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कोरजा

मेहरुन्निसा परवेज

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :231
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3060
आईएसबीएन :81-7055-578-7

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आज के लेखक का मौलिक सृजन

Korja

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात् कथाओं का पुनसृजन उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता। वह उनका युग सापेक्ष अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के बीज से उत्पन्न प्रत्येक वृक्ष पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतन्त्र अस्तित्व होता है वह, न किसी का अनुशरण है, न किसी का नया संस्करण! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है।

मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली-मुहल्ले, नगर-देश, समाचारों तथा समकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है: और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की सम्पूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यासकार के ‘प्राचीन’ में घिरकर प्रगति के प्रति अंधे हो जाने की सम्भावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसायिक पत्रकारिता में बंदी हो एक काल-खंड का अंग होते हुए भी, खंडो के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है।
‘नसीमा, कितनी अजीब बात है। बारहा मैंने समझा कि मैं सब कुछ भूल गई हूँ। पर नहीं, अपने आप को बेवजह थकाया। नसीमा, मैं ही गलत हूँ। मैं पिछला कुछ नहीं भुला पाई हूँ, बूँद भर भी नहीं। आज भी मेरा माझी उसी जगह, वहीं खड़ा है, जहाँ से मैं चली थी जहाँ से मैंने उसे छोड़ा था,’ मोना दीदी अपने आप बोलती जा रही थी, जैसे कोई शक्ति उनसे उनके गुनाह कबूल करवा रही है, ‘इकट्ठे इतना प्यार, इतना स्नेह हो सकता है उन बीतें हुए दिनों को, गुजरे हुए हादसों को ! बस, एक बार-सिर्फ एक बार और जीने का मन करता है, नसीमा।’...

कोरजा

सिविल लाइन। डामर रोड के किनारे दूर से बने बँगलों में नसीमा आपा का मकान ढूँढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि शादी की तामझाम दूर से ही देखी जा सकती थी। बँगले के सामने शामियाना लग रहा था, रंग-बिरंगी झंडियों से बँगले को सजाया जा रहा था, सामने मैदान की घास छीली जा रही थी, याने पूरी तरह से शादी की तैयारियाँ हो रही थीं।
रिक्शा टूटे लकड़ी के गेट के सामने रुका। गेंद खेलते बच्चे दौड़कर रिक्शे के करीब आ गए, और देखने लगे। नसीमा ने रिक्शेवाले को पैसा देते हुए बच्चों  से पूछा, ‘‘क्यों, यही है न रिजवी साहब का बँगला ?’’
‘‘जी हाँ, यही है, पर आप किसके यहाँ जाएँगी ? क्योंकि वह पुलिस चौकी के बाजू मोड़ पर बना बँगला रिजवी कप्तान का है,’’ बच्चों के झुण्ड में से सब से चुस्त व चालाक दिखनेवाले लड़के ने कहा, ‘‘नहीं, वहाँ नहीं, मुझे डिप्टी कलेक्टर रिजवी के यहाँ जाना है।’’ नसीमा ने मुस्कराते हुए लड़के से पूछा-‘‘तुम्हारा नाम क्या है, कहाँ रहते हो ?’’

‘‘रिजवान अहमद, मेरा यही घर है। रिजवी साहब का बेटा हूँ।’’ ‘‘तो तुम आपा के बेटे हो ?’’ नसीमा ने प्रसन्नता से कहा। बरामदे की सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आते आपा दिखीं, उन्होंने बैंगनी फूलोंवाली साड़ी पहन रखी थी, पैरों में हरी पट्टेवाली रबर की स्लीपर थी। शरीर से आपा भारी हो गई थीं पर खूबसूरत अभी भी कम नहीं लग रही थीं।
‘‘अरे नसीमा, आओ, यह बच्चों ने तुम्हें घेर रखा है ! रिजवान यह नसीमा आण्टी हैं। चलो, सामान चटपट कमरे में पहुँचाओ’’, आपा ने बच्चों को काम सौंपते तथा नसीमा को गले से लगाते हुए कहा।
बच्चों ने रिक्शे पर रक्खा सामान तेजी से उठाकर रिक्शे को खाली कर दिया, जैसे बन्दर की टोली आँगन में ककड़ी की बेल पर टूट पड़ी हो और यह जा वह जा !..
‘‘रत्नों की शादी हो रही है, मुबारक हो आपा, अब तुम वाकई सास-जैसी लगने भी लगी हो !’’
‘‘और तू ? तू तो अभी भी वही छोटी-सी नसीमा लगती है जिसकी शलवार हमेशा ऊँची हो जाया करती थी, और नंगे टखने दिखाते घूमती रहती थी, है न।’’ आपा ने हँसते हुए कहा।
वह दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे अंदर की ओर बढ़ीं, बच्चों ने फुरती से सामान कमरे में रख दिया था तथा नसीमा के आने का ऐलान भी कर दिया था। बाहर से आए मेहमान-रिश्तेदार कमरे में जमा हो गए थे, और कुछ औरतें परदा उठा-उठाकर उत्सुकता से इधर झाँक रही थीं।

