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श्रंगार - प्रेम >> फ्रांसीसी प्रेमी

फ्रांसीसी प्रेमी

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :336
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2882
आईएसबीएन :81-7055-198-x

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सुनहरे बाल, नीली आँखें, गुलाबी होंठ मादक एव सुगम शरीर। इस फ्रांसीसी युवक का नाम था बेनोया दूपँ।

Fransisi Premi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुनहरे बाल, नीली आँखें, गुलाबी होंठ मादक एव सुगम शरीर। इस फ्रांसीसी युवक का नाम था बेनोया दूपँ। पहली बार देखते ही नीला उससे प्रेम करने लगती है। नीलांजना मंडल। सम्पन्न बंगाली परिवार की संतान। सुश्री, सप्रतिम सुशिक्षित पत्नी। किशनलाल का सजा-सजाया फ़्लैट नीला के लिए जेलखाना सा हो गया था। दो रेस्तोराँ का मालिक किशनलाल और साधारण भारतीय नीला को अपनी सम्पत्ति मानते थे। उसकी दृष्टि में पत्नी की इच्छा-अनिच्छा का कोई महत्व नहीं था। वह स्वयं को नीला के जीवन यौन कामना-वासना का नियन्ता मानता था।

नीला इस सोने की बेड़ियाँ काटकर भाग जाना चाहती है। किन्तु वह क्या करे ? किशनलाल का घर छोड़कर नीला भाग जाती है। अब उसके सामने गहरा अन्धकार था। अनिश्चय के इस जीवन के बीच नीला के जीवन में बेनोया दूपँ आ जाता है। यह फ्रांसीसी यूवक नीला के हृदय में झंझरवात उठा देता है। पेरिस की सड़कों पर, कैफे, जादूघर में पेटिंग की गैलरी में प्रेम की अभिनव कविता का प्रणयन होता है। दो जीवात्माओं का मधुमय जीवन-संगीत !

हठात् संगीत का स्वर खण्डित हो गया। छन्द भंग हो गया। नीला ने अनुभव किया कि बेनोया इसे नहीं स्वयं से प्रेम करता है। अन्य पुरुषों से इसमें कोई पार्थक्य नहीं है। बोदे लेयर की कविता। ओ मालाबारेर मेये’ में प्रश्न था हाय रे दुलाली, कैनो बेछिनिलि आभादेर एइ। जनकातर फ्रांस जेखाने धुःखेर शेष नेई !’’ नीला इस कविता की आवृत्ति करती है। किन्तु कविता में अभिव्यक्ति विषादमय भाग्य (नियति) को स्वीकार नहीं करती। अभिघात, अपमान वेदना को धूल की तरह झाड़कर नीला फिर खड़ी हो जाती है।

दमदम से शार्ल द गोन

लाल बनारसी साड़ी, नाक, कान, गले और हाथों में सोने के गहनों से सजी लड़की हवाई-जहाज से उतरकर दाएँ-बाएँ, सामने-पीछे देखते हुए चलायमान सीढ़ी पर झटके खाती हुई, उधर चल दी जिधर बहुत से लोग जा रहे थे; जहाँ शोरगुल सुनाई पड़ रहा था। शोर एक कोने में बन्द हो गया था-एक के पीछे एक करके लम्बी सर्पाकार पंक्ति थी। जैसे राशन की दुकानों पर दाल आदि मिलती हैं ना ! लाइन छोड़कर लड़की भी आगे जाना चाहती है। आदमी कह रहे थे-‘‘ओ लड़की ! ओ लाल साड़ी ! पीछे जाओ, पीछे जाओ।’’ लड़की थूक से होठ तर करती हुई पीछे चली जाती है-सबसे पीछे, सर्वहारा के बीच।
सर्पाकार पंक्ति जल्दी-जल्दी आगे बढ़ती है।
केवल अन्तिम हिस्सा अटका हुआ है।

