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ममता कालिया की कहानियाँ - भाग 1

ममता कालिया

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :394
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2893
आईएसबीएन :81-8143-300-9

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इसमें ममता कालिया की कहानियों को खण्डों के रूप में प्रस्तुत किया गया है...

MAMTA KAALIYA KI KHANIYAN-1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर ममता कालिया की उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। लगभग आधी सदी के काल खण्ड में ममता कालिया ने 200 से अधिक कहानियों की रचना की है। यह स्वाभाविक ही है कि उनकी अब तक लिखी कहानियाँ दो भागों में संग्रहित की जायें। पहले भाग में ममता-कालिया के पाँच कहानी-संग्रह संकलित हैं-1.छुटकारा 2.सीट नम्बर छह 3.एक अदद औरत 4.प्रतिदिन 5.उसका यौवन। रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतियों पर देश- विदेश में हो रहे व्यापक शोध-कार्य में इन पुस्तकों की अनुपलब्धता से काफी कठिनाई पैदा होती है। विद्यार्थी, शोधार्थी और रचनाप्रेमी पाठकों की माँग पर इन सभी कहानी संग्रहों का संचयन किया जा रहा है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत के शिक्षित, संघर्षरत और परिवर्तनशील समाज का सजीव चित्र इन कहानियों में अपने बहुरंगी आयामों में दिखाई देता है। हिन्दी कथा-जगत में ममता कालिया की तरह लिखने वाले रचनाकार विरल हैं जो गहरी आत्मीयता, आवेग और उन्मेष के साथ जीवन के धड़कते क्षण पाठक तक पहुँचा सकें। इनके लेखन में अनुमति की ऊष्मा अनुभव की ऊर्जा के साथ रची बसी है। ‘उसका यौवन’ ‘लड़के’, ‘आपकी छोटी लड़की’ मनोविज्ञान वसंत सिर्फ एक तारीख ‘राएवाली’ वैसी कहानियाँ हैं जैसी जिंदगी है, तुर्श और शीरीं, सम और विषम। ममता कालिया की कहानियों में जिस संवेदनशील, संतुलित, समझदार लेकिन चुलबुले, मानवीय सहानुभूति से आलोकित व्यक्तित्व की झलक मिलती है वह उनके दृष्टिकोण की मौलिकता से दुगुनी दमक पाती है। उनकी रचनाओं में कलावादी कसीदाकारी न होकर जीवनवादी यथार्थ का सौन्दर्य बोध है। इस रचनाकार ने अपने समय और समाज को पुनर्परिभाषित करने का सृजनात्मक जोखिम लगभग हर कहानी में उठाया है। कभी वे समूचे परिवेश में नया सरोकार ढूँढती है तो कभी वे वर्तमान परिवेश में नयी नारी की अस्मिता और संघर्ष को शब्द देती हैं। प्रस्तुत कहानियों का रचनाकाल 1965 से 1985 रहा है। ये हिन्दी कहानी में प्रयोगधर्मिता के उत्कर्ष-वर्ष रहे हैं। ममता कालिया की कलम पर इनका प्रभाव देखा जा सकता है।

समकालीन कथा-परिदृश्य में जिस नारी-विमर्श का शोर सुनाई दे रहा है, उसका मौलिक स्वरूप व सरोकार इन कहानियों में अपनी समर्थ उपस्थिति बनाये हुए है। जब ये कहानियाँ लिखी गई तब नारी- विमर्श ना तो बिकाऊ माल था न चालू नुस्खा। लेकिन ममता कालिया ने बहुत पहले यह देख लिया था कि स्त्री के जीवन में अधिकार का संघर्ष सतत चलने वाला क्रम है। अपने सोच एवं विचार में यह रचनाकार पूर्ण तथा आधुनिक और निषेध-मुक्त है।

 

ममता कालिया

 

 

रवीन्द्र कालिया

‘हाओ वुड यू स्पेल इंसाइक्लोपीडिया ?’ वह पहला सवाल था, जो ममता के पापा ने पूछा था। ममता ने मुझे पहली बार दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया था। मैं खूब तैयारी के बाद गया था यानी जूते पालिश करवाये थे। शेव बना ली थी, लांड्री के धुले कपड़े पहने थे। जाने से पूर्व आइने के सामने खड़े होकर अपने व्यक्तित्व का जायजा लिया था। पापा के इस सवाल ने सारी तैयारी को धूल में मिला दिया। पापा के लिए मैं अजनबी भी नहीं था। कभी कभार उनसे टी हाउस में भेंट हो जाया करती थी। यह कहना भी गलत न होगा कि वे मेरी कहानियों के प्रशंसक थे। उस दिन न जाने वह किस मूड में थे कि मुझे देखते ही भारी-भरकम शब्द का इसी प्रकार स्वागत करने का रिवाज हो।

