ आविर्भूत हुईं। इतनी ही संख्या में उपनिषद्, ब्राह्मण और मंत्र भाग भी प्रकट हुए। पुराणों और उपनिषदों में वेद की यह संख्या पाई जाती है। आज इसका सौवाँ अंश भी नहीं मिलता।

उपनिषदों के समान ग्रंथ पुराणों में भी मिलते हैं। जैसे कि महाभारत में श्रीमद्भागवत गीता, जोकि उपनिषदों का सार कही जाती है। इस संदर्भ में देखा जाए तो हमारे सभी धर्म ग्रंथों की जड़ें कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में वेदों में ही छिपी हुई हैं। वेदों से पृथक करने पर इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।
उपनिषद् एक व्यापक अर्थों वाला शब्द है जिसका मुख्य अर्थ है-विद्या और गौण अर्थ है-पुस्तक। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं, अतः इन्हें वेदांत भी कहते हैं। सत्य की खोज करने की उत्सुकता, उपनिषदों की एक आनंदमयी और प्रशंसनीय विशिष्टताओं में से एक है।

बिना उपनिषदों को समझे, भारतीय इतिहास और संस्कृति का सूक्ष्म ज्ञान पाना असंभव है। कोई ऐसा पूर्ण विकसित भारतीय आदर्श नहीं जिसका उद्गम उपनिषदों में खोजने पर न मिले। उपनिषद् शक्ति और सृजनामत्मकता के सनातन स्रोत हैं। उपनिषद् ही हैं जो कह सकते हैं-
असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मा अमृतं गमय।

‘‘असत्य से सत्य की ओर मुझे ले चलो, अंधकार से ज्योति की ओर मुझे ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर मुझे ले चलो।’’
उपनिषदों का एक अपना ही कर्म है। वे अमर साहित्य हैं और इसलिए उन्हें हम श्रुति कहते हैं, हम उन सत्यों को इन्द्रियों और इन्द्रियबद्ध मन के परे, लोकातीत अनुभूति में पाते हैं, किंतु शुद्ध मन द्वारा वे अनुभवगम्य हैं। ये उपनिषद् सत्य, सार्वभौमिक और शाश्वत हैं तथा मानवता को सदैव प्रेरित करेंगे।

ये मनुष्य को सर्वोच्च की प्राप्ति के लिए सतत् संघर्ष करने के लिए बुलाते हैं; जीवन और अनुभव में नित्य चिरस्थाई, अमृत तत्त्व की उपलब्धि के लिए संघर्ष करने के लिए बुलाते हैं।

उपनिषद् गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्श उदाहरण हैं। प्रश्नोत्तर के माध्यम से सृष्टि के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन उपनिषदों में सहज ढंग से किया गया है। विभिन्न दृष्टान्तों, उदाहरणों, रूपकों, संकेतों और युक्तियों द्वारा आत्मा, परमात्मा ब्रह्म आदि का स्पष्टीकरण इतनी सफलता से उपनिषद् ही कर सके हैं। उपनिषद् न होते तो वेदों का गूढ़ अर्थ हम नहीं समझ पाते।
इस पुस्तक में उन्हीं ज्ञान के भण्डार उपनिषदों की शिक्षाओं को सरल शब्दों में प्रस्तुत किया गया है, जिससे कि सामान्यजन भी उन्हें पढ़-सुनकर अपने जीवन को तद्नुसार ढाल सकें।

महेश शर्मा

अध्याय 1

उपनिषद् परिचय

उपनिषदों में ज्ञान काण्ड की प्रधानता है इसलिए इनमें ब्रह्म के स्वरूप, जीव एवं ब्रह्म के आपसी संबंध और ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग आदि से संबंधित ज्ञान का विस्तृत वर्णन है। इसके अतिरिक्त इसमें वेदों के गूढ़ रहस्य भी निहित है। उपनिषद् शब्द की उत्पत्ति ‘उप’ एवं ‘नि’ उपसर्ग और ‘षद्’ धातु के मिलने से हुई है। स्पष्ट अर्थ में ‘‘वह ज्ञान जो परब्रह्म को प्राप्त करने का मार्ग दिखाए वह उपनिषद् है।’’

उपनिषदों को रहस्यमय ग्रंथ भी कहा गया है। रहस्यात्मक तत्त्वज्ञान गुरु और शिष्यों के मध्य चर्चा का विषय रहा है। शिष्यों के तत्त्वज्ञान से संबंधित प्रश्नों के उत्तर गुरु देते आए हैं और वे ही प्रश्नोत्तर, गुरु-शिष्य के मध्य के संवाद, उन ग्रंथों में संकलित हैं। ये वेद के अंतिम भाग हैं और इसी कारण से इन्हें वेदांत भी कहा गया है। शंकराचार्य ने इन्हें ब्रह्मविद्या का प्रतीक कहा है। उपनिषद् निश्चित रूप से वैदिक संहिताओं में से ही उद्धृत हैं। ये अनुप्राणित हैं।

