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धरातल

रामधारी सिंह दिवाकर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3045
आईएसबीएन :81-7055-492-6

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इस संग्रह में रामधारीसिंह दिवाकर की प्रमुख कहानियों का वर्णन है...

Dharatal Ramdhari Singh Divakar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समकालीन हिन्दी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षार रामधारी सिंह दिवाकर की कहानियाँ संक्रमणशील ग्रामीण यथार्थ को किन्हीं राजनीतिक आग्रहों से कथान्वित नहीं करतीं, बल्कि यथार्थ के अन्तर्निहित सत्य को, उसके छोटे-छोटे स्पंदनों को छूती हुई चलती हैं। गाँव के गतिशील यथार्थ को उसके प्रत्येक रग-रेशे को इनकी कहानियाँ कहीं हल्के स्पर्श से तो कहीं-गहरी रेखाओं से उकेरती हैं। इनकी कहानियों के पात्र अपने माटी-पानी की उपज होते हैं, इस कारण अलग से उनको ‘पेंट’ कर चरित्र बनाने या गढ़ने की कोशिश इनमें नहीं मिलती। कोई शिल्पगत चमत्कार और विषय-वस्तु की व्यूह-रचना भी ये नहीं करते। इनकी कहानियों में एक तरह की अनुरागात्मक सहजता है, ऋजु गद्यात्मकता। मानवीय संबंध और संवेदन जहाँ भी आहत होते हैं, ठीक उन्हीं केंद्रों से इनकी कहानियाँ जन्म लेती हैं और पाठकीय विश्वास को अपने साथ लेती हुई परिधि तक फैलती हैं।
इस संग्रह की कहानियां प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर प्रशंसित हो चुकी हैं।

काकपद

इधर कई दिनों से मैं एक प्रेम-कहानी लिखने के चक्कर में पडा़ हूँ। परेशान-परेशान हूँ, मगर बात बन नहीं रही है। यह प्रेम कहानी दरअसल मेरे लिए एक चुनौती बन गयी है। जब भी इस विषय पर कुछ सोचने या लिखने की कोशिश करता हूँ, अपने एक कथाकार मित्र की एक बात याद आती है कि प्रेम-कहानी लिखना प्रेम करने से भी ज्यादा कठिन काम है। कथाकार मित्र की बात मुझे जँचती है। प्रेम के बुने गये कथानक में कुछ नया कोण पैदा करना आसान नहीं है। अपनी इसी असफलता पर बार-बार सिर धुनता हूँ, और कलम पकड़कर सुस्ताने लगता हूँ।

उस दिन कमरे में बैठा प्रेम के कल्पित कथानक में कोई नया तेवर पैदा करने की माथापच्ची कर ही रहा था कि पत्नी के पदचाप ने बाधा डाल दी। पत्नी को क्या मालूम कि प्रेम की परंपरित अवधारणा में कुछ नया जोड़ने की मेरी प्राणपण से की गयी कोशिश का क्या मूल्य है। पत्नी ठीक मेरी बगल में बैठ गयी और रहस्य जैसी बात को सार्वजनिक बनाती हुई बोली, ‘‘यहाँ मन मारे बैठे क्या हैं ! जरा बाहर निकल कर देखिए, क्या तमाशा हो रहा है। बेसवा-पतुरिया भी क्या करेंगी ऐसा !....मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि बेसवा-पतुरिया जैसे प्रसंग का क्या अर्थ है। पत्नी के बोलने का अंदाज तो कुछ ऐसा था गोया ऐसे प्रसंग के लिए मैं भी जिम्मेदार हूँ।

