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तुलसीदास

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3092
आईएसबीएन :9788126704583

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तुलसीदास के जीवन पर आधारित कवितायें....

Tulsidas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘तुलसीदास में स्वाधीनता की भावना का पूर्ण प्रस्फुटन हुआ है। भारत के सांस्कृतिक सूर्य के अस्त होने पर देश में किस तरह अंधकार छाया हुआ है, इसका मार्मिक चित्रण करते हुए निराला ने दिखलाया है कि किस प्रकार एक कवि इस अंधकार को दूर करने की चेष्टा करता है। तुलसीदास के रुप में निराला ने आधुनिक कवि के स्वाधीनता-संबंधी भावों के उद्गम और विकास का चित्रण किया है। छायावादी कवि की तरह निराला के तुलसीदास को भी देश की पराधीनता का बोध प्रकृति की पाठशाला में ही होता है; किंतु छायावादी कवि की तरह वे भी कुछ दिनों के लिए नारी-मोह में पड़कर उस भाव को भूल जाते हैं। अंत में जो ज्ञान प्रकृति की पाठशाला में मिला था, उसका दीक्षांत भाषण उसी नारी के विश्व-विद्यालय में सुनने को मिलता है, और भविष्यवाणी होती है किः


देश-काल का शर से बिंधकर
यह जागा कवि अशेष छविधर
इसके स्वर से भारती मुखर होयेंगी।

 

इस तरह हिंदी जाति के सबसे बड़े जातीय कवि की जीवन-कथा के द्वारा निराला ने अपनी समसामयिक परिस्थितियों में रास्ता निकालने का संकेत दिया है।

 

परिचय

 

 

पद्य में कहानी कहने की प्रथा प्राचीनकाल से प्रचलित है। प्रस्तुत कविता भी एक कथा-वस्तु को लेकर निर्मित हुई है। गोस्वामी तुलसीदास किस प्रकार अपनी स्त्री पर अत्यधिक आसक्त थे, और बाद को उसी के द्वारा उन्हें किस प्रकार राम की भक्ति का निर्देश हुआ,--यह कथा जन-साधारण में प्रचलित है। इसी कथा की नींव पर कवि ने इस लम्बी कविता की रचना की है; कारण यह है कि उसने कथा-तत्त्व में और बहुत-सी बातें देखी हैं जो जन-साधारण की दृष्टि से ओझल रही हैं। तुलसी का प्रथम अध्ययन, पश्चात् पूर्व संस्कारों का उदय, प्रकति-दर्शन और जिज्ञासा, नारी से मोह, मानसिक संघर्ष और अंत में नारी द्वारा ही विजय आदि वे मनोवैज्ञानिक समस्याएँ हैं जिन्हें लेकर कवि ने कथा को विस्तार दिया है। यहाँ रहस्यवाद से सम्बन्ध रखनेवाली भावना-प्रणाली विश्लेषण करना कवि का इष्ट रहा है। कथा को प्राधान्य देने वाली कविताएँ हिंदी में शतश : हैं; मनोविज्ञान को आधार मान पद्ध में लिखी जानेवाली कविताओं में यह एक ही है।

आलंकारिक रूप में कवि ने पहले मोगलों के आक्रमण का वर्णन किया है और बताया है किस प्रकार हिन्दू-शासन-सम्बन्ध में ही नहीं पराजित हुए वरन् उनकी सभ्यता और संस्कृति को भी भारी धक्का पहुँचा। हिन्दू-सभ्यता के सूर्य का अस्त होने पर मुस्लिम संस्कृति के चन्द्रमा का उदय हुआ। इस नवीन संस्कृति के शीतल आलोक में तुलसीदास का जन्म होता है। एक दिन वह मित्रों के साथ चित्रकूट घूमने जाते हैं, वहाँ प्रकृति देख उन्हें बोध होता है, किस प्रकार चेतन के स्पर्श न पा सकने से जैसे सब जड़वत् रह गया है। प्रकृति से उन्हें संदेश मिलता है, जड़ से चेतन की ओर बढ़ने का इस रात्रि से दिन की खोज करने का। जिस माया ने सत्य को छिपा रखा है, उसका उन्हें आभास मिलता है। इतने ही संकेत से तुलसीदास का मन ऊर्ध्वगामी होकर आकाश के स्तर के स्तर पार करने लगा। मन की अत्यन्त ऊँची उड़ान से उन्होंने देखा कि किस प्रकार भारत की सभ्यता एक जाल में फँसी हुई है, जैसे सूर्य की आभा को राहू ने ग्रस लिया हो।