जवाब में मैं सोफे पर धँस गया और सिगरेट सुलगा ली। ईंट का जवाब इसी पत्थर से दिया जा सकता। दरअसल यह घर मेरे लिए एकदम अनजान नहीं था। इससे पूर्व मैं जगदीश चतुर्वेदी के साथ दो-बार इनके यहाँ जा चुका था। उन दिनों ‘प्रारम्भ’ का सम्पादन कर रहा था और संकलन के लिए ममता की कविताएं लेने गया था। ममता के पिता चूंकि आकाशवाणी के अधिकारी थे, इसलिए जैनेंद्र जी से लेकर नये से नये रचनाकारों से उनकी मित्रता थी। मुक्तिबोध से तो ममता का बचपन से ही परिचय था। पापा को ही नहीं, उनके छोटे भाई भारतभूषण अग्रवाल को भी आभास हो चुका था कि ममता का और मेरा मिलना-जुलना बढ़ रहा है। राकेश की तरह भारत जी भी इस रिश्ते के पक्ष में नहीं थे। मुझे समझते देर न लगी कि इन लोगों ने दावत के बहाने भावी दामाद का इण्टव्यू लेने के लिए मुझे आमन्त्रित किया है।
पापा का दूसरा सवाल था, ‘भोजन कैसा बना है ?’  
‘ममता ने बनाया है।’ ममता की मम्मी ने बताया।

खाना लजीज बना था, मगर मुझे मालूम था कि ममता ने नहीं बनाया है। मैंने शरारत से कहा, ‘तब तो सिलाई-कढाई में भी प्रवीण होगी।’
सब लोगों ने एक जोरदार ठहाका लगाया। ममता की मम्मी बहुत भोली और शालीन महिला थीं। हर वक्त गुड़िया की तरह सजी रहतीं। अभी हाल में अंतिम यात्रा से पूर्व पड़ोसियों ने उनके पार्थिव-शरीर का श्रृंगार किया तो लग रहा था, जैसे किसी दुल्हन को सजाया गया हो।
मेरी बात सुनकर मम्मी अन्दर गयीं और अपनी दो साड़ियाँ उठा लायीं, ‘ममता ने कल ही मेरी दोनों साड़ियों पर फॉल लगाया है।’
लग रहा था, पापा मेरा इम्तिहान ले रहे हैं और मम्मी अपना इम्तिहान दे रही हैं।

भोजन के दौरान दोनों इण्टरव्यू चलते रहे। मेरी या ममता की नजर में इण्टरव्यू का कोई महत्त्व नहीं था, क्योंकि इससे पूर्व मैं और ममता काफी घनिष्ठ हो चुके थे। उनसे ज्यादा नहीं तो मैं ममता को उनसे कम भी नहीं जानता था। दूसरे इस बात का भी बल था कि हम दोनों बालिग हो चुके थे।, ममता ने कभी मेरे बारे में कोई जानकारी हासिल नहीं की थी। उसे यह भी नहीं मालूम था कि हम कितने भाई-बहन हैं, मेरी क्या पृष्ठभूमि या शिक्षा है, मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान, सिक्ख हूँ या ईसाई। शायद यही सब जानने के लिए पापा ने मुझे बुलवाया था।