शाब्दिक अर्थ

‘उप’, ‘नि’, ‘षद्’- उनका विश्लेषण किया जाए तो ‘उप’ अर्थात् पास में, ‘नि’ अर्थात् निष्ठापूर्वक और ‘षद्’ अर्थात् बैठना। इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ हुआ-‘तत्त्वज्ञान के लिए गुरु के पास निष्ठावान होकर बैठना।’

गुरु और शिष्यों के मध्य जो प्रश्नोत्तर होते थे वही इनमें संग्रहित होते गए और इस प्रकार उपनिषद् संज्ञान में आए।
प्राचीनकाल में उपनिषदों का ज्ञान सभी को नहीं करवाया जाता था और वे रहस्य रहते थे। यही कारण है कि इन्हें रहस्य भी कहा गया।

ब्राह्मणों और आरण्यकों की भाँति उपनिषद् भी पृथक-पृथक संहिताओं से संबंधित हैं। सबसे अधिक उपनिषद् कृष्ण युजुर्वेद से संबंधित हैं।

रचना काल

उपनिषदों के रचनाकाल का अलग-अलग निर्णय करना सर्वथा असम्भव है। श्रीराधाकृष्णन् के मतानुसार इनका रचनाकाल छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक माना जा सकता है। प्राचीन उपनिषदों में दार्शनिक चिंतन अधिक है। बाद की उपनिषदों में धर्म और भक्ति के भाव आते गए हैं। उत्तरकाल की उपनिषदों में वैदिक उपनिषदों की गंभीरता और विचारों की उदारता नहीं पाई जाती। इनमें अधिकतर दार्शनिक न होकर केवल धार्मिक या उपासनापरक हैं, जो बहुत बाद के धार्मिक सम्प्रदायों का प्रतिपादन करते हैं।

उपनिषदों की रचना हज़ारों सदियों की मेहनत का परिणाम है। मैक्समूलर के अनुसार इनका रचना काल 600-400 वर्ष ईसा पूर्व माना गया है। रजनीकांत शास्त्री के शोध ग्रंथ वैदिक साहित्य परिशीलन के अनुसार, संहिताओं का रचना काल लगभग 4533 वर्ष ईसा पूर्व है। यदि ईसाई मत का अध्ययन किया जाए तो सृष्टि की उत्पत्ति 5,000 अथवा 7,000 वर्ष ईसा पूर्व हुई। भारतीय मान्यता के अनुसार सृष्टि की रचना करोड़ों वर्ष पूर्व हुई। वैज्ञानिक दृष्टि से भी सृष्टि की रचना करोड़ों वर्ष पूर्व मानी गई है।

कई विद्वानों ने इनके (वेदों, उपनिषदों) रचनाकाल के विषय में खोज की है लेकिन इनकी रचना कब हुई, इसका कोई ठोस एवं निश्चित प्रमाण प्राप्त नहीं हो सका है।

उपनिषदों की संख्या

उपनिषदों की संख्या कहीं 108 और कहीं 200 से अधिक बताई जाती है। किंतु सर्वमान्य और महत्वपूर्ण उपनिषदों की संख्या बहुत कम है। निम्नलिखित श्लोक में दस उपनिषदें गिनाई गई हैं और इन्हीं की प्रतिष्ठा सर्वमान्य है-

ईश-केन-कठ-प्रश्न-माण्डूक्य-तैत्तिरि:।
ऐतरेयश्व छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा।।

अर्थात् (1) ईश, (2) केन, (3) कठ, (4) प्रश्न, (5) मुण्डक, (6) माण्डूक्य, (7) ऐतरेय (8) तैत्तिरीय, (9) छान्दोग्य, (10) बृहदारण्यक-ये दस उपनिषद हैं। कुछ लोग कौषीतकि और श्वेताश्वरतर की भी, मुख्य उपनिषदों में गणना करते हैं।

