लोगों की राय

पत्र एवं पत्रकारिता >> सिने संसार और पत्रकारिता

सिने संसार और पत्रकारिता

रामकृष्ण

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2913
आईएसबीएन :81-263-1246-7

Like this Hindi book 20 पाठकों को प्रिय

108 पाठक हैं

प्रस्तुत है रामकृष्ण की संघर्ष यात्रा......

cine Sansar Aur Patrakarita

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सिने संसार और पत्रकारिता वस्तुतः राम कृष्ण के आत्मा वृत का पूर्वार्द्ध हैं। इसका उत्तरार्द्ध फिल्मी जगत में अर्ध-शती का रोमांच के नाम से सन् 2003 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुके है।
लेखक-पत्रकार रामकृष्ण की कलम मात्र लिखती नहीं बोलती भी हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत पत्र आप की आँखों के सामने से इस तेजी के साथ फिसलते रहते हैं कि आपको पता ही नहीं चल पाता कि कब पहला गया और दूसरे ने उसकी जगह ले ली- बिल्कुल फिल्म के परदे की तरह; बोलने बतियाने की शैली में अपने संस्मरणों को लिपिबद्ध करना रामकृष्ण की विशेषता है। इसी से उनका रचना शिल्प पाठक को उबाता नहीं, उसे लगता है जैसे उनकी यादें उसकी अपनी यादें।

प्रस्तुत पुस्तक में जहाँ रामकृष्ण की संघर्ष यात्रा का हर सोपान कहानी खुद कहता है, वही लेखक ने फिल्म जगत के उन चरित्रों को भी जीवित जाग्रत रूप में उपस्थिति करने का प्रयत्न किया है जिनका अपने जमाने में असाधारण महत्व था। फिर भी उस समय के फिल्मकार हो या कालजयी गीतकार-सभी की दुर्लभ झलकियाँ इसमें मिलेगी। पड़ोसी देश पाकिस्तान के फिल्मी धरातल का आकलन भी इसके माध्यम में बखूबी किया जा सकता है। मात्र फिल्म जगत ही नहीं देश के अन्याय विधाओं का श्रेष्ठिवर्ग भी रामकृष्ण की स्मृति रेखाओं से अछूत नहीं रह पाया है। आचार्य नरेन्द्रदेव, सम्पूर्णानन्द, वल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, कृष्ण मेनन, और फिरोज गांधी जैसे राजनेताओं और समाज वेत्ताओं के अतिरिक्त पुस्तक में अमृतलाल नागर, धर्मवीर भारती और अक्षयकुमार जैन जैसे मसिजीवियो के अन्तरंग संस्मरण भी हैं।

सिने संसार और पत्रकारिता

एक

लेखन की दीक्षा सम्भवतः प्रेमचन्द द्वारा दिए गये दस रुपये के एक नोट के माध्यम से मुझे मिली थी। कहा जाता है कि सद्यःजात शिशु के रूप में जब मुझे उनकी गोद में दिया गया तो मेरे मस्तक का चुम्बन करते हुए दस रुपये के उस नोट को उन्होंने मेरे हाथों में थमा दिया था। आज भी वर्ष 1927 की एक डायरी के 29 नवम्बर के पृष्ठ पर सुस्पष्ट अक्षरों में अंकित मिलता है -बच्चों के पैदा होने पर बाबू प्रेमचन्द ने दस रुपये उस पर न्योछावर किये।
प्रेमचन्द जी उन दिनों लखनऊ में ही रहते थे हमारे अपने घर के बाहरी हिस्से में एक किरायेदार के रूप में। तब वे नवलकिशोर प्रेस द्वारा प्रकाशित होनेवाली सुचर्चित और सुपठित ‘माधुरी’ नामक उस मासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे जिसने कालान्तर में साहित्यिक पत्रकारिता के अन्तर्गत कालजयी ख्याति अर्जित की। अपने सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ का लेखन उन्होंने हमारे घर में रहते हुए ही किया था और दस रुपयों के जिस नोट को उन्होंने मेरे ऊपर न्योछावर किया था उसकी आज की कीमत हजार रुपये से निश्चित ही कम नहीं होगी।