बाहर दरवाजे पर मेरे निकलने के पहले ही पत्नी पहुँच गयी थी। वह एक किनारे खर-पात की आड़ के पीछे खड़ी हो गयी थी। और एकटक थोड़ी दूर आगे के आम के बागान की तरफ देखने लगी थी।
अंतिम जेठ की अगिनमास में थोड़ी ही देर पहले बादल बरसे थे। सो मौसम में विचित्र-सी मिठास आ गयी थी। तन-मन में स्फुरण-सा कुछ हो रहा था-ऐसी ताजगी जिसे पाने को झुकी रीढ भी कुछ तन जाये। सूरज डूबने-डूबने को था। आखिरी धूप पेड़ की फुनगियों तक पहुंच गयी थी। फूली सरसों-सी पीली धूप ! ऐसी मनोहारी दुर्लभ किरणें वर्षों बाद संयोग से कभी दिख जाती है। मैं पेड़ की फुनगियों पर बिछी सरसों फूल जैसी किरणों को निमग्न भाव से देख रहा था, मगर बगल में खड़ी पत्नी की आँखें आम के बागान पर लगी थीं। कुढ़न से जली-भुनी पत्नी की आवाज आयी, ‘‘देखिए उधर ! आम के पेड़ के नीचे।’’ मुड़कर उधर देखा। एक युवती कलमी आम की झुकी डाल का कोई पका-अधपका फल तोड़ने की कोशिश में बार-बार उचक रही थी। फल शायद कुछ ऊपर था और युवती के हाथ वहाँ तक नहीं पहुँच रहे थे। लड़का भी इसी कोशिश में था। मगर उसकी लंबाई भी युवती के बराबर थी, सो वह भी फल तोड़ने की कोशिश में असफल हो रहा था। दोनों में मनोरंजक ठिठोली हो रही थी या शायद प्रतियोगिता चल रही थी। किसी युक्ति के तहत लड़के ने युवती को बाँहों में कसकर उठा लिया। लड़के की ऊँचाई के योग से युवती लंबी हो गयी और उसने वह पका-अधपका फल तोड़ लिया। युवती लड़के की बाँहों में उसी तरह पड़ी थी और तोड़ा हुआ फल हाथ में काफी ऊंचे उठाये हुए थी। लड़के ने युवती को इस तरह अचानक छोड़ दिया कि युवती लड़खड़ा कर गिर गयी। शायद कुछ चोट भी आयी हो। लड़का हंस रहा था और युवती पैर पकड़े बैठी थी। बिलकुल फिल्मी दृश्य जैसा यह आँखों देखा नजारा था।

पत्नी को जैसे साँप सूंघ गया हो। थोड़ी देर तक तो वह अवाक् बनी रही। फिर नाक-भौं सिकोड़ती मेरी तरफ देखकर बोली, ‘‘देखते हैं न कलमुँही को ! जरा भी सरम-लिहाज है ? बेसवा-पतुरिया में भी क्या होगी ऐसी निर्लज्जता !...
मैं मुस्करा रहा था। सोच रहा था कि कितने निर्द्वंद्व, कितने मुक्त हैं ये दोनों प्राणी ! विचित्र सी कुंठा हो रही थी मुझे ! कितने भाग्यवान हैं ये ! मेरा मन कुछ सोच कर बुझ गया। अब उम्र की इस ढलान पर सिर पीटने से कुछ हासिल होनेवाला तो था नहीं, मगर मन तो आखिर मन है ! लालसा भला उम्र की सीमा स्वीकारती है कभी ? मर्यादा की सीमाएँ तोड़ते इन दोनों प्राणियों ने मेरे भीतर की अतृप्त सनातन प्यास को जैसे दहका दिया था।

फूली सरसों जैसी सूरज की आखिरी किरणों का काफिला आगे बढ़ गया था। अब सिर्फ उजास थी और हम दोनों पति-पत्नी युवती के साथ लड़के को घर की तरफ जाते हुए देख रहे थे। हम देख रहे थे कि युवती ने आम के फल को मुँह से लगाया ही था कि लड़के ने झपट लिया और एक ‘हबक्का’ लगाया। फिर युवती ने छीना-झपटी शुरू कर दी। जीत युवती की ही हुई, क्योंकि गुदगुदी लगाने के कारण लड़के ने आम का फल छोड़ दिया था। युवती आम का फल लेकर अलग हो गयी थी और छिटककर हँस रही थी। पत्नी की बोली अब एकदम जहरकनैल हो गयी थी, ‘देखते हैं न कैसा निर्लज्ज नाटक चल रहा है !’’
मैंने पूर्ववत् मुस्कराते हुए धीरे से कहा, ‘‘क्या बुरा कर रहे हैं ! पति-पत्नी हैं दोनों ! राग-रंग की यही तो उम्र है !’’
पत्नी कुढ़ गयी, ‘‘आप तो बढावा दे रहे हैं। अपने घर में सयानी बेटियाँ हैं कि नहीं ? क्या असर पड़ेगा इसका ? अपनी बेटियाँ भी जानती हैं इनको। इन दोनों ने तो कुल-वंश की नाक कटवा दी। छि: छि:।...