लड़की माथे के कुमकुम, माँग का सिन्दूर, भीगे हुए अधरों के साथ, दो के सामने जा खड़ी होती है-एक काला और दूसरा गोरा। लड़की काले को छोड़कर गोरे व्यक्ति की तरफ बढ़ती है, मानो अमावस्या को पाँवों से रौंदती हुई ज्योत्स्ना की तरफ। काला पुकारता है ‘ओ लड़की ! ओ लाल साड़ी ! इस तरफ !’ लाल साड़ी कान से सुनती है पर समझती नहीं। गौरवर्ण के सामने त्रिभंग होकर खड़ी हो जाती है-सुविनीत सुस्मिता ! क्या देवी दुर्गा की तरह नहीं लग रही ? एक बार नज़रें उठाती है। देवी के लिए गौरवर्णी का कोई महत्त्व नहीं। गोरा आदमी नज़र नहीं उठाता। काले की तरफ इशारा करता है। लाल साड़ी वाली लड़की के कानों में समझ का चाहे दोष हो, दृष्टि में दोष नहीं है। दो क़दम बायीं तरफ़ जाते ही सामने काला ! बाएँ जाने में उसके पाँव नहीं उठते, मन भी नहीं हटता।

काला तो ठहरा काला ही। ऊपर से गजदन्ती ! लड़की ‘’हिश्श्’ करती है। ‘पासपोर्ट।’ गजदन्ती का गम्भीर स्वर गमगम करता है। लड़की गहरे नीले रंग का पास-पोर्ट काले के सामने रख देती है। अजगर का सिर, छाती, पेट पकड़कर लोग जिस तरह पार चले जाते हैं। गजदन्ती खप से पकड़कर गप से हैट में रख लेता है। सियार का काला बच्चा-भारतीय मगरमच्छ का बच्चा ! मानो यक्ष का धन पा लिया हो। टोप को आगे, पीछे अन्दर से देखते-देखते लड़की काले की लाल जिह्वा से लार टपकते देखती है।
‘टिकट....’’ फिर आवाज़ आयी।

इस बार टोप नहीं था। लड़की काले की हथेली पर दो टिकट रख जेती है-‘दमदम, शार्ल द गोल, दमदम’-बाईस फ़रवरी-इक्कीस मार्च निन्यानवे !
मगरमच्छ का बच्चा मशीन में चला जाता है-एक बार, दो बार, तीन बार।
‘‘यहाँ क्या करने आई हो ?’’ बुड़बड़ाहट !
‘‘गृहस्थी बसाने...’’ सूखे अधर हिलते हैं।
‘‘किस होटल में रहोगी ! नाम क्या है...’’ बुड़बुड़ाहट
पिता के होटल से निकलकर स्वामी के होटल में जाएगी-लाल साड़ी।
एक होटल से दूसरे होटल में, जीवन-यापन के लिए।
‘‘पता...’’ बुड़बुड़ाहट।

काग़ज का एक पुर्जा काले की हथेली पर रख देती है-एक सौ बारह रु. द फूबो सानदानी, पेरिस सात पाँच शून्य एक शून्य।
‘‘मनी कितना है। फिर बुड़बुड़ाहट। दो सौ डॉलर हथेली में बन्द हो जाते हैं।
‘‘और कितने हैं....!’’
लड़की झोले में हाथ डालकर रेज़गारी तलाश करती है...बासी फूल, फटी हुई चिट्ठी, दो बटन और मूँगफली का ठोंगा। अध-खाया सन्तरा, साथ में बारह सौ पचीस रुपए मिलते हैं।
‘‘रुपए...?’’
‘‘हाँ...रुपए...भारत के रुपए’’ लड़की का स्वर तीखा।
गजदन्ती ने ऐसे सिक्के नहीं देखे थे। गौरवर्णी की नज़र रुपयों पर पड़ी। नाक सिकुड़ गयी मानो कचरे के ढेर से दुर्गन्धपूर्ण विष्ठा लाकर रख दी गई हो।

