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सबसे बड़ा सिपहिया

वीरेन्द्र जैन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3059
आईएसबीएन :81-7055-163-3

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सबसे बड़ा सिपहिया

Sabse Bada Sipahiya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सबसे बड़ा सिपहिया

1

 

जब बस अड्डे पर पहुँची, सुबह के साढ़े नौ बजे थे। बस से उतरते ही आनन्द को सीधे दफ्तर जाना चाहिए था, मगर पूरे एक सप्ताह की भाग-दौड़ ने शरीर को इतना थका दिया था कि अब उसे आराम देना आवश्यक हो गया था। शरीर की इस माँग को नज़र अंदाज करने का अर्थ था बीमारी को निमंत्रण। ऐसी स्थिति में दफ्तर न जाने का फैसला करके वह कालोनी की ओर जाने वाली लोकल बस में जाकर बैठ गया।

आनंद बतौर उप-संपादक सागर पत्रिका समूह से संबद्ध है। अपने संस्थान की प्रमुख पत्रिका ‘सागर’ के लिए उसने पिछले सप्ताह अपने प्रदेश में आए नए आई.जी. पुलिस को इंटरव्यू किया था। संपादक की इच्छा थी कि इंटरव्यू के साथ आई.जी. के अतीत से संबंधित सामग्री भी प्रकाशित हो। इसीलिए उनसे संबंधित अन्य सामग्री जुटाने की जिम्मेदारी भी संपादक ने आनंद को ही सौंप दी थी।

ये साहब आई.जी. के रूप में नियुक्त होने से पहले कई वर्षों तक एक छोटे-से प्रदेश में सेवारत रहे थे। एक सामान्य सिपाही के रूप में पुलिस में भर्ती होने के बाद से डी.एस.पी. के पद तक की यात्रा वहीं तय की थी। संपादक के आदेश से आनंद पिछले पूरे सप्ताह उस प्रदेश के विभिन्न नगरों में घूम-घूमकर सामग्री एकत्रित करता रहा था। फलस्वरूप उसे आई.जी. की ‘कर्तव्यपरायणता’ से जुड़ी ऐसी बहुत-सी जानकारियाँ मिलीं जिनके प्रकाशन से उनकी उपलब्धियाँ, कारगुजारियों काम करने का ढंग हथकंड़े महत्त्वाकांक्षाएँ-यानी आई.जी. का समग्र रूप पाठकों के सामने आता।

और यह सब इतनी आसानी से नहीं हुआ था कि यों ही भुलाया जा सके। इसके लिए उसे रात-दिन एक करना पड़ता था। एक तो पुलिस महकमें का आदमी, वह भी प्रधानमंत्री से व्यक्तिगत रूप से प्रशंसित और उनकी इच्छा से एक छोटे से प्रदेश से अदना-से डी.एस.पी. से सीधा इस सबसे बड़े प्रदेश का आई.जी. बनाया गया और जो जल्द ही या तो केन्द्र में बुला लिया जानेवाला था। ऐसे व्यक्ति के बारे में कौन मुँह खोले ! और वह भी ऐसे व्यक्ति के सामने जो पत्रकार है, और प्रशस्ति गान नहीं, उसकी कमजोरियों, नाकामियों के बारे में भी जानना चाहता हो ! आनंद को इसी बात की ज्यादा खुशी थी कि इन सब विरोधाभासों के बावजूद उसने लोगों से अपने मतलब की बातें उगलवा ही लीं।

कालोनी के स्टैण्ड पर उतरकर आनन्द अभी अपनी गली की ओर मुड़ा ही था कि सामने से रमेशजी को आते हुए देखकर उसे हैरानी हुई। रमेशजी आनंद के पड़ोसी होने के साथ-साथ सहकर्मी भी हैं। वे भी सागर पत्रिका समूह में बतौर फीचर राइटर काम करते हैं। आनंद की जानकारी के मुताबिक आज इस समय उन्हें दूसरे शहर में होना चाहिए था। वहाँ आज से अग्रवाल सम्मेलन होने वाला था जिसकी रिपोर्टिंग के लिए रमेशजी का जाना लगभग पंद्रह दिन पहले ही तय हो चुका था।
आनंद के एकदम करीब पहुँचते ही रमेशजी बोले, ‘‘आनंदजी, एक दुखद सूचना है आपके लिए। कल रात आपके घर चोरी हो गई है। चोर आपके घर का ताला खोलकर घुसे और आपका सब सामान खंगालकर जाने क्या-क्या ले गए। उन्होंने आपकी बहुत-सी चीजें बाहर सड़क पर फेंक दी थीं, जिन्हें मैंने यह सोचकर भीतर रख दिया कि कहीं इन्हें लावारिस समझकर कोई उठा न ले जाए। मुझे आपके आने की सूचना मिल जाती तो मैं सामान वैसा ही पड़ा रहने देता। मगर आपको तो मालूम ही है कि मुझे आज बाहर जाना था। आपके यहाँ न होने की वजह से मैं नहीं गया। संपादकजी को चोरी की सूचना देने के लिए निकला ही था कि आप नजर आ गए।