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। बस एक मीठा पाप मन को सालता रहा। सोचता रहा इन दोनों प्रेमियों पर जिनके जिए ये थोड़े-से क्षण जो मेरे देखे में आये हैं, क्या मेरे पूरे दांपत्य जीवन के संपूर्ण आनंद के कुलयोग से बढ़कर नहीं हैं ? इन दोनों प्रेमियों की प्रेम-कहानी का वृत्तांत मुझे याद आने लगा।
पिछली गर्मियों में गाँव आया था। आते ही जो चर्चा सबसे पहले कानों में पड़ी वह इन्हीं दोनों की थी। ये दोनों ही मेरे टोले के हैं। लड़का शिवनाथ दियादी रिश्ते में मेरा भतीजा है। बगल में थोड़े से फासले पर उसका घर है। ज्यादा पढा-लिखा नहीं है। मैट्रिकुलेशन तक शिक्षा है उसकी। लड़की का घर भी मेरे पड़ोस में है। नाम है सुभद्रा। इन दोनों को मैं इनके बचपन से जानता हूँ। साल-दो साल में शहर से अपने गाँव आता ही हूँ और आता हूँ तो जी भर कर जीता हूं गाँव की जिंदगी को। गाँव की कोई भी घटना मुझसे छिपती नहीं और जो छिपनेवाली होती है, वह भी मेरी पत्नी के हिस्से में पड़कर मेरे पास पहुँच ही जाती है।

पिछले साल इन्हीं दिनों प्रेमियों को लेकर उठनेवाला हंगामा जब अपने प्रकर्ष पर था, तभी मैं सपरिवार गाँव आया था। शिवनाथ और सुभद्रा दोनों तब गाँव से बाहर थे। मालूम हुआ कोर्टमैरेज करने जिला शहर गये हुए हैं। तय था कि दोनों घर से भागकर गये हैं।
गाँव में दो गुट बन गये थे। एक गुट लड़कीवालों का था और दूसरा लड़के वालों का। दोनों गुटों में युद्ध जैसी स्थिति थी। लड़की वाले लड़कीवालों पर आरोप मढ़ रहे थे कि लड़की बदचलन है और लड़के को उसी ने बहकाया है। लड़कीवाले लट्ठ लेकर जवाब दे रहे थे कि लड़का लड़की को फुसलाकर फरार हो गया है। मार-पीट की नौबत आ गयी थी, लेकिन बड़े-बुजुर्गों के हस्तक्षेप से मामला कुछ शांत बना हुआ था।