लड़की के पीछे-पीछे लम्बी सर्पाकार लाइन ‘हिस्स’ करती हुई। अजगर की मानिन्द लम्बी लाइन-हाँसफाँस करती हुई लोगों की छाती, शरीर को जलाती हुई। कि यह ‘लाल’ मुसीबत सामने न होती तो बहुत पहले लाइन तोड़ देती। उनकी तरह लकड़ी ख़ुद को भी मुसीबत सोचती है।
गौरवर्णी सफ़ेद चिबुक हिलाकर, गोरी अँगुली उठाता है। ‘‘एइ लाल साड़ी ! तुम उस कोने में जाकर खड़ी होओ।’’
मुसीबत टल गई...कोने में।
नई सर्पाकार पंक्ति फिर बन जाती है। वही सिरा, वही पूँछ। किसी का भी पास-पोर्ट मशीन में नहीं डाला गया। किसी के झोले में हाथ नहीं डाला गया। रुपए नहीं निकाले गए। किसी को कोने में नहीं भेजा गया-लड़की के अतिरिक्त। लड़की एक कोने में। लड़की सोचती है, जाने किस चिड़ियाखाने का पिंजरा है। अदृश्य पिंजरे के अन्दर लड़की को देखते हैं-काली आँखें, काले केश, काले रंग की विचित्र जीव ! लड़की ज़मीन पर आँखें गड़ाए रखती है। अपराधी की तरह।

अजगर रूपी पंक्ति के अन्त तक गजदन्ती जब गोरे की तरफ़ झुककर हँसता है, तो लड़की दो क़दम आगे बढ़कर, सीमा तोड़कर पार कर लेते गौरवर्णी से खुशामद के स्वर में कहती है, ‘सब चले गए...मैं नहीं जाऊँगी ?’’ सुनते ही गौरवर्णी दाएँ-बाएँ सिर हिलाता है। सिर हिलाता रहता है...यानि तुम नहीं जाओगी या कि गौरवर्णी के मन में गीत की कोई पंक्ति आ रही है जिसे स्वर न देना उसके लिए सम्भव न हो।
गौरवर्णी का सिर हिलते देख गजदन्ती काँच के कमरे से बाहर आया ‘‘चलो...।’’ बड़बड़ाहटा।
गजदन्ती ठहर जाता है। काँच के नहीं-इस्पात के एक कक्ष में पीछे-पीछे लाल साड़ी। कमरे में दो कुर्सियों पर नीली पोशाकों में दो गोरे आदमी-एक प्रौढ़ दूसरा युवा। प्रौढ़ व्यक्ति के हाथ में यक्ष का धन सौंपकर गजदन्ती निकल जाता है। युवक हँस रहा था। लड़की को देखकर हँसी, प्रसव की वेदना की तरह अधरों में ही अटकी रह गई। प्रौढ़ ठहरा नपुंसक, प्रसव-वेदना कहीं नहीं...नाक, गाल, नेत्रों में। बल्कि इस्पाती चेहरे पर कोई हाव-भाव नहीं कि धक्का दो तो हड्डियाँ तो चकनाचूर होंगी ही, अँगुलियाँ भी टूट जायेंगी...कुछ इस तरह।

प्रौढ़ व्यक्ति टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोला, ‘‘फ्रैंच जानती हो ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्या जानती हो...?’’
‘‘अंग्रेजी।’’
‘‘अंग्रेजी नहीं चलेगी।’’
लड़की इस्पात की दीवार के सहारे टिक गयी। आश्चर्य से कभी दाएँ देखती...कभी बाएँ।
संसार के किसी कोने में अंग्रेजी भाषा का व्यवहार नहीं होता इसको गुमान नहीं था। कलकत्ता निवासी के लिए होश सँभालते ही सभ्य और सभ्य होने के लिए अंग्रेजी जानना ज़रूरी होता है। उसका विश्वास था कि सभ्य लोग, चाहे किसी भी देश के हों....अनर्गल चुस्त अंग्रेजी बोलते हैं।
‘‘तुम्हारी अपनी भाषा क्या है ?’’ प्रौढ़ ने तीखे स्वर में पूछा।

