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तट की खोज

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2876
आईएसबीएन :9789350000571

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एक गरीब परिवार की कथा का वर्णन...

Tat Ki Khoj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक दिन किसी विवाह के इच्छुक वर के पिता मुझे देखने आये। आशा और निराशा के बीच झूलते पिताजी तीन दिन से घर की तैयारी कर रहे थे। मकान की सफाई की गई, सजावट की गई, साथ ही मुझे भी सजाया गया। ऐसे अवसर पर घर में किसी वृद्धा का होना आवश्यक है, इसलिए मेरी एक दूर के रिश्ते की फूफी को तीन दिन के लिए इस घर में बसाया गया।
मेरी परीक्षा का दिन आया। सबेरे से घर में बड़ी हलचल मच गई। वृद्धा फूफी ने मेरा श्रृंगार किया और मुझे उन लोगों के सामने कैसे चलना चाहिए, कैसे बात करनी चाहिए, यह सब सिखाया गया। कुछ मामला ऐसा था जैसे मदारी बन्दर को नाना प्रकार के हाव भाव सिखाए, ताकि वह दर्शकों को प्रसन्न कर सके। जब वे लोग भोजन करने बैठे तो पिताजी ने यह बताते हुए कि यह पकवान मेरे ही बनाए हुए हैं, मेरी पाक विद्या की प्रशंसा की, उन्होंने टेबिलक्लाथ की ओर देखा तो उन्होंने बताया कि यह मेरी कला है। द्वार की झालरों की ओर उनकी दृष्टि गई तो उनसे तुरन्त कहा गया कि वह भी मेरी ही कला है। कोने में रखा हुआ सितार ऐसी जगह रख दिया गया कि जहाँ उनकी दृष्टि उस पर सहज पड़ जावे और उन्हें यह विदित हो जावे कि मैं गान विद्या में भी निपुण हूँ।

यह सब चलता रहा। स्वभाव से ही शांत, पिताजी बालक की तरह चंचल, और वाचाल हो गये। उनकी यह हालत देखकर मेरा मन उनके प्रति करुणा से भर गया। उनका मुख उस समय बड़ा दयनीय हो गया था। थोड़ी देर बाद वे लोग अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चले गये। शाम को पिताजी बड़ी आशंका से उनका निर्णय सुनने के लिए वहाँ गये, जैसे विद्यार्थी परीक्षफल सुनने से डरते हैं।

 

भूमिका

 

 

मैं आज भी नहीं समझ पाता कि ‘तट की खोज’ बहुत साल पहले मुझसे कैसे लिखा गया। यह एक ऐसी कहानी है जिसे लघु उपन्यास कहा जाता है। मूल घटना मुझे अपने कवि मित्र ने सुनाई थी। वे काफी भावुक थे। मेरी उम्र भी तब भावुकता की थी। कुछ रूमानी भी था। तार्किक कम था। तभी तगादा लगा था ‘अमृत प्रभात’ के दीपावली विशेषांक के लिए किसी लंबी चीज़ का। जल्दी का मामला था। मित्र ने जो घटना सुनाई थी वह मेरे मन में गूँज रही थी। मेरी संवेदना कहानी की उस लड़की के प्रति गीली थी। मैंने दो रात जागकर इसे लिख डाला।

लिखकर पछताया। छपा तब और पछताया। और अब जब यह वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हो रहा है तब भी मैं पछता रहा हूँ। अब मैं इस रचना का सामना नहीं कर सकता। मेरी एक तिहाई रचनाएँ ऐसी हैं जिनका सामना करते मैं डरता हूं। बहरहाल ‘तट की खोज’ फिर से प्रकाशित होने दे रहा हूँ।

 

-हरिशंकर परसाई

 

तट की खोज

 

 

बच्चों की पुरानी स्कूली किताबें, जब किसी काम की नहीं रह जाती, तब पिता उन्हें आलमारी में बंद कर, ‘होम लायब्रेरी’ कहकर सन्तोष कर लेता है। सामान्य आदमी, जब बेटी का विवाह नहीं कर पाता, तो कालेज में दाख़िल करा, ‘अभी पढ़ रही है’ कहकर संतोष कर लेता है। हाँ, किताबें कभी-कभी मिट्टी के मोल कबाड़ी को भी बेच दी जाती हैं। लड़की का विवाह भी, घबड़ा कर, कभी-कभी ऐसे के साथ कर दिया जाता है, जिसकी लकड़ी मरघट पहुँच चुकी होती है। हमारे समाज में यदि कोई बूढ़ा इसलिए शादी करना चाहे कि उसके मरने पर अर्थी पर चूड़ियां फोडऩे की कोई हो, और ताजा सिंदूर किसी का पुछे, तो वह मरण-शय्या पर भी मजे में विवाह करने की सुविधा पा सकता है।