मेरे सम्पर्क में आने से पूर्व ममता कहानियाँ कम, कविताएं ज्यादा लिखती थी। ‘बोल्ड’ किस्म की कविताएँ लिखकर उसने तमाम लेखकों का ध्यान आकर्षित कर लिया था। उसकी प्रारम्भ की एक कविता तो डॉ. रघुवंश अथवा लक्ष्मीकांत वर्मा ने क ख ग के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित की थी और एक अर्से तक उसकी चर्चा रही थीः
प्यार शब्द घिसते-घिसते चपटा हो गया है
अब
हमारी समझ में सहवास आता है।
बाद मे चंडीगढ़ की एक गोष्ठी में उससे भेंट हुई तो मैंने पाया, वह कविताओं में ही ‘बोल्ड’ है, जीवन में तो सूर्यास्त से पूर्व पापा के डर से घर पहुँच जाने वाली एक औसत लड़की है। शाम को जब गोष्ठी खत्म हुई तो उसने दिल्ली लौ जाने की इच्छा प्रकट की।  मदान साहब ने उसके ठहरने की व्यवस्था लड़कियों के हॉस्टल में की थी, मगर वह एक ही जिद पकड़े थी, ‘पापा नाराज होंगे। सुबह मेरी क्लास है मैं छुट्टी लेकर नहीं आयी। मेरा दिल्ली पहुँचना बहुत जरूरी है। मगर अकेले कैसे जाऊँगी ?’

मैं इतना मूर्ख था कि उसका संकेत न समझता। मैं भी साथ चलने को तैयार हो गया। मदान, राकेश, कमलेशवर आदि को दाल में कुछ काला नजर आया। मदान जी ने बताया कि ‘शाम को बहुत स्पेशल चीजों का इन्तजाम है।’ राकेश-कमलेश्वर ने लालच दिया, ’बाई रोड चलेंगे, रास्ते में करनाल में ड्रिंक्स का इन्तजाम है।’ मगर मुझ पर दीवानगी सवार थी, मैंने किसी की नहीं सुनी और ममता के साथ बस में बैठ गया।

ममता दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध दौलतराम कालेज में अंग्रेजी की लेक्चरर थी और मैं ‘भाषा’ के संपादकीय विभाग में था। वह मुझसे लगभग दुगुना वेतन पा रही थी। ममता को प्रभावित करने के इरादे से मैं चार-छह रोज में ही अपना वेतन फूँक देता। महीने के बाकी दिन अनुवाद के सहारे चलते थे। उन दिनों राकेश जी लॉ बोहीम बहुत जाया करते थे। कृष्णा सोबती भी जाती थीं। लॉ बोहीम चर्चा में था। हम लोग भी लॉ बोहीम में मिलते। मैं ममता को टैक्सी में घर छोड़ आता और खुद बस में लौटता  इन सब हरकतों का नतीजा यह निकला कि ढाबे और चाय वगैरह का बिल बढ़ने लगा। एक बार माता-पिता मेरी खबर लेने दिल्ली आये। दिल्ली यात्रा उन्हें काफी महँगी पड़ी। वे जब आये, मैं दिल्ली से बाहर था। पीछे से ढाबेवाले ने हम लोगों का कच्चाचिठ्ठा खोल  दिया। वे मेरे तमाम उधार चुका गये और एक चिट्ठी छोड़ गये, जिसमें अच्छी-अच्छी हिदायतें थीं। चिट्ठी क्या थी, पूरा हिदायतनामा था। उन हिदायतों का पालन करता तो अंतरराज्जीय क्या अंतर्जातीय विवाह भी न सम्भव होता और अपने बड़े भाई के पास कैनेडा चला गया होता, बहन पहले से ही यू. के. जाने की तैयारी कर चुकी थी। हम लोगों के बाद माता-पिता भी कैनेडा ‘माइग्रेट’ कर गये, उनकी इच्छा थी कि हम सब लोग वहीं जा बसें। यह दूसरी बात है कि कैनेडा का जीवन माता-पिता को रास नहीं आया और वे लौट आये। दुबारा गये, फिर लौट आये।

मेरी शामें ममता के सन्निध्य में बीतने लगीं। एक तरह से दिल्ली–दर्शन भी मैंने ममता के साथ किया। हम लोग छुट्टी के रोज कभी कुतुब की तरफ निकल जाते, कभी बुद्ध जयंती पार्क, कभी हुमायूँ के मकबरे पर बैठे रहते। भोजन भी साथ-साथ करते। तब हम दोनों निरामिष थे।
इसी बीच मुझे ‘धर्मयुग’ में नौकरी मिल गयी। मुझे सर्वाधिक दस इंक्रीमेंट्स दिए गये थे। ममता से कम वेतन पाने की कुंठा समाप्त हो गयी। शायद यही कुंठा मुझे मुंबई ले गयी। गाड़ी का  आरक्षण भी ममता ने ही कराया। गाड़ी चलने से पूर्व सौ-सौ रुपये के कुछ नोट भी मेरी जेब में डाल दिये। यह क्रम आज जारी है मैं यात्रा पर निकलता हूं तो कई बार जेब में हजार-पाँच सौ अतिरिक्त रुपये देखकर चौंक जाता हूँ। समझते देर नहीं लगती यह ममता का कमाल है। वह खुद चाहे द्वितीय श्रेणी में यात्रा करे, मेरा आरक्षण चुपचाप वातानुकूलित यान में करवा देगी। कई बार तो मुझे भ्रम होने लगता है कि कहीं वह मेरे प्यार में तो नहीं पड़ गयी।