‘‘ले, तू तो शायद किसी को पहचानती नहीं होगी, मैं परिचय करा देती हूँ-यह खाला हैं यह...’’ आपा शुरू हो चुकी थीं। नसीमा सब को सलाम कर रही थी साथ ही सब की ओर मुस्करा-मुस्कराकर देख भी रही थी। लंबी यात्रा की थकान और आते ही लंबे-लंबे परिचय से थकावट और बढ़ रही थी।
‘‘रन्नो की शादी न होती तो शायद तू आती भी नहीं-है न ?’’ आपा ने उसे सोफे पर बैठाते हुए कहा और फिर रिजवान से बोलीं-‘‘जा, बुआ से कहना-जल्दी चाय और नाश्ता भेजे।’’
‘‘आपा, मैं रहती भी तो कितनी दूर हूँ...रिश्तेदारों को मैं भूल गई या रिश्तेदार मुझे भूल गए ? मैं तो फिर भी आ जाती हूँ, आप लोग तो कभी भूले से याद भी नहीं करते, ईद पर ईद-कार्ड ही डाल दिया करो न !’’
‘‘भई, तुमसे बातों में कौन जीत सकता है ?’’ चाय शायद बनकर पहले से तैयार थी या रिजवान का पहले से हुक्म चल चुका था, क्योंकि तुरंत चाय आ गई। गरम-गरम चाय मिल जाए इससे बड़ी बात नसीमा के लिए दूसरी नहीं है। नसीमा चाय पी रही थी, आँखें नीचे झुकी हुई थीं कि आँखों के आगे पीली-पट्टी की स्लीपर में फँसे, हल्दी रंग के गरारे में, हल्दी की रंगत लिये पैर आ खड़े हुए। नसीमा ने फिर उठाकर देखा। हल्दी में डुबोकर रँगे गए गरारे-कुरते और बारीक क्रोशिया की मख्खी बनी ओढ़नी में कोई सामने खड़ा था, पल-भर को नसीमा चकरा गई। लगा-आपा एक बार फिर जवान होकर सामने आ गई हैं। वही-सब-कुछ वही ! वही नाक-नक्शा, वही रंगत, और चेहरे के वही भाव।

‘‘रन्नो है’’, आपा ने उसे हैरान देखकर कहा, ‘‘और रन्नो, यही है नसीमा आंटी।’’
रन्नो करीब आ गई और उसने उठकर हल्दी की सोंधी और पवित्र खुशबू में बसी उस लड़की को जल्दी से लिपटा लिया।
‘‘आपा, लगता है एक साथ दो जन्म लिखाकर लाई हो ! रन्नो को देख तुम्हें अपनी याद नहीं आती-क्यों ?’’
रन्नो झेंपकर मुस्करा दी, आपा उदास होकर कहीं खो-सी गईं। रन्नो के यौवन को नसीमा अपनी आँख में भर लेना चाहती थी। पतली गोरी-गोरी कलाइयाँ, लंबी आँखें, छोटी-सी ठोड़ी, गोल-सा चेहरा...।
नसीमा को कुछ काटने लगा। सोचा नहीं था कि समय इतनी जल्दी वैसी ही रंगत वैसी है खुशबू लिये पलटता है !
रन्नो को शाम का चिकसा (हल्दी) लगाने का समय हो गया था क्योंकि दो लड़कियाँ उसे बुलाने आईं। वह उठकर उनके साथ चली गई।
‘‘एहसान भाई ? तुम्हें याद है आपा, मैं तुम्हें कितना परेशान करती थी न !’’
आपा चौंक गईं। नसीमा ने जानबूझकर सुई चुभोया था, यह देखने के लिए कि इस भरे हुए गुब्बारे में अभी हवा बची है या नहीं। वह इस चुभन से सिसक उठीं।
‘‘चुप ! पुरानी बातों को उधेड़ती है !’’
‘‘यहाँ कोई दूसरा तो है नहीं, अगर सुन भी ले तो क्या समझेगा ? बताओ न कहाँ हैं वह ?’’