अपने कालेज में देखती, कि विद्या-प्राप्ति के लिए 100 में से 10 ही पढ़ती हैं। शेष इसलिए पढ़ती हैं, कि पढ़ना उनकी मजबूरी है। शिक्षा उस पॉलिश की तरह प्रयुक्त होती है, जो चीज़ को चमकदार बनाता है तथा ग्राहक को आकर्षित करता है। जब तक पिता कोई वर तलाश न कर ले, तब तक वे बेचारी कालेज के ‘वेटिंग रूम’ में बैठी बैठी इन्तज़ार करती रहती हैं। लड़की के कालेज में पढ़ने से पिता कुछ समय के लिए जिल्लत से बच जाता है। लोगों से यह कहने के बदले कि विवाह नहीं हो पा रहा है, वह यह कह सकने की सुविधा पा लेता है कि अभी पढ़ रही है। ऊपर से सुन्दर लगने वाला यह वाक्य जिस कलेजे से निकलता है, उसमें दमाड़ लगी रहती है। वह जानता है कि वह झूठ बोल रहा है। अगर ठीक इम्तहान के बीच कोई विवाह करने को कहे, तो पिता लड़की का इम्तहान छुड़ाकर तुरन्त शादी कर देगा।

मैं बी.ए. में पढ़ रही थी। मैं सोचती थी कि पढ़ रही हूँ, पर यथार्थ में किसी छोटे स्टेशन के मुसाफिर की तरह किसी गाड़ी का इन्तज़ार कर रही थी, जो मुझे उठा कर ले जावे। छोटे स्टेशनों पर बड़ी गाड़ियाँ तो रुकती नहीं; हरी झंडी दिखा कर उपहास की सीटी देकर, चली जाती हैं। छोटी गाड़ियाँ रुकती हैं, पर वे लेट होती हैं। उनमें भीड़ भी होती है, और धक्का-मुक्की में किसी को जगह मिलती है और कोई रह जाता है। कई गाड़ियाँ सामने से निकल गईं, सोचा कि प्लेट-फार्म पर कब तक बैठेंगे चलो मुसाफ़िरख़ाने में चल कर इन्तज़ार करें- याने मैंने कालेज में नाम लिखा लिया।

इतने वर्षों के बाद, जब आज उस समय की स्थिति को देखती हूँ, तब यह समझ में आता है। उस समय मेरे मन में किसी प्रकार की हीनता नहीं थी। वह ऐसी अवस्था थी, जब जीवन सतरंगी परिधान धारण किये आता है। ऐसी अवस्था, जिसमें हीनता और निराशा को कोई स्थान नहीं होता। मैं खूब मन लगा कर पढ़ती थी। बड़ी प्रतिभा-शालिनी मानी जाती थी। मैट्रिक और इंटर दोनों प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किये थे। अपने मित्रों तथा परिचितों में मेरी प्रतिभा का बड़ा आतंक था। मैं सुन्दरी भी थी, ऐसा मुझे लगता है, क्योंकि सहपाठी तरुणों से लेकर मुँहबोले काका, मामा, दादा सब मुझे बड़ी लोलुपता से घूरते थे। कुछ लोग पिता जी से मिलने आते, तो वे पिता जी से बातें करने में ध्यान कम लगाते, परदे तथा किवाड़ के छिद्र में से मुझे देख सकने का प्रयास करने में अधिक। मेरी माँ नहीं थीं, इससे इस सब का शिकार मुझे अधिक होना पड़ता था। बिना माँ की जवान लड़की ऐसी फसल होती है, जिसका रखवाला नहीं है और जिसे वासना के उजाड़ू पशु चरने को स्वतंत्र हैं। पिता जी सरकारी रिटायर्ड नौकर थे और थोड़ी-सी पेंशन पाते थे।