तीसरे या चौथे दिन लड़का-लड़की जब रिक्शे पर सवार होकर लौटे तो पूरा गाँव ‘हन-हन’ करने लगा था। लोग कह रहे थे कि अब देखें क्या होता है। लेकिन हुआ-वुआ कुछ नहीं। गाँव पहुंचने के पहले किसी संवदिया ने घूम-घूमकर यह खबर न्योते की सुपारी के रूप में बांट रखी थी कि यदि उनको परेशान किया गया तो वे पुलिस की मदद लेंगे और परेशान करनेवालों को हथकड़ियाँ पहनाएँगे।
पूरा गाँव इस चुनौती के सामने सन्नाटे में आ गया था। लोग सिर्फ देख रहे थे। औरतों की ऐसे मामलों में ज्यादा दिलचस्पी होती ही है, लेकिन खुसुर-फुसुर करने के सिवा वे कर ही क्या सकती थीं।
गाँव में यह विचित्र घटना घटी थी-एक विचित्र सी साहसिक घटना। लोग स्तंभित थे और मैं सोच रहा था कि शिवनाथ और सुभद्रा दोनों देखने में कितने भोले-भाले लगते हैं। सुभद्रा को देखकर कौन कहेगा कि यह छुई-मुई सी देहातिन प्रेम को जानती भी होगी ? मगर देखो, कितना बडा साहसिक फैसला ले लिया इसने। गांव को ही नहीं अपने माता-पिता सगे संबंधियों तक को झुका दिया अपने फैसले के सामने। तभी से मेरे मन में यह बात बैठ गयी है कि किशोर और युवा चेहरों के भोलेपन पर मत भूलो। ये सब कुछ जानते हैं और समय आने पर कोई भी खतरा मोल लेने की हिम्मत रखते हैं।...
कोई साल भर बाद गाँव लौटा हूं। मालूम हुआ है शिवनाथ और सुभद्रा के परिवारों के बीच में टोक-चाल, आना-जाना सब बंद है। सुभद्रा की माँ बस दस कदम पर रहती हैं, मगर बेटी को कभी देखने नहीं गयी। बाप ने भी बेटी को मृत घोषित कर दिया है, मगर शिवनाथ और सुभद्रा को इसकी जरा भी फिक्र नहीं। अभी कुछ ही दिन पहले तो मैंने देखा है। कितने बेफिक्र और निमग्न होकर वे जिंदगी जी रहे हैं। लगता ही नहीं है कि पति-पत्नी का रोमांस है। इतना रस पति-पत्नी के बीच कैसे हो सकता है ?

साल भर से पूरा गाँव जल-भुन रहा है। लोग शिवनाथ और सुभद्रा की बेफिक्री देखते हैं और घुटकर रह जाते हैं। एक-दूसरे से बदले हुए जमाने का रोना रोते हैं और अपनी संतानों पर पड़ते कुप्रभावों से शंकाग्रस्त हैं। जल-भुन मैं भी रहा हूँ, मगर मेरे जलने-भुनने की आँच दूसरी है। सोचता हूँ और धिक्कारता हूँ स्वयं को एक शिवनाथ है और प्रेमिका से पत्नी बनी सुभद्रा है और एक तू है बे !...शिवनाथ तो बस मैटिकुलेट है और सुभद्रा साक्षर भर है, मगर तुम तो एम. ए. में थे और तुम्हारी प्रेमिका रजनी भी एम. ए. में थी। तुममें क्यों नहीं हुई हिम्मत ? डर गये न तुम ? और पिता के अनुशासन में ब्याह रचा कर जीवन-भर घुटते रहे !...
शिवनाथ और सुभद्रा के प्रसंग पर पूरा गाँव कुढ़ रहा है। मुझे लगता है, आत्मकुंठा की खीझ है यह। दूसरों की बात खैर मुझे क्या मालूम। हां, अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के मैं इस दमित आकांक्षा का शिकार हूं, कि काश ! मैं कर सकता ऐसा साहस ! मैं शिवनाथ होता और रजनी सुभद्रा होती तो कैसा रहता ?...यह निगूढ़ वासना किसी से कही तो नहीं जा सकती, बस भीतर ही भीतर मुझे मथ रही है। किससे कहूँगा... पढ़ा-लिखा आदमी ही नहीं, विश्वविद्यालय में आचार्य हूँ और एक विशेषता यह भी जुड़ी हुई है कि कथाकार भी हूँ। गहन प्रतीति और आत्मकुंठा की बात जुबान पर ला कैसे सकता हूँ ?