उपनिषदों के विषय

प्रारम्भ से ही जिज्ञासु मनुष्य इस खोज में लगा रहा है कि कब, क्या, कैसे, क्यों आदि। उपनिषदों में भी ऐसे ही ज्ञान का गहन चिंतन वर्णित है। यदि श्वेताश्वर उपनिषद् को पढ़े तो उसके आरम्भ में भी ब्रह्मवेत्ता ऋषियों के समक्ष ऐसे ही प्रश्न हैं जो जिज्ञासा से भरे हैं। जैसे-हमारे जीवन का आधार क्या है ? हम क्यों जीवित हैं ? क्या ब्रह्म ही समस्त जगत् का कारण है ? केन उपनिषद् के अनुसार भी-‘प्राण किसके द्वारा नियुक्त है और गति करता है ? हमें कौन प्रेरित एवं संचालित करता है ? इन्द्रियों को उनके कार्यों के विषय में कौन बताता है ?’ कठ उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म परस्पर विरोधी गुणों से युक्त है और वह अणु से भी सूक्ष्मतम है एवं महानतम है।

परमात्मा सूक्ष्म एवं वृहत्तम सभी रूपों में विद्यमान होता है एवं मनुष्य जीवन का उदेश्य भी विश्वात्मा से जीवात्मा का संबंध जानना और उनके महत्त्व को मानना या समझना होना चाहिए। उपनिषदों का उद्देश्य भी मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान देना एवं आत्मा के तत्त्व को जानना है। क्योंकि यदि वह ब्रह्माज्ञानी हो जाता है तो जन्म-मृत्यु की लीला को भूल जाता है। उस ब्रह्म में ही खोया रहता है और मोक्ष प्राप्त करता है। क्योंकि जब मनुष्य ब्रह्मज्ञानी हो जाता है तो वह इस नश्वर शरीर में विद्यामान आत्मा को समझ जाता है। आत्मा ही ब्रह्म है उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। वही ईश्वर है। जब मनुष्य की मृत्यु होती है तो उसका शरीर तत्त्व में विलीन हो जाता है। लेकिन आत्मा ईश्वर में मिल जाती है और दूसरी देह प्राप्त करती है अर्थात् एक शरीर को त्यागकर दूसरे शरीर को प्राप्त करती है।

उपनिषदों में आत्मज्ञान के संदर्भ में मनुष्य की चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है-पहली जागृत अवस्था-यह वह अवस्था है जिसमें मनुष्य शारीरिक उपभोग, हर्ष, क्रोध, सुख, दुःख आदि विभिन्न कर्म आदि करता है। यह बहिर्मुखी अवस्था है।
दूसरी अवस्था-यह अवस्था स्वप्नावस्था है जिसमें मनुष्य लालसा आदि में लिप्त रहता है। यह अंतर्मुख अवस्था है।
तीसरी अवस्था-यह वह अवस्था है जिसमें वह सुषुप्तावस्था में रहता है। इसमें वह न तो कोई स्वप्न देखता है; न कोई कामना करता है न कोई कार्य। अर्थात् वह सदा आनन्दित रहता है।

चौथी अवस्था-यह अवस्था तुरीयावस्था है जिसमें मनुष्य के सारे कार्य शांत हो जाते हैं और वह शांति प्राप्त करता है। उसके सारे द्वैत समाप्त हो जाते हैं और वह अद्वैत को प्राप्त करता है और यह अद्वैतवाद समस्त प्राणियों में केवल और केवल एक आत्मतत्त्व के दर्शन करवाता है। उपनिषद् हमें अंतर्मुख साधना, जोकि ब्रह्मविद्या है उसे किस प्रकार साधा जाए, वह सिखाते हैं। ब्रह्मविद्या में परब्रह्म ही है जोकि इस सृष्टि का कारण है और वही सबका प्रकाशक है। वही जीवों की आत्मा है, वही मोक्षदाता है।

ध्यान, ज्ञान-भक्ति आदि साधना के अनेक मार्ग माने गए हैं और उन्हें उपनिषदों में वर्णित भी किया गया है। जो मनुष्य साधना के मार्ग पर चलते हैं उनके भीतर भौतिक गुणों का उद्भव स्वतः ही होता है। उपनिषदों में सत्य को ब्रह्म का आधार कहा गया है। ओऽम् को ब्रह्म का सूक्ष्म प्रतीक बताया गया है। ब्रह्मज्ञान के अन्यतम साधन के रूप में ओऽम् की उपासना (प्रणव की उपासना) करना वर्णित है। उपनिषदों में परब्रह्म के अनेक स्वरूपों का वर्णन है और उनकी व्याख्या भी की गई है। उपनिषदों में ब्रह्म चेतना के जीव में परिवर्तित होने की प्रक्रिया का वर्णन है। वह किस प्रकार अपना स्वरुप प्राप्त करता है ? उसके लिए क्या-क्या आहुतियाँ दी जाती हैं तब जाकर जीव उत्पन्न होता है।