 ममता लोग उन दिनों दिल्ली में शायद शक्ति नगर में रहते थे। राजेन्द्र यादव का पड़ोस था। ममता के मन्नू से बहुत घनिष्ठ सम्बंध थे। राजेन्द्र यादव का बस चलता तो वह शक्ति नगर की तमाम लड़कियों को कहानीकार बना देते। आज नहीं, शुरू से राजेन्द्र यादव का यह शौक रहा है। ‘हंस’ में महिला कथाकारों का अनुपात देखकर ममता ने एक बार राजेन्द्र यादव को राय दी थी कि वह ‘हंस’ का नाम ‘हंसिनी’ रख लें। मगर उन दिनों ममता धीरे-धीरे राजेन्द्र यादव के उपन्यास की किसी नायिका के नाम ममता अग्रवाल का पत्र प्रकाशित हुआ था। जब ‘धर्मयुग’ में पहुँचते ही मैंने अक्षर प्रकाशन के प्रथम सेट की समीक्षा ‘धर्मयुग’ के पूरे पृष्ठ कर दी तो राकेश जी ने सोचा होगा कि ममता के साथ मेरा पतन भी अवश्वंभावी है। उन्होंने कहा था कि राजेन्द्र ने ममता के माध्यम से ‘ऑपरेट’ करके समीक्षा लिखवायी होगी जबकि ऐसा कुछ था नहीं।’ भारती जी ने कहा था और मैंने लिख दी। उन दिनों भी आज की तरह चीजों का अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण होता था। ‘संडे मेल’ में अश्क के खिलाफ दूधनाथ के पत्र की भी अनेक व्याख्याएं हो रही हैं। कोई कह रहा था। नामवर बहुत अच्छे ‘ऑपरेटर’ हैं और दूधनाथ के माध्यम से ऑपरेट कर रहे हैं, कोई राजेन्द्र यादव का नाम ले रहा है, कोई कह रहा है दूधनाथ इस बार बनारस, से नयी-नयी कमीज पहनकर यों ही नहीं लौटा। वगैरह-वगैरह।

इसे संयोग ही कहा जायेगा मेरे मुंबई पहुंचने के कुछ माह बाद ममता के पापा का तबादला भी मुंबई हो गया। वे आकाशवाणी के केन्द्र निदेशक होकर आ गये और उन्हें जो घर मिला वह मीलों मील लम्बी बम्बई में मेरे (ओबी) घर से मात्र एक किलोमीटर दूर कैडिल रोड पर था। उनके सामने ही अमृतलाल नागर के भाई का निवास था, नागर जी भी उन दिनों मुंबई आये हुए थे। ममता छुट्टियों में मुंबई आयी। तो मेरी जीवन शैली देख कर स्तब्ध रह गयी। सी फेस फ्लेट, खानसामा, बावर्ची हर चीज व्यवस्थित साफ-सुथरी। मैं भी सूट नेकटाई से लैस, चमाचम जूते, इटैलियन  मोजे, पार्कर पेन, वगैरह-वगैरह। सब ओबी का चमत्कार था। मगर ओबी से ममता की एक दिन न पटी। जल्द ही दोनों एक-दूसरे को फ्रॉ़ड कहने लगे। ओबी के यहां अक्सर पार्टियाँ चलतीं, सुन्दर चेहरों के बीच मुझे देखकर ममता को लगता मैं बहुत  खतरनाक राह पर चल पड़ा हूँ। यद्यपि सुनन्दा से उसकी दोस्ती हो गयी थी, मगर पार्टियों में वह अलग-थलग रहती, इसी चिन्ता में अपनी नौकरी छोड़ दी और मुंबई चली आयी।