चोरी का दुखद समाचार सुनकर आनंद का मन खिन्न हो गया। अभी तीनेक साल ही तो हुए जब चोर उसका पूरा सामान समेट ले गए थे, जिसकी वजह से पत्नी ने उसे कॉलोनी बदलने को बाध्य कर दिया था। भला इतने कम समय में एक अदना-सा पत्रकार ऐसा क्या जमा कर सकता है जिसे चोर चुरा सकें ! उसे चोरों पर तरस आया। नाहक ही बेचारे ने श्रम किया।

पूरा मोहल्ला आनंद के दरवाजे पर मौजूद था। ज्यादातर महिलाएँ। आनंद को देखते ही एक बच्चे ने कमरे के किवाड़ खोल दिए। पूरे कमरे में सामान बिखरा पड़ा था। सिलाई मशीन तखत पर रखी थी। तखत का बिस्तर एक कोने में लपेटकर रख दिया गया था। लोहे को छोटे संदूक का कुंदा उखाड़ दिया गया था। उसका सामान सब बाहर पड़ा था। गत्ते की पेटी का ढक्कन पेटी से जुदा करके एक कोने में फेंक दिया गया था। नीचे का तला दूसरे कोने में। आनंद के सभी कहानी किस्सों की मूल प्रतियाँ और प्रकाशित लेखों की रिकार्ड प्रतियाँ मुड़ी-तुड़ी चिंदियों की शक्ल में पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थीं। लोहे के दो संदूकों में से ऊपरी संदूक अपनी जगह से दूर खुला पड़ा था। उसमें रखे रजाई, गद्दे, गर्म कपड़े, बर्तन जमीन पर बिखरी धूल चाट रहे थे। दूसरा संदूक भी मुँह बाए खड़ा था। उसमें रहने वाली तमाम पुस्तकों में से जिसे जहाँ जगह मिली-तखत, मेज, कुर्सी, फ्रिज-उसी के नीचे भयभीत-सी जा छिपी थी। कुछ ही जिल्दें संभवत: इसी जल्दबाजी में पुस्तक का साथ छोड़कर इधर-उधर जा अटकी थीं।

यानी चोर ने या चारों ने पूरी तन्मयता से और काफी समय देकर सब देखा-परखा था। एक बार चारों तरफ देखने के बाद आनन्द ने पाया कि सभी सामान वहीं मौजूद है सिवा गत्ते की पेटी की भीतरी खलीतों में रखे चार सौ चालीस रुपयों के।
मकान के बाहर-भीतर लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। कुछ महिलाएँ तो इस बीच कमरे में घुसकर सामान को उलट-पलटकर भी देखने लगी थीं। जैसे ही आनन्द की निगाह उन पर पड़ी, वे खिसियाकर बाहर चली गईं। वहाँ मौजूद सभी यह जानने को उत्सुक थे कि क्या-क्या ले गए चोर ? यानी क्या-क्या था इस छोटे-से घर में ले जाने लायक ?
भीड़ को वहाँ से रफा-दफा करने का एकमात्र उपाय था- उनकी उत्सुकता का शमन। इसीलिए आनंद ने सबको संबोधित करते हुए कहा, ‘‘ज्यादा कुछ नहीं गया। केवल संदूकों में रखे चार सौ चालीस रुपए लापता हैं।’’
इस रहस्योघाटन का आशातीत असर हुआ। देखते ही देखते भीड़ छँट गई। शेष केवल दो जन-एक आनंद स्वयं और दूसरे रमेशजी।