इस प्रकार उपनिषदों में ऋषियों के चिंतन-मनन का गूढ़ रहस्य वर्णित है जोकि मनुष्य का परब्रह्म से साक्षात्कार करवाता है, उन्हें सत्य का ज्ञान करवाता है।

भाषा शैली

उपनिषदों की भाषा प्रायः गद्यात्मक है। हालांकि कुछ उपनिषद् पद्यात्मक भी हैं। गद्यात्मक उपनिषदों में विषय को आख्यानों द्वारा वर्णित किया गया है। शिष्यों की शंकाओं को आचार्यों ने सिद्धांतों के अनुसार ही दूर किया है। याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी के मध्य जो संवाद हैं वे मनुष्यों के मन में धन आदि के मोह के प्रति वैराग्य उत्पन्न करते हैं।
इस प्रकार उपनिषदों में वर्णित आख्यानों में गूढ़ रहस्यों को दार्शनिक दृश्यों द्वारा बताया गया है जिनका सहज वर्णन है।

उद्देश्य

भारतीय दर्शन की लगभग सभी धाराएँ उपनिषदों में मिलती हैं। लेकिन यदि उपनिषदों के उद्देश्य की बात की जाए तो वे मनुष्यों को सत्य ज्ञान का दर्शन कराते हैं। मनुष्यों के मन में उठने वाले प्रश्नों-ब्रह्म कौन है ? हम कौन हैं ? जन्म-मृत्यु का चक्र क्या है ? समस्त चराचर जगत् का स्वामी कौन है ? इनका संचालन कौन करता है ? मोक्ष क्या है ? आदि-आदि सभी जिज्ञासाओं का समाधान ये उपनिषद् करते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि उपनिषद् ज्ञान के भण्डार हैं और ये ब्रह्म से साक्षात्कार के माध्यम हैं।

उपनिषदों का महत्त्व

यदि कोई स्वयं को जानने की इच्छा रखता है तो वह उपनिषदों का अध्ययन करे। अर्थात् मनुष्य क्या है ? उसकी जीवात्मा क्या है ? जीवात्मा किस प्रकार स्वयं को परमात्मा में समाहित कर सकता है ? एक चिकित्सक यह जानकारी दे सकता है कि आपके शरीर में कौन-सा अंग कहाँ है ? आपका अमुक अंग क्या कार्य करता है ? आपके शरीर का तापमान क्या है ? आदि। किंतु वह आपको आपकी आत्मा का दर्शन अर्थात् आत्मा क्या है; ब्रह्म क्या है; यह नहीं बता पाएगा। वे उपनिषद् ही हैं जो मनुष्य को यह परिचय करवाते हैं कि आखिर मनुष्य है क्या?

यह ज्ञान हमें विज्ञान के किसी भी ग्रंथ में नहीं मिलेगा। एक और सबसे बड़ी एवं गूढ़ रहस्य की बात यह है कि सत्य का वर्णन नहीं किया जा सकता, चाहे कितना ही बड़ा विद्वान हो, वह सत्य का वर्णन कर ही नहीं सकता। क्योंकि सत्य को अनुभव किया जा सकता है। जैसे मान लीजिए कि हम किसी से कहें कि गुड़ मीठा है। यह बात सत्य है कि गुड़ मीठा ही होता है लेकिन यदि वह व्यक्ति जिसने गुड़ कभी न चखा हो, वह कैसे माने की गुड़ मीठा है। अब वह उसे चखेगा तब उसे सत्य का ज्ञान होगा। अर्थात् सत्य जो भी है, वह सत्य है लेकिन उसे वर्णित नहीं किया जा सकता। सत्य को अनुभव किया जा सकता है।

इसी प्रकार ब्रह्म और परमात्मा क्या है ? उसका साक्षात्कार किस प्रकार करें ? यह सत्य है कि मनुष्य को ब्रह्मज्ञान हो सकता है लेकिन वह भी दूसरों को यही बताएगा कि किस प्रकार ब्रह्मज्ञानी बनें। क्योंकि उसने ब्रह्म ज्ञान का अनुभव किया। दूसरा भी उसका अनुभव ही करेगा तब वह मानेगा कि हाँ, वह ब्रह्मज्ञान है। या मान लीजिए किसी ने ईश्वर के विराट् स्वरूप को देखा तो जो उस ईश्वर के दर्शन करता है वह उसे अनुभव करता है लेकिन वर्णित नहीं कर पाएगा कि ईश्वर कैसा है।