‘‘पता नहीं नसीमा, एक बार उनकी खाला का लड़का, तुझे फटी हाफपैंट पहने रफीक की याद तो है न ?-वही अब मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हो गया है। एक बार यहाँ भी पहुँच गया। उसे देख मैं तुरंत पहचान गई, वही चेहरा। कोई फर्क नहीं। काफी देर बैठा काफी बोलता रहा, पर मैं चुप उसे देखती रही। मुझसे बोला ही नहीं जा रहा था, उसी ने बताया कि एहसान रायपुर में है। शादी कर लिया है दो बेटे हैं। उसी ने रफीक को मेरा पता बताया था और सलाम भी भेजा था।’’
आपा बोलते-बोलते थोड़ा रुकीं, जैसे साँस ली हो, ‘‘बड़ा अजीब लगा, इतने दिनों बाद, जबकि मैं सब भूलकर अपनी गृहस्थी में लग गई, तब अचानक उससे कुछ पूछा, वह अपने-आप बोलता गया था।’’
‘‘आपा, मोहब्बत कभी मरती तो नहीं, बल्कि उसकी खुशबू बाद में और तेज होकर आती है।’’
‘‘हाँ, वह दिन कुछ और ही थे नसीमा, अजीब उतावली, ब्रेसब्री से भरे दिन ! अब उन्हें याद करने से क्या फायदा ?’’ आपा ठंडी साँस खींचते बोली, ‘‘अच्छा, छोड़ इन बेकार की बातों को-अब अपनी कह, जमीर मियाँ कैसे हैं ?’’ आपा ने नसीमा को पुरानी बातों से खींचते हुए कहा।

अब तक कमरे में अँधेरा हो गया था, बातों में कुछ पता नहीं चला। आपा ने उठकर खट्ट से ट्यूब लाइट जला दिया। झक ! तेज रोशनी में एक-दूसरे को देख वह दोनों चौंक पड़ी, जैसे आँखें चकाचौंध हो गई हों।
कमरे में कुछ लड़कियाँ निहारी सजा रही थीं। दरी पर उबली सेवाइयाँ से भरे बड़े-बड़े शीन रखे हुए थे। उन्हें पान के पत्ते से बराबर करके लड़कियाँ तरह-तरह के रंगीन फूल बना रही थीं। शेर लिख रही थीं। हर लड़की एक-एक शीन पर अपना हुनर उँड़ेल रही थी। उभरती उम्र का शोर कमरे में भरा था। आपस में हँसी-मजाक भी चल रहा था।
नसीमा एक तरफ बैठ गई और ध्यान से उसके हुनर को सहराती हुई दृष्टि से देखने लगी।
‘‘आप पान की गिलौरी में चाँदी के बर्क लगा दीजिए न’’, एक लड़की ने-जो खुद दूल्हे के नए सूट में इत्र लगा रही थी नसीमा को बेकार बैठे देख काम सौंपा।
तभी आपा कमरे में आईं, ‘‘नसीमा तुझे भी निहारी में जाना है, जल्दी से तैयार हो या बस, बैंडवाले आ रहे हैं, औरतें कारों में जाएँगी।’’
‘‘आपा निहारी में इन लड़कियों को जाने दो, वहाँ मैं जाकर बोर हो जाऊँगी।’’
‘‘क्यों, तू क्या बूढ़ी हो गई ?’’
‘‘पर शादीशुदा तो हूँ !’’