भारतीय संस्कृति किस प्रकार अधोगति को प्राप्त हुई इसका कवि ने यहाँ मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। इस भारतीय संस्कृति को एक लहर की तरह मुस्लिम सभ्यता आक्रांत किए हुए थी; इसी विदेशी सभ्यता की लहर के ऊपर वह आलोकमय सत्य का लोक है जो इस समय हिन्दुओं की दृष्टि से ढका हुआ है। बिना इस बीच के सांस्कृतिक आधार को पार किए सत्य तक पहुँच नहीं हो सकती।
तुलसीदास के प्राण इस अज्ञान का नाश करने को विकल हो गए किन्तु उसी क्षण वहाँ आकाश में उन्हें अपनी स्त्री के दर्शन हुए। उसी के मोह में बंधकर उनका जिज्ञासू मन नीचे उतर आता है। सारी प्रकृति ही उन्हें अपनी स्त्री के सौंदर्य में रँगी जान पड़ती है। अपने मित्रों के साथ वे लौट आते हैं। रास्ते में इसी मोह की विवेचना करते आते हैं और जैसा स्वाभाविक था वह इस मोह को ही सत्य करके मानते हैं।

इधर रत्नावली का भाई उसे लिवाने आता है और जब तुलसीदास बाजार जाते हैं, वह उनकी स्त्री को लिवा ले जाता है। घर आकर तुलसी ने देखा, वहाँ कोई भी नहीं है। बस घर से निकल पड़े और ससुराल चल दिये। उनकी श्रृंगार भावनाओं के अनुकूल रास्ते में प्रवृत्ति भी मोहक सौंदर्य में रंगी हुई जान पड़ती है।

रात्रि में एकांत हुआ उस समय तुलसीदास ने प्रिया का एक नवीन रूप देखा। समग्र भारत की सभ्यता को पुनर्जीवन देने के लिए ही जैसे विधाता ने उसे तुलसी की स्त्री बनाया था। आवेश में उसके केश खुल गए थे, आँखों से जैसे ज्वाला निकल रही थी, अपनी ही अग्नि में जैसे उसने अपने रूप को भस्म कर दिया था। तुलसी ने उसकी अरूपता देखी और सहम गए : ऐसा सौंदर्य उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। उसके शब्द उसकी अन्तरात्मा में पैठ गए और वह चलने को तैयार हो गए। रत्नावली को उस समय बोध हुआ कि यह बिछोह सदा के लिए होगा। उसके नेत्रों में आँसू भर आए, लेकिन तुलसीदास के लिए लौटना असम्भव था। वह उसे समझा-बुझाकर चल दिये। और यह विजय भारतीय संस्कृति की विजय थी। किस प्रकार तुलसी के संघर्ष का अंत होते ही अज्ञात न जाने कहाँ कहाँ हर्ष छा गया, उस सब उल्लास का वर्णन कविता में ही पढ़ते बनता है। संघर्ष का जैसा ओजपूर्ण चित्रण कवि ने किया है, वैसा ही उसका अंत भी हृदय में न समा सकने वाले भारत किंवा विश्वव्यापी उल्लास में किया है।

कवि का क्षेत्र नवीन है। रहस्यवाद का कथा रूप में उसने एक नया चित्र खींचा है। मनोवैज्ञानिक तथ्यों का निरूपण उसका ध्येय है : अतः उसे अपनी भाषा बहुत कुछ स्वयं गढ़नी पड़ी है। किस सफलता से उसने छोटी-छोटी बातों से लेकर बड़े-बड़े मानसिक घात-प्रतिघातों को अपनी वाणी द्वारा सजीव कर दिया है, यह सहृदय पाठक स्वयं समझेंगे। निराला जी अपनी कविता में ओजपूर्ण के लिए प्रसिद्ध हैं : उसका यहाँ पूर्ण विकास हुआ है। रहस्यवाद को उनके परुषत्व ने उसके अन्तर्द्वन्द्व के साथ कथा रूप में यहाँ चित्रित किया है। भाषा के साथ छंद का ओज देखते ही बन पड़ता है। हमें पूर्ण आशा है, हिंदी संसार में इस कविता की मौलिकता और उसकी महत्ता की कद्र करेगा।

 

कृष्णदास (रामविलास शर्मा)

 

शान्ति कुटीर
काशी, फाल्गुन, 95


 

(1)

 

 

        भारत के नभ का प्रभापूर्य
        शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
    अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
        उर के आसन पर शिरस्त्राण
        शासन करते हैं मुसलमान;
    है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।


(2)

 

 

        शत-शत अब्दों का सान्ध्य काल
        यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
    छाया अम्बर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;
        आया पहले पंजाब प्रान्त
        कोशल-बिहार तदनन्त क्रान्त,
    क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।

 

(3)

 

 