मैं चाहता था, किसी दिन कचहरी जाकर शादी कर लें, लेकिन ममता तैयार न हुई। उसने कहा, ‘तुम मुझे पहले ही दिन कचहरी ले चलना चाहते हो। चाचाजी ठीक ही कहते थे लेखकों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।’ दूसरी ओर मुझे शादी के परंपरागत रूप से भी बहुत वितृष्णा थी, आज भी है। आखिर तय हुआ दिल्ली में एक संक्षिप्स-सा समारोह करके विवाह की औपचारिकता निभा ली जाये। पंजाब से मेरे माता-पिता भी आये। शाम को जब मैं विवाह के लिए जाने लगा तो दोनों ने नींद का बहाना कर दिया। उन्हें यह तौर-तरीका पसंद नहीं आ रहा था। ममता लोगों ने विवाह के लिए सी-ब्लाक की कोई कोठी ली थी, हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था बी-ब्लाक में थी। मैं बी-ब्लाक से अकेला ही शादी कराने चल पड़ा। दोस्त लोग सी-ब्लाक में पहुँचने वाले थे। बीच रास्ते में श्रीमती तिक्कू मिल गयीं उनकी कार पंक्चर हो गयी थी। वह मेरे विवाहोत्सव में भाग लेने आयी थीं, मुझे यों अकेला देख कर खूब हँसी और हम लोग अँधेरे में सी-ब्लाक की वह कोठी खोजने लगे। हर तरफ सन्नाटा था। कहीं रोशनी नजर नहीं आ रही थी। कुछ दूर चलने पर ठहाके सुनाई दिये। श्रीमती तिक्कू बोलीं, ‘लगता है मोहन राकेश पहुँच गये हैं।’ मैंने अपनी ओर से किसी को निमंत्रण नहीं किया था, मगर मेरे दिल्ली के कलाकार मित्र एम.एल ओबेराय और जगदीश चतुर्वेदी ने अपनी ओर से कार्ड छपवाकर लेखकों में वितरण कर दिए थे। यही कारण था कि दिल्ली के साहित्यिक मित्रों का अच्छा–खासा जमघट लग गया था।

मुबंई पहुँचकर ममता ने बड़ी तत्परता से शीतल देवी टेम्पिल रोड पर एक फ्लैट ठीक कर लिया, चौथी मंजिल पर। ग्रांउड फ्लोर पर सिंधी की सुप्रसिद्ध कथा लेखिका सुन्दरी मीरचंदानी रहती थीं। ओबी का संग छोड़ते हुए मुझे बहुत कष्ट हो रहा था।
मगर ममता थी कि किसी भी सूरत में यहाँ रहने को तैयार न हुई। मेरे पास जो सामान था, एक सूटकेस में आ गया, न बिस्तर था, न बाल्टी, न मग, न गैस, न बर्तन। गालिब के शब्दों में यही कह सकता था।

 

है खबर गर्म उनके आने की।
आज ही, घर में बोरिया न हुआ।

 

शाम को दफ्तर से लौटा तो देखा, ममता ने इसी बीच काफी व्यवस्था कर ली थी। बिस्तर, कुकिंग गैस, बर्तन, तवा-पतीला, बेलन वगैरह कई चीजें घर में नजर आ रही थीं। शाम को ममता ने खाना भी खुद पकाया, व्यंजन पुस्तिका पढ़-पढ़ कर। तीन-चार सब्जियां, चटनी, अचार सब कुछ था। तरकारियाँ कई थीं, मगर थोड़ी-थाड़ी। हम लोगों ने खाना शुरू किया। तीन-चार कौर में मैं सब सब्जियां खा गया, ममता का चेहरा सुर्ख पड़ गया। हमारे यहां एक ही तरकारी बनती थी, मगर अच्छे परिणाम में। ममता ने जितनी तरकारी परोसी थी, उतनी तो हम चटनी खा जाते थे। दूसरे हम लोगों की रुचियां अगल-अगल थीं। वह दाल में नींबू निचोड़ देती। मैंने कभी खट्टी दाल खायी ही नहीं थी। दरअसल हम दोनों अलग-अलग प्रदेशों से आये थे, वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश से और मैं ठेठ पंजाब से। ममता की पृष्ठ भूमि कल्चरल थी, मेरी एग्रीकलचरल। हमारे यहां सुबह भोर में मटका भर के दही बिलोया जाता और ताजे सफेद मक्खन पर नमक डाल नाश्ते में बासी रोटियों के साथ पसोसा जाता।

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