कमरे में चिंतामग्न आकर बैठता हूँ कि पत्नी फिर सिर पर सवार हो जाती है, ‘‘देख लिया न अपनी आँखों से ! कितने निर्लज्ज हैं दोनों ! गाँव के लड़के-लड़कियों पर क्या असर पड़ेगा इस ‘लीला’ का ? अपनी बेटियाँ भी तो सयानी हो रही हैं !’’
मैं कुछ कहना चाहता हूँ, मगर यह सोच कर चुप रह जाता हूँ कि परिवार निबद्ध रूढ़ियों और परंपराओं में जकड़ी यह शुद्ध घरेलू प्रौढ़ा पत्नी मेरी बात कभी नहीं समझेगी। मैं सिर्फ मुस्कुरा देता हूँ। मेरे मुस्कराने पर पत्नी खीझ जाती है, ‘‘आपको बुरा नहीं लगता यह सब। लोक-मरजाद कोई चीज होती है कि नहीं ? सारा गाँव थू-थू कर रहा है और इतने पढे़-लिखे होकर आप चुप हैं ?’’ मैं चुप हूँ और पत्नी के चेहरे को देखकर सोचने लगता हूँ, क्या कभी इसके भीतर कोई सुभद्रा थी ?’’ पत्नी कुढ़कर चली जाती है और मैं फिर अपनी अधूरी प्रेम-कहानी लेकर बैठ जाता हूँ-इस निश्चय के साथ कि इस बार प्रेम की पिटी-पिटाई परंपरावाली कहानी में कुछ नया कोण अवश्य पैदा करूँगा। कोशिश करता हूँ और हारकर कलम पकड़कर बैठ जाता हूँ। जाने क्यों, बहुत थकान महसूस करता हूँ। लगता है, चुपचाप बैठकर या लेटकर किये गये परिश्रम में शारीरिक परिश्रम से ज्यादा थकान होती है।

पराजित-सा होकर सोचता हूँ, प्रेम की अवधारणा में कुछ नया तेवर पैदा करना क्या इतना आसान है ? भीतर से उठी कोई आवाज मुझे कोसने लगती है-खुद तो प्रेम कर नहीं सके और चले हो प्रेम-कहानी लिखने ? प्रेम-कहानी लिखने की बात फिलहाल छोड़कर मैं शिवनाथ और सुभद्रा के दांपत्य जीवन पर सोचने लगता हूँ। जाने क्यों, इन दोनों का निर्बंध दांपत्य प्रेम मेरे भीतर के किसी सूने-वीरान कोने का अहसास करा देता है।
मुझे अपना सारा ज्ञान, पद-प्रतिष्ठा, सब कुछ बेकार लगने लगता है। याद आने लगता है एक सपना-एक बहुत मीठा सपना !...उन्मीलित आँखों से वह सपना देख रहा होता हूँ कि अचानक उसी सपने से साक्षात् निकलकर खलनायिका सी पत्नी सदेह-साकार मेरे सामने खड़ी हो जाती है। मुझे रोया समझकर झकझोरती हुई जगाती है और तीखी-कर्कश आवाज में कहती हैं, ‘‘उठिए,..मैं कहती थी, न उस कलमुँही और कलमुँहें का असर पड़ेगा बेटे-बेटियों पर !...अपने कान से सुनकर आ रही हूँ। आपकी दोनों लाड़ली बेटियाँ उसी ‘रसलिल्ला’ की बात कर रही थीं अभी-अभी। किवाड़ की ओट से मैं सुनकर आ रही हूँ।’’

मैं मुस्कराता हूँ, यह सोचकर कि इस मूढ़ प्रौढ़ा पत्नी को क्या पता कि इसकी सयानी हो रही बेटियों का भी शायद यही सपना हो जो शिवनाथ और सुभद्रा का यथार्थ है ?...फिर सोचता हूँ नैतिकता और घरेलू मर्यादा के नागपाश में बंधी इस प्रौढ़ा नारी के भीतर क्या कभी कोई सुभद्रा नहीं थी ?
शायद रही हो...मगर अब तो भयातुर माता है यह। और मैं भी तो पिता हूँ। एक पिता के रूप में मैं जानता हूँ, कि बी. ए. और बी. ए. ऑनर्स में पढ़नेवाली मेरी बेटियों के मन में कामनारूप में बसी कोई सुभद्रा होगी अवश्य।
सुभद्रा मेरे भीतर भी थी कभी ! उसको मैंने निर्वासित कर दिया। सुभद्रा मेरी बेटियों की अंतर्कामना में बसी होगी। मैं जानता हूँ, उस सुभद्रा को मैं अपनी बेटियों का काम्य नहीं बनने दूँगा।
अपने विभाजित व्यक्तित्व के साथ सचेतन स्तर पर मैं सोचने लगा कि यदि कहीं मेरी बेटियों ने सुभद्रा बनने की कोशिश की तो मैं भी सुभद्रा का पिता अवश्य बन जाऊँगा।

