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नाटक-एकाँकी >> नील दर्पण

नील दर्पण

दीनबन्धु मित्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2916
आईएसबीएन :81-263-1265-3

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बांग्ला के प्रसिद्ध नाटककार दीनबन्धु मित्र के नाटक का हिन्दी रूपान्तर...

Neel Darpan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात बांग्ला नाटक दीनबन्धु मित्र रचित ‘नील दर्पण’ यद्यपि एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नाट्यकृति है, जो अपने समय का एक सशक्त दस्तावेज भी है। 1860 में जब यह प्रकाशित हुआ था। तब बंगाली समाज और शासक दोनों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। एक ओर बंगाली समाज ने इसका स्वागत किया तो दूसरी ओर अंग्रेज शासक इससे तिलमिला उठे। चर्चा मिशनरी सोसायटी पादरी रेवरेण्ड जेम्स लॉग ने नील दर्पण का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया तो अँग्रेज सरकार ने उन्हें एक माह की जेल की सजा सुनायी।

बांग्ला में ‘नील दर्पण’ का प्रकाशन पहले सार्वजनिक टिकट-बिक्री से मंच पर 1872 में हुआ तो जहाँ एक ओर दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी अखबारों ने उसकी तीखी आलोचना की। ऐसे नाटकों में विद्रोही भावना के दमन हेतु अंग्रेजी सरकार ने 1876 में ‘ड्रेमेटिक परफॉर्मेन्सेज कन्ट्रोल एक्ट’ जारी किया।

अंग्रेज सरकार द्वारा रेवरेण्ड जेम्स पर चलाया गया मुकदमा ऐतिहासिक और रोमांचक है। नेमिचन्द्र जैन के नील दर्पण के रूपान्तर के साथ ही उस मुकदमे का पूरा विवरण पाठकों को दमन और विद्रोह का दस्तावेजी परिचय देगा।
भारतीय ज्ञान पीठ द्वारा प्रकाशित यह ऐतिहासिक कृति और दस्तावेज पाठकों को समर्पित है।

नील दर्पण


बांग्ला नाटकार दीनबन्धु मित्र का 1860 में प्रकाशित नाटक ‘नील दर्पण’ एक सशक्त नाट्य कृति ही नहीं, एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज भी है। इस नाटक में बंगाल में नील की खेती करने वाले अँग्रेजों द्वारा शोषण, भारतीय किसानों के ऊपर अमानुषिक अत्याचारों की बड़ी भावपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है।

नाटक की बंगाली समाज और अँग्रेज शासक दोनों में अपने-अपने ढंग से तीव्र प्रतिक्रिया हुई। यही नहीं, इस नाटक को पढ़कर उस जमाने की चर्च मिशनरी सोसाइटी के पादरी रेवरेंड जेम्स लौंग बहुत द्रवित हुए है और उन्होंने नीलकरों द्वारा शोषण के प्रतिवादस्वरूप नाटक का अनुवाद अँग्रेजी में प्रकाशित किया तो उन पर अँग्रेजी सरकार द्वारा मुकदमा चलाया गया और उन्हें एक महीने की जेल की सजा मिली।

बांग्ला के पहले सार्वजनिक, टिकट बिक्री से चलने वाले मंच पर यह नाटक जब 1872 में खेला गया तो एक ओर दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी और दूसरी ओर अँग्रेजी अखबारों में इस पर बड़ी तीखी टिप्पणी हुई। 1876 में अँग्रेज सरकार द्वारा ड्रैमेटिक परफार्मेन्सेज नील दर्पण जैसे नाटकों की विद्रोही भावना का दमन भी एक उद्देश्य था।
यहाँ इस नाटक के अनुवाद के साथ रेवरेंड जेम्स लौंग पर चलाए गये मुकदमे का पूरा विवरण भी प्रकाशित है जिससे इसके ऐतिहसिक महत्त्व के अलावा तत्कालीन अँग्रेजी शासन में न्याय के पाखंड और पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर भी प्रकाश पड़ता है।