प्रेमचन्द जी को अपनी उम्रदराज आँखों से निहारने का मौका तो मुझे नहीं मिल पाया, लेकिन मैं समझता हूँ कि उन्होंने मुझे निश्चित ही गौर से देखा होगा। उनके उस आयाचित दृष्टि-स्पर्श की जो मैंने विरासत इस धरती पर पहुँचते ही मेरी झोली में पड़ गयी थी उसी ने सम्भवतः इस बात के लिए मुझे प्रेरित किया कि अपने हाथों में कलम पकड़ने की हिम्मत मैं कर सकूँ। दस वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने का ऐसा चस्का मुझे लग चुका था कि उसके अलावा किसी दूसरी चीज में मुझे कोई रुचि ही शेष नहीं रह गयी थी—न खेल-कूद में, न पढ़ाई-लिखाई में और न किसी तरह के हल्ला-हुड़दंग में। अपनी उसी उमर में, सरसों के तेल के चिराग से निकलती हुई लौ के सहारे, प्रेमचन्दकृत ‘रंगभूमि’ को एक ही बैठक में मैं पूरी तरह पढ़ गया था और उसके पात्र अब भी मेरे मनमस्तिष्क में उसी तरह जीवित और जीवन्त हैं जैसे आज से सात दशक पूर्व रहे होंगे।

इसे मैं एक दैवी संयोग मानता हूँ कि ऐसे सामान्य परिवार में जन्म लेने के बावजूद जो सामाजिक, साहित्यिक या राजनीतिक परिवेश से पूरी तरह असम्प्रक्त हो मुझे बचपन से ही ऐसे गुरुजनों का आयाचित स्नेह-सान्निध्य सुलभ होता रहा जो अपने काल के शीर्षपुरुष माने जा सकते हैं। हमारे ही घर के एक भाग में उन दिनों स्वामी रामतीर्थ के साहित्य का प्रकाशन-केन्द्र अवस्थित था। रामतीर्थ के पट्टशिष्य और श्रीमद्भागवद्गीता के सुप्रसिद्ध भाष्यकार श्रीमन्नारायण स्वामी उसके अधिष्ठाता थे। धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में तो उनका अतुल प्रभाव था ही, सामाजिक और राजनीतिक विधाओं में भी उनकी अच्छी-खासी पहुँच थी। इसीलिए लखनऊ आनेवाला कोई भी राजनेता या समाजवेत्ता उनसे मिले बगैर वापस नहीं लौटता था। टिहरी और जुब्बल के महाराजाओं और रामकृष्ण डालमिया और ब्रजमोहन बिड़ला जैसे देश के शीर्षस्थ उद्योगपतियों के अतिरिक्त लाला लाजपतराय और पंडित मदन मोहन मालवीय सरीखे राजनेताओं, मोतीलाल नेहरू और तेजबहादुर सप्रू जैसे विधि-विशेषज्ञों और अल्लामा इकबाल जैसे शायरों को भी कई बार अपनी चुन्नी-मुन्नी आँखों से देखने-निहारने के अवसर मुझे सुलभ हुए।

इकबाल ने तो स्वामी रामतीर्थ की प्रशस्ति में एक लम्बी भावपूर्ण नज़्म भी लिखी थी। राधाकुमुद और राधाकमल मुखर्जी सदृश्य शिक्षाविद्, मिश्रबन्धुओं के नाम से विख्यात श्यामबिहारी और शुकदेवबिहारी मिश्र जैसे साहित्यकर्मी, रूपनारायण पांडे तथा दुलारेलाल भार्गव सरीखे सम्पादक और चौधरी खुलीकुज़्ज़ामा, मोहनलाल सक्सेना और चन्द्रभानु गुप्त जैसे स्थानीय महारथी तो प्रायः हर सप्ताह किसी-न-किसी प्रसंग में नारायणस्वामी से मिलने, उनसे विचार-विमर्श करने वहाँ आते रहते थे, और जब वह आते थे तो उनके छोटे-मोटे अतिथ्य का कर्तव्य हम बच्चों को ही निबाना पड़ता था। दीनबन्धु एंडरूज को भी पहली बार मैंने वहीं देखा—उन्होंने स्वामी रामतीर्थ की ग्रन्थमाला की प्रस्तावना लिखी थी। इसी तरह नारायण स्वामी के गुरु भाई, अध्यापक पूर्णसिंह के दर्शन भी—जो मात्र पाँच आलेखों का सृजन कर हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपना अक्षुण्ण स्थान बनाने में सफल रहे थे—मुझे वहीं मिले। नाराणस्वामी की तरह पूर्णसिंह भी स्वामी रामतीर्थ के शिष्य थे। अपने जापान प्रवास में उन्होंने स्वामी जी से गुरुदीक्षा ली थी—हालाँकि कालान्तर में उन्हें पुनः गार्हस्थ्य जीवन अपनाने के लिए विवश हो जाना पड़ा था।