एकाएक मुझे लगा, मैं अपनी मूढ़-गँवार पत्नी के साथ खड़ा हूँ-ठीक उसी की तरह सोचता हुआ। मगर मेरे भीतर भी तो एक सुभद्रा की कामना बसी थी। फिर मेरा सोचना बिलकुल पत्नी का सोचना कैसे हो गया ?
प्रेम-कहानी का जो अधूरा प्रारूप इधर कई दिनों के परिश्रम से तैयार हुआ था, उसको मैंने गौर से पढ़ा। जहाँ ‘प्रेम’ शब्द लिखा हुआ था, उसके आगे थोडा नीचे दबाकर काकपद का चिह्न () बना देता हूँ और उसी के शीर्षकोण में ‘नहीं’ लिखकर सुस्ताने लगता हूँ।

धरातल


पिताजी का इस तरह यहाँ आ जाना एकदम अप्रत्याशित तो नहीं था, लेकिन फिलहाल ऐसी उम्मीद भी नहीं थी। वह लस्टम-पस्टम कुछ भी पहन-ओढ़कर चले आये थे। हैंडलूम की हल्के गेरूआ रंग की अधबाँही कमीज जो निश्चय ही सफेद रंग की रही होगी, उनके शरीर पर झूल रही थी। वह बेहद सस्ते किस्म की घुटने से ऊपर तक की धोती पहने थे। कंधे पर डोरिया अंगोछा था और पैरों पर टायर की चप्पलें थीं।
कटहलनुमा झोला उनकी बगल में रखा हुआ था। दूसरी तरफ कंबल में लिपटा हुआ बिस्तर जो गैस-सिलेंडर की शक्ल का मालूम पड़ता था।
याचक-मुद्रा में वह बंद दरवाजे के सामने बैठे किवाड़ खुलने का इंतजार कर रहे थे। वैसे कालबेल का बटन किवाड़ के ठीक सामने नेम-प्लेट की बगल में था। लेकिन उन्होंने उसे छुआ नहीं था। शायद वह उसका उपयोग ही नहीं जानते थे। दस्तक भी नहीं दी थी उन्होंने। बस, चुपचाप सहमे हुए बैठे थे। यदि बाहर निकलने के लिए मैं किवाड न खोलता तो पता नहीं वह कितनी देर यों ही बैठे रहते !

गर्मियों की धूप में चिलकती सुबह ! धूप की सलाखें जैसे अंगारे में रख दी गयी थी। पिताजी के आधे शरीर पर चढ़ती हुई इसी धूप का आवरण था। इस रूप में बैठे वह दो रंगों के वैषम्य की मूरत प्रतीत होते थे। छायांश में ढका उनका सीने से ऊपरवाला हिस्सा भूरे-मटमैले रंग का और नीचे का हिस्सा पीले शरीर की वजह से धूप-रंग का हो गया था।
किवाड़ खोलते ही मेरी नजर उन पर पड़ी थी। क्षण-भर के लिए मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया। जब उन्होंने सिर उठाकर मेरी तरफ देखा तब मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा, ‘पिताजी आप ! कब से बैठे हैं यहाँ ? किवाड़ क्यों नहीं खटखटाया ?...
वह सिर्फ मुस्कराते रहे, बोले कुछ नहीं।
उनका चेहरा सूखा हुआ था। और शरीर हेमंत के दरख्त की तरह निर्जीव दिखाई पड़ता था। कोहनी से नीचे बाँह की चमड़ी सिकुड़कर नीचे लटक आई थी और उस पर काले-भूरे सफेद बाल ऐसे दिख रहे थे, जैसे पानी के अभाव में मरते हुए धान के पौधे !