कहने का तात्पर्य यह है कि उपनिषदों का महत्त्व यही स्वतः सिद्ध है कि उसमें उपस्थित सत्य को इन्हें पढ़कर ही अनुभव किया जा सकता है। उपनिषदों में ज्ञान-विज्ञान का भण्डार है। उपनिषद् आत्मा-परमात्मा का अनुभव करवाते हैं। ये सत्य से परिचित करवाते हैं लेकिन फिर भी मनुष्य के लिए यह शरीर, मात्र उपभोग का साधन ही है। यह शरीर हमें (मनुष्यों को) चौरासी लाख योनियों की नैया पार करने पर प्राप्त होता है और मनुष्य दुष्कर्मों में लगा रहता है। कारण मात्र एक है-सत्य का ज्ञान न होना। यदि मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करना है तो वह ज्ञान उपनिषदों में है। उपनिषदों में मानव-शरीर का वर्णन करते हुए बताया गया है कि मानव-शरीर पाँच कोशों के आवरण से ढका है और व्यक्ति तभी मोक्ष प्राप्त कर सकता है जब वह इन आवरणों को भेदे।

पंचकोशीय मानव देह


मानव की देह में पंचकोश सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं और इसी देह में मानव की आत्मा जोकि परमात्मा अर्थात् ईश्वर का ही एक रूप है वह भी विद्यमान है। मानव देह के ये पंचकोश इस प्रकार हैं-

1.अन्नमय कोश

जब बालक जन्म लेता है तो स्थूल शरीर अन्नमय कोश होता है। कोश अर्थात् मानव देह। वह पेट से संबंध रखता है एवं लगभग 6-7 वर्ष की अवस्था तक अन्न आदि ग्रहण करता हुआ बढ़ता है। इस अवस्था तक उसे संसार का कुछ ज्ञान नहीं रहता कि मोह, माया, दुःख सुख आदि क्या हैं ? उसे सिर्फ एक ही ज्ञान होता है कि भूख लगे तो रोये आदि। धीरे-धीरे यह शरीरिक आवरण ऐसी अवस्था प्राप्त कर लेता है जहाँ उसका विकास रुक जाता है। इस शरीर को प्रारंभ से इस अवस्था तक अन्न की आवश्यकता होती है। यदि अन्न न मिले तो उसका शरीर जर्जर होता जाता है। यह शरीर मात्र अन्न पर निर्भर है अतः इसमें ब्रह्म नहीं है।

2.प्राणमय कोश

प्राण से तात्पर्य श्वास का अंदर-बाहर करना है। यह एक जैविक क्रिया है जिसके माध्यम से वायु शरीर में प्रवेश करके उसके अंगों को क्रियाशील बनती है, जिससे शारीरिक क्रियाएँ जैसे-रुधिर का आवागमन अर्थात् रुधिर परिसंचरण, भोजन का पचना, मल-मूत्र का त्यागना आदि संचालित होती हैं। इसके माध्यम से शरीर का तापमान नियन्त्रित होता है। इसका केन्द्र हृदय होता है। इसी वायु के शरीर में आवागमन के कारण हम बोल सकते हैं शब्दों को उच्चारित कर सकते हैं।
जब वायु शरीर में प्रवेश करती है तो वह पाँच प्रकार से प्रमुख प्राणों एवं पाँच प्रकार से गौण प्राणों में बदल जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर में जाकर वह दस भागों में बँट जाती है। वे दस भाग- पाँच प्रमुख प्राण एवं पाँच गौण प्राण इस प्रकार हैं-

प्रमुख प्राण

1. प्राण : यह हृदय क्षेत्र में होता है।
2. अपान : इसका स्थान गुदा प्रदेश होता है।
3. उदान : इसका स्थान कंठ में होता है।
4. व्यान : इसका स्थान पूरे शरीर में होता है।
5. समान : यह समान रूप में कंठ में होती है।


गौण प्राण

1. नाग वायु : इसमें वायु का संबंध छींक आदि से होता है।
2. कृकर वायु : इसमें वायु का संबंध भूख-प्यास लगने से होता है
3. धनंजय वायु : इसमें वायु का संबंध शरीर के पोषण से होता है।
4. कूर्म वायु : इसमें वायु का संबंध संकोचनीय क्रियाओं या संकुचन आदि से होता है।
5. देवदत्त वायु : इसमें वायु का संबंध शरीर की उस क्रिया से है जब मनुष्य को निद्रा आती है और वह निद्रा के लिए अपनी पलकों से आँखों को ढक लेता है अर्थात् सो जाता है।
प्राणवायु शरीर की समस्त क्रियाओं को संचालित रखती है। यही प्राण वायु योग से संबंधित क्रियाओं को भी संचालित करती है तभी योगी योग साधना कर पाता है। वह वायु ब्रह्म को प्राप्त करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन यह ब्रह्म नहीं है।

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