महाकवि निराला भी उन दिनों हमारे पड़ोस के मुहल्ले, नाला फतेहगंज में अवस्थित थे। सुधा कार्यालय या गंगा ग्रन्थागार आते-जाते (उनकी अधिकांश पुस्तकें वहीं से प्रकाशित हों) नारायणस्वामी से मिलने-भेंटने प्रतिदिन किसी न किसी समय वह भी रास्ते में हमारे यहाँ रुक जाया करते थे। नारायणस्वामी के प्रति उनका असीम अनुराग था। राम की शक्तिपूजा मैंने उन्हीं के श्रीमुख से सुनी थी—उन्हीं दिनों या बाद में, इतना स्मरण नहीं। अपने पट्टशिष्य रामानन्द तीर्थ को भी नारायणस्वामी ने हमारे ही परिसर में औपचारिक रूप से दीक्षित किया था। कालान्तर में रामानन्द तीर्थ ने तत्कालीन हैदराबाद रियासत के शीर्षस्थ लोकनेता के रूप में अप्रतिम ख्याति अर्जित की और कई बार लोकसभा के सांसद भी रहे। हैदराबाद की राजनीति में उन दिनों उनका उतना ही मूर्धन्य और महत्त्वपूर्ण स्थान था जितना जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला का-बल्कि उनकी लोकप्रियता अब्दुल्ला की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और प्रभावशाली थी। इसी तरह गोविन्दवल्लभ पन्त के पहले दर्शन भी मुझे नारायणस्वामी के सान्निध्य में ही मिले थे। नारायणस्वामी द्वारा संस्थापित यू.पी. धर्मरक्षण सभा के वह सक्रिय सदस्य थे और कूर्मांचल में स्थित देवालयों के सन्बन्ध में विचार-विमर्श करने वह अक्सर हमारे यहाँ आया करते थे।

वैदिक मैथमेटिक्स के मूल प्रणेता, अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान और पुरी-स्थित गोवर्धनपीठ के दिवंगत शंकराचार्य भारतीकृष्ण तीर्थ भी वर्ष-दो वर्ष में कम-से-कम एक बार नियमित रूप से हमारे यहाँ अपनी चरणरज बिखेरने आया करते थे। वस्तुतः जब मैंने इस धरती पर अपने कदम रखे, उस समय वे मेरे ही घर में उपस्थित थे, और मेरा नामकरण संस्कार उन्हीं के माध्यम से सम्पन्न हुआ था। इस तरह देश और समाज के ऐसे शीर्ष व्यक्तियों को निरन्तर अपने परिसर में सहज रूप से आते-जाते और खाते-पीते देखना मेरे लिए एक आम बात होकर रह गयी थी और उसे किसी भी तरह का कोई महत्त्व देना मेरे लिए न सम्भव था और न स्वाभाविक।