मुझे विश्वास है कि वे ईमानदार थे। इसका सबसे बड़ा सबूत हमारी ग़रीबी थी। भलाई को हमेशा मुसीबत की ही गवाही मिलती है। ईमानदारी का दंड हम भुगत रहे थे–मेरा विवाह नहीं हो रहा था और पिता को चिंता के कारण नींद नहीं आती थी। माँ की मृत्यु पहिले हो गई थी, फिर जवान भाई हमें एक दिन छोड़ गया। पिता ने हृदय पर पत्थर रखकर दोनों आघात सहे और मेरे प्रति माँ, भाई, पिता तीनों के कर्त्तव्य निभाये। इतना जहर उन्होंने किस तरह पचाया होगा ! जीवन में कोई रुचि नहीं रह गयी थी, कोई आकांक्षा नहीं थी। जीवन के अंतिम समय में आदमी जिस सुख और शांति की आशा करता है, वह बड़े भाई की मृत्यु के साथ छिन गई थी। उनका जीवन अब एक मशीन की तरह हो गया था। मशीन को भी एक सुभीता होता है- उसमें चेतना नहीं होती-उसे सुख दुख की अनुभूति नहीं होती; लेकिन चेतन की यही मजबूरी है, कि जीवन के हर आघात से कराहना होता है। पिता जी को अब केवल एक काम करना था और वह था, कहीं मेरा विवाह कर देना। यही एक चिंता उन्हें थी। मैं बाईस से तेईस बरस की हो गई, तो उनके हृदय पर एक मन वज़न और बढ़ गया। वे जगह-जगह विवाह की बात चलाते, पर हर बार लड़केवालों की मांग उनके सामर्थ्य की सीमा लाँघ जाती। वे सब लोग हाथ में तराजू लिये थे, जिसके एक पलवे पर बेटे को रखे थे। मुझे, मेरी समस्त विद्या, बुद्धि और सौंदर्य के साथ दूसरे पलवे पर रख कर देखते, तो हर बार मेरा ही पलवा हल्का पाते। तब पलवे बराबर करने के लिए, मेरे साथ रुपयों का वज़न रखने को कहते। पिताजी जब ऐसा नहीं कर पाते, तब वे अपनी तराजू लेकर दूसरे द्वार पर पहुँच जाते।

मैंने उस विडम्बना को अनुभव किया है। फोटो-ग्राफर के सामने जब मैं बैठायी जाती, तब मेरी अंतरात्मा क्रोध और ग्लानि से भर जाती। मैं जानती थी कि यह फोटो माल के नमूने की तरह किसी व्यापारी के पास भेजी जावेगी। परन्तु दूसरी ओर से कभी चित्र नहीं आया, क्योंकि खरीददार ही माल की परख करता है; माल खरीददार को नहीं देखता। स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों में यही दर्शन सब जगह चरितार्थ होता है।

एक दिन किसी विवाह के इच्छुक वर के पिता मुझे देखने आये। आशा और निराशा के बीच झूलते, पिताजी तीन दिन से घर की तैयारी कर रहे थे। मकान की सफाई की गई, सजावट की गई, साथ ही मुझे भी सजाया गया। ऐसे अवसर पर घर में किसी वृद्धा का होना आवश्यक है, इसलिए मेरी एक दूर के रिश्ते की फूफी को तीन दिन के लिए इस घर में बसाया गया।

मेरी परीक्षा का दिन आया। सबेरे से ही घर में बड़ी हलचल मच गई। वृद्धा फूफी ने मेरा श्रृंगार किया और मुझे उन लोगों के सामने कैसे चलना चाहिये, कैसे बात करनी चाहिए, यह सब सिखाया गया। कुल मामला ऐसा था, जैसे मदारी बन्दर को नाना प्रकार के हावभाव सिखाये, ताकि वह दर्शकों को प्रसन्न कर सके। जब वे लोग भोजन करने बैठे, तो पिता जी ने यह बताते हुए कि यह पकवान मेरे ही बनाये हुए हैं, मेरी पाक-विद्या की प्रशंसा की, उन्होंने टेबिल-क्लाथ की ओर देखा, तो उन्हें बताया गया कि यह मेरी ही कला है। द्वार की झालरों की ओर उनकी दृष्टि गई, तो उनसे तुरन्त कहा गया कि वह भी मेरी ही कला है। कोने में रखा हुआ सितार ऐसी जगह रख दिया गया, कि जहाँ उनकी दृष्टि उस पर सहज पड़ जावे और उन्हें यह विदित हो जावे कि मैं गान-विद्या में भी निपुण हूँ।

यह सब चलता रहा। स्वभाव से ही शांत, पिता जी बालक की तरह चंचल और वाचाल हो गये। उनकी यह हालत देख कर मेरा मन उनके प्रति करुणा से भर गया। उनका मुख उस समय बड़ा दयनीय हो गया था। थोड़ी देर बाद वे लोग अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चले गये। शाम को पिता जी बड़ी आशंका से उनका निर्णय सुनने के लिए वहां गये, जैसे विद्यार्थी परीक्षा-फल सुनने से डरते हैं। बड़ी रात को वे लौटे और डबडबाये नेत्रों से फूफी को बताया कि उनकी आर्थिक माँग पूरी न कर सकने के कारण यह बात टूट गई। मुझे बात टूटने का कोई दुख नहीं हुआ, किन्तु पिता जी के हृदय के टूटने के कारण मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध हो गया और मैंने बड़े साहस से कहा, ‘‘इतनी अड़चन से विवाह करने की अपेक्षा नहीं करना अच्छा है, मैं विवाह नहीं करूंगी।’’ वे बोले, ‘‘बेटी, कहीं बिना विवाह के रहा जाता है।’’ मैंने उत्तर दिया, ‘‘जो बचपन में विधवा हो जाती हैं, वे भी तो जीवित रहती हैं।’’ उन्होंने यह कह कर बात टाल दी, कि वह बात दूसरी है।