‘‘ओफ्फोह् ! अब नखरे न दिखा। चल, दूल्हे को ही देख आना।’’ ‘‘दामाद दिखाने को बड़ी बेचैन हो आपा ? भई इतनी बेताबी तो हमने अपने दूल्हे भाई को भी देखने में नहीं की।’’ नसीमा ने शरारत से कहा, ‘‘बड़ी नटखट है’’, आपा झेंप गई।
‘‘तुमने अपने पानदान का वह मशहूर पान अपने हाथों अभी तक मुझे नहीं खिलाया जिसके लिए एहसान भाई दीवाने...’’
आपा ने पूरा वाक्य बोलने के पहले ही नसीमा को जल्दी से वहाँ से उठा दिया। नसीमा ने अपने को उस कमरे से बाहर जाने के लिए ही यह बहाना खोजा था, क्योंकि नसीमा ने महसूस कर लिया था कि उसके आने से आपस में ठिठोली करती शोख लड़कियाँ एकाएक चुप हो गई थीं।
आपा के कमरे में आकर गद्देदार तख्त पर नसीमा लेट-सी गई। आपा ने पानदान खींचा, इधर वह पान ज्यादा खाने लगी थीं, साथ में तंबाकू भी।
‘‘तुमने यह शादी अपनी पसंद से तय की या रन्नो की पसंद से ?’’
‘‘रन्नो की पसंद है। दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं। अब यह पहले-सा वक्त तो रहा नहीं नसीमा, जब प्यार को घरवालों से छिपाकर करना पड़ता था, जबान से निकलता तक नहीं था कि हम फलाँ से प्यार करते हैं। जहाँ-माँ-बाप ने रिश्ता तै कर दिया, बस वहीं चले आए।’’ आपा ने पान की गिलोरी नसीमा को दी और खुद भी एक मुँह में रखकर बोलीं, ‘‘वक्त बदल गया है नसीमा, उसके साथ-साथ सब बदल गया है।’’
‘‘तुम्हें पुरानी बातें याद हैं आपा ?’’ नसीमा ने पूछा।

‘‘सब याद है नसीमा, पर अब वह कच्ची उम्र भी तो नहीं रही। अब तो गृहस्थी की झंझटें निपटाते ही वक्त निकल जाता है। पुरानी यादों के लिए किसे फुरसत है ?’’ आपा ने ठंडी साँस ली, ‘‘रन्नो की शादी के बाद तो अब मुझ पर और भी जवाबदारियाँ होंगी। आज सास बन रही हूँ कल नानी बन जाऊँगी। बस। औरत इन्हीं रिश्तों की भँवर में ही तो गुम हो कर रह जाती है...खो जाती है।’’
‘‘अरे हाँ, मैं भी कैसी भुलक्कड़ हूँ’’ आप थोड़ी देर चुप रहकर दोबारा बोलीं, ‘‘तेरा सब से परिचय कराया पर असली लोगों से मिलाना ही भूल गई। दरअसल वह लोग पिक्चर चले गए थे, थोड़ी देर पहले ही आए हैं।’’
आपा उठीं और दूसरे कमरे में चली गईं। नसीमा हैरान थी कि कौन से लोगों से मिलाना आपा भूल गई थीं ? थोड़ी देर में लौटीं तो उनके साथ तीन जवान लड़के थे।
‘‘नसीमा, पहचान तो यह कौन हैं ?’’ आपा उसे और हैरान करती बोलीं।
नसीमा को परेशान देख आखिर आपा खुद ही बोलीं, ‘‘जानती है रफीक, शफीक और यह छोटा मुन्नू है, पहचाना ?’’
नसीमा को जैसे करेंट छू गया। आँखें डबडबा गईं। सच यही ऊँचे-ऊँचे जवान चेहरे क्या बरसों पहले के रफीक, शफीक और मुन्नू हैं ? फटे चिथड़े पहने, दो टाइम के खाने को तरसते क्या वही हैं यह ?