‘‘बांग्ला ।’’ लड़की क्षीण स्वर में कहती है।
‘‘बांग्ला से नहीं चलेगी।’’ लड़की यह सुनने के लिए प्रस्तुत थी। लड़की को निराश करता हुआ प्रौढ़ बोला, ‘‘दुभाषिया की व्यवस्था करनी होगी।’’
दुभाषिया लड़की को प्रश्न-बाणों से जर्जरित कर देगा।
सन्तोषजनक हुआ तो विचार-मंडल उसे मुक्त करने की घोषणा कर देगा, अन्यथा जहाँ का माल-वहाँ भेज दिया जाएगा।
कठोर और प्रसव-वेदना से पीड़ित दो आँखें लड़की को सिर से पाँव तक घूर रही हैं। दोनों आँखें ज़रा बन्द करके वह लड़की को एक कुर्सी पर बैठने का संकेत देता है। बनारसी साड़ी, माथे पर सिन्दूर का कुमकुम, सूखे होठ लिये वह कोने की कुर्सी पर जा बैठती है। वहाँ तीन चेयर पड़ी हैं। दीवार से सटी हरे रंग की एक कुर्सी पर लम्बा चोगा पहने एकदम काले रंग वाला व्यक्ति बैठा है। उसके सिर पर घने बाल ही नहीं बल्कि जटा-सी है। एक चेयर छोड़कर लड़की बैठ जाती है। आदमी ज़िराफ़ी गरदन बढ़ाकर खरखरे स्वर में कहता है, ‘मैं सेनेगालि का...तुम ?’’

लड़की अनसुनी करती है। नज़रें इस्पात की दीवार पर टिकी हैं। खड़े हुए लोगों का कर्कश स्वर रुकने का नाम नहीं ले रहा। ‘तुम किस देश की हो ?’’
दीवार पर नज़रें जमाए, फीका स्वर हवा में उड़ा देती है....‘‘मैं सेनेगालि की नहीं हूँ।’’
‘‘सेनेगालि की नहीं...’’ कहने से अहंकार की एक चिड़िया उड़कर उसके बाएँ कन्धे पर बैठ गई। लड़की बायाँ कन्धा हिलाना तक नहीं चाह रही। कन्धा बिना मोड़े तिरछी नज़रों से खड़े हुए लोगों के कद, आकार प्रकार से अधिक बड़े से बैंगनी रंग का बैग देखती है जो बुने हुए हैंड बैग से गन्दी बोतल निकाल कर पीठ पीछे हिप्पोपोटोमस के सिर पर बोतल उँड़ेल देता है। पानी की आधी बोतल उस पर गिर पड़ती है। ज़िराफ़ी गरदन वाला फिर लड़की की तरफ़ आया, ‘‘पानी पियोगी ?’’
‘‘नहीं।’’

ज़िराफ़ी का स्वर फिर उभरा। ‘‘तुम्हारा पासपोर्ट नकली है क्या ?’’
‘‘नहीं....’’ आवाज़ में चिढ़न थी।
‘‘तुम चीन देश की हो ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘समझ गया...पाकिस्तानी !’’
लड़की उठ खड़ी होती है। कन्धे की चिड़िया कन्धे पर रही।
दीवार का सहारा लेकर दीवार की तरफ़ एकटक देखती रहती है। कमरे में एक गोरे आदमी के घुसते ही लड़की की नज़रें उठती हैं। गौरवर्णी सेनेगालि के पास वाली चेयर पर बैठता है। लड़की कन्धे की चिड़िया गोरे की तरफ़ उड़ाती है। ज़िराफ़ी निश्चिन्त होकर पास आ बैठता है। गोरे के तेल से चीकट कपड़ों से पेशाब की बदबू आ रही है। वही दुर्गन्ध आराम से सूँघता हुआ वह पूछता है, ‘‘तुम किस देश के हो ?’
‘‘रुस।’’