मैं उनकी पीड़ा जानती थी, कि वे सदैव अँधेरे में ही उठ कर काँपते स्वर में ‘हरे राम हरे राम’ क्यों भजते हैं। उस स्वर में घायल पशु की कराह जैसी कातरता होती। वे मुझसे बोलना धीरे-धीरे कम करते जाते। घंटों बरामदे में बैठे शून्य आँखों से आकाश को देखते रहते। वे लोगों से मिलने-जुलने में बहुत हिचकते थे। एक प्रकार की विकृत मान्यता के शिकार वे हो रहे थे। जिसकी अविवाहिता पुत्री घर में हो, उसे कुछ इस दृष्टि से देखा जाता है, मानो उसने कोई घोर पाप किया हो, और समाज की यह हीन दृष्टि उस पिता को धीरे-धीरे अपनी ही नज़रों से गिराती जाती है। वह आत्मग्लानि और आत्म-पीड़न का शिकार होता जाता है।

मैं उनकी इस पीड़ा को देखती और उन्हें कुछ शांति देने के लिए कहती कि मैं विवाह नहीं करूँगी, पर वे मेरी बात नहीं मानते थे। और क्या मैं भी बिलकुल मानकर यह बात कहती थी ? मैं तर्क कर लेती थी, पर विश्वास नहीं कर पाती थी।
विमला से मेरी एक दिन इस बात पर चर्चा हो रही थी। मैंने कहा, ‘‘हमें बिना पैसे के कोई लेने को तैयार नहीं है, तो हमें विवाह करने से इनकार कर देना चाहिये। अगर हमारी एक पीढ़ी इसी प्रकार विद्रोह कर दे, तो लोगों की अक्ल ठिकाने आ जाए।’’

विमला ने कहा, ‘‘ऐसा करने से तो जाति ही समाप्त  हो जाएगी।’’ मैंने कहा, ‘‘प्रकृति को अगर मनुष्य जाति चलानी होगी, तो वह उसका कोई और साधन खोज लेगी। वनस्पति जगत में जैसे वह वायु या अन्य साधनों से उत्पादन क्रिया सम्पन्न कराती है, वैसा ही कुछ यहाँ करा देगी। और यदि मनुष्य जाति अपने को अस्तित्व के अयोग्य सिद्ध कर चुकी होगी, तो चिन्ता क्या ?’’

विमला मेरे तर्क के सामने ठहर न पाई। पर उसने एक ही जवाब दिया, जो बहुत मामूली था, पर जो मेरे समस्त तर्क-व्यूह को छिन्न-भिन्न करके हृदय तक पहुँच गया। उसने अजब स्वर में कहा, हाँ जी, जब तक कोई गुण-ग्राहक नहीं मिला, तभी तक बातें करती हो। जिस दिन कोई हृदय अर्पण करेगा, भाग्य सराहोगी और चुपचाप अनुगामिनी हो जाओगी।’’
गुण-ग्राहक मुझे मिला। उसके लिए मेरे मन में पहिले प्रणय जागा, फिर तीव्र घृणा। प्रणय को मैं ठीक तरह प्रगट नहीं कर पायी, पर घृणा को शक्ति-भर प्रगट किया। कभी-कभी प्रेम की अपेक्षा घृणा का संबंध अधिक मज़बूत होता है। मैंने सम्पूर्ण मन से उससे घृणा की, परन्तु फिर भी अभी जब मैं विगत जीवन में आये व्यक्तियों की कल्पना करने लगती हूँ, तो वही मुझे सबसे पहिले स्मरण हो जाता है। लगता है, घृणा और प्रेम में कोई विशेष अंतर नहीं है। दोनों लगभग समानार्थी हैं। दोनों में एक सी तीव्र प्रतिक्रिया होती है। लेकिन प्रेम और घृणा के विवेचन से कहानी का पथ नहीं रोकूंगी।

गली के मोड़ पर वह रहता था। हाल ही उस मकान में आया था। उसकी प्रशंसा सब ओर हो रही थी। लोग कहते, ‘बड़ा प्रतिभावान आदमी है; शुरू से आख़िर तक फर्स्ट क्लास ! यहाँ कालेज में पढ़ाता है।’ मैं भी यह सब सुनती थी। अनेक पिता उसकी ओर अपनी लड़कियों से अधिक लालयित नेत्रों से देखते। वह किसी सम्पन्न घर का था।

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