पात्र


पुरुष


गोलोकचन्द्र बसु
नवीन माधव बसु
बिन्दुमाधव बसु                   गोलोकचन्द्र बसु के पुत्र
साधुचरण                           पड़ोसी किसान
रायचरण                            साधुचरण का भाई
गोपीनाथ दास                      दीवान
आई.आई.वुड
पी.पी रोज़                        नीलकर  

अमीन, खलासी, मजिस्ट्रेट, मुख्तार, डिप्टी इन्सपेक्टर, पंडित, जेलर, डॉक्टर, उम्मीदवार,  ग्वाला, वैद्य, चार बच्चे, लठैत, चरवाहा आदि।

स्त्री


सावित्री        गोलोकचन्द्र बसु की स्त्री
सैरिन्ध्री        नवीनमाधव की स्त्री
सरलता         बिन्दुमाधव की स्त्री
रेवती             साधुचरण की स्त्री    
क्षेत्रमणि        साधुचरण की पुत्री
आदुरी          गोलोकचन्द्र के घर की नौकरानी
पदी              मिसरानी

प्रथम अंक  
               

 प्रथम गर्भांक  


                 (स्वरपुर-गोलोकचन्द्र बसु के भंडारघर का बरामदा। गोलोकचन्द्र बसु और साधुचरण बैठे हैं।)

साधुचरण मैंने तभी कहा था, मालिक अब यह देस छोड़िए, पर आपने सुना ही नहीं। गरीब की बात पर कौन कान देता है।
गोलोकचन्द्रः भैया, देश छोड़कर जाना क्या ऐसा ही आसान है ? हम लोग यहाँ सात पीढ़ियों से रहते हैं। बड़े-बूढे़ जो ज़मीन-जायदाद बना गये, उसकी वजह से कभी दूसरे की नौकरी नहीं करनी पड़ी जितना धान होता है उसमें बरस भर का खाना-पानी चल जाता है, मेहमानदारी चल जाती है, और पूजा का खर्च निकल आता है। जो सरसों मिलती है उससे तेल की ज़रूरत पूरी होने के बाद साठ-सत्तर रुपये की बिक्री भी हो जा जाती है। समझते हो भैया, मेरे सोने के स्वरपुर में किसी बात का दुख नहीं। खेत में चावल, खेत की दाल, खेत का तेल, खेत का गुड़, बगीचे की तरकारी और तालाब की मछलियाँ। ऐसी सुख की जगह छोड़ते किसकी छाती नहीं फटेगी ? और कौन आसानी से छोड़ सकता है ?

साधुचरणः अब तो सुख की जगह नहीं रही। आपका बगीचा तो गया ही, ज़मीन-जायदाद भी जाऊँ-जाऊँ हो रही है ! अरे ! तीन बरस भी तो नहीं हुए साहब को ठेका लिये, इसी बीच गाँव बरबाद कर डाला। दक्खिन पाड़े के मुखिया के घर की तरफ देखा तक नहीं जाता। हाय ! क्या था, क्या हो गया ! तीन बरस पहले दोनों बखत साठ पत्त्तलें पड़ती थीं। दस हल थे, बैल भी चालीस-पचास तो होंगे ही। क्या आँगन था, जैसे कोई घुड़दौड़ का मैदान हो ! हाय हाय ! जब दाँय के लिए धान के ढेर लगाये जाते तो लगता मानो चन्दन वन में कमल खिले हों। गाय थी, जैसे कोई पहाड़ हो। गये  बरस गोशाला की मरम्मत न होने से आँगन में पड़ी रहती है। धान की ज़मीन में नील नहीं बोया जाता, इसलिए दोनों छोटे भाइयों की साहब साले ने एक साल कैसी पिटाई की थी। उन्हें छुड़ाकर लाने में कितनी परेशानी हुई, हल-बैल बिक गये । उसी धक्के से दोनों गाँव छोड़कर चले गये।