फिर दुर्गन्ध....‘‘तुम्हें किसलिए रोक रखा है ?’’
आदमी हँसकर पीले दाँत निपोरता हुआ उत्तर देता है, ‘‘मॉस्को।’’
ओह...अच्छा तो तुम मॉस्को में रहते हो ?
वह ‘नहीं’ में सिर हिलाता है।
‘‘मालूम है....मेरे एक चाचा मॉस्को गए थे। बड़ा सुन्दर शहर है। मेरे दादा (बड़े भाई) तो शायद अगले वर्ष मॉस्को घूमने जाएँगे।
आदमी पीले दाँत निपोरता है।
पेशाब की दुर्गन्ध में लड़की की नाक फिर डूब जाती है।
‘‘मैं भारत से आई हूँ। तुम कभी भारत गए हो ?’’
आदमी ‘नहीं’ में सिर हिलाता है।

पेशाब की दुर्गन्ध से हटकर कहती है, ‘‘वाह...किस शहर गए हो बताओ तो..कलकत्ता गए हो ?’’
आदमी उत्तर देता है..पेरिस।
‘‘ओह, तुम पहले भी पेरिस आए हो ? मैं पहली बार...।’’ लड़की उत्तर की आशा नहीं कर रही थी किन्तु उत्तर आया-‘मॉस्को’ लड़की अब नाक, मुँह ढँक लेती है। इसके तीसरे प्रश्न का उत्तर क्या होगा आसानी से अन्दाज़ा लगा सकी थी। प्रश्न के लिए कितनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, मालूम है ?

...ब्लादिमिर अलेक्ज़ैण्ड्रोविच स्वोलिन्स्कोविच ! इधर प्रसववेदना कहने की इच्छा और इस्पात मिलकर गड़बड़ बड़बड़ करके फ्रेंच बोलता रहा तो लड़की को एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा था। एक घंटा पैंतालीस मिनट बाद नीले पोशाक में एक आदमी तीन आसामियों की तरफ़ चेयर घुमाता है। लाल साड़ी की तरफ़ निर्देशात्मक अँगुली उठाता है। साफ़ अंग्रेजी में कहता है। ‘‘तुम्हें वापस जाना होगा...अपने देश...समझ गईं ?’’ युवक के चेहरे पर अब कुछ कहने की इच्छा शेष नहीं थी। मस्तक पर तीसरा नेत्र खुल गया था, वह भी निश्चित है।

लड़की भयभीत हो, खड़ी हो गई। ‘‘दुभाषिये की बात कह रहे थे उसका क्या हुआ ?’’
‘‘दूभाषिया मिला नहीं।’’
लड़की अपने पास-पोर्ट, टिकट आदि यक्ष के धन की तरह वापस मिलने की प्रत्याशा कर रही थी कि नीली पोशाक वाला कठोर प्रौढ़ एक और गौरवर्ण को लेकर कमरे में घुसा। वह चुइंगम चबा रहा था। वह सिर पाँव तक निरीक्षण करता है, पलकें तक नहीं झपका रहा। तीसरा नेत्र भी खुला है।
चुइंगम चबाते-चबाते, लड़की से पूछता है, क्या नाम है ?’’
‘‘किसका ?’’

‘‘तुम्हारा।’’
‘‘नीलांजना मंडल।’’
‘‘पेरिस क्यों आयी हो ?’’
‘‘गृहस्थी करने।’’
‘‘किसके साथ।’’
‘‘स्वामी के साथ।’’
‘‘स्वामी का नाम क्या है ?’’
‘‘किशनलाल।’’
‘‘आयु।’’
‘‘ठीक से मालूम नहीं, मुझसे दसेक वर्ष बड़े होंगे ?’’
‘‘तुम्हारी उम्र क्या है ?’’
‘‘सत्ताइस।’’

‘‘वह यहाँ कितने दिन से हैं।’’
‘‘कौन !’’
‘‘तुम्हारा स्वामी।’’
नीलांजना गरदन हिलाकर कहती है, ‘‘....शायद पन्द्रह वर्ष से।’’
‘‘तुम्हें ठीक-ठीक नहीं मालूम ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘वह उसी देश का नागरिक है ?’’
‘‘यही सुना है।’’