मैंने उनके पैर छुए तो वह एकाएक भावुक हो गये। आशीष देते हुए उनकी बीमार आवाज भीग आयी थी। आँखें भरी हुईं। फिर दाहिनी आँख से एक बूँद आँसू गिरा और धूप में सूखते फर्श पर फैलकर धीरे-धीरे विलीन होने लगा।
मैं सोचने लगा-बूढ़े-बीमार आदमी की आँखों में जरूरत से ज्यादा आँसू होते हैं। या शायद रिश्तों के ठंडेपन के अहसास के कारण स्नेह या सम्मान का हल्का-सा स्पर्श भी उन्हें होता है तो आँखें भरी बदली-सी एकाएक बरसने लगती हैं।
पिताजी का संदर्भ मुझे ऐसा ही मालूम हुआ था। उनकी आँखों में आये आँसू और भर्रायी हुई आवाज में शायद सुदूर के खोये हुए रक्त-संबंध की वापसी की आश्वस्ति थी। शायद वह सोच रहे थे कि मैं चाहे कितने ही ऊँचे ओहदे पर क्यों न पहुँच जाऊँ, अपने निर्माण में पितृ-भूमिका को स्वीकार करता हूँ। सम्मान देनेवाले प्रणाम की परंपरावादी शैली से उनका आस्तिक मन निश्चय ही विभोर हुआ था। पिता संज्ञा को वह सार्थक और अविस्मृत पाकर चकित-से प्रतीत होते थे, क्योंकि मेरा ऐसा आचरण अवहेलना के लंबे अंतराल के बाद उन्होंने देखा था।

उनके सामान का मुआयना करते हुए मैंने अन्यमनस्क भाव से कहा, ‘‘चलकर बैठिए न अंदर !’’
मैं अलग-अलग के फ्लैट्स की तरफ देखने लगा कि कोई देख तो नहीं रहा है !
सीताराम सहमता हुआ ऊपर आया तो मैं उसे कुछ क्षणों तक देखता रहा। उम्र में साल-डेढ़ साल बड़े इस ममेरे भाई को देखकर हैरत हुई कि यह बूढ़ा कैसे हो गया एकाएक ! मौसम की मार खायी देह-चेहरे का रंग सूखते तालाब के गंदे-नीले पानी की तरह दिख रहा था। वह लकीरोंवाली हैडलूम की कमीज पहने था, जिस पर अनगिनत सिलवटें पडी थीं।
सीताराम बिस्तर, झोले वगैरह ड्राइंगरूम में रखकर चुपचाप खड़ा था। मैंने उससे बैठने के लिए कहा तो वह सलज्ज ढंग से मुस्कराने लगा। फिर पिताजी के इशारे पर सोफे पर बैठ गया और अजनबी आँखों से ड्राइंगरूम की सजावट देखने लगा।
पिताजी के ठीक सामने बैठा मैं चेहरे की तरफ देख रहा था। उनका शरीर इस बात की खुली गवाही दे रहा था कि वह बीमार हैं। लेकिन उनकी गतिविधि से बीमारी की गंभीरता प्रमाणित नहीं होती थी। मैं चाहता था कि उनके आने की वजह पूछूँ, लेकिन अभी-अभी वह आये हैं और उनसे सीधे यही सवाल किया जाये, यह गैरवाजिब मालूम हो रहा था।
बिस्तर में डोरी से बंधा हुआ पीतल का बड़ा-सा लोटा, टाट का झोला और गट्ठर सब बेतरतीब रख दिये गये थे और मैं सोच रहा था कि इतनी तैयारी में आने का मकसद सिवा इलाज कराने के और क्या हो सकता है।
पिताजी के यों चले आने से मुझे असुविधा होने लगी थी। उन्हें कम-से-कम खबर तो करनी चाहिए थी।..





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