गोलोकचन्द्रः बड़े़ मुखिया दोनों को लाने गये थे न ?
साधुचरणः उन लोगों ने कहा, झोली लेकर भीख माँग खाएँगें, पर उस गाँव में नहीं बसेंगे। बड़े मुखिया अब अकेले पड़ गये हैं। हाँ, दो हल रखे हैं, जो अक्सर ही नील की जमीन में लगे रहते हैं। ये भी भागने की फिकर में हैं। मालिक आप भी देस की माया छोड़िए। पिछली बार आपका धान गया, इस बार इज्जत जाएगी।
गोलोकचन्द्रः इज्जत जाने में और बाकी ही क्या है ? तालाब के चारों तरफ ज़मीन जुत गई है। उसमें इस बार नील बोया जाएगा। फिर घर की औरतों का तालाब जाना बन्द।  और साहब बेटा कहता है, अगर पूरब की कुछ धान वाली ज़मीन में नील नहीं बोया तो नवीनमाधव की अकल दुरुस्त करूँगा।
साधुचरणः बड़े बाबू कोठी गये हैं न ?

गोलोकचन्द्रः कोई अपनी मर्ज़ी से गये हैं ? प्यादा ले गया है।
साधुचरणः पर बड़े बाबू में है बड़ी हिम्मत। उस दिन साहब ने कहा, अगर तुमने ज़मीन-खलासी की बात न सुनी, और निशानवाली ज़मीन में नील न बोया, तो तुम्हारा घर-बार उठाकर बेत्रवती के पानी में फेंक दूँगा और तुम्हें कोठी के गोदाम में धान खिलाऊँगा। इस पर बड़े बाबू ने कहा, पिछले साल के पचास बीघे नील के दाम मिले बिना एक बीघा भी नील नहीं बोऊँगा। इसमें चाहे जान चली जाए, घर-द्वार की तो बात ही क्या है।

गोलोकचन्द्रः नहीं कहें तो क्या करें ? जरा देखो, पचास बीघा धान होता तो मेरी गृहस्थी में कोई कमी रहती ? फिर अगर नील के दाम ही चुका दें तो भी बहुत-कुछ तकलीफ़ मिट जाए। (नवीनमाधव का प्रवेश) कहो बेटे, क्या कर आये ?
नवीनमाधवः जी, माता के दु:ख की कहानी सुनाने से क्या काला साँप गोद के बच्चे को डसना छोड़ देता है ? मैंने बहुत-कुछ कहा-सुना, पर उसकी कुछ समझ में न आया। साहब को एक ही रट है। कहता है, पचास रुपये लेकर साठ बीघे नील की लिखा-पढ़ी कर दो। बाद में दो बरस का हिसाब एक साथ चुका दिया जाएगा।

 गोलोकचन्द्रः साठ बीघे नील करने पर दूसरी खेती में हाथ भी न लगा सकोगे। भूखों मरना पड़ेगा।
नवीनमाधवः मैंने कहा, साहब, हम लोगों के नौकर-चाकर, हल-बैल, सब आप नील की जमीन में लगा लीजिए। बस हमें बरस भर रोटी खिला दीजिएगा। हम वेतन नहीं चाहते। इस पर हँसी उड़ाता हुआ बोला, तुम लोग तो म्लेच्छ का भात नहीं खाते।

साधुरचणः जो लोग पेट के लिए नौकरी करते हैं, वे भी हमसे ज्यादा सुखी हैं।
गोलोकचन्द्रः हल चलाना करीब-करीब छोड़ दिया है, फिर भी तो नील से पीछा नहीं छूटता। जिद करने से क्या फायदा ? साहब के साथ बहस नहीं चलती। बाँधकर मार लगाता है। इसीलिए मारने के सिवाय कोई चारा नहीं।
नवीनमाधवः आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूँगा। पर मेरा मन है एक बार मुकदमा करने का।

                                                      (आदुरी का प्रवेश।)

आदुरीः माँजी बिगड़ रई एँ, कित्ती अबेर हो गयी। आप लोग न्हाएँगे-धोएँगे नईं ? भात सूख के काठ हो गया।
साधुचरणः (खड़े होकर) मालिक, इसका कुछ-न-कुछ परबन्ध कीजिए, नहीं तो हम लोग मारे जाएँगे। डेढ़ हल से नौ बीघे नील करना पड़ा तो खोपड़ी सिक जाएगी। मैं चलूँ मालिक हुकुम दीजिए। बड़े बाबू, नमस्कार।