‘‘रफीक, तुझे तो शायद नसीमा की याद्दाश्त होगी। तू हमेशा नसीमा के साथ करेले तोड़ने जाता था न ?’’ आपा ने रफीक से कहा।
रफीक ने हाँ में सिर हिलाया और नसीमा के पास चला आया, शफीक को भी थोड़ी-थोड़ी याद थी। नसीमा के खुशी और पीड़ा के मारे आँसू निकल पड़े।
‘‘जानती है नसीमा, रफीक ने जगदलपुर में बहुत बड़ी दरजी की दूकान खोल ली है। कई नौकर रख लिये हैं। दस-पंद्रह मशीनें हैं इसकी दूकान पर। सब से बड़ी दूकान है जगदलपुर में इसकी।’’
‘‘सच !’’ और नसीमा ने प्यार से तीनों को समेट लिया, ‘‘साजो खाला कहाँ है आपा आजकल ?’’
‘‘ओह !-साजो खाला अब इस दुनिया में कहाँ है नसीमा ? नानी के मरने के बाद थोड़े ही दिनों में साजो खाला को टाइफाइड हो गया था। बाद में वह सँभल न पाई, उनके दोनों पैर बैकार हो गए थे। घसीट-घसीटकर चलती थी। एक बार मैं मिलने जगदलपुर गई थी तो मुझे देख रोने लगी। कहती थी-गुनाहों की सजा खुदा ने मुझे दी है रब्बो। पर वह गुनाह क्या मैंने अकेले, अपने लिए किए थे ?’’

‘‘सच है आपा, साजो खाला ने जो भी गुनाह किए उनमें हम सब शामिल थे। हम सब के लिए किये थे उन्होंने।’’
‘‘गुनाह’’, नसीमा ने कहा, ‘‘आज मैं सोचती हूँ आपा, तो बड़ा अजीब-सा लगता है क्या उन दिनों बिखरे-छितरे लोग ही नानी के घर पनाह ढूँढ़ने आ जाते थे ? नानी के उस पुराने, गरीब से घर में कितनी मजबूर जिंदगियाँ साँस ले रही थीं। अपने में दूसरों के इतिहास को समेटकर रखवाली करती थीं नानी।’’
उस शाम इकट्ठे बैठे कितनी-कितनी स्मृतियों को साथ जी लिया था सब ने। कितने बीते हुए जख्मों को सहलाया था।
रन्नो की शादी में कब के बिछड़े हुए लोग फिर एक बार आ मिले थे, पर अब सब-कुछ कितना बदल गया था। कितना अजीब है-इंसान वहीं रहते हैं, पर यादों पर जिंदगी के पहरे लग जाते हैं और जिंदगी अपने ढंग से इंसान को कहाँ से कहाँ ढकेल देती है। रन्नो, आपा, नसीमा, रफीक, शफीक और मुन्नू सब ने अपने-अपने ढंग से याद किया था बीते हुए कल को। सब इकट्ठे एक छत के नीचे रह चुके थे, पर आज इतने बरसों बाद कितना अजनबीपन महसूस हो रहा था।
बाहर मंडप में दहेज सजा हुआ था। नीले चूड़ीदार पैजामेवाला सूट पहने एक लड़की कागज पेन लिये लिस्ट बना रही थी। घर की दो-तीन नौकरानियाँ दहेज के आस-पास खड़ी पहरा दे रही थीं।

रेशम, जर्र, मखमल की चमक-दमक लिये दुल्हन के जोड़े सजे थे। शानदार चमकता नया पलंग, पलंग पर खूबसूरत मखमल का बिस्तर और रंगीन गोटे टँकी मसकरी, महीन चुन्नटों से भरी दुलाई, झल-झल चमकचे स्टील और काँच के डिनर-सेट, टी-सेट और दीगर सामान का अंबार था, नई पॉलिश की सोंधी महक लिए फर्नीचर था। और बेहद उत्सुक, ईर्ष्यालु कई-कई हजार आँखें थीं।...
जुलवे की रस्म अभी-अभी हुई थी। दूल्ला-दुल्हन को नए बिस्तर पर बैठाया गया था। इसलिए चादर कसमसा-सी गई थी। दुल्हन और दूल्हे के सेहरे के ताजा फूल कहीं-कहीं टपक गए थे, और अपने होने का एहसास दिला रहे थे।
अंदर कमरे में अभी फिर रस्म चल रही थी। दूध और सेवाइयाँ दोनों को खिलाया जा रहा था। नई-नई मेंहदी की खुशबू से बसे हाथों से दुल्हन को दूल्हे को सेवाइयाँ खिलाना था और दुल्हन की कुँआरी उँगलियों को काटते-छीनते हुए दूल्हे को लूटकर खाना था। इस रस्म में दुल्हन का साथ उसकी बहनें या चाचियाँ देती हैं, वही दुल्हन के हाथ को पकड़े रहती हैं। जब दूल्हे मियाँ खाने झपटते हैं, झट दुल्हन का हाथ पीछे खींच लिया जाता है। इसी तरह छका-छकाकर दूल्हे को सात या पाँच निवाले खिलाये जाते हैं। दूल्हे की पारी के वक्त तो बस दूल्हे के हर निवाले को उसके होंठों तक ले जाकर छुआना होता है।