‘‘करता क्या है ?’’
‘‘सुना है व्यवसाय करता है।’’
‘‘सुना है..पक्का नहीं मालूम ?’’
‘‘किसने कहा है कि वह तुम्हारा स्वामी है ?’’ होठों के कोने में चुइंगम अविश्वास की झलक देता है।
नीला दाएँ-बाएँ देखती, विनीत स्वर में कहती है, ‘‘मैं कह रही हूँ एक महीना पहले हमारा विवाह हुआ है।’’
‘‘सरनेम (पदवी) तो एक नहीं है।’’ चुइंगम वाले अधरों से अविश्वास दाहिनी आँख पर आ बैठता है।
‘‘एक नहीं है...कारण...’’नीला थूक निगलती है।

‘‘क्यों ?’’
‘‘मैंने जान-बूझ कर पति की पदवी अंगीकार नहीं की।’’
नीला की छाती धड़क रही थी। इसके पति-परमेश्वर ने तो कभी नहीं बताया कि एक ही ‘सरनेम’ न हो तो सर्वनाश ! कहा था नाम-पता रखो, विवाह का कागज हाथ में रखो, यों ज़रूरत तो नहीं है, पर सावधान व्यक्ति कभी मार नहीं खाता। कानून सम्मत पास-पोर्ट कानून सम्मत वीसा और क्या चाहिए।
न माँगने पर भी नीला झोले के अन्दर हाथ डाल कर लम्बा काग़ज़ निकाल कर कहती है, ‘‘यह देखो...हमारे विवाह का सर्टिफ़िकेट !’’

‘‘किसके विवाह का...?’’ इस्पातमुखी पूछता है।
काग़ज इस्पातमुखी की तरफ़ बढ़ाते हुए नीला कहती है, ‘‘मेरा और किशनलाल का।’’
युवक काग़ज पर एक नज़र डालता है। हाथ में नहीं लेता बल्कि झपटकर ले लेता है। चुइंगम वाला कम प्रौढ़वपसी व्यक्ति कुछ क्षण इस्पातमुखी से जल्दी-जल्दी कुछ कहता हुआ नितम्ब हिलाते-हिलाते पीछे-पीछे चला जाता है। अब कितनी देर इस कोने में बैठना होगा, जानने के लिए वह युवक की तरफ़ देखती है। कमवयसी की स्थूल भंगिमा नीला को आशा या निराशा का संकेत नहीं दे रही। उसके बाद वही कोना वही प्रतीक्षा। अब ब्लादिमिर अलेक्ज़ैन्द्रोड्रोविच नीला के दिमाग में घूमता रहता है। नीला को लगता है कि इस्पात के कमरे में बैठे-बैठे ही इसका जीवन बीत जाएगा। अपना अस्तित्व भी क्रमशः दुर्वह होता जा रहा है, न कमरे से बाहर जा सकती है न एक जगह बैठी रह सकती है। वह उठ खड़ी होती है। कमरे में टहलती है, नज़रें दरवाजे पर जमी हैं। छुटकारा दिलाने के लिए कोई आएगा इस उम्मीद में। युवक इशारे से स्थिर बैठने को कहता है। स्थिर तो वह अवश्य हो जाती है किन्तु उस स्थिरता में अस्थिरता दुगनी दौड़ लगाती है। अन्नतः इस कोने से नीला दूर चली जाए तो बच जाए। चाहे कलकत्ता हो....कलकत्ता।