                                                      (साधुचरण का प्रस्थान)

गोलोकचन्द्रः भगवान इस जगह रहने खाने देंगे, ऐसा नहीं लगता। जाओ बेटा, जाओ, नहा लो।
 
                                                         (सबका प्रस्थान)

द्वितीय गर्भांक


                                               (साधुचरण का मकान। हल लिये रायचरण का प्रवेश।)

रायचरणः (हल रखकर) अमीन साला बिल्कुल बाघ  है, कैसा मेरे ऊपर झपटा। बाप रे बाप ! लगा, मुझे खा जाएगा। साला किसी तरह नहीं माना। जबरदस्ती निसान लगा दिया। साँपोलतला की पाँचों बीघे जमीन नील में चली गयी तो बाल-बच्चे क्या खाएँग। रो-झींककर देखता हूँ। फिर भी न छोड़ी तो कल ही यह गाँव छोड़ जाएँगे। (क्षेत्रमणि का प्रवेश।) भैया घर आ गये ?
क्षेत्रमणिः बापू जमींदार के घर गये हैं। आते ही होंगे। चाची को देखते नहीं जाओगे ? तुम बड़बड़ा क्या रहे हो ?
रायचरणः बड़बड़ा रहा हूँ अपना सिर। जरा पानी तो ले आ। प्यास से गला सूख गया। साले से इतना कहा, पर एक नहीं सुनी।
                                              (साधुचरण का प्रवेश। क्षेत्रमणि का प्रस्थान।)

साधुचरणः रायचरण, इतने सबेरे कैसे ?
रायचरणः भैया, साले अमीन ने साँपोलतला की जमीन पर निशान मार दिया है। खाऊँगा क्या ? बरस भर कैसे कटेगा ? अरे, धरती क्या है, सोनचम्पा है। एक कोना काटकर महाजन को  किनारे करता था।  अब मैं क्या खाऊँगा, बाल-बच्चे क्या खाएँगे ? इतनी बड़ी गिरस्ती भूखों मरेगी। बाप रे बाप, सबेरा होते ही दो सेर चावल का खरच है। सब भूखों मरेंगे। हाय रे फूटी तकदीर ! फूटी तकदीर ! नील से कैसे काम चलेगा ! हाय ! हाय !

साधुचरणः इस थोड़ी-सी जमीन का ही तो आसरा है। वह भी गयी तो फिर यहाँ रहकर क्या करेंगे ? और जो दो-एक बीघे है उसमें तो फसल ही नहीं। फिर हल नील की जमीन में रहेगा तो जुताई कब करूँगा ? तू रो मत ! कल हल-बैल बेच, इस गाँव के मुँह पर झाड़ू मार बसन्त बाबू की जमींदारी से भाग चलेंगे।

                                                    (क्षेत्रमणि और रेवती का पानी लेकर प्रवेश।)

ले पानी पी, पानी पी। डर क्या है ? जिसने पैदा किया है वही अन्न भी देगा। तू अमीन से क्या कह आया ?
रायचरणः क्या कहता ? ज़मीन में निसान मारने लगा तो जैसे मेरी छाती पे चिता सुलगाता हो। मैंने पैर पकड़े, रुपया देना चाहा, पर उसने एक न सुनी। बोला जा अपने बड़े बाबू के पास जा, अपने बाप के पास जा, फौजदारी करूँगा, यह कह आया हूँ। (दूर से अमीन को आता देखकर) वह देखो, साला फिर आ रहा है, सिपाही लेकर। पकड़कर कोठी ले जाएगा।

                                                        (अमीन और सिपाहियों का प्रवेश)

अमीनः बाँध लो, साले रइए बाँध लो।

                                                 (दोनों सिपाही रायचरण को पकड़कर बाँधते हैं।)