यह रस्म है तो छोटी पर नई उम्र की लड़कियों के लिए बड़ी ही मजेदार होती है। वही दुल्हा- दुल्हन को घेरे शोर करती खड़ी रहती हैं।
चुस्त पिंडलियों पर कैसे रंग-बिरंगे पैजामे, महीन चुन्नटों और जरी की गोट से सजे गरारे-सरारे। प्याजी, नीले सुर्ख, गुलाबी, बैंगनी शिफॉन और टेरलीन की ओढ़नियाँ जिन पर मुकेश, सलमे-सितारे और जरी की खूबसूरत लेस से टँके, इत्र में बसाए गए दुपट्टे, जवान शरीर और जवान दिख रहे थे। तरह-तरह के जेवर-गुलुबंद चंपावली, वैजंतीमाला और हार, नेकलेस, चेन। और न जाने क्या-क्या जेवर की चमक थी। चूड़ियों और कंगन की आवाज अलग पहचानी जा सकती थी। कुँआरी मुस्कराहटें और ठहाके घर की दीवारों तक को कँपा रहे थे।

नसीमा दिन-भर सिर्फ काम की देख-रेख में चहलकदमी करती हुई ही काफी थक गई थी। चेहरा उदास-उदास थकान की वजह से लग रहा था। जी चाह रहा था कब यह हंगामा खत्म हो और अपने कमरे में जाकर बैठ जी-भरकर बातें कर ले; पर अभी कहाँ फुरसत होनेवाली थी, अभी तो नौ बज रहे थे और विदाई होते-होते एक बजनेवाला था।
बाहर मरदाने में डिनर चल रहा था। बिरयानी, कोरमा मुर्ग-मुसल्लम, सींककबाब, कलिया दही का रायता, बरकी-पराठे, शाही टुकड़े, आलू का हलवा और न जाने क्या-क्या, एक-से-एक खाने की खुशबू से सारा आसपास का वातावरण महक रहा था। ड्रम के पास अपने चिकने-चिकने हाथ धोती और टावेल से पोंछते हुए लोग दिख रहे थे।
कमरों और मंडप में औरतें ही औरतें भरी थीं। बच्चे मुँह में पान के बीड़े ठूँसे, बीच-बीच में हो रहे थे, आज इन्हें न कोई रोकनेवाला था न टोकनेवाला, आज तो इन्हीं का राज था। फूलों की क्यारियों को हाथ धो-धोकर उजड्ड किस्म के मेहमानों ने खराब कर दिया था, शादी के घर से महकते फूलों की गंध, एक-से-एक बढ़िया खानों की गंध, नई-नई साड़ियों की गंध, तरह-तरह के सेंट-इत्र, मीठे पान, जवान और बूढ़े शरीरों की पसीने की गंध का बोझ उठाये हवा धीरे-धीरे रंगीन झंडियों को छू-छूकर शैतानी से भाग रही थी।