दो एक कदम बढ़ाकर वह युवक से पूछती है, ‘‘अपना सूटकेस वगैरह कहाँ से लूँगी ? किस हवाई जहाज से लौटना होगा-इसका कुछ प्रबन्ध किया है ?’’
युवक कोई उत्तर नहीं देता। मानो यह कोई प्रश्न ही नहीं। या फिर कोई प्रश्न करने का अधिकार किसी अन्य को चाहे हो, नीला को नहीं है।
‘‘मुझे लेने के लिए मेरे स्वामी के आने की बात थी। वे अवश्य बाहर प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उन्हें यहाँ बुलवाया जा सकता है ?’’ जिसे लक्ष्य करके नीला कहती है, वह मुँह का एक कोना बड़े यत्न से खोलता है, चिमटी से काले तम्बाकू की गोली लेकर, बाएँ हाथ से ऊपर का होठ खींचकर चिमटी से तम्बाकू की गोली मुँह में डाल देता है। उसके नथुने फूल उठते हैं। कोई आवाज़ नहीं केवल नाक से गड़गड़ की आवाज़ और सेनेगालि की काली कमर भड़भड़ करती है। सेनेगालि काली पीठ सीधी करके कई क्षण खड़ा रहता है। पीठ को दाएँ-बाएँ घुमाता है। कमर सीधी करता है। पीठ की हड्डियाँ चटखती हैं तब वह पीठ को निस्तार देता है साथ-साथ नीला को भी। सेनेगालि झुककर उसी गन्दी बोतल में हाथ डालता है और हिप्पोपोटोमस जैसे मुँह में निमिष मात्र में बोतल खाली हो जाती है।

नीला को भूख और प्यास निगल रही थी। ‘बन-बन’ ‘सनसन’ करके हवा नहीं, सिर घूम रहा था।
किसके कन्धे पर सिर रखे स्तानिस्लाविस्क का कन्धा ही उसके कन्धे पर पिंग-पौंग बॉल की तरह बार-बार पड़ रहा था। पेशाब की दुर्गन्ध और भी तीव्र होकर नाक से सिर तक जा रही थी। सिर को गरदन से अलग करके फेंक देने की इच्छा हो रही थी। फेंकें भी कहाँ-इस्ताप की दीवार पर ! नीला सोचती है, क्या ज़रूरत थी। कहाँ का कोई किशनलाल न जान न पहचान। झट से ब्याह कर बैठी। कलकत्ता साँय-साँय कर रहा था। कलकत्ता न छोड़ती तो नीला क्या मर जाती ! ब्याह न करके भी वह शहर छोड़ सकती थी, दिल्ली या बम्बई कहीं भी जा सकती थी, कहीं बहुत दूर, सुशान्त की गन्ध, वर्ण से योजनों दूर !

‘अच्छा....कोई मुझे एक गिलास पानी दे सकती है ?’ नीला खुद से प्रश्न करती है और खुद ही उत्तर देती हैं-‘नहीं हममें से कोई भी तुम्हें एक गिलास पानी नहीं दे सकता।’
इस तरह एक ही जगह खड़े रहने या बैठने का अभ्यास नहीं था नीला को-विशेषकर यदि इन्तज़ार करना हो। सुशान्त के लिए भी उसने इतना इन्तज़ार नहीं किया था। वास्तव में प्रयोजन ही नहीं हुआ। जहाँ भी मिलते सुशान्त ही पहले आ जाता। सुशान्त ही...।’ सिर और चकराने लगा, मानो केवल सिर ही नहीं बल्कि सुशान्त एक बोझ-सा उसके दिमाग में फिर बस गया था।

सिर भारी बोझ से चकरा कर लगभग गिरने को हुआ जब नज़रों के सामने सेनेगालि को मुक्त कर दिया गया और वह बैंगनी थैला कन्धे पर डाल हँसता, खाँसता अदृश्य हो गया। नीला का हाथ पकड़कर झोला उठाकर हिडहिड बड़बड़ाया। उसे खींचकर इस्पात के कमरे में बैठा देता है और खुद गायब हो जाता है कन्धे पर चिड़िया लिए।
काला आदमी तो चला ही गया था। ‘‘मेरा क्या दोष है’’...नीला पूछती है। कोने से नीला प्रश्न करती है...‘‘गोलमाल कहाँ हुआ है सूनूँ ज़रा...मेरा क्या दोष है।’’ नीला पूछती है।
युवक उत्तर नहीं देता।
‘‘मेरा वीसा क्या नकली है ?’’
कोई उत्तर नहीं मिलता।
‘‘रुपए पैसे खोटे हैं ?’’