रेवतीः हाय मैया, यह क्या ! अरे, बाँधे क्यों हो ? हाय हाय ! (साधु से) तुम खड़े-खड़े क्या देख रहे हो ? जमींदार के घर जाओं जमींदार को बुला के लाओ।
अमीनः (साधु से) तू कहाँ जाएगा, तुझे भी चलना होगा। ब्याना लेना रअए के बूते का नहीं। अँगूठा निशानी में बड़ा झमेला है तू तो पढा-लिखा है, तुझे रजिस्टर में दस्तखत करने होंगे।
साधुचरणः अमीन जी, इसे नील का ब्याना कहते हो ? यह तो जोर जबरदस्ती है ! हाय री फूटी तकदीर, तुझसे छुटकारा नहीं ! जिसके डर से भागा था उसी में फिर जा फँसा। पट्टे से पहले यहाँ तो रामराज था। पर बैरागी बना, देस में अकाल पड़ा।

अमीनः (क्षेत्रमणि को देखकर स्वागत) यह छोकरी तो बुरी नहीं। छोटे साहब तो ऐसा माल देखते ही लपक लेंगे। अपनी बहिन देकर बड़ी पेशकारी मिली, इसे देकर तो....अच्छा माल है। देखते हैं।
रेवती छेत्तर बेटी तू भीतर जा।

                                                              (क्षेत्रमणि का प्रस्थान।)

अमीनः चल रे साधु, इस वक्त चुपचाप कोठी चला चल।

                                                               (जाने लगता है।)

रेवतीः इन्ने पानी माँगा था। अजी अमीन साहब तुम्हारे क्या बाल-बच्चे नहीं ? बस हल ला के रखा ही था। कि जे मारपीट। हाय मैया ! ज्वान लड़का, अब तक दो बार खायै-पीयै। बिना खाये साहब कोठी जाएगा कैसे ? वह तो बड़ी दूर है। दुहाई साहब की, दो कौर खा ले, फिर ले जाना। हाय हाय, बाल-बच्चों के लिए दुखी हैं, अभी तक आँखों से आँसू टपके हैं, मुँह सूख गया....क्या करें, कैसे जले देस में आये, जान-माल सब गया। हाय हाय हाय, जान-माल सब गया !
(रोती है।)
अमीनः अरी, अपना मिनमिनाना बन्द कर, पानी देना है तो दे, नहीं तो ऐसे ही लिए जाता हूँ।  

                                               (रायचरण पानी पीता है और फिर सब जाते हैं।)

तृतीय गर्भांक


(बेगुनबाड़ी की कोठी, बड़े बँगले का बरामदा। आई.आई.वुड साहब और दीवान गोपीनाथ दास का प्रवेश।)
गोपीनाथः हुजूर मेरा क्या कसूर, आप देखते ही हैं, बहुत सबेरे से भटकना शुरू करके तीसरे पहर घर लौटता हूँ, और खाने-पीने के बाद ही फिर ब्याने के कागज-पत्तर लेकर बैठ जैता हूँ। उसमें कभी आधी रात होती है, कभी एक बजता है।
वुडः तोम साला बड़ा नालायक है। स्वरपुर, शामनगर, शान्तिघाटा इन तीन गाँवों में कोई बेयाना नेहीं हुआ।  हंटर के बिना तोम दोरुस्त होगा नहीं।

गोपीनाथः धर्मावतार ! मैं तो हजूर का चाकर हूँ। आपने ही मेहरबानी करके पेशकार से दीवान बनाया है। हुजूर मालिक हैं। चाहे मारिए चाहे काटिए। इस कोठी के कुछ बड़े कट्टर दुश्मन हो गये हैं, उनको दबाये बिना नील की तरक्की मुश्किल है।
वुडः जानेगा नेहीं तो दबाएगा कैसे ? हमरा रुपया, घोड़ा, लठैत, बल्लमदार, इतना है, इनसे दबेगा नेहीं ? पुराना दीवान दुश्मन का बात हमको बताता था- तोमने नेहीं देखा, बदमाशों को कैसा कोड़ा लगाया, गाय-बैल छीन लिया, जोरू पकड़ लिया,...जोरू पकड़ने से साला लोग बड़ा घबराता है। बदमाशी का कोई बात हाम नेहीं सुना....तोम हरामजा़दा हामको कुछ नेहीं बताया.....तोम साला बड़ा नालायक है। दीवानी का काम कायत का नेहीं...तोमको जूता मारकर निकाल देगा और हाम किसी केवट को यह काम देगा।