एकांत पाकर रमेशजी बोले, ‘‘तो.......अब मैं भी चलता हूँ। मैं अब दफ्तर न जाकर सम्मेलन अटैंड़ करने जाऊँगा और शाम को वहाँ रुकने की बजाय जल्दी आने की कोशिश करूँगा। इस बीच आप एक बार सब सामान अच्छी तरह देख लीजिएगा-क्योंकि केवल रुपयों की उम्मीद से न कभी चोर किसी घर में घुसते हैं और न ही घर में घुसने के बाद केवल रुपये लेकर वापस जाते हैं। वे जब भी कहीं सेंध लगाते हैं, रुपये मिल जाएं तो बहुत अच्छा वरना रुपयों के अलावा घरों में ऐसा बहुत कुछ होता है जिसे अपने साथ ले जा सकें...और हाँ, थाने जाकर रिपोर्ट दर्ज जरूर करवा दाजिएगा....अच्छा, तो शाम को मुलाकात होगी।’’
रमेशजी के जाते ही आनंद ने कमरे का दरवाजा भीतर से बंद किया, हाथ पर रूमाल लपेटा एक बार तमाम सामान को उलट-पलट गया।

इस लौट-फेर में मिली दो चीजों ने आनंद को दुविधा में डाल दिया। पहली चीज थी वह खाली बक्सा जिसमें पत्नी अपने गहने-जेवर रखती थी और दूसरी चीज थी आनन्द की अँगूठी रखने की डिब्बी। ये दोनों चीजें फ्रिज के पीछे अटकी हुई थीं। इसीलिए पहली बार देखते समय इन पर उसकी नज़र नहीं पड़ी थी। आनंद की समझ में नहीं आ रहा था कि अगर पत्नी गहने-जेवर साथ ले गई है तो यह बक्सा यहाँ क्यों मौजूद है, और अगर साथ नहीं ले गई तो बक्सा खाली क्यों है ?
उसके मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे-यदि इन बक्सों में पत्नी अपने गहने-जेवर छोड़ गई होगी तो.. ? पर तभी दूसरा विचार आया- हो न हो, पत्नी सब चीजें अपने साथ ले गई होगी। मुझ लापरवाह के भरोसे अपनी चीजें छोड़कर जाने वाली नहीं वह...

अटकलबाजी लगाने में समय बरबाद करने से थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाना ज्यादा जरूरी था। सो वही करने का फैसला कर आनंद थाने की ओर चल दिया।
अभी वह अपनी गली पार करके थाने की ओर जानेवाली सड़क पर मुड़ा ही था कि एक नए सवाल ने उसे आ घेरा-कि थाने में जाकर वह एक पत्रकार की हैसियत से अपना परिचय दे या सामान्य नागरिक ? और इस सवाल को लेकर मन फिर दो हिस्सों में बँट गया। एक का कहना था कि यदि चोरी गया माल वापस पाना है, पुलिस के रुखे व्यवहार से बचना है तो वह अपने-आपको एक पत्रकार के रूप में ही प्रस्तुत करना......मगर दूसरे का तर्क था कि चोरी गया माल भी मिल जाए, पुलिस का असली चरित्र भी तुम पर उजागर हो जाए, आम शहरी के साथ पुलिस का रिश्ता कैसा है, यह भी जान जाओ और पुलिस की रोजमर्रा की जिंदगी का परिचय भी पा जाओ-यह तभी संभव होगा जब तुम अपने-आपको एक आम शहरी के रूप में प्रस्तुत करो.....प्रश्न जितना जटिल था उसका हल उससे कहीं अधिक जटिल।

लगभग आधे रस्ते-भर मन के दोनों पहलुओं पर विचार करने के बाद आनंद ने तय किया कि यदि किसी ने मुझे वहाँ पहचान लिया तब तो यथा परिस्थिति अपना परिचय दूँगा अन्यथा आम शहरी के रूप में ही स्वयं को प्रस्तुत करूँगा। फिर चाहे भले ही चोरी का सामान वापस न मिले, मगर उस सामान के मूल्य पर मिलने वाला अनुभव, हो सकता है उससे कहीं अधिक मूल्यवान साबित हो।

इस तरह एक संकल्प, एक लक्ष्य के साथ बुद्धिजीवी लेखक, श्रमजीवी पत्रकार और शांतिप्रिय आम शहरी श्री आनंद कुमार दिन के ठीक बारह बजे मुद्रानगर-मीठापुर थाना के द्वार पर पहुँचे।
अभी उन्होंने थाने में प्रवेश-द्वार के भीतर पहला कदम रखा था कि द्वार से काफी दूरी पर बैठे संतरी को बेचैन आत्मा की पुकार ने उन्हें वहीं थिर कर दिया। कद पाँच फुट, इकहरी काया, बच्चों-जैसा दीखता मासूम चेहरा, गंदे-से कपड़े, हाथ में गुड़ी-मुड़ी करके पकड़े हुए कागज-इस व्यक्तित्व के धनी आनंद पर संतरी अपनी जगह से बिना हिले दहाड़े, ‘‘ओये पिद्दी के, कहाँ घुसा जा रहा है ?’’

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