लेकिन इस बात से इनकार करना भी मुश्किल नहीं कि परोक्ष रूप से उस वातावरण का प्रभाव मुझ पर तबसे पड़ना शुरू हो गया था जब मुझमें कुछ समझने-बूझने की अकल भी नहीं पैदा हो पायी। अपने को किसी से बड़ा समझने का तो प्रश्न ही नहीं उठता लेकिन उससे छोटा अपने को समझूँ—यह उस उम्र में भी मुझे स्वीकार्य नहीं था। इसी दिशा में मेरे दर्प की एक ही मिसाल पर्याप्त होगी। जब मेरी वय कुल चार-पाँच वर्ष की रही होगी तब हम लोग अयोध्या गये थे। अयोध्या में कनक-भवन के नाम से भगवान राम का एक भव्य मन्दिर है। उस मन्दिर की देखरेख मध्यप्रदेश-स्थित ओरछा राजघराने के द्वारा की जाती है। परम्परा के अनुसार उस राजपरिवार की कोई महिषी जब मन्दिर में आती थी तब मन्दिर का प्रांगण अन्य दर्शनार्थियों से पूरी तरह खाली करा लिया जाता था। उस बार भी ऐसा ही हुआ। हम लोगों ने मन्दिर में प्रवेश ही किया था कि टीकमगढ़ की महारानी के आगमन की मुनादी की गयी और वहाँ उपस्थित सभी दर्शानार्थियों से कहा गया कि वह तत्काल बाहर निकल जाएँ। मेरे लिए ऐसा करना असह्य था। होंगी महारानी अपनी रियासत की, हमें उनसे क्या लेना-देना—मेरे बालमन ने सोचा होगा। और मैंने दृढ़ता के साथ वहाँ से उठने से साफ इनकार कर दिया। लोगों—स्वयं कनक भवन के कर्मचारियों—द्वारा मुझे हर तरह से बहलाने-फुसलाने की कोशिश की गयी, लेकिन मैं अपने निर्णय पर अटल रहा। परिणाम यह हुआ कि महारानी साहिबा को मेरी उपस्थिति में ही भगवान के दर्शन करने पड़े। कहते हैं, जाते-जाते उन्होंने मेरे हाथ में एक गिन्नी थमाने की कोशिश की थी, लेकिन मैंने उसे वहीं फेंक दिया था और फिर उसकी ओर देखा तक नहीं।

यह मैं सिर्फ यह बताने के लिए लिख रहा हूँ कि अपने परिवेश, अपने आसपास के वातावरण का बच्चों पर बहुत असर पड़ता है। इतने महती लोगों को अपने इर्द-गिर्द देखने की आदत अगर मुझे नहीं पड़ी होती तो शायद मैं भी दूसरों की तरह मन्दिर के प्रागण से बाहर निकलने के लिए तैयार हो गया होता।
अब अपनी मूल गाथा को फिर पकड़ूँ। रामतीर्थ प्रतिष्ठान (उन दिनों रामतीर्थ पब्लिकेशन लीग) में चूँकि अलग से किसी चौके-चूल्हे की व्यवस्था नहीं थी—स्वयं नारायण स्वामी भी हम लोगों के साथ ही भोजन करते थे— इससे उनके अतिथियों को जलपान और भोजन परोसने का काम अक्सर हम बच्चों को ही करना पड़ता था। आगत समुदाय के नाम-धाम से भले ही हम लोग सर्वथा अपरिचित हों लेकिन जिस तरह उनकी आवभगत की जाती थी उससे इस बात का हमें स्वतः आभास हो जाता था कि वे किसी विशिष्ठ कोटि के व्यक्ति हैं—सामान्य लोगों से सर्वथा अलग, उनसे कहीं अधिक बढ़े-चढ़े, उनसे कहीं महान—और अगर उनके सान्निध्य में रहने, उनकी सेवा करने का अवसर हमें मिलता है तो हम भी किंचित सामान्य नहीं।

