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कविता संग्रह >> सतरंगे पंखोंवाली

सतरंगे पंखोंवाली

नागार्जुन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :63
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3009
आईएसबीएन :00000

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कविता संग्रह....

Satrange Pankhonwali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


नागार्जुन की कविताओं में सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य का दैनिक इतिहास दर्ज है। लेकिन उन्होंने ऐसी कविताएँ भी कम नहीं लिखी हैं जिनमें निजी जिन्दगी के हर्ष-विषाद सघन संवेदनात्मक और रचनात्मक ऐंद्रिकता के साथ अभिव्यक्त हुए है। इस संग्रह में ज्यादातर ऐसी ही कविताएँ हैं। प्रेम और प्रकृति से जुड़ी इस संग्रह की कविताएँ एक ऐसा मानवीय संसार रचती हैं जो अद्वितीय है। प्रेम कविताओं में अगर सघन संवेदनात्मकता है तो प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में रचनात्मक ऐंद्रिकता। संग्रह में नागार्जुन काव्य का एक विशेष काव्य-गुण व्यंग्य भी बहुत सी कविताओं के केन्द्र में है।
उन आलोचकों के लिए ये कविताएँ चुनौती की तरह हैं जो यह आरोप लगाते रहे हैं कि प्रगतिशील कविता मानवीय संवेदनाओं की आत्यंतिकता से अछूती है और कलात्मकता से उसका सीधा रिश्ता नहीं है।

इसी संग्रह में कवि नागार्जुन की ‘अकाल और उसके बाद’, ‘कालिदास सच-सच बतलाना’ तथा ‘सिंदूर तिलकित भाल’ जैसी कालजयी कविताएँ भी संग्रहीत हैं।


सतरंगे पंखोंवाली



दिये थे किसी ने शाप
लाख की कोशिश
नहीं बचा पाया उन्हें
गल गये बेचारे
सहज शुभाशंसा की मृदु-मद्विम आँच में
हाय, गल ही गये !
जाने कैसे थे वे शाप
जाने किधर से आये थे बेचारे

दी थी यद्यपि आशीष नहीं किसी ने
फिर भी, हाँ, फिर भी
आ ही गई बेचारी
तिहरी मुस्कान के चटकीले डैनों पे सवार
निगाहों ने कहा-आओ बहन, स्वागत !
तन गई पलकों की पश्मीन छतरी

एक बार झाँका निगाहों के अन्दर
ठमक गई बरोनियों की ड्योढ़ी पर
बार-बार पूछा तो बोली-
झुलसा पड़ा है यहाँ दिल का बगीचा
गवारा नहीं होगी कड़वी-कसैली भाफ
ऐसे में तो अपना दम ही घुट जायगा
गले हैं जाने किनके कंकाल
नोनी लगी है जाने किनके हाड़ों में
छिड़क देते कपूरी पराग
काश तुम अपनी सादी मुस्कान का !

अंतर की सपाट भूमिका से
परिचित तो था ही
कर ली कबूल भीतरी दरिद्रता
क्षण भर बाद बोला विनीत मैं-
हाँ जी, ऊधमी अशुभ शाप ही तो थे
गलते-गलते भी
छोड़ गये ढेर-सी
जहरीली बू-बास !

आ ही गई उझक-उझक कर होठों के कगारों तक
संजीदगी में डूबी कृतज्ञ मुस्कान
तगर की-सी सादगी में
जगमगा उठे धँसे-धँसे गाल
फिर तो मुसकुराई मासूम आशीष
सतरंगे पंखोंवाली पवित्र तितली
खिले मुख की इर्द-गिर्द लग गई मडराने
आहिस्ते से गुनगुनाई-
हाँ, अब आ सकती हूँ
मिट गई भलीभाँति शापों की तासीर
अब तो मैं रह लूँगी पद्मगंधी मानस में
तो फिर निगाहों ने कहा-आओ बहन, स्वागत....
तन गई तत्काल पलकों की पश्मीन छतरी

हो चुकी थी आशीष अंदर दाखिल
तो भी देर तक निगाहों पर
तनी रही पलकों की पश्मीन छतरी
हो चुकी थी आशीष अंदर दाखिल
तो भी देर तक
उझक-उझक कर आती रही बाहर
संजीदा और कृतज्ञ मुस्कान


यह कैसे होगा ?



यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

नई-नई सृष्टि रचने को तत्पर
कोटि-कोटि कर-चरण
देते रहें अहरह स्निग्ध इंगित
और मैं अलस-अकर्मा
पड़ा रहूँ चुपचाप !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
अधिकाधिक योग-क्षेम
अधिकाधिक शुभ-लाभ
अधिकाधिक चेतना
कर लूँ संचित लघुतम परिधि में !
असीम रहे व्यक्तिगत हर्ष-उत्कर्ष !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
यथासमय मुकुलित हों
यथासमय पुष्पित हों
यथासमय फल दें
आम और जामुन, लीची और कटहल !
तो फिर मैं ही बाँझ रहूँ !
मैं ही न दे पाऊँ !
परिणत प्रज्ञा का अपना फल !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

सलिल को सुधा बनाएँ तटबंध
धरा को मुदित करें नियंत्रित नदियाँ !
तो फिर मैं ही रहूँ निबंध !
मैं ही रहूँ अनियंत्रित !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

भौतिक भोगमात्र सुलभ हों भूरि-भूरि,
विवेक हो कुंठित !
तन हो कनकाभ, मन हो तिमिरावृत्त !
कमलपत्री नेत्र हों बाहर-बाहर,
भीतर की आँखें निपट-निमीलित !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

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