        मोगल-दल बल के जलद-यान,
        दर्पित-पद उन्मद-नद पठान
    हैं बहा रहे – दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,
        छाया ऊपर घन-अन्धकार—
        टूटता वज्र दह दुर्निवार,
    नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।


(4)

 

 

रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड
आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;
    निश्चल अब वही बुंदेलखण्ड, आभा गत,
        निःशेष सुरभि, कुरबक-समान
        संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान; छाया श्लथ।


(5)

 

 

        वीरों का यह गढ़, वह कालिंजर,
        सिंहों के लिए आज पिंजर;
    नर हैं भीतर, बाहर किन्नर-गण गाते;
        पीकर ज्यों प्राणों का आसव
        देखा असुरों ने दैहिक दव,
    बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।


(6)

 

 

        लड़-लड़ जो रण बाँकुरे, समर,
        हो शयित देश की पृथ्वी पर,
    अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण
        भारत के उर के राजपूत,
        उड़ गये आज वे देवदूत,
        जो रहे शेष, नृपवेश सूत-बन्दीगण।


(7)

 

 

        यों मोगल-पद-तल प्रथम तूर्ण
        सम्बद्ध देश-बाल चूर्ण-चूर्ण;
    इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद;
        संचित जीवन की क्षिप्रधार,
        इसलाम - सागरभिमुखऽपार,
    बहतीं नदियाँ, नद; जन-जन हार वशंवद।


(8)

 

 

        अब, धौत धरा, खिल गया गगन,
        उर-उर को मधुर, तापप्रशमन
    बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।
        झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण
        पृथ्वी के धरों पर निःस्वन
    ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन !


(9)

 

 

        भूला दुख, अब सुख-स्वरित जाल
        फैला-यह केवल-कल्प काल—
    कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता;
        प्राणों की छवि मृदु-मन्द-स्पन्द,
        लघु-गति, नियमित-पद, ललित-छन्द;
    होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।


(10)

 

 

        सोचता कहाँ रे, किधर कूल
        कहता तरंग का प्रमुद फूल ?
    यों इस प्रवाह में देश मूल खो बैठता;
        ‘छल-छल-छल’ कहता यद्यपि जल,
        वह मन्त्र-मुग्ध सुनता ‘कल-कल’;
    निष्क्रिय; शोभा-प्रिय कुलोपल ज्यों रहता।


(11)

 

 

        पड़ते हैं जो दिल्ली-पथ पर
        यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,
    वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;
        यह एक उन्हीं में राजापुर,
        है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,
    ज्योतिश्चुम्बनी कलश-मधु-उर छाया में।


(12)

 

 

        युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन
        समधीत – शास्त्र – काव्यालोचन
    जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;
        आयत दृग, पुष्ट-देह, गत-भय,
        अपने प्रकाश में निःसंशय
    प्रतिभा के मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;


(13)

 

 

        नीली उस यमुना के तट पर
        राजापुर का नागरिक मुखर
    क्रीड़ितवय-विद्याध्ययान्तर है संस्थित;
        प्रियजन को जीवन चारु, चपल
        जल की शोभा का-सा उत्पल,
    सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल, दिक-दिक।


(14)

 


        एक दिन, सखागण संग, पास,
        चल चित्रकूटगिरि, सहोच्छवास,
    देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;
        वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर
        कुछ खुलती आभा में रँगकर,
    वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।


(15)

 

 

        केवल विस्मित मन, चिन्त्य नयन;
        परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन—
    ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,
        हो मध्य तरंगाकुल सागर,
        निःशब्द स्वप्नसंस्कारागर;
    जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देखा।

 

(16)

 

 

        तरु – तरु वीरुध-वीरुध् तृण-तृण
        जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,
    जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;
        भर लेने को उर में अथाह,
        बाहों में फैलाया उछाह;
    गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।


(17)

 

        कहता प्रति जड़, ‘‘जंगम-जीवन !
        भूले थे अब तक बन्धु प्रमन ?
    यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;
        तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,
        देखो यह धूलि-धूसरित छवि,
    छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।


(18)

 

 

        ‘‘हनती आँखों की ज्वाला चल
        पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
    ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
        वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
        है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
    केवल दुख देकर उदरम्भरि जन आते।

 

(19)

 

 

        ‘‘फिर असुरों से होती क्षण-क्षण
        स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;
    वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब;
        इस जग के मग के मुक्त-प्राण !
        गाओ-विहंग !-सद्ध्वनि गान,
    त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।


(20)

 

 

‘‘लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
        पाषाण-खण्ड ये..करो हार,
    दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
        अन्यथा यहाँ क्या ? अन्धकार,
        बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
    झरने झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का !




                

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