उस काल की दो छोटी-छोटी घटनाएँ मेरे मानस पटल पर अब भी कुछ-कुछ अंकित हैं। रामकृष्ण डालमियाँ जब आये तो उनके भोजन-पान का प्रबन्ध घर पर ही किया था। डालमिया उन दिनों देश के प्रमुखतम उद्योगपति थे। समाज और सरकार में उनकी तूती बोलती थी। इसी से मेरी दादी-माँ ने उनके लिए जितनी तरह के व्यंजन तैयार किये, उसकी तफसील देना संभव नहीं। पूरे दो दिन वह उसकी तैयारियों में लगी रही थीं। अंततः जब वह छप्पनभोग उनके सामने परोसा गया तो उसकी ओर देखने तक से डालमिया ने ना कर दी। बोले थे—मेरा उदर ऐसा नहीं जो इस तरह के गरिष्ठ वस्तुओं को हजम कर सकूँ। बरसों से ज्वार-बाजरा की दो छोटी-छोटी चपातियाँ चबाता रहा हूँ और उन्हीं की दरकार मुझे इस समय भी है। अगर आपके पास मक्के का आटा हो तो उसके एक-दो फुलके बना दें, दही के साथ उसको निगलने की कोशिश कर लूँगा।

दूसरी घटना तब की है जब जुब्बल के हिज़हाइनेस लखनऊ आये हुए थे।
जुब्बल उन दिनों के अविभाजित पंजाब प्रांत का एक प्रमुख देशी राज्य था और उसके महाराजा स्वामी रामतीर्थ के परम भक्तों में थे। उनके स्वागत में नारायणस्वामी ने जो भोज दिया उसमें अवध के कतिपय महत्त्वपूर्ण ताल्लुकेदार भी आमंत्रित किये गये थे। कुर्री-सिदौली उन दिनों यहाँ की एक छोटी, मगर मशहूर रियासत थी। उसके अधिपति रामपाल सिंह न केवल राजा के खिताब से अलंकृत थे बल्कि उन्हें सर का नाइटहुड भी मिला हुआ था। अँग्रेज लाट साहबों के साथ उनके हमेशा अन्तरंग सम्बन्ध रहे थे और अवध के ताल्लुकेदारों का मुखिया माना जाता था। रामपाल सिंह ने नारायणस्वामी को राय दी कि महाराजा साहब को जो दावत दी जाए वह पूरी तरह राजसी ठाट-बाट से सम्पन्न होनी चाहिए और इसके लिए उन्होंने शुद्ध सोने-चाँदी से निर्मित अपने डिनर सेट को उपलब्ध कराने के पेशकश की। नारायण स्वामी को भला उनके इस प्रस्ताव पर क्या आपत्ति हो सकती थी ? उन्होंने उसे तत्काल स्वीकार कर लिया। अतिथियों की संख्या देखते हुए उन्होंने अपेक्षित बर्तन भी भिजवा दिये। उसके डोंगे गंगाजमुनी थे, गिलास और प्लेटें चाँदी की थीं और कटोरियाँ सोने की तब तक चूँकि भारतीय समाज में मेज-कुर्सियों का प्रचलन नहीं हो पाया था इससे बैठने के लिए संगमरमर के पीढ़े और खाने की थालियाँ रखने के लिए संगमूसा की चौकियाँ पहले ही किराए पर मँगा ली गयी थीं।

उन दिनों मोटरकारों का चलन ज्यादा नहीं हो पाया था, इससे अधिकांश अतिथि बग्घियों पर आये थे, और एक-दो हाथी पर भी। खाने के लिए जमीन पर कालीन बिछाये गये और उस पर सुसज्जित की गयीं चौकियाँ और पीढ़े। रामपाल सिंह ने आमन्त्रित अतिथियों की संख्या के अनुसार ही बरतन भेजे थे, उससे अधिक भिजवाने की जरूरत भी नहीं थी। लोग अपने आसनों पर बैठने की तैयारी ही कर रहे थे कि नारायणस्वामी से कुछ विचार-विमर्श करने अपनी फिटन पर वहाँ पहुँच गये छतारी नवाब साहब। तब तक लखनऊ से टेलीफोन व्यवस्था अधिक लोकप्रिय नहीं हो पायी थी और जिन सौ-पचास लोगों के पास टेलीफोन थे भी, उनका सार्थक उपयोग बहुत कम हो पाता था। इसी से बगैर कोई सूचना किसी के यहाँ पहुँच जाना उन दिनों न अस्वाभाविक बात मानी जाती थी और न अजूबा।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book