युवक चीख उठता है, ‘‘एइ लाल साड़ी ! ज़्यादा बकबक मत करो।’’ लाल साड़ी मुँह में ताला लगा लेती है।
जिसके हाथ में यक्ष का धन था, वही प्रौढ़ वापस आता है साथ में चुइंगम चबाता हुआ आदमी। अब वह चुइंगम नहीं खा रहा था। उसके माथे की तीसरी आँख भी निश्चिह्न थी। नीला के हाथ में एक-एक करके टके डाल दिए गए। एक और काग़ज भी आ पड़ा। काग़ज़ मायने ‘प्रश्नपत्र’। स्कूल-कॉलेजों जैसे बहुतेरे प्रश्नपत्र उसने हाथों में लिए हैं, यह कोई नई बात नहीं थी। अब इसे विवृत होना पड़ेगा कमवयसी लोगों के सामने।

भौंहे नचाकर कमवयसी कहता है, ‘‘अच्छा तो छुटकारा मिल गया। सौभाग्य ही कहना चाहिए।’’....
कमवयसी के नथुने और नाक के निचले हिस्से की तरह होठ भी फूल रहे थे। फूले हुए होठ उसकी उसी पुरोहिताई का संकेत देते हैं। उसके पौरोहित्य की हद पार करते-करते समय हवा में उड़ता जा रहा था। फिर वही काँच का कक्ष और वही गजदन्ती। गजदन्ती के हाथ का पूरा किया हुआ फ़ालतू काग़ज़ आगे बढ़ा देती है जहाँ बहुत से और एग्रीमेंट दिए जा रहे थे कि जो कह रहे हैं सच कह रहे हैं, महीना पूरा होने से पहले ही सही सलामत इस देश से चली जाऊँगी। इस देश में रहने के लोभ से चालाकी का आश्रय नहीं लूँगी, कि लिया तो चाहे जो दण्ड विधान हो, शरीर से, मन से, वरण कर लूँगी।

शरीर का रंग बादामी, बनारसी लाल साड़ी, माथे और माँग में सिन्दूर की रेखा, सोने के गहने। पास पोर्ट, रेज़गारी छिपाते-छिपाते सोच रही थी नीला। पासपोर्ट भिक्षा में मिला है...यह भिक्षा न भी मिलती। करुणा न भी मिलती, फिर वही पुराना कलकत्ता। वही सड़कें, वही आकाश, वही बादल देखते-देखते उसे उसी देश में लौटना पड़ता जहाँ से इसे एक तरह से हमेशा के लिए विदा कर दिया गया है। भिखारी नीला अकेले दो सूटकेस लेकर जब बाहर आई, सवेरे से दोपहर फिर अपराह्न और सन्ध्या हो गई।

किशनलाल तब भी खड़ा था, सुनील और चैतालि भी। नीला को देखते ही तीनों अधमरे से दौड़कर लगभग उसके ऊपर ही जा पड़े। किशनलाल सूटकेट ट्राली पर रखकर भारी बूट टाई सूट ऊपर से ओवरकोट पहने सामान की ट्राली ठेलते-ठेलते बोला, ‘‘क्या हुआ ?’’ इतनी देर क्यों हो गई। सवेरे से बैठा हूँ।’’
घटक सुनील-लम्बा, गोरा रंग-हँस कर बोला, ‘‘मैंने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी।’’ माथे पर सिन्दूर की बिन्दी ठीक करते हुए चौताली बोली, ‘‘आह ! कितनी घकापेल नहीं हुई।’
एयरपोर्ट से निकलते ही ठंडी कनकनी हवा नीला की हड्डियों-भुजाओं में घुल गई चैतालि ने अपने गरम कोट से नीला को ढँक दिया। शरीर गरमाते ही नीला का रोम-रोम आनन्द की चादर बुनने लगा।



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