रन्नो को पुरानी तथा बूढ़ी औरतों ने रुला-रुलाकर काफी हलकान कर दिया था। फर्श पर कालीन बिछा था, जिस पर दूल्हा-दुल्हन को बिठाया गया था। एक कटोरी में संदल रखा था और एक बड़ी-सी स्टील की थाली में रुपए बढ़ते जा रहे थे। जो भी औरत संदल लगाने आती रन्नो के गले में हाथ डालकर रोने लगती। नसीमा की इच्छा हो रही थी कि एक-एक को डाँटकर भगा दे, पर साहस नहीं हुआ। दूल्हे मियाँ मुँह पर रुमाल रखे काफी व्याकुल से हो रहे थे, शायद रन्नो की हालत उनसे भी देखी नहीं जा रही थी।
अशफाक भाई याने रन्नो के अब्बा और आपा के शौहर आए और बेटी का हाथ अपने समधी के हाथ में सौंपने लगे तब तो माहौल और रंजीदा हो उठा, औरतें ऊँचे स्वर में रोने लगीं। काफी देर तक यह रस्म चली, याने पहले अशफाक भाई ने बेटी सौंपी फिर आपा ने रोते हुए अपनी समधिन को बेटी सौंपी।
काफी देर बाद जब माहौल का घुटा-घुटापन खत्म हुआ तथा रन्नो की सास थाली में पड़े रुपयों को गिनने लगी तब रन्नो ने नसीमा की ओर मुँह किया, ‘‘आंटी मुझे बाथरूम ले चलो।’’
नसीमा ने खड़े होकर धीरे-से उसे सहारा देकर खड़ा किया। उसके लाल गोटे और सलमा-सितारों की गंगा-जमना से झलमलाते महजर को चारों ओर से समेटकर उसके हाथ में पकड़ा दिया, और उसके फर्शी गरारे को थोड़ा ऊपर उठाकर मेहंदी-रचे पैरों में लाल मखमल की जर्रदार मोती-टँकी जूतियाँ पहना दीं।

बाथरूम के पास आकर रन्नो ने जल्दी से महजर निकाल दिया, वह बहुत बेचैन सी लग रही थी।
‘‘आंटी अंदर आकर दरवाजा लगा लो।’’ नसीमा ने अंदर से बाथरूम का दरवाजा लगा लिया। रन्नो जल्दी से नीचे बैठकर उल्टी करने लगी। नसीमा आश्चर्य में भरी जल्दी से महजर को स्टैंड पर रख उसकी ओर बढ़ी।
रन्नो एक हाथ से नसीमा को पकड़े, बहुत बेचैन होकर उल्टी करने लगी। नसीमा उसकी पीठ सहलाती रही। थोड़ी देर बाद निढाल-सी उठी और नसीमा के कंधे पर आ गिरी। नसीमा हड़बड़ाकर उसके भारी शरीर को सँभाले रही।
अचेत रन्नो को जब नसीमा ने बड़ी ही मुश्किल से लाकर पलंग पर लिटाया तो कमरे में कोई नहीं था, सब बाहर मंडप में थे। नसीमा ने मन-ही-मन खुदा को धन्यवाद दिया।
नसीमा ने फैन फुल स्पीड में खोल दिया।
लाल गोटे-टँके रेशमी जोड़े में और जड़ाऊ गहने, नाक में बड़ी-सी सरजे की नथ पहने रन्नो परी लग रही थी। उसे बेहद नूर खुला था।

‘‘क्या हुआ, इतनी देर कैसे लगा दी ?’’ आपा इसी तरफ लपककर आती हुई बोलीं।
‘‘आपा, इसे गश आ गया है, थोड़ा सँभल जाने दो।’’
आपा के चेहरे पर कई रंग आए, कई रंग गए, फिर वह नसीमा के करीब आ गई और उसका हाथ दबाते हुए बोली,‘‘नस्सो इसे दिन चढ़े हैं, दोनों एकदम खुलकर साथ रहते थे। मेरी ही जिद पर यह शादी जल्दी हो रही है, वरना, यह दोनों को तो कोई चिंता नहीं थी, क्या जमाना आ गया है !...’’
आपा ने बहुत दिनों बाद नसीमा को अपने उसी पुराने नाम से पुकारा था जो बहुत पहले, जब आपा कुँआरी थी तब पुकारती थी।
रन्नो की इस अवस्था की जानकारी से नसीमा को कुछ खरोंच गया। कुछ उधड़-सा गया, और जाने क्यों पुरानी बातें एक-एक कर उसे याद आने लगी थीं।


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