गोपीनाथः धर्मावतार ! बन्दा जात का ज़रूर कायस्थ है, पर काम में केवट है, केवट जैसा ही काम कर रहा है। मुल्लाओं से धान छुड़ाकर नील की खेती कराने में, गोलोक बोस के खानदानी बगीचे और राजा के ज़माने की जमा-पूँजी निकलवा लेने में, मैंने जैसे-जैसे काम किये हैं, उन्हें केवट तो क्या चमार भी नहीं कर सकता। मेरी तो तकदीर ही खराब है। इसलिए इतना करके भी जस नहीं।

वुडः साला नवीनमाधव सब रुपया चुकती चाहता हाय, ओसको हाम एक कौड़ी नेहीं देगा। ओसाका हेसाब दोरुस्त करके रक्खो। भेंचो, बड़ा मुकदमाबाज़। हाम देखेगा साला किस तरह रुपया लेता हाय।
 
गोपीनाथः धर्मावतार ! वह एक आदमी, कोठी का ख़ास दुश्मन है। पलाशपुर का जलाना कभी साबित न होता, नवीन बोस उसमें टाँग न अड़ाता तो बेटा खुद ही दरखास्त का मसौदा बना लेता है। उसने वकील-मुख्तारों को ऐसा सलाह-मशविरा दिया कि उसके बल पर ही हाकिम की राय बदल गयी। इसी साले की चालाकी से पुराने दीवान को दो साल की सजा हुई मैंने मना किया था, नवीन बाबू, साहब के खिलाफ कुछ मत करो। साहब ने तुम्हारा तो घर नहीं जलाया। उस पर शैतान कहने लगा, ग़रीब रैयत को बचाने का ज़िम्मा लिया है। ज़ालिम नीलकरों के अत्याचार से अगर एक किसान को भी बचा सका तो अपने को धन्य समझूँगा। और दीवान जी को जेल भिजवाकर अपने बगीचे का बदला लूँगा। बेटा जैसे पादरी हो। साला इस बार क्या साजिश कर रहा है कुछ समझ में नहीं आता।

वुडः तोम डर गया हाय, हाम बोला नेहीं कि तोम बड़ा नालायक, तोमसे काम नेहीं होगा।
गोपीनाथः हुजूर डरने जैसी बात आपने क्या देखी ? जब उइ पदवी पर पैर रक्खा तो डर, शरम, लज्जा, मान-मर्यादा सबको घोलकर पी लिया। गोहत्या, ब्रह्म-हत्या, स्त्री-हत्या, आगजनी तो अब बदन के गहने हो गये हैं और जेलखाने में तो एक पैर ही डाल रखा है।
वुडः हाम बात नेहीं चाहता, काम चाहता हाय।

(साधुचरण, रायचरण, अमीन और दो सिपाहियों का सलाम करते-करते प्रवेश।)
वुडः इन बज्जातों का हाथ में रस्सी क्यों हाय ?
गोपीनाथः धर्मावतार, यह साधुचरण एक इज्जतदार किसान है, पर नवीन बोस के कहने से नील की बर्बादी में लग गया है।
साधुचरणः धर्मावतार, नील के खिलाफ कोई काम न मैंने किया, न करता हूँ और न करने की ताकत है। मर्जी से, बेमर्जी से नील ही बोया है, इस बार भी बोने को तैयार हूँ। पर हर बात की हद होती है, आधे अँगुल की नली में आँठ अँगुल बारूद भरने से फटेगी ही। मैं बहुत ही मामूली किसान हूँ, डेढ़ हल मेरे पास है, कुल आबाद जमीन बीस बीघे है, जिसमें से नौ नील में चली जाए तो दिल दुखता ही है। पर दिल दुखने से मैं ही मरूँगा, हुजूर क्या है।

गोपीनाथः साहब को डर है कहीं तुम उन्हें बड़े बाबू के गोदाम में क़ैद न करवा दो।
साधुचरणः दीवान जी साहब, मरे को क्या मारते हैं ? मैं एक कीड़े से भी गया-बीता साहब को क्या क़ैद करूँगा, प्रबल प्रतापशाली.....



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